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श्रीप्रवचनसार भाषाटीका ।
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हैं कि मानों भांख पदार्थों में घुस गई व पदार्थ भांखमें घुस गये। ज्ञानकी ऐसी अपूर्व महिमा जानकर हम लोगोंका कर्तव्य है कि उस ज्ञान शक्तिको प्रफुल्लित करनेका उपाय करें । उपाय निजात्मानुभव या शुद्धोपयोग है । इसलिये हमको निरंतर भेद विज्ञानके द्वारा शुद्ध आत्मा अनुभवकी भावना करनी चाहिये और क्षणिक संकल्प विकल्पोंसे पराङ्मुख रहना चाहिये जिससे जगत - मात्रको एक समय में देखने जाननेको समर्थ जो देवलज्ञान और केवल दर्शन सो प्रगट हो जावें ।
उत्थानिका- आगे ऊपर कही हुई बातको दृष्टान्तके द्वारा दृढ़ करते हैं
रदणमिह इंदणीलं, दुडज्झसियं जहा सभासाए । अभिभूय तंपि दुई, वहृदि तह णाणमत्थेषु ॥३०॥
रत्न महेन्द्रनीलं दुग्धाध्युषितं यथा स्वभावा । अभिभूय तदपि दुग्धं वर्तते तथा ज्ञानमर्थेषु ॥३०॥
सामान्याथ - इस लोक में जैसे इन्द्रनीलमणि अर्थात् प्रधान नीलमणि दृषमें डुबाया हुआ अपनी प्रमासे उस दूधको भी तिरस्कार करके वर्तता है तैसे ही ज्ञान पदार्थोंमें वर्तन करता है ।
अन्वय सहित विशेषार्थ - ( इह ) इस जगतमें (जहा) जैसे (इंदणीलं रणम् ) इन्द्रनील नामका रत्न ( दुइज्झसियं ) -दूधमें डुबाया हुआ ( सभासाए ) अपनी चमकते ( तंपि दुद्धं ) उस दूधको भी ( अभिभूय ) तिरस्कार करके ( वढदि ) वर्तता है ( तह) तैसे (गाणम् ) ज्ञान ( अत्थेसु)
पदार्थों में