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श्रीभवचनसार भापाटीका । ..६६ ' अन्वय सहित विशेषार्थ-(तह) तथा ( सो आदा वह मात्मा ( सयमेव ) म्वयं ही (लद्धसहावः भूः ) स्वभावका लाभ करता हुआ अर्थात निश्चय-रत्नत्रय क्षणमई शुद्धोपयोगके प्रसादसे जैसे शात्मा सर्वका ज्ञाता हो जाता है वैसा यह शुद्ध आत्माके स्वभावका लाभ फरता हुआ (सव्यण्डू) सर्वज्ञ व (सव्व-" लोयपदमहिदो ) सर्व लोकका पति तथा पूजनीय ( हवदि) हो जाता है इस लिये वह (मयंभुत्ति) स्वयंभू इस नामसे (णिहिट्ठो कहा गया है। भाव यह है कि निश्चयसे कत्ती का आदि छः कारक आत्मामें ही हैं। अभिन्न कारककी अपेक्षा यह आत्मा चिदानन्दमई एक चैतन्य स्वभावके द्वारा स्वतंत्रता रखनेसे स्वयं ही अपने भावका कर्ता है तथा नित्य धानन्दमई एक म्वभावसे स्वयं अपने स्वभावको प्राप्त होता है इसलिये यह आत्मा स्वयं ही कर्म है । शुन्द चैतन्य स्वभावसे यह मात्मा आप ही साधकतम है अर्थात् अपने भावसे ही आपका स्वरूप झलकाता है इसलिये यह आत्मा आप दी करण है । विकार रहित परमानन्दमई एक परिणति रूप लक्षणको रखनेवाली शुद्धात्मभाव रूप क्रिया के द्वारा अपने पापको अपना स्वभाव समर्पण करने के कारण यह आत्मा आप ही संप्रदान स्वरूप है । तैसे ही पूर्वमें रहनेवाले मति श्रुत मादि ज्ञानके विकल्पोंके नाश होनेपर भी अखडित एक चैतन्यके प्रकाशके द्वारा अपने अविनाशी स्वभावसे ही यह मात्मा अपका, प्रकाश करता है इलिये यह आत्मा आप ही अपादान है। तथा यह आत्मा निश्चय शुद्ध पैतन्य मादि गुण स्वभावका स्वयं ही आधार होनेसे आप ही अधिकरण होता है। इस तरह अभेद