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, श्रीप्रवचनसार भाषाटीका। [१८७ प्यत, वर्तमान पर्यायोंको वर्तमानके समान जानता है । तथा इस ज्ञानमें, शक्ति इतमी अपूर्व है कि यह ज्ञान मति ज्ञानादि क्षयोपशमिक ज्ञानोंकी तरह क्रम क्रमसे नहीं जानता है किन्तु एक साथ एक समयमें सर्व पदार्थों की सर्व पर्यायोंको अलग अलगः जानता है। केवलज्ञानका आकार आत्माके प्रदेशों के समान है । आत्मामें असंख्यात प्रदेश हैं.। केवलज्ञान सर्वत्र व्यापक है । हरएक प्रदेशमें केवलज्ञान समान शक्तिको. रखता है। जैसे अखंड भात्मा किंवलज्ञानमई सर्वज्ञेयोंको. नानता, है वैसे एक एक केवल ज्ञानसे सना हुआ आत्मपदेश भी सवज्ञेयोंको जानता है । इस केवलज्ञानकी शक्तिका महात्म्य वास्तवमें हम अल्पज्ञानियोंके ध्यान में नहीं आसक्ता है । इसका महात्म्य उनहीके गोचर है जो स्वयं केवल. ज्ञानी हैं । हमको यही अनुमान करना चाहिये कि ज्ञानमें हीनता
आवरणसे होती है जब सर्व कर्मोंका आवरण क्षय होगया तब ज्ञानके विकाशके लिये कोई रुकावट नहीं रही । तव ज्ञान पूर्ण अतीन्द्रिय, प्रत्यक्ष, स्वाभाविक होगया। फिर भी उसके 'ज्ञानसे कुछ ज्ञेय शेष रहनाय यह असंभव है। इस ज्ञानमें तो ऐसी शक्ति है कि इस जगतके समान अनंते जगत भी यदि हो तो इस ज्ञानमें झलक सके हैं। ऐसा अद्भुत केवलज्ञान जहां प्रगट है वहीं सर्वज्ञपना है तथा वहीं पूर्ण निराकुलता और पूर्ण वीतरागता है क्योंकि विना मोहनीयका नाश भये ज्ञानका आवरण मिटता नहीं । इसलिये जब सर्व जान लिया तब · किसीके जाननेकी इच्छा हो. नहीं सकी। तथा इन्द्रियाधीन ज्ञान, जैसे नहीं रहा वैसे इन्द्रियाधीन विषय सुखका भी यहां अभाव है।