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श्रीप्रवचनसार भाषाटीका ।
यो जानात्यन्तं द्रव्यत्वगुणत्त्वपर्ययत्त्वैः ।
स जानात्यात्मानं मोहः खलु याति तस्य लक्ष्म् ॥ ८६ ॥ सामान्यार्थ - जो श्री अरहंत भगवानको द्रव्यपने, गुणपने व पर्यायपने की अपेक्षा जानता है सो ही आत्माको जानता है । उसी होका मोह निश्चयसे नाशको प्राप्त हो जाता है ।
अन्वय सहित विशेषार्थ - (नो) जो कोई (अरहंतं) अरहंत भगवानको ( दव्वत्तगुणत्तपज्जयत्तेहिं ) द्रव्यपने, गुणपने, aur aaurat अपेक्षा ( जाणदि ) जानता है (सो) वह पुरुष (अप्पाणं जाणदि) अर्हत ज्ञानके पीछे अपने आत्मा को जानता है । तिस आत्मज्ञानके प्रतापसे ( तस्स मोहो) उस पुरुषका दर्शन मोह ( खलु लवं जादि ) निश्चयसे क्षय हो जाता है । इसका विस्तार यह है कि अर्हत आत्माके केवलज्ञान आदि विशेषगुण हैं | यस्त्वि आदि सामान्य गुण हैं । परम औशरिफ शरीरफे आकार जो आत्मा प्रदेशोंका होना सो व्यंजन पर्याय है। बगुरु लघुगुण द्वारा छःभकर वृद्धि हानिरूपसे वर्तन करनेवाले अर्थ पर्याय हैं । इस तरह लक्षणधारी गुण और पर्यायों के आधाररूप, अनूर्तीक, असंख्यात प्रदेशी, शुद्ध चैतन्यमई अन्वयरूप अर्थात् नित्यस्वरूप अरहंत द्रव्य है । इस तरह द्रव्य गुण पर्याय स्वरूप अरहंत परमात्माको पहले नान कर फिर निश्रयनवसे उसी द्रव्यगुण पर्यायको आगमका सारभूत जो अध्यात्मभाषा है उसके द्वारा अपने शुद्ध आत्माकी भावनाके सन्मुख होकेर अर्थात् विकल्प सहित स्वसंवेदन ज्ञानमें परिणमन करते हुए तैसे ही आगमकी भाषासे अधःकरण, अपूर्व
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