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. श्रीप्रवचनसार भाषाटीको। [१७७ दीहिं ) मोहादिकोंसे अर्थात् मोह रहित शुद्ध आत्मतत्वके रोकने वाले तथा ममकार अहंकारके पैदा करनेको 'समर्थ 'मोह आदिसे (विरहिदा) रहित है ( तम्हा) इसलिये ( खाइगत्ति ) क्षायिक है अर्थात विचार रहित शुद्ध आत्मतत्वके भीतर कोई विकारको न करती हुई क्षायिक ऐसी ( मदा) मानी गई है। '. ___यहांपर शिष्यने प्रश्न किया कि जब आप कहते हैं कि कमौके उदयसे क्रिया होकर भी क्षायिक है अर्थात् क्षयरूप है नवीन बन्ध नहीं करती तब क्या जो आगमकं वचन है कि " औदयिकाः भावाः बन्धकारणम् " अर्थात औदायिक भाव बधके कारण हैं, वृथा हो जायगा ? इस शंकाका समाधान आचार्य करते हैं कि
औदयिक भाव बन्धके कारण होते हैं यह बात ठीक है परन्तु वे बन्धके कारण तब ही होते हैं जब वे मोह भावके उदय सहित होते हैं। कदाचित् किसी जीवके द्रव्य मोह कर्मका उश्य हो तथापि जो वह शुद्ध आत्माकी भावनाके बलसे भाव मोहरूएन परिणगन करे तो बन्ध नहीं होने और यहां अहंतोंके तो द्रव्य मोहका सर्वथ अभाव ही है । यदि ऐसा माना जाय कि कर्मोके उदय मात्रले बन्ध होजाता है तब तो संसारी नीवोंके सदा ही कमौके उदयसे सदा ही बन्ध रहेगा कभी भी मोक्ष न होगी। सो ऐसा कमी नहीं होसक्ता इसलिये मोहके उदयरूप भावके विना किया बंध नहीं करती किन्तु जिस कर्मके उदयसे जो क्रिया होती है वह कर्म झड़ जाता है । इसलिये उस क्रियाको क्षायिकी कह सक्ते हैं ऐसा अमिपाय है। । .....
भावार्थ-इस गाथामें भी आचार्य महाराजने इसी बातका .,