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________________ १७८ - श्रीप्रवचनसार भाषाटीका । दृष्टांत दिया है कि कर्मोदय मात्र नवीन बंध नहीं करसक्ता ! कमौके उदय होनेपर जो जीव उस उदयकी अवस्थामै राम द्वेष मोह करता है वही जीव बंधता है। तीर्थकर भगवानका दृष्टांत · ! है कि तीर्थकर महाराजके समवशरणकी रचना होनी, आठ प्रतिहाये होने, इन्द्रादिकों द्वारा पूजा होनी, विहार होना, ध्वनि प्रगट होनी आदि जो जो कार्य दिखलाई पढ़ते हैं, उनमें कर्मोका उदय कारण है। मुख्यतासे तीर्थंकर नाम कम्र्मका उदय है तथा गौणतासे उसके साथ साता वेदनीय आदिका उदय है, परंतु तीर्थकर महाराजकी आत्मा इतनी शुद्ध तथा विकार रहित है कि उसमें कोई प्रकारकी इच्छा व रागद्वेष कभी पैदा नहीं होता । वह भगवान अपने आत्माके स्वरूपमें मग्न हैं । आत्मीक रसका पानकर रहे हैं। उनके ज्ञानमें सर्व क्रियाएं उदासीन रूपसे झलक रही हैं उनका उनमें किंचित भी राग नहीं है क्योंकि गगका कारण मोहनीय कर्म है सो प्रभुके बिलकुल नहीं है । प्रभुकी अपेक्षा समवशरण रहो चाहे वन हो. वाद सभा जुड़ी या मत जुड़ी, देवगण चमरादिसे भक्ति करो दा मत करो, इन्द्र व चक्रवर्ती आदि आठ द्रव्योंसे पूजा व स्तुति करो वा मत करो, विहार हो वा मत हो सर्व समान हैं । कर्मोके उदयसे I क्रियाएं होती है सो हों । वे क्रियाएं आत्माके परिणाम में विकार नहीं करती हैं मात्र कर्म अपना रस देकर अर्थात् अपना कार्य करके चले जाते हैं । झड़ जाते हैं । क्षय होनाते हैं । इस अपेक्षासे यह औदयिक क्रिया क्षायिक क्रिया कहलाती है । . अभिप्राय यह है कि आठ कर्मोमेंसे मोहनीय कर्म ही प्रबल "
SR No.009945
Book TitlePravachan Sara Tika athwa Part 01 Gyantattvadipika
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShitalprasad
PublisherMulchand Kisandas Kapadia
Publication Year
Total Pages394
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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