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जीवराज जैन ग्रन्थमाला पुष्प ( ४ अ)
श्री-त्रिविक्रम विरचित प्राकृतशब्दानुशासन
[हिन्दी अनुवाद]
स्व. ब्र. जीवराज गौतमचंदजी
:प्रकाशक: जैन संस्कृति संरक्षक संघ, सोलापूर
वि. स. २०३०]
Jain Educatic
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जीवराज जैन ग्रन्थमाला पुष्प (४ अ)
ग्रन्थमाला-संपादक डॉ. आदिनाथ उपाध्ये * डॉ. हीरालाल जैन
श्री-त्रिविक्रम विरचित प्राकृतशब्दानुशासन
हिन्दी अनुवाद
हिन्दी अनुवादक डॉ. केशव वामन आपटे, एम्. ए., पीएच. डी. संस्कृत अर्धमागधीके प्राध्यापक, विलिंग्डन् कॉलेज,
सांगली
प्रकाशक लालचंद हिराचंदजी जैन संस्कृति संरक्षक संघ, सोलापूर
वि. स. २०३०]
वी. नि. सं. २४९९
[इ. स. १९७३
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प्रथम आवृत्ति
प्रती १००० मूल्य प्रत्येक प्रति रु.48 (पोस्टेज अलाहिदा )
श्री जीवराज जैन ग्रंथमालाका परिचय सोलापूर निवासी स्व. ब्र, जीवराज गौतमचंद दोशी कई वर्षोंसे संसारसे उदासीन होकर धर्मकार्यमें अपनी वृत्ति लगा रहे थे। सन १९४० में उनकी यह प्रबल इच्छा हो उठी कि अपनी न्यायोपार्जित संपत्तिका उपयोग विशेषरूपसे धर्म और समाजके कार्य में करें। तदनुसार उन्होंने समस्त देशका परिभ्रमण कर जैन विद्वानोंसे साक्षात् और लिखित संमतियां इस बातकी संग्रह की कि कौनसे कार्यम संपत्तिका विनियोग किया जाय । स्फुट मतसंचय कर लेनेके पश्चात् सन १९४१ में ग्रीष्मकालमें ब्रम्हचारीजीने तीर्थक्षेत्र श्रीगजपंथाजी ( नासिक) के शीतल वातावरणमें विद्वानोंकी समाज एकत्र की और ऊहापोहपूर्वक निर्णयके लिये उक्त विषय प्रस्तुत किया गया । __विद्वान् संमेलनके फलस्वरूप ब्रम्हचारीजीने जैन संस्कृति तथा साहित्यके समस्त अंगोंके संरक्षण, उद्धार और प्रचारके हेतुसे 'जैन संस्कृति संरक्षक संघ' की स्थापना की। और उसके लिये रु. ३०००० के दानकी घोषणा कर दी । उनकी परिग्रहनिवृत्ति बढती गई और सन १९४४ में उन्होने लगभग दो लाख की अपनी संपूर्ण संपत्ति संघको टूस्ट रूपसे अर्पण कर दी। इसतरह आपने अपने सर्वस्वका त्याग कर दिनांक १६-१-१९५७ को अत्यन्त सावधानी
और समाधानसे समाधिमरणकी आराधना की। ___इसी संघके अंतर्गत 'जीवराज जैन ग्रंथमाला' का संचालन हो रहा है। प्रस्तुत ग्रंथ इसी ग्रंथमालाका पुष्प है।
/
प्रकाशक: लालचंद हीराचंद
अध्यक्ष जैन संस्कृति संरक्षक संघ,
सोलापूर.
मुद्रक : सौ. शैलजा बर्वे, वेद-विद्या मुद्रणालय, ४१ बुधवार पेठ,
पुणे २.
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स्व. ब्र. जीवराज गौतमचंद दोशी
For स्व. ता.१६-१-५७ पौष शु....१५.brary.org
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विषयानुक्रमणिका
१ प्रधान संपादकीय २ प्रस्तावना ३ मूलसूत्र तथा हिन्दी अनुवाद ४ सूत्र-सूची (अकारानुक्रमसे ) ५ टिप्पणियाँ
१-२ ३-६
१-३०८ ३०९-३२७ ३२८-३४०
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प्रधान संपादकीय दक्षिण भारतमें प्राकृत-व्याकरणोंके अध्ययनका एक नया युग त्रिविक्रमका प्राकृतभ्याकरण सूचित करता है । इस व्याकरणपर सिंहराज, लक्ष्मीधर तथा अप्पय्य दीक्षित जैसे पंडितोंने टीकाएँ लिखी हैं। इस व्याकरणका चिकित्सापूर्ण संपादन डॉ. पी. एल्. वैद्यजीने किया है। आप भारतमें गत चालीस बरसोंसे अधिक समय प्राकृत अध्ययनके अग्रणी रहे हैं। आप प्राकृत और अपभ्रंश रचनाओंके संपादन कार्यके सचमुच पथिकृत हैं । खिस्ताब्द १९५४ में, इस ग्रंथमालामें जब डॉ. वैद्यजीद्वारा संपादित त्रिविक्रमके व्याकरणका संस्करण प्रकाशित हुआ, तब स्व. ब्रह्मचारी गौतमजीने कामना प्रदार्शत की थी कि इसका हिंदीमेंभी अनुवाद प्रकाशित हो। इस संबंध प्रधान संपादकोंने अपनी टिप्पणीमें इस प्रकारका अभिवचनभी दिया था-'इस संपादित ग्रंथका पूरक ग्रंथके रूपमें हिंदी अनुवाद प्रकाशित करनेका आयोजन किया जा रहा है। परंतु कुछ अनिवार्य कारणों से इस हिंदी अनुवादका प्रकाशन होने में लगभग बीस बरसोंका काल बीत गया है। ____ यहाँ प्रस्तुत किया गया त्रिविक्रम व्याकरणका हिंदी अनुवाद मेरे मित्र डॉ. के. वा. भापटे, संस्कृत-अर्धमागधीके प्राध्यापक, विलिंग्डन महाविद्यालय, सांगली, महोदयजीने किया है। मैं उनका अत्यंत कृतज्ञ हूँ। इस अनुवादका आधार डॉ. वैद्यजीसंपादित मूल अंध है; प्रस्तुत अनुवाद उसका पूरक ग्रंथ है । यह दिखाई देगा कि इस ग्रंथ सूत्र यथामूल दिए हैं, और उदाहरणोंके साथ वृत्तिका हिंदी अनुवाद प्रस्तुत किया है। पादटिप्पणी तथा अन्य चिकित्सापूर्ण सामग्रीके लिये पाठकगण इस मालामें प्रकाशित डॉ. वैद्यजीका मूल संपादित ग्रंथ देखें । डॉ. वैद्यजीके ग्रंथमसे सब सामग्री इस पूरक ग्रंथमें देना आवश्यक नहीं था । किंतु प्रस्तुत हिंदी अनुवाद स्वतंत्र रूपसेभी उपयुक्त होनेके लिए इसमें हिंदी में संक्षिप्त प्रस्तावना तथा अंतमें अकारानुक्रमसे सूत्रोंकी सूची दी गयी है। इस प्रथमें और एक विशेषता यह है कि कुछ आवश्यक व्याकरणीय टिप्पणियाँ अंतमें दी गई हैं।
त्रिविक्रमके प्राकृत व्याकरणका सुव्यवस्थित अनुवाद डॉ. के. वा. आपटेजीने प्रस्तुत किया है। अतः हम उनके आभारी हैं। मेरा यह विश्वास है कि यह हिंदी अनुवाद हिंदी जाननेवाले पाठकोंमें त्रिविक्रमके व्याकरणको औरही लोकप्रिय करेगा ।
इस ग्रंथके बारेमें विशेष रस लेनेके कारण हमारे अध्यक्षमहोदय श्रीमान् लालचंद हिराचंदजीको हम धन्यवाद देते हैं। इस ग्रंथमालाके प्रकाशन कार्यमें श्रीमान् वालचंद देवचंदजी हमारी सर्वतोपरी सक्रिय सहायता कर रहे हैं।
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इस निवेदन के लिखते समयही मुझे शोकसंदेश मिला कि इस ग्रंथमालाके मेरे सहसंपादक डॉ. हिरालाल जैनजीका देहान्त हुआ । उनके रूपमें यह ग्रंथमाला ऐसे उपकारकर्ताको खो बैठी है कि जिन्होंने गत ३० वर्षोंतक उसकी सामान्य नीतिको रूप दिया था । जहाँतक मेरा संबंध है मेरे लिए तो उनका अभाव अपूरणीय है । शोकाकुल हृदयसे मै अकेलाही इस निवेदनपर हस्ताक्षर कर रहा हूँ ।
१७-३-१९७३
आदिनाथ नेमिनाथ उपाध्ये
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प्रस्तावना त्रिविक्रम
प्रस्तुत व्याकरणका रचयिता त्रिविक्रम माना जाता है। सामान्यतया प्राचीन भारतीय ग्रंथकारोंके बारेमें अधिकृत ज्यादा जानकारी विशेष उपलब्ध नहीं होती। बिल्कुल थोडे ग्रंथकारोंने अपने बारेमें स्वयं जानकारी प्रस्तुत की है। ऐसे थोडे लोगोंमैसे एक है त्रिविक्रम । प्रस्तुत व्याकरणके प्रारंभ तथा अंतमें प्रास्ताविक तथा उपसंहारपरक कुछ श्लोक है । ये उपसंहारपरक श्लोक इस व्याकरणकी कुछ पांडुलिपियोंमें नहीं मिलते हैं। फिरभी डॉ. प. ल. वैद्यजीके मतानुसार, यह निश्चित रूपसे कहा जा सकता है कि ये श्लोक त्रिविक्रमकेही हैं। इन श्लोकों में से प्राप्त जानकारीको आगेके अनुसार कहा जा सकता है।
त्रिविक्रमका जन्म बाग नामक व्यक्तिके सत् परिवारमें हुआ था। उसके पितामहका नाम था आदित्यवर्मन् । उसके मातापिताके नाम क्रमशः लक्ष्मी तथा मल्लिनाथ थे। उसके भाईका नाम था भाम ( पाठभेदसे-सोम, राम, वाम, चाम ) जो सदाचार और ज्ञानके बारेमें बडा प्रसिद्ध था । दिखाई देता है कि अर्हन्नंदिके पास त्रिविक्रमका अध्ययन हुआ था। अर्हनदि जैन धर्मग्रंथोंपर प्रभुत्व रखनेवाला तथा तीनों विद्याओंका ज्ञाता मुनि था ( प्रास्ताविक २-३ )। त्रिविक्रम अपने आपको सुकवि कहलाता है (प्रास्ताविक ३ )। इस प्रकार त्रिविक्रम अपने बारे में जानकारी देता है।
त्रिविक्रमके धर्म, स्थान तथा समयके बारेमें डॉ. प. ल. वैद्यजीने इसप्रकार अनुमान किये हैं:त्रिविक्रमका धर्म
__ यह निश्चित रूपसे कहा जा सकता है कि त्रिविक्रम जैन धर्मका अनुयायी था। प्रास्ताविकके पहलेही श्लोकसे यह बात स्पष्ट होती है जिसमें वीर याने महावीरको वंदन किया गया है । उसी प्रकार प्रास्ताविकके चौथे श्लोकके वीरसेन तथा जिनसेनके उल्लेखोंसे त्रिविक्रमका उनके बारेमें आदरभाव सूचित होता है, तथा यह भी मालूम होता है कि वह जनोंके दिगंबरपंथका अनुयायी था। प्रास्ताविकके ग्यारहवें श्लोकमें हेमचंद्रका उल्लेख मिलता है जिससे ज्ञात होता है कि त्रिविक्रम पंथीय पूर्वग्रहोंसे परे आसानीसे पहुँच सकता था। त्रिविक्रमका स्थान
त्रिविक्रम भारतके किस प्रदेशका निवासी था यह बतानेके लिए निश्चित सामग्री उपलब्ध नहीं है । फिरभी, उसका जैन दिगंबर पंथ, उसके पिता, भाई तथा गुरुके
(३)
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त्रिविक्रम प्राकृत-व्याकरण
नाम, और सबसे महत्त्वपूर्ण बात यह कि उसके प्राकृत व्याकरणकी लोकप्रियता और उसके व्याकरणकी पांडुलिपियोंका प्राप्तिस्थान, इन बातोंसे यह स्पष्ट होता है त्रिविक्रम दाक्षिणात्य (दक्षिण भारतीय ) था-संभवतः कर्नाटकसे संबंध रखनेवाला आंध्रनिवासी था। इसके बारेमें समर्थक प्रमाण यह दिया जा सकता है कि ' दोडि सायंभोजनम् ' जैसे कुछ शब्दोंका अंतर्भाव त्रिविक्रम देश्य शब्दों में करता है जबकि ये शब्द हेमचंद्रकी देशीनाममालामें मिलते नहीं पर द्राविडी भाषाओंमें मिलते हैं। त्रिविक्रमका समय
वीरसेन तथा जिनसेन इन दोनोंका उल्लेख त्रिविक्रम करता है । ये दोनों ई. स. की नवीं शतीके मध्यके थे। हेमचंद्रकाभी उल्लेख त्रिविक्रम करता है। हेमचंद्रकी मृत्यु ई. स. ११७२ में हुई : इससे यह दिखाई देता है कि बारहवीं शतीके अंतिम चरणके बाद, पर हेमचंद्रके बाद अधिक समयसे नहीं, त्रिविक्रम हो गया । त्रिविक्रमके व्याकरणके बादके सिंहराजकृत प्राकृतरूपावतार, लक्ष्मीधरकृत षड्भाषाचंद्रिका तथा अप्पय्य दीक्षितकृत प्राकृतमगिदीप ये ग्रंथ उपलब्ध हैं । अप्पय्य दीक्षितकी मृत्यु उम्रके ७२ वें सालमें-ई. स. १६२६ में-हुई थी । अप्पय्यके ग्रंथमें लक्ष्मीधरका उल्लेख विशेषरूपसे मिलता है। अतएव लक्ष्मीधरका समय साधारणतया ई. स. १४७५ - ई. स. १५२५ के बीचका हो सकता है। यद्यपि लक्ष्मीधर या अप्पय्यके द्वारा सिंहराजका उल्लेख हुआ नहीं, फिरभी वह उनके पूर्व या उनका ज्येष्ठ समकालीन रहा होगा; उसका समय पंद्रहवीं शतीका पूर्वार्ध होगा। इसलिए तेरहवीं शतीके उत्तरार्धको त्रिविक्रमके समयके रूपमें माना जा सकता है। डॉ. आ. ने. उपाध्येजीके मतानुसार, ई. स. १२३६ के बाद जल्दही त्रिविक्रमद्वारा अपना प्राकृत व्याकरण रचा गया । त्रिविक्रमके ग्रंथ
__कुछ लोगोंका मत ऐसा है कि त्रिविक्रमके प्राकृत व्याकरणमेंसे सूत्रभाग वाल्मीकिका है और उसका टीकाभाग त्रिविक्रमद्वारा रचित है। पर डॉ. प. ल. वैद्यजी तथा अन्य पंडित इस मतको नहीं मान्य करते । उनके अनुसार सूत्र तथा टीका ये दोनों भाग त्रिविक्रमकेही रचे हुए हैं।
प्राकृत व्याकरणकी अपनी टीकाके बारे में त्रिविक्रम प्रास्ताविकके श्लोकोंमें कहता है:-इस (प्राकृत व्याकरण - ) विषयपर अभ्यासकोंको अधिकार प्राप्त हो इसी हेतुसे यह टीका मैंने रची है । परंपरागत पद्धतिके अनुसार यह टीका है । ( इस टीकामें ) यद्यपि बहुत कम शब्दोका प्रयोग है तो भी वे दर्पणके समान काम देंगे; इस प्रकार इस टीकाकी श्रेष्ठता है । त्रिविक्रम आगे कहता है :- प्राकृत रूपोंकी चर्चा करते समय जिस पारंपरिक पद्धतिका अवलंबन हेमचंद्रतकके पूर्व आचार्योंद्वारा किया गया था उसी पद्ध. तिका प्रयोग भैने इस व्याकरणमें किया है (श्लोक ९-११)।
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प्रस्तावना
उपसंहारके पहले श्लोकमें अपने प्राकृत-व्याकरणके बारेमें त्रिविक्रम कहता है:अपने प्रयोजनकी सिद्धिके लिए (अर्थसिद्धथै ) मंत्रके समान इस त्रिविक्रमरचित प्राकृत व्याकरणका जप किया जाय ।।
उपसंहारके दूसरे तथा तीसरे श्लोकोंमें अपने काव्यके बारेमें त्रिविक्रम कहता है:त्रिविक्रमके काव्यको पढकर रसिकों तथा नैयायिकोंको आनंद मिलता है कारण पदोंका माधुर्य अंदर प्रवेश करके कानोंको पुष्ट करता है, प्रत्येक शब्दका नया अर्थ उचित शब्दके प्रयोग करनेवाले मनुष्यको तुष्ट करता है, और मानो ( इस काव्य- ) कृतिकी श्रेष्ठतासे, रस संपूर्ण भुवनको व्याप्त करता है। अपनी कल्पना व्यक्त कर सकनेवाले भलेही सभी हों, पर अपनी तथा दूसरोंकी कल्पना उचित शब्दोंमें व्यक्त करनेवाला त्रिविक्रम एकही ( = एकमेव, अद्वितीय) है। इससे यह दिखाई देता है कि त्रिविक्रमने एक या अनेक काव्योंकी रचना की थी; पर ये काव्यरचनाएँ अभी तो उपलब्ध नहीं हैं, इसलिए उपर्युक्त त्रिविक्रमके कथनकी सत्यताकी जाँचपडताल नहीं की जा सकती। त्रिविक्रमका प्राकृतविषयक मत
प्राकृत ( = माहाराष्ट्री प्राकृत, मुख्य प्राकृत ) और आर्ष ( श्वेतांबरपंथी जैनियोंके आगोंकी) अर्धमागधी, इन दोनोंमें थोडासा भेद हेमचंद्र दिखाता है। तो त्रिविक्रम प्रास्ताविकके सातवें श्लोकमें आर्षका उल्लेख करके कहता है कि आर्ष तथा देश्य ये दोनों भाषाके रूढ रूप हैं और ये दोनों बिलकुल स्वतंत्र है और इस कारण उन्हें व्याकरणकी आवश्यकता नहीं, उनके बारेमें जानकारी केवल परंपराद्वाराही प्राप्त की जा सकती है । इसके विपरीत, उन प्राकृत भाषाओंकोही व्याकरणके नियम लागू पडते हैं जिनमेंसे शब्दोंकी जडसे खोज सिद्ध और साध्यमान संस्कृततक की जा सकती है। और ऐसे शब्दोंकीही चर्चा त्रिविक्रमके प्राकृत व्याकरणमें है ।
हिंदी अनुवादकी पद्धति
त्रिविक्रमरचित प्राकृत व्याकरणका मूलग्रंथ डॉ. प. ल. वैद्यजीने संपादित किया है। उसका हिंदी अनुवाद करनेका कार्य डॉ. आ. ने. उपाध्येजीकी सूचनानुसार मैंने स्वीकृत किया । वह कार्य संपूर्ण होकर आज प्रकाशमें आ रहा है, यह तो बडे आनंदकी बात है।
इस अनुवादको पढते समय निम्नलिखित मुद्दे यादमें रखे जायें:-(१) मूलग्रंथकी छापेकी गलतियोंको तत्रतत्र सुधारकर ग्रंथके मूल रूपको लेकर, यह अनुवाद किया गया है। (२) अनुवादमें मूल सूत्रोंका स्वतंत्र रूपसे भाषांतर नहीं दिया गया है क्योंकि मूलसूत्रोंका अर्थ वृत्तिमें आताही है। इसलिए केवल वृत्तिका अनुवादही दिया है। कहींकहीं ऐसा हुआ है कि मूल सूत्र में आये हुए शब्दोंकी सूचियाँ वृत्ति में नहीं आयी हैं। उन्हें
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त्रिविक्रम-प्राकृत-व्याकरण
अनुवाद करते समय कोष्टकमें रखा गया है। (३) कचित् वृत्तिमें (प्राकृत शब्दोंके ) मूल संस्कृत शब्द नहीं दिये गए हैं; ऐसे शब्द अनुवादमें कोष्टकमें दे दिये हैं। { ४) मूलमें न होनेवाले परंतु अर्थके स्पष्ट होनेके लिए आवश्यक शब्द अनुवादमें कोष्टक रखे गए हैं। (५) अप्रभ्रंश श्लोकोंकी संस्कृत छायाके अनंतर तुरंत उसका अनुवाद दिया है । (६) अपभ्रंश श्लोकके प्रथम आनेपर उसका अनुवाद वहींपर दिया गया है। पर उसी श्लोकके फिरसे आगे आनेपर, उसका अनुवाद पुनः नहीं दिया है । (७) कुछ शब्दोंके आगे (= ) इस चिन्हको रखकर उन शब्दोंका स्पष्टीकरण दिया गया है। (८) भाषांतरमें आवश्यक स्थलोंपर अगले पिछले सूत्रोंके संदर्भ प्रस्तुत किये हैं। (९) अनुवादमें क्वचित् फूटनोट्स दिये हैं। (१०) प्रत्येक सूत्रके अनुवादके अनंतर सूत्रोंके क्रमांक मूलानुसार दे दिये हैं।
मूलमेंसे पारिभाषिक शब्दोंका संक्षिप्त स्पष्टीकरण अंतकी टिप्पणियों में किया है। यहाँपरभी जिस शब्दपर पहलेही टिप्पणी दे दी गई है उसपर उसके फिरसे आनेपर पुनः टिप्पणी नहीं दी गयी है। आभारप्रदर्शन
गु. डॉ. उपाध्येजीका मैं इसलिए आभारी हूँ कि उन्होंने मुझे इस अनुवादको प्रस्तुत करनेका अवसर दे दिया। मेरे इस अनुवादमेंसे हिंदी भाषाका सुधार और जाँच कार्य हमारे विलिंग्डन महाविद्यालयके हिंदीके प्राध्यापक अ. अ. दातारजी तथा प्रा. सु. ल. जोशीजीने बडी आस्थापूर्वक किया है जिसके लिए मैं उनकाभी अत्यंत आभारी हूँ। सूत्रसूचीके कार्यमें सहायता करनेवाले मेरे पुत्र यशवंतकाभी मैं आभारी हूँ।
विलिंग्डन महाविद्यालय, सांगली.
के. पा. आपटे
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त्रिविक्रमदेव - विरचित
प्राकृतशब्दानुशासन (मूलसूत्र व स्वोपज्ञवृत्ति)
हिन्दी अनुवाद
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॥ श्रीः ॥ श्रीत्रिविक्रमदेवविरचितं प्राकृतशब्दानुशासनम्
(हिन्दी अनुवाद) श्री (महा) वीर रूप पूर्वगिरिसे उदित हुए, सब (वस्तुओं) को प्रकाशित करनेवाले, दिव्य ध्वनिरूप सूर्यको मैं अक्षरोंकी पद्धति (मार्ग) की प्राप्तिके लिये वंदन करता हूँ ॥ १ ॥
अर्हनंदि जो कि त्रैविद्यमुनि तथा जिनागमके स्वामी थे, उनके पदकमलोंमें भ्रमर (के समान), श्रीबाणके शोभन कुलरूप कमलको सूर्य (के समान) आदित्यवर्मा का पोता, श्रीमल्लिनाथका पुत्र, लक्ष्मी (माता) के गर्भरूप अमृतसागरमें चंद्रमा (के समान जन्म लेनेवाला), आचार और विद्याका स्थान होनेवाले भामका भाई, प्रकृतिसेही निपुण, ऐसा त्रिविक्रम (नामक) सुकवि, श्रीवीरसेनार्य और जिनसेनार्य आदिके वचनरूप समुद्रके ज्वारसे कुछ प्राकृतशब्दरूप रत्न सुकृति (= शोभन ग्रंथ या तज्ज्ञ) के भूषणके लिये संगृहीत करता है ॥२-४ ॥
बहुत अर्थसे संपन्न, सुलभरूपसे जिसका उच्चारण किया जाता है, और जो साहित्यका जीवन है ऐसा जो शब्द वह प्राकृत (शब्द) ही है, ऐसा सूत्रानुसारी ( विद्वान) लोगोंका मत है ।। ५॥
यह प्राकृत (शब्द) तत्सम, देश्य और तद्भव एवं तीन प्रकारका है। तत्सम यानी संस्कृतसम (प्राकृतशब्द), संस्कृत (व्याकरण) के लक्षणोंसेही जानना है ॥ ६॥
देश्य और आर्ष (प्राकृत) रूढ तथा बहुशः स्वतंत्ररूप होनेसे, • उन्हें लक्षणोंकी अपेक्षा नहीं है; उसका बोध संप्रदाय (परंपरा) ही कर । सकता है।॥ ७॥
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त्रिविक्रम-प्राकृत व्याकरण प्रकृतिभूत ऐसे साध्यमान और सिद्ध संस्कृतसे जो होगा वह इस प्राकृतका लक्षण, हम लक्ष्यके अनुसार (यहाँ) कहते हैं ॥ ८ ॥
निजी सूत्रोंके मार्गको अनुसरण करनेकी इच्छा रखनेवालोंको प्राकृतशब्दोंकी अर्थसहित प्राप्ति होनेके लिये तथा यथार्थ सिद्धिके लिये, त्रिविक्रमसे (यह) वृत्ति (टीका) आगमक्रमसे की जाती है ।। ९॥
तद्भव, तत्सम और देश्य (एवं त्रिविध) प्राकृतरूप देखनेवाले विद्वानाको जो आयनेके समान है, ऐसी यह त्रिविक्रमरचित वृत्ति भूतलपर विजयी है ।। १०॥
हेमचंद्रार्यतक प्राचीन वैयाकरणोंने प्राकृतरूपोंका जैसा विवरण किया है उन सबका वैसाही प्रतिबिंब यहाँ (इस ग्रंथमें ) पडा है ॥ ११॥ सिद्धिर्लोकाच ॥१॥
यहाँ प्रस्तुत ( की जानेवाली) सिद्धि प्राकृत शब्दोंके संबंध ली गई है । और वह सिद्धि लोगोंसे होती है। क्यों कि ( यस्मात् ) ऋवर्ण, लवर्ण, ऐकार, औकार, असंयुक्त ङकार तथा अकार, श् और , तथा द्विवचन, इत्यादिसे रहित, ऐसा शब्दों का उच्चार लोगोंके व्यवहारसे जाना जाता है; तथा देशी शब्दभी (लोकव्यवहारसे उपलब्ध होते हैं); इसलिये (तस्मात् ) ' लोगोंसे सिद्धि ' ऐसा जाना जाय । और ( सूत्रमेंसे) चकार (और ) के कारण, ( इस ग्रंथमें ) आगे कहे जानेवाले और अनैकान्तिक ( अनिश्चित ) लक्षणोंसे (प्राकृतशब्दविषयक सिद्धि होती है, ऐसा जानें ) ॥ १॥ अनुक्तमन्यशब्दानुशासनवत् ॥ २॥
यहाँ ( इस ग्रन्थमें ) स्वरादि संज्ञा और संधि, इत्यादि कार्यके बारेमें जो नहीं कहा गया है, वह अन्य व्याकरणोंमें बताये गए कार्यके अनुसारही ( होता है, ऐसा) मानना है। (अर्थात् ) कौमार, जैनेन्द्र,
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हिन्दी अनुवाद - अ. १, पा. १
पाणिनीय इत्यादि व्याकरणों में जैसा ( कार्य ) कहा गया है, उसी प्रकार यहाँभी है, ऐसा समझ लेना है || २ || संज्ञा प्रत्याहारमयी वा ॥ ३ ॥
प्रत्याहार जिसका स्वरूप है वा ' ऐसा कहा जानेसे,
।
(सूत्र में ) फिर 'प्रत्याहार' लिये है कि सामान्यतः
यहाँ अर्थात् इस प्राकृत व्याकरणमें, ऐसी संज्ञा व्यवहृत की गयी है । ( सूत्रमें ) आगे कहे जानेवाले भागों से भी (संज्ञा जाननी है) शब्दका जो ग्रहण (निर्देश ) है वह यह दिखानेके या बहुधा ( भूयः ) प्रयोग ( व्यवहार ) होता है । उदा० - स्वर अच् । ए ओ एड् । ऐ औ ऐच् । व्यञ्जन हल् । स्वादि सुप् | त्यादि ति । इत्यादि ।। ३ ।। सुस्वादिरन्त्यहला ॥ ४ ॥
सुप् में यानी सु, इत्यादि विभक्तियोंमें आदि वर्ण अथवा वचन अन्त्य व्यंजनके साथ इत्-संज्ञक होता है । उदा० - सु औ जस्, सुस् । अम् औट् शस्, अस् । इसी प्रकार :- टास्, डेस्, ङसिस्, ङम्, डिप् । पंचमी ( विभक्ति ) के बारेमें, ङस् ऐसा कहनेके बदले ङसिस ऐसे कहनेका कारण षष्ठी एकवचन इससे उसकी भ्रान्ति न हो ॥ ४ ॥
हो ह्रस्वः ॥ ५ ॥
एक मात्रा होनेवाला जो वर्ण हस्व ऐसा प्रसिद्ध है उसकी ह ऐसी संज्ञा ( इस ग्रंथ में प्रयुक्त की गयी है ) ॥ ५ ॥
दिर्घः ॥ ६ ॥
दो मात्राएँ होनेवाला, दीर्घ ऐसा रूढिमें प्रचलित, जो वर्ण, उसकी दि ऐसी संज्ञा ( इस ग्रंथ में प्रयुक्त की गयी है ) ॥ ६ ॥
शषसाः शुः ॥ ७ ॥ I, I, और सू
ये वर्ण शु-संज्ञावाले होते हैं ॥ ७ ॥
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सः समासः ॥ ८ ॥
समास 'स' संज्ञावाला होता है || ८ ॥
आदिः खुः ॥ ९ ॥
( शब्द में ) आदि ( प्रथम ) रहनेवाला वर्ण खु-संज्ञक होता.
है ॥ ९ ॥
त्रिविक्रम - प्राकृत व्याकरण
गो गणपरः ॥ १० ॥
( इस सूत्र में १.१.९ से ) आदिः पद ( अध्याहृत ) है ।' ( शब्दों के ) गणों में प्रधान होनेवाला जो शब्द आदि होता है, वह ग-संज्ञक होता है । उदा०-गुणादिः, इत्यादिमें ' गुणग ' इत्यादि शब्द ( उपयोग में लाये जाएंगे ) ॥ १० ॥
द्वितीयः ः फुः ॥ ११ ॥
शब्दका द्वितीय वर्ण फु-संज्ञक होता है ॥ ११ ॥
संयुक्तं स्तु ॥ १२ ॥
जो व्यंजनसे युक्त अर्थात् संयुक्त है, उसको स्तु ऐसी संज्ञा होती है ॥ १२ ॥
तु विकल्पे ॥ १३ ॥
विकल्प अथवा विभाषा दिखानेके लिए, तु' शब्दभी उपयोग में लाया गया है ॥ १३ ॥ प्रायो लिति न विकल्पः ॥ १४ ॥
कुछ कार्योंके लिए जो (वर्ण) सूत्रमें कहा जाता है, ( परंतु ) प्रयोग में मात्र (उपयोग में लाया हुआ ) दिखाई नहीं देता, वह इत् (वर्ण है) । उसीकोही अन्य व्याकरणोंमें अनुबंध यह संज्ञा है । (सूत्रमेंसे) लित् यानी जिसमें लकार इत् है, ऐसा । लित् का कार्य होते ( समय ) प्रायः विकल्प नहीं होता ॥ १४ ॥
वा शब्द के समान
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हिन्दी अनुवाद-अ., पा. १ शिति दीर्घः ॥१५॥
(शित अर्थात् जिसमें श् अनुबंध (=इत्) है, वह ।) शानुबंधका कार्य होते समय, (जिसके बारेमें शित् है, उसके पीछे रहनेवाला) पूर्व स्वर दीर्घ होता है। उदा.-'शि श्लुङ् नपुनरि तु' (१.१.२८) यह सूत्र । इस स्थानपर, 'नपुनः' शब्दमें, अन्त्य व्यंजनके बारेमें जब शानुबंध ऐसे इकार और लोप होते हैं, तब (उसके) पूर्व स्वर दीर्घ होता है। उदा.-णउणाइ, णउणा ॥१५॥ सानुनासिकोच्चारं ङित् ॥१६॥
(जहाँ) ङकार-अनुबंध ऐसा कार्य होता है, (वहाँ) सानुनासिक उच्चार होता है। उदा.-'कामुकयमुनाचामुण्डातिमुक्तके मो ङ्लुङ्' (१.३.११) इस सूत्रमें – काउँओ । जउँणा । यहाँ मकारका ङानुबंध लोप जब होता है, तब शेष स्वरका उच्चारण सानुनासिक होता है ॥ १६ ॥ बहुलम् ॥ १७ ॥
(यह अधिकारसूत्र है।) इस शास्त्रके परिसमाप्तितक इस सूत्रका अधिकार है। (इसका अर्थ यह है)-प्राकृतमें जो लक्षण कहा जाता है, वह बहुलत्वसे (यानी प्रायः, सामान्यतया) होता है, ऐसा समझना है। और इसलिए कचित् नियमोंकी योग्य प्रकारसे कार्यप्रवृत्ति, कचित् उसका अभाव (अप्रवृत्ति), कचित् विकल्प, कचित् कुछ औरही हो जाता है। और वह (हम) योग्य स्थानपर दिखायेंगे ।। १७ ।। दिही मिथः से ॥१८॥
(सूत्रमेंसे) से अर्थात् स में यानी समासमें, (पहले पद के अन्त्य स्वरका) मिथः यानी परस्पर में हस्व और दीर्ध बहुलत्वसे होता है। उसमें -हस्व का दीर्घ होना-अन्तर्वेदिः अन्तावेई । सप्तविंशतिः सत्तावीसा। कचित् विकल्प होता है। वारिमती वारीमई वारिमई । पतिगृहम् पईहरं पइहरं । युवतिजनः जुवईजणो जुवइजणो। वेणुवनम् वेणूवणं वेणुवर्ण। दीर्घका
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त्रिविकम-प्राकृत व्याकरण हस्त्र होना-णिअम्बसिलखलिअवीइमालस्स, नितम्बशिलास्वलितवीचिमालस्य । यमुनातटम जउँणअडं जउँणाअडं । नदीस्रोतः गइसोतं णईसोत्तं । गौरीगृहम् गोरिधरं गोरीधरं । वधूमुखम् वहुमुहं वहूमुहं ॥१८॥ सन्धिस्त्वपदे ॥ १२ ॥
संस्कृतमें कहीं हुई सर्व संधियाँ प्राकृतमें विकल्पसे होती हैं। अपदे यानी एकही पदमें (संधि) नहीं होती। (सूत्रमें) 'तु' शब्द विकल्प दिखानेके लिए है। उदा.-व्यासर्षिः वासेसी वासइसी। विषमातपः विसमाअवो विसमआअवो । कवीश्वरः कईसरो कइईसरो। स्वादूदकम् साऊअसं साउउअ । एकही पदमें नहीं होती, ऐसा क्यों कहा है ! (कारण एकही पदके दो स्वरों में प्रायः संधि नहीं होती।) उदा.-मुद्धाए मुद्धाइ मुग्धायाः। वच्छाओ वच्छाउ वृक्षात् । महइ महति (यानी) पूजन करता है, ऐसा अर्थ । (तथापि) बहुलका अधिकार होनेसे, कचित् एकही पदमेंभी (संधि होती है। उदा.)-करिष्यति काही काहिइ । द्वितीयः बीओ बिइओ ।। १९॥ न यण् ॥ २० ॥
. (इस सूत्रमें १.१.१९ से) संधिः पदकी अनुवृत्ति है। 'इको यणचि' (पा. ६.१.७७) सूत्रके अनुसार संस्कृतमें जो यणादेश संधि कही गयी है, वह प्राकृतमें नहीं होती। यानी इ-वर्णका यत्व और उवर्णका वस्त्र नहीं होता, ऐसा अर्थ ( होता है)। यण प्रत्याहारसे यद्यपि य , व्, र और ल वर्णोका ग्रहण होता है, तथापि प्राकृतमें ऋ-वर्ण और ल-वर्ण इनका उपयोग न होनेसे, यत्व और वस्व इनकाही यह निषेध है। उदा.-नखप्रभावल्यरुणः णहप्पहावलिअरुणो। सन्ध्यावध्ववगूढः संझावहुअवऊढो। (सूत्रमें) यण ऐसा क्यों कहा है ? (कारण जहाँ यण आदेश होता है, वहीं यह निषेध है, अन्यत्र नहीं, यह दिखानेके लिए।) उदा. गूडोदरतामरसानुसारिणी गूढोअरतामरसाणुसारिणी।।२०।।
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हिन्दी अनुवाद-अ १, पा. १
एडः ॥२१॥
(इस सूत्रमें १.१.२० से) न शब्दकी अनुवत्ति है। एङ् यानी ए (एत्) और ओ (ओत् ) ये स्वर । ए और ओ इनकी संस्कृतमें कही हुई संधि प्राकृतमें नहीं होती। उदा.-देवीए आसणं। पंचालादो आगओ। देवो अहिणदणो। अहो अच्छरिआ, इत्यादि (उदाहरण) संस्कृत जैसे हैं ।। २१ ।। शेषेऽच्यचः ॥ २२ ॥
(स्वरसे) संयुक्त रहनेवाले व्यंजनके लोप होनेपर जो स्वर शेष रहता है, उसको शेष कहा है। यह शेष स्वर आगे रहे तो उससे अन्य (पिछले या अगले) स्वरकी संधि नहीं होती। उदा.-गगन एव गन्धकुटी कुर्वन्ति, गअणे च्चिअगंधउडिं कुणन्ति । फणामणिप्रदीपाः, फणामणिप्पईवा । ज्योत्स्नापूरितकोशः, जोण्हाऊरिअकोसो। बहुलका अधिकार होनेसे, कचित् विकल्पसे संधि होती है। उदा.-कुम्भकारः कुम्भआरो कुम्भारो। सुपुरुषः सुररिसो सूरिसो। कचित् संधिही होती है। उदा.-शातवाहनः सालाहणो। चक्रवाकः चक्काओ। प्रायोग्रहण होनेसे, (इन शब्दोमें) व का लोप न हुआ तो, सालवाहणो और चक्कवाओ, ऐसे रूप होते हैं; किंतु व का लोप होनेपर, संधि होती ही है ॥ २२ ॥ तिङः ॥२३॥
(इस सूत्रमें १.१.२२ से) अचः और अचि इन पदोंकी अनुवृत्ति है। तिङ यानी धातुको लगनेवाले तिप, इत्यादि प्रत्यय । तिड्से संबंध रखनेवाले स्वर की, आगे स्वर रहे तो, संधि नहीं होती। उदा.-भवतीह होइ इह । पिबतूदकं पिबउ उदरं ।। २३ ।। लोपः ॥२४॥
स्वर के आगे स्वर रहे तो बहुलत्वसे लोप होता है। उदा.त्रिदशेशः तिअसीमो । निश्वासोच्छ्वासौ णीसासूसासा ।। २४ ।।
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त्रिविक्रम-प्राकृत व्याकरण
अन्त्यहलोऽश्रदुदी ॥२५॥
(इस सूत्रमें १.१.२४ से) लोपः पदकी अनुवृत्ति है। शब्दोंमें अन्त्य हल् का यानी व्यंजनका लोप होता है । (सूत्रमेंसे) अश्रदुदी यानी श्रत् इस अव्यय तथा उत् इस उपसर्ग को छोडकर । उदा.-यावत् जाव । यशस् जसो । तमस् तमो। जन्मन् जम्मो। (सूत्रमें) श्रत् और उत् को छोडकर, ऐसा क्यों कहा है ? (कारण इन शब्दोंमें अन्त्य व्यंजनका लोप नहीं होता। उदा.)-श्रद्धा सध्दा । श्रद्दधाति सद्दहइ । श्रद्धानम् सद्दहणं। उद्गतम् उग्ग। उन्नतम् उण्णअं। किंतु समासमें, वाक्यविभक्तिकी अपेक्षासे (पहले पदका अन्त्य व्यंजन) कभी अन्त्य माना जाता है, तो कभी अनन्त्य माना जाता है; इसलिए दोनोंभी (यानी कभी उसका लोप तो कभी उसका वर्णान्तर) हो जाते हैं । उदा.-सद्भिक्षुः सब्भिक्खू सभिक्खू । सज्जनः सज्जणो सजणो । एतद्गुणाः एअग्गुणा एअगुणा । तद्गुणाः तग्गुणा तगुणा ।। २५॥ निर्दुरि वा ।। २६॥
निस् और दुस् इन उपसर्गोमें, अन्त्य व्यंजनका विकल्पसे लोप होता है। उदा.-नि:सहम् णिस्सहं णिसहं । निर्घोषः णिग्घोसो णिधोसो। दुःसहः दुस्सहो दूसहो । दुःखितः दुक्खिओ दुहिओ । दुर्भगः दुब्भओ दूहवो ।। २६ ।। अन्तरि च नाचि ।। २७ ।।
__ अन्तर् शब्दमें, तथा (सूत्रमेंसे) चकारसे नि और दुर् इन शब्दोंमें, अन्त्य व्यंजनका, आगे स्वर रहे तो, लोप नहीं होता । उदा.अन्तरंगो। णिरवसेस । दुरुत्तरं । दुरवगाहं । कचित् 'अन्ताउवरि' ऐसा भी (वर्णान्तर) दिखाई देता है ॥ २७ ॥
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हिन्दी अनुवाद-अ. १, पा. १
शि श्लुङ् नपुनरि तु ॥ २८ ॥
'नपुनर्' शब्दमें, अन्त्य व्यंजनके शानुबंध इकार और लोप विकल्पसे होते हैं । श इत् होनेसे, पिछला (पूर्व) स्वर दीर्घ होता है। . उदा.-णउणाइ णउणा। विकल्पपक्षमें णउण। पुनर शब्दमेंभी पुणाइ ऐसा (वर्णान्तर) दिखाई देता है ।। २८ ।। अविद्युति स्त्रियामाल ।। २९॥ .
स्त्रीलिंगमें रहनेवाले (शब्दोंके) अन्त्य व्यंजनका आ होता है। (सूत्रमेंसे आल. शब्दमें ) ल अनुबंध होनेके कारण, (यह वर्णान्तर) नित्य होता है । अविद्युति यानी विद्युत् शब्दको छोडकर (अन्य स्त्रीलिंगी शब्दोंमें अन्त्य व्यंजनका आकार हो जाता है)। (शब्दोंमें अन्त्य व्यंजनका) लोप होता है ( देखिए :-१.१.२५), इस नियमका प्रस्तुत नियम अपवाद है । उदा.-सरित् सरिआ । प्रतिपद् पडिवआ। संपद् संपआ। बहुल (१.१.१७) का अधिकार होनेके कारण, (इस आ के स्थानपर) ईषत्स्पृष्ट-यश्रुतिभी होती है। उदा.-सरिया। पडिवया । संपया । (सूत्रमें) विद्युत् शब्दको छोडकर, ऐसा क्यों कहा है ? (कारण विद्युत् शब्दमें अन्त्य व्यंजनका आकार नहीं होता।) उदा.-विज्ज । विज्जुला ।।२९|| रो रा ॥ ३०॥
स्त्रीलिंगमें रहनेवाले (शब्दोंके) अन्त्य रेफ (र) को रा ऐसा आदेश होता है। उदा.-गिर् गिरा । पुर् पुरा । धुर् धुरा ॥ ३० ॥ हः क्षुत्ककुभि ।। ३१ ॥
क्षुध् और ककुभ इन शब्दोंमें अन्त्य व्यंजनका हकार होता है। उदा.-छुहा । कउहा ॥ ३१ ।। धनुषि वा ।। ३२ ॥
(इस सूत्रमें १.१.३१ से) हः पदकी अनुवृत्ति है । धनुस् शब्दमें अन्त्य व्यंजनका ह विकल्पसे होता है। उदा.-धणुहं धणू ।। ३२॥
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त्रिविक्रम-प्राकृत व्याकरण
सशाशिषि ।। ३३ ॥
(इस सूत्रमें १.१.३२ से) वा शब्दकी अनुवृत्ति है। आशिष शब्दमें अन्त्य व्यंजनको सश् ऐसा आदेश विकल्पसे होता है। (सूत्रके सश् में) श् इत् होनेके कारण, पूर्व (पिछला) स्वर दीर्घ होता है । उदा.-आसीसा आसी ।। ३३ ।।
स आयुरप्सरसोः ।। ३४ ।।
(इस सूत्रमें १.१.३२ से) वा शब्दकी अनुवत्ति है। आयुष , अप्सरस इन शब्दोंमें अन्त्य व्यंजनका सकार विकल्पसे होता है। उदा.दीहाउसो दीहाऊ। अच्छरसा अच्छरा ।। ३४ ।।
दिक्प्रावृषि ॥३५॥
(इस सूत्रमें १.१.३४ से) सः पद (अध्याहृत) है। दिक, प्रावृष इन शब्दोंमें अन्त्य व्यंजनका स होता है । (१.१.३४ से) यह स्त्र 'पृथक् कहे जानेसे, (यह स ) नित्य होता है। उदा.-दिसा । पाउसो ॥३५ ।।
शरदामत् ।। ३६ ॥
___ शरद् प्रकारके शब्दोंके अन्त्य व्यंजनका अ होता है। उदा.शरद् सरओ। भिषक् मिसओ ।। ३६ ।।
तु सक्खिणभवन्तजम्मणमहन्ताः ॥ ३७ ।।
जिनमें अन्त्य व्यंजनोंको कहे हुए आदेश हो गये हैं, ऐसे साक्षिन् , इत्यादि (साक्षिन्, भवत् , जन्मन् , महत्) शब्द निपात (के -रूपमें) विकल्पसे आते हैं। उदा.-सक्खिणो सक्खी। भवन्तो भवं । जम्मणं जम्मो। महन्तो महं ।। ३७।।
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हिन्दी अनुवाद-अ. १, पा. १ यत्तत्सम्यग्विष्वक्पृथको मल् ॥ ३८ ॥
यद् , इत्यादि (यद् , तद्, सम्यक्, विष्वक्, पृथक्) अव्ययोंके अन्त्य हल (व्यंजन) का मकार होता है। (सूत्रके मलमें)ल इत् होनेके कारण, (यह मकार ) नित्य होता है। उदा.-यत् जं। तत् तं । सम्यक् सम्मं । विष्वक् वीसुं । पृथक् पिहं ॥ ३८ ॥ मोऽचि वा ॥ ३९॥
(इस सूत्रमें) मः पद (अध्याहृत ) है। अन्त्य मकारका, स्वर आगे हो तो, मकार विकल्पसे होता है। (शब्दोंके अन्त्य व्यंजनका) लोप होता है (१.१.२५) इस नियमका प्रस्तुत नियम अपवाद है। उदा.-उसहमजिअं च वन्दे । वन्दे उसह अजिअं ॥ ३९ ।। विन्दुलू ॥ ४० ॥
शब्दोंके अन्त्य मकारका बिंदु (अनुस्वार) होता है । (सूत्रके बिंदु में) ल इत् होनेसे, ( यह अनुस्वार ) नित्य होता है। उदा.-फलं। वच्छं । सव्वं । गिरिं । वहुं॥ ४० ॥ हलि उनणनाम् ।। ४१ ।।
(अब) म शब्दकी निवृत्ति हुई है। ङ, ञ, ण और न इन केआगे हल (व्यंजन) हो तो उनका बिंदु (अनुस्वार) हो जाता है। उदा.-ङ का (अनुस्वार)-पङ्क्तिः पंती । पराङ्मुखः परंमुहो। ञ का (अनुस्वार)कञ्चुकः कंचुओ। लाञ्छनम् लंछणं । ण का (अनुस्वार) षण्मुखः छंमुहो। उत्कण्ठा उक्कंठा । न का (अनुस्वार)-सन्ध्या संझा। विन्ध्यः विझो ॥ ४१॥ स्वरेभ्यो वक्रादौ ॥ ४२ ॥
.. बक, इत्यादि शब्दोंमें, प्रथम, (द्वितीय), इत्यादि स्वरोंके आगे, (वादमयमें जैसा) दिखाई देता है वैसा, बिंदु (अनुस्वार) आता है।
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त्रिविक्रम-प्राकृत व्याकरण
उदा.-वंकं वक्रम् । कुंमलं कुड्मलम् । बुंधणं बुध्नम् । पुंछं पुच्छम् । मुंढा मूर्धा । गुंछ गुच्छम् । कंकोडो कर्कोटः । गिठी गृष्टिः । ईसणं दर्शनम् । 'फसो स्पर्शः । अंसू अश्रु । मंसू इमथु। तंसं त्र्यम् । मंजारो मार्जारः । विछिओ वृश्चिकः । इन शब्दोंमें पहले स्वरके आगे अनुस्वार आया है। मणं सिणी मनस्विनी। मणसिला मनःशिला। वअंसो वयस्यः। पंसत्थं पार्श्वस्थम् । पडिंसुआ प्रतिश्रुत् । इन शब्दोंमें दूसरे स्वरके आगे अनुस्वार आया है । उआर उपरि । अणिउतअं अतिमुक्तकम् । इन शब्दोंमें तीसरे स्वरके बाद अनुस्वार आया है। कचित् वृत्त-पूरण के लिए भी अनुस्वार आता है। उदा.-देवंणाअसुवत्तं देवनागसुवक्त्रम् । और कचित् गिठी, मज्जारो, मणसिला, मणोसिला, ऐसेभी रूप दिखाई देते हैं ।। ४२ ॥
‘क्त्वासुपोस्तु सुणात् ।। ४३ ॥ _क्त्वा-प्रत्यय और सुप (प्रत्यय) इनसे संबंधित रहनेवाले जो सुकार और णकार, उनके आगे बिंदु (अनुस्वार) विकल्पसे आता है । उदा.सुकारके आगे अनुस्वार-वच्छेसु वच्छेसु । अम्हेसु अम्हेसु । तुम्हेसुं तुम्हेसु । क्त्वा प्रत्ययके णकारके आगे अनुस्वार-काऊणं काऊण । काउआणं काउआण । सुप से संबंधित रहनेवाले णकारके आगे अनुस्वार-वच्छेणं वच्छेण । वच्छाणं वच्छाण । ममाणं ममाण । तुम्हाणं तुम्हाण। अम्हाणं अम्हाण । सुकार और णकार इनके आगे, ऐसा क्यों कहा है ? (कारण सुकार और णकार न होते तो विकल्पसे अनुस्वार नहीं आता ।उदा.)करिअ । अग्गिणो ॥ ४३ ॥ लुङ् मांसादौ॥४४॥
(इस सूत्रमें ) वा शब्द (अध्याहृत) है। बिन्दु (१.१.४०) पदका अधिकार हैही। (उस बिन्दु शब्दमें) बिन्दुका (बिन्दोः) ऐसा षष्ठयन्त परिणाम होता है (यानी यहाँ बिंदुका ऐसा षष्ठयन्त रूप लेना
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हिन्दी अनुवाद-अ. १, पा. १
है।) मांस इत्यादि शब्दोंमें बिंदु (अनुस्वार) का लोप विकल्पसे होता है। उदा.-मास मंसं । मासलं मंसलं। पासू पंसू। कासं कंस। कह कहं । इआणि इआणिं । दाणि दाणिं । कि करेमि किं करेमि। समुहं संमुहं । नण नणं । एव एवं ।। ४४ ॥
संस्कृतसंस्कारे ॥ १५॥
(इस सूत्रमें १.१.४४ से) लुक पद (अध्याहृत) है। संस्कृत और संस्कार शब्दोंमें बिंदु (अनुस्वार) का लोप होता है। यह सूत्र (१.१.४४ से) पृथक् कहा जानेके कारण, (अनुस्वारका लोप) नित्य होता है। उदा.-सक्कों सक्कारो ।। ४५॥ .. डे तु किंशुके ॥ ४६॥
किंशुक शब्दमें बिंदु (अनुस्वार) का एकार-जिसमें ड अनुबंध हैविकल्पसे होता है। उदा.-केसुओ किंसुओ ॥ ४६॥
वर्गेऽन्त्यः ॥४७॥
(इस सूत्रमें १.१.४६ से) तु शब्दकी अनुवृत्ति है । बिंदुके आगे वर्गीय व्यंजन हो तो उस वर्गकाही संनिध (रहनेवाला) अन्त्य व्यंजन विकल्पसे होता है। उदा.- पङ्को पको। अङ्गणं अंगणं। लञ्छणं लंछण । सञ्झा संझा। कण्टओ कंटओ। मण्डणं मंडणं । अन्तरं अंतर । पन्थो पथो। छन्दो छंदो। बन्धू बंधू। कम्पइ कंपइ । आरम्भो आरंभो। (सूत्रमें) वर्गीय व्यंजन, ऐसा क्यों कहा है ? (कारण वर्गीय व्यंजन न हो तो केवल अनुस्वार ही होगा।) उदा.--संसओ । (वर्गीय व्यंजन आगे हो तो अनुस्वारका उस वर्गका अन्त्य व्यंजन) नित्य होता है, ऐसा कोई छोग मानते हैं ॥ ४७ ॥
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१६
विंशतिषु त्या लोपलू ॥ ४८ ॥
विंशति प्रकार के शब्दोंमें 'ति' अवयवके साथ बिंदुका लोप होता है । (सूत्र के लोपल में ) श इत् होनेसे, पूर्व स्वर दीर्घ होता है । ( तथा श्लोपल में ) ल इत् होनेके कारण, ( यहाँका कार्य ) नित्य हो जाता है । उदा.- वीसा विंशतिः । तीसा त्रिंशत् । तेवीसा त्रयोविंशतिः । तेत्तीसा त्रयत्रिंशत् । दाढा दंष्ट्रा । सीहो सिंहः । ( सिंह शब्द के ) सिंह तथा सिंघ ऐसेभी रूप दिखाई देते हैं । संज्ञाओंमें ( सिंह शब्द होनेपर ) सिंहदन्तो । सिंहराओ ॥ ४८ ॥
त्रिविक्रम - प्राकृत व्याकरण
स्नमदामशिरोनभो नरि ॥ ४९ ॥
स्नंयानी सकारान्त और नकारान्त शब्द; ऐसे शब्दों के रूप नरि अर्थात् पुल्लिंग में प्रयुक्त करें। (सूत्रमें ) ' अदामशिरोनभः ' का यह अभिप्राय हैदामन्, शिरस्, और नभस् शब्दाको छोडकर । उदा . - सान्त (सकारान्त ) - जसो यशः । तमो तमः । उरो उरः । तेओ तेजः । पओ पयः । नान्त ( नकारान्त ) - जम्मो जन्म । कम्मो कर्म । वम्मो वर्म । (सूत्र) दामनू, शिरस् और नभस् शब्दको छोडकर, ऐसा क्यों कहा है ? ( कारण ये शब्द नपुंसकलिंग मेंही प्रयुक्त किये जाते हैं ।) उदा. -दामं । सिरं । णहं । और (सदस्, इत्यादि शब्दोंके बारेमें } सदस् सं । वयस् वअं । सुमनस् सुमणं । शर्म सम्मं । ( इत्यादि रूप ) दिखाई देते हैं, वे बहुलके अधिकारसे होते हैं ॥ ४९॥
शरत्प्रावृट् ॥ ५० ॥
(इस सूत्र ११४९ से) नरि पदकी अनुवृत्ति है । शरत् और प्रावृष् शब्द पुल्लिंग में प्रयुक्त करें । उदा. सरओ । पाउसो ॥ ५० ॥
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हिन्दी अनुवाद
१. पा. १
अक्ष्यर्थकुलाद्या वा ॥ ५१ ॥
(इस सूत्र में १.१.४९ से) नरि पद (अध्याहृत) है । अक्षि ( और अक्षिके ) पर्यायवाचक शब्द, तथा कुल, इत्यादि शब्द पुल्लिंग में विकल्पसे प्रयुक्त करें । उदा. -अक्षि और उस अर्थके शब्द- एस अच्छी । णभ्चाविआई तेणम्ह अच्छी, नर्तिते तेनास्माकमक्षिणी । ( अक्षि शब्द ) अंजल्यादिगणमें कहा गया है, इसलिए वह स्त्रीलिंग में भी प्रयुक्त किया जाता है । उदा. - एसा अच्छी । चक्खू चक्खई । नअणा नअणाई । लोअणा लोअणाई । कुलादि शब्द - कुलो कुलं । वअणो वअणं । माहप्पो माहप्पं । दुक्खो दुक्खं । भाअणो भाअणं । विजुला विष्जुलाई | छंदो छंदं । कुलादि ( गण में आगे कहे गये शब्द होते हैं ) कुल, वचन, माहात्म्य, दुःख, भाजन, विद्युत्, छंदस्, इत्यादि । नेत्ता नेत्ताई, कमला कमलाई, इत्यादि (रूप) संस्कृत जैसे1 ही हैं ॥ ५१ ॥
V
क्लीबे गुणगाः ॥ ५२ ॥
I
(इस सूत्र में १.१.५१ से) वा शब्दकी अनुवृत्ति है । गुण, इत्यादि शब्द नपुंसकलिंग में विकल्पसे प्रयुक्त करें। उदा.- गुणाई गुणा । देवा देवा | मंडलगं मंडलग्गो । खग्गं खग्गो | बिंदूई बिंदुणो । कररुहं कररुहो । रुवखाई स्वखा । गुणादि (गण में आगे कहे गए शब्द आते - गुण, देव, मण्डलाग्र, खड्ग, बिंदु, कररुह, वृक्ष, इत्यादि ॥ ५२ ॥ स्त्रियामिमाञ्जलिगाः ॥ ५३ ॥
इमा से अन्त होनेवाले शब्द और अंजलि, इत्यादि शब्द स्त्रीलिंगमें विकल्प से प्रयुक्त करें । उदा . - एसा गरिमा एस गरिमो । एसा महिमा एस महिमो । एसा जिल्लज्जिमा एस णिल्लज्जिमो । एसा घुत्तिमा एस धुत्तिमो । अंजलि, इत्यादि शब्द - एसा अंजली एस अंजली | बलीए बलिणा । णिहीए णिहिणा । रस्सीए रस्सिणा । पण्हा पण्हो | अच्छीए त्रि. प्रा. ष्या.... १
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त्रिविक्रम - प्राकृत व्याकरण
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अच्छिणा । गंठीए गठिणा । कुच्छीए कुच्छिणा | चोरिआ चोरिं । विहीए विहिणा । पिट्ठी पिट्ठ । पृष्ठ शब्दमें (ऋ स्वरका ) इ किया जानेपरही वह केवल स्त्रीलिंग में प्रयुक्त किया जाता है, ऐसा कोई कहते हैं । अंजल्यादि ( गण में होनेवाले शब्द ऐसे हैं ) - अंजलि, बलि, निधि, रश्मि, प्रश्न, अक्षि, प्रन्थि, कुक्षि, चौर्य, विधि, पृष्ठ, इत्यादि । 'इमन्' ऐसा यहाँ जो नियमन है (तंत्रेण), उस (कारण) से (भाववाचक संज्ञा सिद्ध करनेका जो 'ख' प्रत्यय है उस ) व (प्रत्यय) का आदेश, डित् इमा ऐसा आदेश और पृथु, इत्यादि शब्दाको लगनेवाला इमनिच् प्रत्यय, इनका संग्रह यहाँ होता है । त्व (प्रत्यय) का आदेश लगकर सिद्ध होनेवाले शब्द स्त्रीलिंगमेंही प्रयुक्त होते हैं, ऐसा कोई मानते हैं ॥ ५३ ॥
प्रथम अध्याय प्रथम पाद समाप्त
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निष्प्रती ओवार प्रति ये दो म ओ और पार ओमालयं
द्वितीयः पादः निष्प्रती ओत्परी माल्यस्थोर्वा ।।१।।
निर् और प्रति ये दो उपसर्ग; उनके आगे माल्य शब्द तथा स्था धातु आगे हों तो उनके यथाक्रम ओ और परि ऐसे दो रूप विकल्पसे होते हैं। उदा.-ओमलं णिम्मल्लं निर्माल्यम् । ओमालयं वहइ । परिहा पइट्ठा प्रतिष्ठा । परिट्टि पइट्ठिअं प्रतिष्ठितम् ॥ १।। आदेः ।।२।
(सूत्रमेंसे) आदेः (पहले वर्णका) पदका अधिकार 'अस्तोरखोरचः' (१.३.७) इस सूत्रके पूर्वसूत्रतक अविशेषतः है, ऐसा जाने ।।२।। लुगव्ययत्यदाद्यात्तदचः ॥ ३ ॥ । अव्यय और त्यत, इत्यादि सर्वनाम इनके आगे (स्वरादि) अव्यय और त्यत्, इत्यादि सर्वनाम जब आते हैं, तब तदचः(अर्थात् आगे आनेवाले) अव्यय तथा सर्वनाम इनमेंसे आद्य अच् (स्वर) का विकल्पसे (बहुलं) लोप होता है। उदा.-अम्हे एत्थ अम्हेत्थ, वयमत्र । जइ इमा जइमा, यदीमाः। जइ अहं जइहं, यद्यहम् ॥३॥ बालाब्बरण्ये ॥ ४ ॥
(इस सूत्रमें १.२.३ से) लुक् शब्दकी अनुवृत्ति है। अलाबु तथा अरण्य इनमें आद्य (स्वर) का लोप विकल्पसे होता है । उदा.-लाऊ अलाऊ। रणं अरण्णं ।। ४ ॥ ।। ४ ।।
. अपेः पदात् ॥ ५ ॥
(इस सूत्रमें १.२.४ से) वा शब्द (अध्याहृत) है। किसी भी पदके आगे आनेवाले अपि उपसर्गके आद्य (स्वर) का लोप विकल्पसे होता है। उदा.-किं पि किमवि । तं पि तमवि । केण विकेणावि। कहं पिकहमवि। पदके (आगे आनेवाले), ऐसा क्यों कहा हैं ? (कारण पदके आगे अपि न हो तो आद्य स्वरका विकल्प से लोप नहीं होता।) उदा.-अवि णाम ॥ ५॥
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त्रिविक्रम - प्राकृत व्याकरण
इतेः ॥ ६ ॥
(इस सूत्र में १.२.५ से) 'पदात् ' पद (अध्याहृत) है । पदके आगे होनेवाले इति शब्द के आद्य (स्वर) का लोप होता है । यह नियम पृथक्रूपसे कहा है, इसलिए ( यहाँका वर्णान्तर) नित्य होता है | उदा.किंमिति किं ति । यदिति जं ति । तदिति तं ति । युक्तमिति जुत्तं ति । पदके आगे ( होनेपरही इति के आद्य स्वरका लोप होता है, अन्यथा नहीं । ) उदा. - इअ विंझगुहाणिलआए, इति विन्ध्यगुहानिलयायाः || ६ ||
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तोऽचः ॥ ७ ॥
(सूत्रमेंसे) अचः यानी स्वरात् । स्वरके आगे होनेवाले इति शब्द के आथ इकारका तकार होता है । उदा - तह त्ति तथेति । झत्ति झटिति । पिओ त्ति प्रिय इति । स्वरके आगे होनेवाले, ऐसा क्यों कहा है ? (कारण स्वरके आगे इति न हो तो यह वर्णान्तर नहीं होता ।) उदा. - किं ति ॥ ७ ॥ शोलुप्यवरशोर्दिः ॥ ८॥
S
(सूत्रमेंसे) शोः यानी शुके अर्थात् श्, ष, स् इन वर्णोंके | (सूत्रके); लुप्यवरशोः का अभिप्राय है - लुप्त हुए यू, व्, र्, श्, ब् और सू इनके । आदि स्वरका दि यानी दीर्घ होता है । ( अर्थ यह हुआ - ) ( व्यंजनोंके )संयोगमें पहले या अनन्तर ( उपर्यधो वा) रहनेवाले य्, व्, र्, श्, ष, स इनका लोप होनेपर, जो श, ष् स् अवशिष्ट रहते हैं, उनके आथ स्वरका दीर्घ (स्वर) होता है, यह अर्थ है । उदा. -- शू से संयुक्त रहनेवाले यू का लोप होनेपर - कश्यपः कासवो । आवश्यकम् आवासयं । पश्यति पासइ । ( श् से संयुक्त रहनेवाले) वू का लोप होनेपर - अश्व : आसो । विश्वास:: वीसासो | विश्वसिति वीससइ । ( शू से संयुक्त रहनेवाले) र् का लोप होनेपर - विश्रामः वीसामो । विश्राम्यति वीसामइ । मिश्रम् मीस । संस्पर्श : संफासो । (शू से संयुक्त रहनेवाले) शू का लोप होनेपर - दुश्शासन : दूसासणो । मनश्शिला मणासिला । (बू से संयुक्त रहनेवाले) यू का लोप होनेपर - शिष्यः:
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हिन्दी अनुवाद-अ. १, पा.२ सीसो। पुष्यः पूसो। मनुष्यः मणसो। ( से संयुक्त रहनेवाले) व का लोप होनेपर-विष्वाणः वीसाणो। विष्वक् वीसु। (पू से संयुक्त रहनेवाले) र् का लोप होनेपर-कर्षकः कासओ। वर्षा वासा । (ष से संयुक्त रहनेबाले) ५ का लोप होनेपर-निषिक्तः णीसित्तो। स् से संयुक्त रहनेवाले य का लोप होनेपर-सस्यम् सासं । कस्यचित् कासइ । (स् से संयुक्त रहनेवाले) व् का लोप होनेपर-विकस्वरः वीआसरो। निस्स्वः णीसो। (स से संयुक्त रहनेवाले) र का लोप होनेपर-उस्रः ऊमो । विस्रम्भः वीसंभो। (स से संयुक्त रहनेवाले) स् का लोप होनेपर-निस्सहः णीसहो । बहुलके अधिकारसे, व का लोप होनेपर कचित् अन्य (दूसरे) ही आद्य स्वरका दीर्घ होता है। उदा.-जिह्वा जीहा । यहाँ 'दीघीन्न' (१.४.८७) ऐसा प्रतिषेध होनेसे, 'शेषादेशस्याहोऽचोऽखोः' (१.४.८६) सूत्रमें कहा गया द्वित्व नहीं होता ।। ८ ।। हे दक्षिणेऽस्य ।। ९॥ . (इस सूत्रमें १.२.८ से) दिः पदकी अनुवृत्ति है । दक्षिण शब्दमें, क्ष का हे यानी हकार होनेपर, अ का अर्थात् अ-वर्णका दीर्घ होता है। उदा.-दाहिणो। हकार होनेपर, ऐसा क्यों कहा है । (कारण यदि क्ष का हकार न हो तो यह वर्णान्तर नही होता।) उदा.-दक्खिणो ।। ९॥ तु समृद्धयादौ ॥ १०॥
(इस सूत्र में १.२.९ से) अस्य पदकी अनुवृत्ति है। समृद्धि, इत्यादि शब्दोंमें आद्य अ-वर्णका दीर्घ विकल्पसे होता है। उदा.-- सामिद्धी समिद्धी समृद्धिः । पाडिसिद्धी पडिसिद्धी प्रतिसिद्धिः । सारिच्छो सरिच्छो सदृक्षः । माणसी मणसी मनस्वी। पासुत्तो पसुत्तो प्रसुप्तः । पाडिप्फद्धी पडिप्द्धी प्रतिस्पर्धी । पाडिवआ पडिवआ प्रतिपद् । पावासू पवासू प्रवासी। आहिआई अहिआई अभिजातिः । पाअडं पअडं प्रकटम् । पाअ पअ प्रकृतम् । पासिद्धी पसिद्धी प्रसिद्धिः । पारकेरं परकर पारक,
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.२२
त्रिविक्रम-प्राकृत व्याकरण
परकं, परकीयम् । चाउरतं चउरंतं चतुरन्तम् । आफंसो अफसो अस्पर्शः पावअणं पवअणं प्रवचनम् । पारोहो परोहो प्ररोहः । इत्यादि ॥ १० ॥ स्वमादाविल् ॥ ११ ॥
स्वप्न, इत्यादि शब्दोंमें आध अ-वर्णका इ होता है। (सूत्रके इल में) ल् इत् होनेके कारण, (यह इकार) नित्य होता है। उदा.-सिविणो सिमिणो स्वप्नः । विअणं व्यजनम् । विलिअं व्यलीकम् । किविणो कृपणः । मिहंगो मृदङ्गः । ईसि ईषत् । वेडिसो वेतसः। दिण्णं दत्तम् । उत्तिमो उत्तमः । मिरि मरिचम् । बहुलका अधिकार होनेसे, दत्त शब्दमें ण्णत्व नहीं हुआ तो इ नहीं होता । उदा.- दत्तं ॥ ११ ॥ पक्काङ्गारललाटे तु ॥ १२ ॥
पक्क, अङ्गार, ललाट इन शब्दों में आद्य अ का इ विकल्पसे होता है। उदा.-पिकं पक्कं । इंगारो अंगारो। णिडालं णडालं ॥ १२ ॥ सप्तपणे फोः ॥ १३ ॥
सप्तपर्ण शब्दमें फुका यानी द्वितीय (अ-वर्ण) का इत्व विकल्पसे होता है। उदा.-छत्तिवण्णो छत्तवण्णो ।। १३ ॥ मध्यमकतमे च ।। १४ ।।
(सूत्र १.२.१३ से) फोः पदकी अनुवृत्ति इस (१.२.१४) सूत्रमें है, यह दिखानेका काम इस सूत्रका चकार करता है। मध्यम और कतम शब्दोंके द्वितीय अच का ( स्वरका) इत्व होता है। (१.२.१२-१३ से) यह नियम पृथक् कहा जानेसे, (यहाँका वर्णान्तर) नित्य होता है । उदा.मज्झिमो। कइमो ।। १४ ।। हरे त्वी ।। १५ ॥
_ 'हर' शब्दके आद्य अच् (स्वर) का ईत्व विकल्पसे होता है। हीरो। हरो॥ १५॥
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हिन्दी अनुवाद-अ. १, पा.२ उलू ध्वनिगवयविष्वचो वः ॥ १६ ॥
ध्वनि, गवय, विष्वक् शब्दोंमें, वकारसे संबंधित (होनेवाले) अवर्णका उत्व लित् (नित्य) होता है । उदा.-झुणी । गउओ। वीसुं ।। १६ ।। ज्ञो णोऽभिज्ञादौ ।। १७ ॥
(इस सूत्रमें) उत्वं पदकी अनुवृत्ति है। अभिज्ञ, इत्यादि शब्दोंमें ज्ञकारको आदेशके रूपमें आनेवाले ण से संबंधित (रहनेवाले) अ-वर्णका उ होता है। उदा.-अहिण्णु अभिज्ञः । सव्वष्णू सर्वज्ञः। आगमष्णू आगमज्ञः । कअण्णू कृतज्ञः । (ज्ञ को) ण (आदेश) होनेपर, ऐसा क्यों कहा है ! (कारण यदि ण आदेश न हो तो यहाँका वर्णान्तर नहीं होता।) उदा.- अहिजो अभिज्ञः । अभिज्ञः, इत्यादि शब्दोंमें, ऐसा क्यों कहा है ? (कारण अन्य शब्दोंमें ज्ञ कोण आदेश होनेपरभी अ का उ नहीं होता।) उदा.-पण्णो प्राज्ञः। अहिण्णा अभिज्ञा । जिन शब्दोंमें ज्ञ को ण आदेश होकर, उससे संबंधित (होनेवाले) अ का उ हुआ दिखाई देता है, वे अभिज्ञ, इत्यादि शब्द होते हैं ।। १७ ।। स्तावकसास्ने ।। १८ ।
____स्तावक और सास्ना शब्दोंके आद्य अ-वर्ण का उ होता है। उदा.थुवओ। सुण्हा ॥ १८॥ चण्डखण्डिते णा वा ॥ १९॥
चण्ड और खण्डित शब्दोंमें, णकारके साथ आध अवर्णका उ विकल्पसे होता है । उदा.-चुडं चण्डं । खुडिओ खंडिओ ॥ १९॥ प्रथमे प्योः ॥ २० ॥ . प्रथम शब्दमें, पकार और थकार इनसे संबंधित (रहनेवाले) अवर्णका, (दोनोंका) एकसाथ (युगपद् } और क्रमसे, उ विकल्पसे होता है। उदा. पुढुम पढुमं पुढमं पढमं ॥ २० ॥
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'त्रिविक्रम-प्राकृत व्याकरण
आर्यायां यः श्वश्वामूल् ।। २१॥
श्व (सास) वाचक आर्या शब्दमें, र्यकारसे संबंधित (होनेवाले) अ-वर्णका लित् (नित्य) ऊ होता है। उदा.-अज्जू । श्वश्रूवाचक (आर्या शब्दमें), ऐसा क्यों कहा है ? (कारण श्वश्रू अर्थ नहीं होता तो यह वर्णान्तर नहीं होता।) उदा.-अज्जा (यानी) माता ॥२१॥
आसारे तु ।। २२ ॥
आसार शब्दमें आच अ-वर्णका ऊत्व विकल्पसे होता है। उदा.ऊसारो आसारो॥२२॥
तोऽन्तर्येलू ।। २३ ॥
___ अन्तर शब्दमें तकारसे संबंधित (रहनेवाले) अ-वर्णका लित् (नित्य) ए होता है। उदा.-अन्तःपुरम् अंतेउरं । अन्तश्चारी अंतेआरी। कचित् (ऐसा ए) नहीं होता। उदा.-अन्तर्गतम् अंतग्ग। अंतोवीसंभणिवेसिआण, अन्तर्विश्रम्भनिवेशितानाम् ॥ २३ ॥
पारावते तु फोः ॥ २४ ॥
पारावत शब्दमें फु का यानी द्वितीय (अ-वर्ण) का ए विकल्पसे होता है। उदा.-पारेवओ पारावओ।। २४ ॥
उत्करवल्लीद्वारमात्रचः ॥२५॥
उत्कर, वल्ली, द्वार शब्दोंमें (और) मात्रच प्रत्ययमें आध अ-वर्णका ए विकल्पसे होता है। उदा.-उक्केरो उक्करो। वेल्ली वल्ली। देरं दारं । विकल्पपक्षमें दुआरं । मात्र प्रत्ययमें- एत्तिअमेत्तं एत्तिअमत्तं एतावन्मात्रम् । बहुलका अधिकार होनेसे, मात्र शब्दमें भी (आध अ-वर्णका ए होता है।) उदा.-मोअणमेत्तं भोजनमात्रम् ॥ २५ ॥
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हिन्दी अनुवाद-अ. १, पा.२
शय्यादौ ।। २६ ॥
___ शय्या इत्यादि शब्दों में आध अ-वर्णका ए होता है । (१.२.२४२५ से) यह नियम पृथक् कहा जानेसे, (यहाँका वर्णान्तर) नित्य होता है। उदा.-सेजा शय्या । एत्य अत्र | गेज्झं ग्राह्यम् । गेंदुअं कन्दुकम् ।।२६॥ त्वाई उदोत् ।। २७ ॥
आई शब्दमें आध अ-वर्णके उ और ओ विकल्पसे होते हैं। उदा.उलं ओल्लं । विकल्पपक्षमें-अल्लं अई। बाहस लिलप्पवहेण ओल्लेइ, बाष्पसलिलप्रवाहेणार्द्रयति ॥ २७॥ स्वपि ॥ २८॥
(इस सूत्रमें १.२.२७ से) उदोत् शब्दकी अनुवृत्ति है। स्वप् (स्वपि) धातुके आध अ-वर्णके उ और ओ होते हैं । (१.२.२७ से) यह नियम पृथक् कहा जानेसे, (यहाँका वर्णान्तर) नित्य होता है। उदा.सुवइ सोवइ ।। २८ ॥ ओदाल्यां पङ्क्तौ ।। २९ ।।
पङ्क्ती यानी पंक्तिवाचक आली शब्दमें आद्य अ-वर्णका ओ होत है। उदा.-ओली । पंक्तिवाचक (आली शब्दमें), ऐसा क्यों कहा है ! (कारण आली पंक्तिवाचक न हो तो यह वर्णान्तर नहीं होता।) उदा.
आली (यानी) सखी ॥ २९ ॥ 'फोः परस्परनमस्कारे।। ३०॥
(इस सूत्रमें १.२.२९ से) ओत् शब्दकी अनुवृत्ति है। परस्पर और नमस्कार शब्दोंमें फु यानी दितीय (अ-वर्ण) का ओ होता है । उदा.परोप्परं । णमोकारो ।। ३० ॥ पद्म मि ॥ ३१ ॥
पद्म शब्दमें आध अ-वर्णका, मकार आगे होनेपर, ओ होता है। उदा.-पोम्म। (सूत्रमें) मि (मकार आगे होनेपर), ऐसा क्यों कहा है ? (कारण आगे मकार न हो तो यह वर्णान्तर नहीं होता।) उदा.-पदुमं ॥३१॥
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त्रिविक्रम-प्राकृत व्याकरण त्वपों॥ ३२॥ ... अौ यानी अर्पयति धातुमें आध अ का ओ विकल्पसे होता है। उदा.-ओप्पेइ अप्पेइ । ओप्पि अप्पिरं ॥ ३२ ॥ ईल् खल्वाटस्त्यानयोरातः ।। ३३ ।।
खल्वाट और स्त्यान शब्दोंके आद्य आकारका लित् (नित्य) ई होता है। उदा.-खल्लीडो ! ठीणं । संखाअं यह रूप मात्र 'स्त्यः समः खा" (२.४.१२४) सूत्रसे ख आदेश होकर, क्त-प्रत्यय लगनेपर, सिद्ध हुआ है ॥ ३३ ।। इत्तु सदादौ ॥३४॥
(इस सत्रमें १.२.३३ से) आतः पदकी अनुवृत्ति है । सदा इत्यादि शब्दोंमें आद्य आकारका इ विकल्पसे होता है। उदा.-सइ सआ सदा । कुप्पिसो कुप्पासो कूर्पासः। णिसिअरो णिसाअरो निशाकरः । इत्यादि ॥ ३४ ॥ आचार्ये चो हश्च ।। ३५ ॥
आचार्य शब्दमें चकारसे संबंधित (रहनेवाले) आ का ह यानी हस्व होता है । (सूत्रमें) चकार होनेसे, (इस आ का) इ भी होता है । उदा.-आअरिओ आइरिओ ॥ ३५ ।। श्यामाके मः ॥ ३६॥
(इस सूत्रमें १.२.३५ से) हः पदकी अनुवृत्ति है। श्यामाक शब्दमें मकारसे युक्त (रहनेवाले) आ का ह यानी -हस्व होता है। उदा.-सामओ ॥ ३६॥ न वाव्ययोत्खातादौ॥ ३७ ।।
___ अव्ययोंमें तथा उत्खात, इत्यादि शब्दोंमें, आद्य आ का हस्व विकल्पसे नहीं होता। उदा.-अव्ययोंमें-जह जहा यथा। तह तहा तथा।
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हिन्दी अनुवाद-अ. १, पा.२
अहव अहवा अथवा । ब वा । ह हा । इत्यादि । उत्खात, इत्यादि शब्दोंमेंउक्ख अं उक्खाअं उत्खातम् । कुमरो कुमारो कुमारः। खरं खाइरं खादिरम् । वलआ बलाआ बलाका। पअअंपाअअं प्राकृतम् । चमरो चामरो चामरः । कलओ कालाओ कलादः. (यानी) स्वर्णकार (सोनार)। हलिओ हालिओ हालिकः (अर्थात् ) कृषीवल: (किसान)। णराओ नाराओ नाराचः । तलविंटं ताल विंटं तालवृन्तम् । ठविओ ठाविओ स्थापितः। पट्टविओ पट्टाविओ प्रस्थापितः । संठविओ. संठाविओ संस्थापितः । इत्यादि । ब्राह्मण
और पूर्वाह्न शब्दोंमेंभी (यह नियम लगता है), ऐसा कोई कहते हैं। उदा.- बम्हणो बाम्हणो । पुव्वण्हो पुव्वाण्हो ॥ ३७ ॥ पनि वा ॥ ३८ ॥
घम् प्रत्ययके कारण आनेवाला जो वृद्धिरूप आकार, वह जब आद्य होता है तब उसका -हस्व विकल्पसे होता है । (इस सूत्रमें) पुनः 'वा' शब्द का ग्रहण किये जानेसे, अगले सूत्रमें (१.२.३९ में) विकल्प नहीं होता। उदा.-पवहो पवाहो प्रवाहः। पहरो पहारो प्रहारः। पअरो पआरो प्रकारः या प्रचारः। पत्थओ पत्थाओ प्रस्तावः । क्वचित (इस प्रकारका -हस्व) नहीं होता। उदा.-रागः राओ। भाग: भाओ॥ ३८ ॥ स्वरस्य बिन्द्वमि ॥ ३९ ॥
. बिंदु (अनुस्वार) और अम् यानी द्वितीया एकवचन (प्रत्यय) आगे होनेपर, (पिछले) स्वरका हस्व होता है। उदा.- अनुरवार आगे होनेपरमांसम् मंसं । मांसलम् मंसलं । पांसुः पंसू। कास्यम् कंसं। वांशिकः वंसिओ। काञ्चनम् कंचणं। लाञ्छनम् लठणं । द्वितीया एक वचन (प्रत्यय) आगे होनेपर-गंगं । मालं। नई। वहुं ॥ ३९॥ संयोगे ॥ ४०॥
(यंजनोंका) संयोग (संयुक्त व्यंजन) आगे होनेपर, (उसके) पूर्व (पिछला) (दीर्घ) स्वर हस्व होता है। उदा.-आ (का हस्व-आम्रम्
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त्रिविक्रम-प्राकृत व्याकरण
त्यणवा । म्लेछ: मिस्त्रम् सुत्त । पूर्वमन्त्य । शीघम् काव्यम
अंबं । ताम्रम् तंबं। विरहाग्निः विरहगी। अमात्यः अमच्चो। काव्यम् कव्वं । ई (का हस्त्र)-मुनीन्द्रः मुणिंदो। तीर्थम् तित्थं । शीघ्रम् सिग्धं । ऊ (का हस्त्र)-चूर्णम् चुण्णं । सूत्रम् सुत्तं । पूर्वम् पुग्वं । ए (का हस्व)नरेन्द्रः परिन्दो। म्लेच्छः मिलिच्छो। ऐ (का प्हस्व)-दृष्टैकस्तनपट्टम् दिट्ठोक्कत्थणवई । ओ (का हस्त्र)-अधरोष्ठः अहरुट्ठो। नीलोत्पलम् णीलुप्पलं । ए और ओ के बारेमें (यह जानें कि) कचित् वे स्वरूपसेही (स्वतःही) -हस्व होते हैं। उदा.-एकः ऍक्को। नेत्रम् णेत्त। ग्राह्यम् गेंज्झं । स्तोकम् थोकं । तुण्डम् तोण्डं। इत्यादि ।। ४० ॥ त्वेदितः॥४१॥
(इस सूत्रमें १.२.४० से) 'संयोगे' पदकी अनुवृत्ति है। आगे (व्यंजनोंका) संयोग (संयुक्त व्यंजन) होने पर, आद्य इकारका ए विकल्पसे होता है। उदा.-पेण्डं पिण्डं । धम्मेल्लं धम्मिल्लं। सेन्दूरं सिन्दूरं सिन्दूरम् । बेल्लं बिल्लं बिल्वम् । वेण्हू विण्हू विष्णुः । कचित् (इस प्रकार ए) नहीं होता। उदा.-चिन्ता ॥ ४१ ।। मिरायां लित् ॥ ४२ ।।
(इस सूत्रमें १.२.४१ से) इतः और एत् पदोंकी अनुवृत्ति है। मिरा शब्दमें इ का लित् (नित्य) ए होता है । उदा.-मेरा (यानी) सीमा ।। ४२ ॥ मूषिकविभीतकहरिद्रापथिपृथिवीप्रतिश्रुत्यत् ॥४३॥
मूषिक, इत्यादि शब्दोंमें आद्य इकारको अकार आदेश होता है। मषिकः मूसओ। विभीतकः वहेडओ । हरिद्रा हलदी। पथि पहो। पथ शब्द अकारान्त रहनेपरभी, पथि शब्दका अन्य रूप न हो, इसलिए यह नियम कहा है। पृथिवी पुहवी पुढवी। प्रतिश्रुत् पडंसुआ (यानी) प्रतिध्वनि ॥ ४३ ॥
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हिन्दी अनुवाद-अ. १, पा.२
रस्तित्तिरौ॥ ४४ ॥
(इस सूत्रमें १.२.४३ से) अत् शब्दकी अनुवृत्ति है। तित्तिरि शब्द में र् से संबंधित (रहनेवाले) इकारका अ होता है। उदा.- तित्तिरो ।। ४४ ॥ इतौ तो वाक्यादौ॥ ४५ ॥
वाक्यके प्रारंभमें रहनेवाले इति शब्दमें तकारसे संबंधित (होनेवाले) इ का अ हो जाता है। उदा.---इअ विअसिअकुसुमसरो, इति विकसितकुसुमशरः । वाक्यके प्रारंभमें, ऐसा क्यों कहा है ? (कारण वाक्यके प्रारंभमें. इति न हो तो यह वर्णान्तर नहीं होता।) उदा.-पिओ त्ति ।। ४५ ॥ वेगुदशिथिलयोः ।। ४६ ॥
इङ्गुद और शिथिल शब्दोंमें आद्य इ का अ विकल्पसे होता है। उदा.-अंगुअं इंगुअं । सढिलं सिढिलं। पसढिलं पसिढिलं । णिम्मा, णिम्मिश्र, ये रूप मात्र निर्मातृ और निर्मित शब्दोंसे होंगे॥ ४६॥ उ युधिष्ठिरे ।। ४७ ॥
(इस सूत्रमें १.२.४६ से) वा शब्द की अनुवृत्ति है । युधिष्ठिर शब्दमें आद्य इ का उ विकल्पसे होता है । उदा.-जुहुट्टिलो जुहि ढिलो ।। ४७॥ द्विनीक्षुप्रवासिषु ॥ ४८ ॥
(इस सूत्रमें) उत्व शब्दकी अनुवृत्ति है। द्वि शब्दमें, नि इस उपसर्गमें, तथा इक्षु और प्रवासिन् शब्दोंमें आद्य इ का उ होता है। (१.२.४७ से) यह नियम पृथक् कहा जानेसे, यहाँ विकल्प नहीं होता। उदा.-द्विमात्रः दुमत्तो। द्विजातिः दुआई। द्विविधः दुविहो। द्विरेफः दुरेहो । द्विवचनम् दुवअणं, दुहा वि सो सुरवहूसत्थो, द्विधापि स सुरवधूसार्थः । बहुलका अधिकार होनेसे, कचित् विकल्प होता है। उदा.दुउणो विउणो द्विगुणः। दुइओ विइओ द्वितीयः। कचित् (उ) नहीं होता। उदा.-द्विजः दिओ ! द्विरदः दिरओ। द्विधागतः दिहागओ। कचित् (इ का) ओ भी होता है। द्विवचनम् दोवअणं । नि (उपसर्ग) में
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त्रिविक्रम-प्राकृत व्याकरण
णुमजइ निमज्जइ । णुमंतो निमन्त्रः । कचित् (नि में उ) नहीं होता। उदा.-निपतति णिवडइ । इक्षुः उच्छ्र । प्रवासी पत्रास ।। ४८ ॥ तु निर्झरद्विधाकोरोन्ना ।। ४९ ॥
निर्झर शब्दमें तथा द्विधाकृ शब्दमें, आद्य इ का (निर्झर शब्दमें मात्र नकार के साथ) ओ विकल्पसे होता है। उदा.-ओझरो णिज्झरो निर्झरः। दोहाकिज्जइ दुहाकिज्जइ द्विधाक्रियते। दोहाइअं दुहाइअं द्विधाकृतम् ।-(द्विधा-) कृ (कृञ्), ऐसा क्यों कहा है ? (कारण द्विधा के आगे कृ न हो तो यह वर्णान्तर नहीं होता।) उदा.-दिहागअं द्विधागतम् ॥४९॥ ईतः काश्मीरहरीतक्यो लौ । ५० ।।
काश्मीर और हरीतकी शब्दोंमें ईकारके यथाक्रम आ और अ लित् (नित्य) होते हैं। उदा.-कम्हारो। हरडई ।। ५० ।। गभीरग इत् ।। ५१ ॥
(इस सूत्रमें १.२.५० से) ईतः पदकी अनुवृत्ति है। गभीर, इत्यादि शब्दोंमें आद्य ईकारका इ होता है। उदा.-गहिरो गभीरः । सिरिसो शिरीषः। आणिों आनीतम्। स्त्रीलिंगके रूपोंमें ईकारभी (वाड्मयमें) दिखाई देता है। उदा.-आणीदा भुअणब्भुरकजणणी, आनीता भुवनाद्भुतैकजननी । गहिअ गृहीतम् । विलिअं वीडितम् । विइओ द्वितीयः। पइविअ प्रदीपितम् । तइओ तृतीयः। जिअओ जीवन् । ओसिअन्तो अवसीदन् । पसिअ प्रसीद। वम्मिओ वल्मीकः । इत्यादि । तआणिं रूप मात्र तदानीम् शब्दमें ' स्वरस्य बिन्दूमि' (१.२.३९) सूत्रके अनुसार (ई का) -हस्व होकर सिद्ध हुआ है ॥ ५१ ॥ वा पानीयगे ।। ५२ ॥
पानीय, इत्यादि शब्दोंमें आद्य ईकारका इ विकल्पसे होता है। उदा.-पाणि पाणीअं पानीयम् । अलिअं अलीअं अलीकम् । करिसं करीसं
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हिन्दी अनुवाद-अ १, पा. २
करीषम् । उवणि उवणीअं उपनीतम् । जिअइ जीअइ जीवति । इत्यादि ॥ ५२ ।। उलू जीर्णे ॥ ५३ ॥
____ जीर्ण शब्दमें ई का उ होता है । (सूत्रके उल् में) ल् इत् होनेसे, (यहाँ) विकल्प नहीं होता । उदा.-जुण्णं । कचित् (उ) नहीं होता। उदा.जिण्णे भोअणमत्ते, जीर्णे भोजनमात्रे ।। ५३ ॥ तीर्थे झूल ।।५४॥
तीर्थ शब्दमें, (आगे) हि यानी हकार होने पर, ई का ऊ होता है। उदा.-तूहं । ह होनेपर, ऐसा क्यों कहा है ? (कारण आगे ह न हो तो यह वर्णान्तर नहीं होता।) उदा.-तित्थं ॥ ५४ ॥ विहीनहीने वा ॥ ५५ ॥
विहीन और हीन शब्दोंमें ई का ऊ विकल्पसे होता है। उदा.विहूर्ण विहीणं । हुणं हीणं । (विहीन और हीन) इनमेंही, ऐसा क्यों कहा है ! (कारण अन्यत्र ऐसा नहीं होता।) उदा.-पहीणजरमरणा ॥ ५५॥ एल् पीठनीडकीदृशपीयूषविभीतकेशापीडे ॥ ५६ ॥ . पीठ, इत्यादि शब्दोंमें आद्य ई का ए होता है। (सूत्रके एल में) ल् इत् होनेसे, यहाँ विकल्प नहीं होता। उदा.-पेढं। नेडं । केरिसो। पेऊसं। बहेडओ। एरिसो। आमेलो । बहुलका अधिकार होनेसे, पीठ और नीड शब्दोंमें विकल्प होता है। उदा.-पीढं नीडं ॥ ५६ ।। त्वदुत उपरिगुरुके ॥ ५७ ॥
उपरि और गुरुक शब्दोंमें आद्य उकारका अ विकल्पसे होता है। उदा.-अवरि उवरि । गरुओ गुरुओ। (गुरूक शब्दमें) क-प्रत्यय का ग्रहण होनेसे, गुरु शब्दमें (यह वर्णान्तर) नहीं होता । उदा.-गुरू ।।५७॥
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३२.
त्रिविक्रम-प्राकृत व्याकरण मुकुलादौ ।। ५८ ॥
(इस सूत्रमें १.२.५७ से) उतः और अत् पदोंकी अनुवृत्ति है। मुकुल, इत्यादि शब्दोंमें आध उकारका अ होता है। यह नियम (१.२. ५७ से) पृथक् कहा जानेसे, यहाँ विकल्प नहीं होता। उदा.-मउलं मुकुलम् । मउडं मुकुटम् । यद्यपि मकुटम् शब्द संस्कृतमें है, तथापि यह नियम मुकुट शब्दके अन्य रूपोंके निवृत्तिके लिए है। मउर मुकुरम् । अगरू अगुरुः । गलोई गुडूची। गरूई गुर्वी। जहु हिलो युधिष्ठिरः। सोअमल्लं सौकुमार्यम् । इत्यादि । बहुलका अधिकार होनेसे, कचित् (उ का) आ होता है । उदा.-विद्रुतः विदाओ ॥ ५८ ।। रो कुटिपुरुषयोरित् ॥ ५९॥
(रुकुटि और पुरुष) इन शब्दोंमें रेफसे संबंधित (रहनेवाले) उकारका इ होता है। उदा.-भिउडी। पुरिसो। पउरिस पौरुषम् ॥५९॥ क्षुत ईत् ।। ६० ॥
क्षुत् शब्दमें उ का ई होता है । उदा.-छी॥ ६० ।। दो दो ऽनुत्साहोत्सन्न ऊच्छसि ॥ ६१:॥
उत्साह और उत्सन्न शब्दोंको छोडकर, उत् उपसर्गके आगे शकार और सकार होनेपर, उत् उपसर्गका दा यानी दकारके साथ ऊ होता है । उदा.-उच्छ्वासः ऊसासो। उच्छ्वसिति ऊससइ । उच्छुकः (अर्थात् ) उद्गताः शुकाः यस्मिन् सः (जिसमेंसे तोते उड गये हैं वह) ऊसुओ। उत्सुकः ऊसुओ। उत्सवः ऊसओ। उत्सरति ऊसरइ। उसिक्तः ऊसित्तो । उत्साह और उत्सन्न शब्दोंको छोडकर, ऐसा क्यों कहा है ! ( कारण इन शब्दोंमें यह वर्णान्तर नहीं होता।) उदा.-उच्छाहो। उच्छण्णो ॥६१॥ दुरो रलुकि तु ।। ६२ ।।
(इस सूत्रमें १.२.६१ से) ऊत् शब्दकी अनुवृत्ति है। दुर् उपसर्गके बारेमें, र-लुकि यानी रेफ का लोप होनेपर, आच उ का ऊ विकल्पसे होता
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हिन्दी अनुबाद
-अ. १, पा. २
३३
है | उदा.- दूसहो दुसहो दुःसहः । दूहओ दुहबो दुर्भगः । रेफ का लोप होनेपर, ऐसा क्यों कहा है ? (कारण रेफ का लोप न हो तो यह वर्णान्तर नहीं होता ।) उदा. -- दुस्सहो विरहो ।। ६२ ॥
सुभगमुसलयोः || ६३ ॥
(इस सूत्र में १.२.६१ से ) ऊत् शब्दकी अनुवृत्ति है । सुभग और मूसल शब्दों में उ का ऊ विकल्पसे होता है | उदा. - सूहओ सुहओ सुभगः । मूसलं मुसलं मुसलम् ॥ ६३ ॥
हचौत्कुतूहले || ६४ ॥
कुतूहल शब्द में आद्य उ का ओ होता है, और उस (ओ) के सानिध्य से (तूमेंसे) ऊ का हस्व होता है । उदा. - कोउहलं कुऊहलं कोउहल्लं कुतूहलम् || ६४ ॥
स्तौ ॥ ६५ ॥
( इस सूत्र में १.२.६४ से ) ओत् शब्दकी अनुवृत्ति है । स्तु यानी संयुक्त व्यंजन आगे होनेपर, आद्य उ का ओ होता है । उदा. - तुण्डम् तोण्डं । पुष्करम् पोक्खरं । कुट्टिमम् कोट्टिमं । पुस्तकम् पोत्थअं । मुस्ता मोत्था । मुद्गरः मोग्गरो । पुद्गलः पोग्गलो । कुन्दम् कोन्दं । व्युत्क्रान्तम् वोक्कन्तं ॥ ६५ ॥ सूक्ष्मे ऽद्वतः ॥ ६६ ॥
सूक्ष्म शब्द में ऊ का अ विकल्पसे होता है । उदा -सहं सुहं ॥ ६६॥ अल दुकूले ॥ ६७ ॥
(इस सूत्रमें १.२.६६ से) ऊतः पदकी अनुवृत्ति है। दुकूल शब्द में ऊ को अलू ऐसा आदेश होता है । अल में लकार अनुबंध (इत् ) नहीं है । उदा.दुअलं दुऊलं ॥ ६७ ॥
ईदुद्वयूढे ।। ६८ ।।
उद्वयूढ शब्द में ऊ का ई विकल्पसे होता है । उदा. - उब्वीढं उब्बूढं
॥ ६८ ॥
त्रिवि. प्रा. व्या....३
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त्रिविक्रम-प्राकृत व्याकरण
उल् कण्डूयहनूमद्वातूले ।। ६९ ।।
कण्डूयति धातुमें, तथा हनुमत् और वातूल शब्दोंमें आद्य ऊका लित् (नित्य) उ होता है। उदा.-कंडुअइ । हणुमंतो । वाउलो ॥ ६९ ॥ वा मधूके ॥ ७० ॥
मधूक शब्दमें ऊ का उ विकल्पसे होता है | उदा.-महुअं महूअं ॥७॥ इदेन्नपुरे ॥ ७१ ।।
(इस सूत्रमें १.२.७० से) वा शब्दको अनुवृत्ति है। नूपुर शब्दमें ऊ के इ और ए विकल्पसे होते हैं । उदा.-णिउरं णेउरं 'उरं ॥ ७१ ॥ ओल् स्थूणातूणमूल्यतूणीरकूर्परगुडूचीकूष्माण्डीताम्बूलीषु ॥७२॥
(स्थूणा, तूण, मूल्य, तूणीर, कूर्पर, गुडूची, कूष्माण्डी, ताम्बूली) इन शब्दोंमें ऊ का लित् (नित्य) ओ होता है। उदा.- थोणा। तोणं । मोल्लं । तोणीरं । कोप्परं । गलोई । कोहंडी। तम्बोली । बहुलका अधिकार होनेसे, स्थूणा और तूण शब्दोंमें विकल्पसे (ओ) होता है। उदा.-थूणा । तूणं ॥ ७२ ॥ ऋतो ऽत् ।। ७३ ।।
आद्य ऋकारका अ होता है। उदा.-घृतम् घरं। तृणम् तणं । कृतम् कअं । वृषभः वसहो । मृगः मओ ॥ ७३ ॥ आद्वा मृदुत्वमृदुककृशासु ॥ ७४ ॥
(इस सूत्रमें १.२.७३ से) ऋतः पदकी अनुवृत्ति है। (मृदुत्व, मृदुक, कृशा) इन शब्दोंमें आद्य ऋकारका आ विकल्पसे होता है। उदा.-माउत्तं मउत्तं । माउअं मउअं। कासा कसा ॥ ७४ ॥ इल् कृपगे ।। ७५ ।।
कृप इत्यादि शब्दोंमें आद्य क्र का इ होता है । (सूत्रके इल् में) लू इत् होनेसे, यहाँ विकल्प नहीं होता। उदा.-किवो कृपः । णिवो नृपः। किवा कृपा। किवणो कृपणः। किवाणो कृपाणः। किसो कृशः। किसाणू कृशानुः । किई कृतिः । विसो वृषः। मूषिओ मूसिकः (?)। किसरो कृसरः (यानी) एक विशिष्ट विलेप । किच्छ कृच्छ्रम् । किसओ कृषकः । तिसिओ तृषितः । इसी
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हिन्दी अनुवाद-अ. १, पा.२
३५
ऋषिः । धिई धृतिः । विछिओ विछुओ वृश्चिकः । वित्तं वृत्तम् । वित्ती वृत्तिः। पिच्छी पृथ्वी । किच्चा कृत्त्या । घुसिणं घुसृगम् । धिणा घृणा । इद्धी ऋीद्धः । समिद्धी समृद्धिः । गिद्धो गृद्धिः। विद्धकई वृद्धकपिः। छिहा स्पृहा । बिसी बृसी । हिअ हृदयम् | उक्किट उत्कृष्टम् | मिठं मृष्टम् , रसके बारमें (यह रूप होता है) अन्यत्र-मठें । दिठं दृष्टम् । विइण्हो वितृष्णः । सइ सकृत् । दिट्ठी दृष्टिः । गिट्ठी गृष्टिः । सिट्ठो सृष्टिः । सिआलो शगालः। वाहित्तं व्याहृतम् । विहिअंबंहितम् । तिप्पं तृप्रम्। सिटुं सृष्टम् । सिंगारो शृंगारः । भिंगो भंगः। भिऊ भृगुः । भिंगारो भंगारः । इत्यादि ।। ७५ ॥ शृङ्गमृगाङ्कमृत्युधृष्टमसृणेषु वा ।। ७६ ॥
__शृङ्ग, इत्यादि शब्दोंमें ऋ का इ विकल्पसे होता है । उदा.-सिंग संग। मिअंको मअंको। मिच्चू मच्चू । चिट्ठो धट्ठो। मसिणं मसणं ।। ७६ ॥ पृष्ठे ऽनुत्तरपदे ॥ ७७ ॥
पृष्ठ शब्द (समासमें) उत्तरपद न हो तो उसमें ऋ का इ विकल्पसे होता है। उदा.-पिडं पढें । उत्तरपद न हो, ऐसा क्यों कहा है ? (कारण पृष्ट शब्द उत्तरपद हो तो यह वर्णान्तर नहीं होता ।) उदा.-महिवढं महीपृष्टम् ॥ ७७ ॥ उद् वृषभे वुः ।। ७८ ॥
___ वृषभ शब्दमें वृ इस (अक्षर) का उ विकल्पसे होता है। उदा.-उसहो वसहो ॥७८ ॥ वृन्दारकनिवृत्तयोः ।। ७९ ॥
(इस सूत्रमें १.२.७८ से) उत् शब्दकी अनुवृत्ति है। (वृन्दारक और निवृत्त) इन शब्दोंमें ऋका उ विकल्पसे होता है । उदा.-बुंदारमओ वंदारओ। णिउत्तं णिअत्तं ॥ ७९ ॥ ऋतुगे ।। ८० ।।
__ऋतु इत्यादि शब्दोंमें आद्य ऋका उ होता है । यह नियम (१.२.७८. ७९ से) पृथक् कहा जानेसे, (यहाँका वर्णान्तर) नित्य होता है। उदा.-उउ ऋतुः । उसहो वृषभः । पाहुडं प्राभृतम् । पहुडि प्रभुति । भुई भृतिः। णिहुअं
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त्रिविक्रम - प्राकृत व्याकरण
निभृतम् । परहुअं परभृतम् । विउअं विवृतम् । संवुअं संवृतम् । णिउअं निर्वृतम् । णिव्वुई निर्वृतिः । णिउत्ती निवृत्तिः । पउत्ती प्रवृत्तिः । पाउसो प्रावृट् । वुत्तन्तो वृत्तान्तः । वुन्दं वृन्दम् । वृंदावणं वृन्दावनम् । पुहई पृथिवी । वुद्धो वृद्धः । उज्जू ऋजुः । मुणालं मृणालम् । पुट्टो पृष्टः । पउट्ठो प्रवृष्टः । वुट्ठी वृष्टिः । परामुट्टो परामृष्टः । भाउओ भ्रातृकः । पिउओ पितृकः । नामाउओ जामातृकः | माउआ मातृका । इत्यादि ॥ ८० ॥
।
३६
गौणान्त्यस्य ।। ८१ ॥
(समासमें) गौण पदका जो अन्त्य ऋ, उसका उ होता है | उदा. - माउमंडलं मातृमण्डलम् | माउहरं मातृगृहम् । पिउहरं पितृगृहम् । माउसिआ माउच्छा मातृष्वसा । पिउसिआ पिउच्छा पितृष्वसा । पिउवणं पितृवनम् । पिउई पितृपतिः ॥ ८१ ॥
इदुन्मातुः || ८२ ॥
(समासमें) गौण होनेवाले मातृशब्द में ऋ के इ और उ होते हैं। उदा.माइहरं माउहरं मातृगृहम् । कचित् (मातृ शब्द) गौण न हो तो भी (ऋ के इ और उ होते है ।) उदा.- माईणं माऊणं मातृणाम् ॥ ८२ ॥
वृष्टिपृथङ्मृदङ्गनप्तृकवृष्टे ।। ८३ ।।
(इस सूत्र में १.२.८२ से) इत् और उत् शब्दों की अनुवृत्ति है । वृष्टि, इत्यादि शब्दों में ऋ के इ और उ होते है । उदा. - विट्ठी वुट्टो वृष्टिः । पिहं पुहं पृथक् । मिगो मुअंगों मृदङ्गः । णत्तिओ णत्तुओ नप्तृकः । विट्टी वुट्टो वृष्टिः
॥ ८३ ॥
तु बृहस्पतौ ।। ८४ ।
बृहस्पति शब्द में ऋ के इ तथा उ विकल्पसे होते है | उदा. -बिहफई. बुप्फई बहप्फई ॥ ८४ ॥
उदूदोल मृषि || ८५ ॥
मृषा शब्दमें ऋ के उ, ओ और ऊ होते है । (सूत्र के उदूदालू में) लू इतू होनेसे, यहाँ विकल्प नहीं होता । उदा. - मुसा मूसा मोसा । मुसावाओ मोसावाओ मृषावादः ॥ ८५ ॥
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हिन्दी अनुवाद-अ. १, पा. २
वृन्त इदेङ् ।। ८६ ॥
वृन्त शब्दमें ऋ के इदेङ् विकल्पसे होते हैं । ए, ओ यानी एङ्; इदेङ् यानी इत् और एङ् । (ऋके) इ, ए, ओ होते हैं, यह अर्थ (निष्पन्न होता है)। उदा.- विटं वेटं वोटं ॥ ८६ ॥ ढिराहते ॥ ८७ ।। __ आदृत शब्दमें ऋ को दि ऐसा आदेश होता है । उदा.-आढिओ ॥ ८७ ॥ दृप्तेऽरि ता ।। ८८ ॥
दृप्त शब्दमें पकार और तकार के साथ ऋ को अरि ऐसा आदेश होता है। उदा.-दरिओ। दरिअसीहेण ॥ ८८ ॥ केवलस्य रिः ।। ८९ ॥
केवल यानी व्यंजनसे संयुक्त न रहनेवाले ऋ को रि ऐसा आदेश होता है । उदा.-रिद्धी ऋद्धिः। रिच्छो ऋक्षः ॥ ८९ ॥ दृश्यसकिपि ।। ९० ।।
अक्, क्स, किप, ये प्रत्यय अन्तमें होनेवाले दृश् (दृशि) धातुमें ऋ का रि होता है। उदा.-अक् प्रत्यय होनेपर-सरिसो सदृशः। क्स प्रत्यय होनेपरसरिच्छो सदृक्षः । किप् प्रत्यय होनेपर-सरी सदृक् । सरिवण्णो सरिरूवो । इसी प्रकारसे-एआरिसो। भवारिसो। जारिसो। तारिसो। केरिसो। एरिसो। तुम्हारिसो। अक् और क्स इनसे (यहाँ) साहचर्य होनेसे, 'त्यदादि' (सूत्र)ने कहा हुआ किए (प्रत्यय) यहाँ लिया जाता है ॥ ९० ॥ ऋतुजुऋणऋषिऋषभे वा ॥ ९१ ॥
(ऋतु, ऋजु,ऋण,ऋषि, ऋषभ) इन शब्दोंमें ऋ का रि विकल्पसे होता है । उदा.-रिऊ उऊ । रिज्जू उज्जू । रिणं अणं ' 'रेसी इसी । रिसहो उसहो
क्लप्स इलिः ॥ ९२ ॥
क्लप्त इस शब्दमें आद्य अच् (स्वर) को इलि ऐसा आदेश होता है। 'उदा.-किलित्त । किलित्तकुसुमोवआरेसु, क्लसकुसुमोपचारेषु ॥ ९२ ॥
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३८
त्रिविक्रम-प्राकृत व्याकरण
चपेटाकेसरदेवरसैन्यवेदनास्वेचस्त्वित् ।। ९३ ।।
(चपेटा, केसर, देवर, सैन्य, वेदना) इन शब्दोंमें एचः अर्थात् संध्यक्षरोका (संयुक्त स्वरोंका) इ विकल्पसे होता है। उदा.-चविडा चवेडा चपेटा। किसर केसरं केसरम् । दिअरो देअरो देवरः। सिन्नं सेन्न। (सैन्य शब्द)। दैत्यादि गणमें होनेसे, सइन्नं (रूप भी होता है ।) सैन्यम् । विअणा वेअणा वेदना। महिला, महेला, य रूप तत्समही है ॥ ९३ ॥ सैन्धवशनैश्चरे ।। ९४ ॥
(इस सूत्र में १.२.९३ से) एचः पदकी अनुवत्ति है। सैन्धव और शनैश्चर शब्दोंमें आद्य एच् (संयुक्त स्वर) का इ होता है । यह नियम (१.२. ९३ से) पृथक कहा जानेसे, (यहाँ का वर्णान्तर) नित्य होता है। उदा.सिंधवं । सणिच्छरो ॥ ९४ ॥ त्वत्सरोरुहमनोहरप्रकोष्ठातोद्यान्योन्ये वश्च क्तोः ॥ ९५ ।।
(सरोरुह, मनोहर, प्रकोष्ठ, आतोद्य, अन्योन्य) इन शब्दोंमें एच (संयुक्त स्वर) का अ विकल्पसे होता है, और उसके सानिध्यसे जहाँ शक्य होगा वहाँ (यथासंभवम् ) ककार तथा तकार इनको वकार आदेश होता है। उदा.सररुहं सरोरुहं । मणहरं मणोहरं । पट्ठो पआट्ठो । आवजं आओज्जं । अण्णणं अण्णोण्णं । सिरवेअणा और सिरोवेअणा ये शब्द शिरोवेदना शब्दके साध्यमान और सिद्ध अवस्थाओंसे होते हैं ।। ९५ ।। कौक्षेयक उत् ।। ९६ ॥
कौक्षयक शब्दमें आद्य एच् (संयुक्त स्वर) का उ विकल्पसे होता है। उदा.-कुच्छे अअं कोच्छेअअं ॥ ९६ ॥ शौण्डगेषु ।। ९७ ॥
शौण्ड, इत्यादि शब्दोंमें आद्य एच (संयुक्त स्वर) का उ होता है। यह नियम (१.२.९६ से) पृथक् कहा जानेसे, यहाँ विकल्प नहीं होता। उदा.सुडो शौण्डः। सुद्धोअणी शौद्धोदनिः । मुंजाअणो मौञ्जायनः। सुदेरं सुंदरिअं
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हिन्दी अनुवाद-अ. १, पा.२
सौन्दर्यम् । सुगन्धत्तणं सौगन्ध्यम् । दुवारिओ दौवारिकः। सुवण्णिओ सौवर्णिकः। पुलोमी पौलोमी । इत्यादि ॥ ९७ ॥ गव्यउदाईत् ॥ ९८ ।।
गो शब्दमें एच् (संयुक्त स्वर) को अउ और आई ऐसे ये आदेश होते हैं। उदा.-गउओ हरस्स । एसा गाई ॥ ९८ ॥ ऊ स्तेने वा ॥ ९९ ॥
स्तेन शब्दमें संध्यक्षरका ऊ विकल्पसे होता है । उदा.-थूणो थेणो
सोच्छ्वासे ।। १०० ॥
__ सोच्छ्वास शब्दमें एच् (संयुक्त स्वर) का ऊ होता है। यह नियम (१.२.९९ से) पृथक् कहा जानेसे, यहाँ विकल्प नहीं होता। उदा.-सूसासो ॥ १०. ।।
ऐच एङ् ।। १०१ ॥
ऐच् यानी ऐकार और औकार; उनके एङ् यानी एकार और ओकार यथाक्रम होते हैं। उदा.-ऐ (का ए)-शैलः सेलो । त्रैलोक्यम् तेल्लोकं । ऐरावणः एरावणो । कैलासः केलासो। वैद्यः वेजो। कैटभः केटवो। वैधव्यम् वेहव्वं ।
औ (का ओ)-कौमुदी कोमुई । यौवनम् जोव्वर्ण । कौस्तुभः कोत्थुहो । कौशाम्बी कोसम्बी । क्रौञ्चः कोंचो। कौशिकः कोसिओ ।। १०१॥ अइ तु वैरादौ ।। १०२ ॥ ___(इस सूत्रमें १.२.१०१ से) ऐचः पदकी अनुवृत्ति है। वैर, इत्यादि शब्दोंमें आद्य ऐच् को अइ ऐसा आदेश विकल्पसे होता है। उदा.-वैरम् वइरं वरं । वैशंपायनः वइसंपाअणों वेसंपाअणो। वैशिकम् वइसिअं वेसि। वैश्रवणः वइसवणो वेसवणो । चैत्रः चइत्तो चेत्तो। कैलासः कइलासो केलासो। वैतालिकः वइआलिओ वेआलिओ। कैरवम् क इरवं केरवं । दैवम् दइवं देवं। इत्यादि । १०२ ॥
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४.
त्रिविक्रम-प्राकृत व्याकरण
दैत्यादौ ॥ १०३ ॥
दैत्य, इत्यादि शब्दोंमें ऐच को अइ ऐसा आदेश होता है । यह नियम (१.२.१०२ से) पृथक् कहा जानेसे, यहाँ विकल्प नहीं होता। उदा.-दइच्चो दैत्यः । दहण्णं दैन्यम् । दइवअं दैवतम् । कइअवं कैतवम् । वइअब्भो पैदर्भः । वइसाहो वैशाखः। अइसरिअं ऐश्वर्यम् । वइअणणो वैजननः। भइरवो भैरवः । वइएसो वैदेशः । वइसाणरो वैश्वानरः। वइदेहो वैदेहः । वइसालो वैशालः । सहरं स्वैरम् । चइत्तं चेत्तं । चैत्य शब्दम विश्लेष होनेपर (ऐ को अइ आदेश नहीं होता ।) उदा.-चेइअं ॥ १०३ ।। नाव्यावः ॥ १०४ ॥
नौ शब्दमें ऐच को आव ऐसा आदेश हो जाता है। उदा.- णावा ॥ १०४ ॥ गौरव आत् ॥ १०५ ॥
गौरव शब्दमें ऐच का आ हो जाता है। उदा.-गारवं ॥ १०५ ॥ पौरगे चाउत् ॥ १०६ ॥
पौर, इत्यादि शब्दोंमें, तथा (सूत्रमेंसे) चकारसे गौरव शब्दमें, ऐच् को अउ ऐसा आदेश होता है। उदा.-पउरो पौरः । सउरो सौरः। मउली मौलिः। कउरवो कौरवः । गउडो गौडः । कउलो कौलः। कउसलं कौशलम् । पउरिसं पौरुषम् । कउच्छेअअं कौक्षेयकम् । सउहं सौधम् । मउणं मौनम् । गउरवं गौरवम् ॥ १०६ ॥ उच्चैनीचसोरअः ॥ १०७ ।। ___ उच्चैः और नीचैः शब्दोंमें ऐच को अअ ऐसा आदेश होता है । उदा.उच्चअं। णीचअं। उच्च और नीच शब्दोंको क-प्रत्यय लगनेपरभी (उच्चअं और नीचअं ये रूप) यद्यपि सिद्ध होते है, तथापि उच्चैः और नीचैः शब्दोंके अन्य रूपोंकी निवृत्ति हो, इसलिए उनके बारेमें यहाँ विधान किया गया है ॥ १.७ ॥ ई धैर्ये ॥ १०८ ॥
धैर्य शब्दमें ऐच का ई होता है । उदा.-धीरं । धीरं हरइ विसाओ, धैर्य हरति विषादः ॥ १०८ ॥
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हिन्दी अनुवाद-अ. १, पा. २
वा पुआय्याद्याः ।। १०९ ।।
__ स्वर इत्यादि आदेश विशेषोंसे युक्त ऐसे पुआई इत्यादि शब्द विकल्पसे निपातके रूपमें आते है । उदा.-(१) पुआई (पानी) पिशाच और उन्मत्त । (२) ऊणंदिअं आनन्दित । (३) टोंबरो तुम्बुरु । (४) माहिवाओ माघमासका वात । (५) सइकोडी शतकोटि । (६) माइन्दो माकन्द यानी आम्रवृक्ष । (७) ओन्दुरो उन्दुरू यानी चुहा । (८) अलिआ आली यानी सखी। (९) तणसोलं तृणशूलम् [यानी] मल्लिका, ऐसा अर्थ । (१०) रिठ्ठो अरिष्टः [यानी] दैत्य या कौआ । (११) हुलिअ लघु [यानी] शीघ्र, ऐसा अर्थ । (१२) किरो किरिः [यानी] वराह, ऐसा अर्थ। (२३) वामरोरो वामलूरः [यानी] वल्मीक यानी वामी । (१४) वन्द्रं वृन्दम् यानी समूह | (१५) हेरिम्बो हेरम्ब यानी गणेश । (१६) चिकं स्तोक यानी स्वल्प । (१७) चलणाओहो चरणायुध यानी कुक्कुट। (१८) पुआइणिआ पिशाचिनी । (१९) मूसलं मांसल। (२०) महालवक्खो महालयपक्ष । (२१) चंचरिओ चञ्चरीक यानी भवरा ॥ १०९ ॥
-द्वितीय अध्याय द्वितीय पाद समाप्त -
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तृतीयः पादः एत साज्झला त्रयोदशगे ऽचः ॥ १ ॥
(इस सूत्रमें) आदेः पदकी अनुवृत्ति है । त्रयोदश इत्यादि शब्दोंमें आद्य स्वरका, साझला यानी अगला स्वर और व्यंजन इनके साथ, ए होता है। उदा.-तेरह त्रयोदश | थेरो स्थविरः (यानी) बूढा या ब्रह्मदेव । एक्कारो अयस्कारः। वेइल्लं विचकिलम् । मुद्धविअइल्लपसूणपुंजा यह भी दिखाई देता है तेवीसा त्रयोविंशतिः । तेत्तीसा त्रयस्त्रिंशत् । इत्यादि ॥ १ ॥ कदले तु ।। २ ।।
(इस पत्रमें १.३.१ से) एत् साज्झला पदोंकी अनुवृत्ति है। कदल शब्दमें आद्य स्वरका, अगला स्वर और व्यंजन इनके साथ, ए विकल्पसे होत है। उदा.-केलं कअलं । केली कअली ॥ २ ॥ कर्णिकारे फोः ।। ३ ।।
कर्णिकार शब्दमें फु का यानी द्वितीय स्वरका, अगला स्वर और व्यंजन इनके साथ, ए विकल्पसे होता है । उदा.-कण्णेरी कण्णिआरो ॥ ३ ॥ नवमालिकाबदरनवफलिकापूगफलपूतर ओल् ।। ४ ॥
(नवमालिका, बदर, नवफलिका, पूगफल, पूतर) इन शब्दोंमें आद्य स्वरका, अगला स्वर तथा व्यंजन इनके साथ, ओ होता है। (पत्रमेंसे ओल् में) ल् इत् होनेसे, यहाँ विकल्प नहीं होता । उदा.-णोमालिआ नवमालिका । बोरं बदरम् । णोह लिआ नवफलिका। पोफलं पूगफलम् । पोरो पूतरः (यानी) अधम या जलजन्तु ॥ ४ ॥ तु मयूरचतुर्थचतुरिचतुर्दशचतुर्गुणमयूखोलूखलसुकुमारोदुखललवणकुतूहले ।। ५ ॥
___ मयूर, इत्यादि शब्दोंमें आद्य स्वरका, अगला स्वर और व्यंजन इनके साथ, ओ विकलसे होता है। उदा.-मोरो मऊरो मयूरः। चोत्थो चउत्थो चतुर्थः। चोव्वारो चउन्वारो चतुर्वारः। चोदह चउद्दह चतुर्दश। चोदही चउद्दही चतुर्दशी । चोग्गुणो चउग्गुणो चतुर्गुणः। मोहो मऊहो मयूखः ।
४२
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हिन्दी अनुवाद-अ. १, पा. ३
४३.
ओहलं उलूहलं उलूखलम् । सोमाली सुउमालो सुकुमारः। ओहलो उऊहलो उदूखलः । लोणं लअणं लवणम् । कोहलं कुऊहलं कुतूहलम् । कोई कहते हैं कि मोर शब्द संस्कृतमें भी है, पर वह अप्रसिद्ध है ॥ ५ ॥ निषण्ण उमः ।। ६ ॥
निषण्ण शब्द में आद्य स्वरको, अगले स्वर और व्यंजन इनके साथ, उम ऐसा आदेश विकल्पसे होता है। उदा.-णुमण्णो णिसण्णो ॥ ६ ॥ अस्तोरखोरचः ॥ ७ ॥
यह अधिकारसत्र है। इसका अधिकार शोः सल्' (१.३.८७) सूत्रतक है। यहाँसे आगे जो कुछ हम अनुक्रमसे कहेंगे, वह अस्तो: यानी असंयुक्त, अखोः यानी अनादि, (और) स्वरके आगे रहनेवाले वर्णका होता है, ऐसा समझना है ॥ ७ ॥ प्रायो लुक कगचजतदपयवाम् ।। ८ ।।
असंयुक्त, अनादि रहनेवाले, स्वरके आगे होनेवाले, क, ग, च, ज, त, द, प, य, व इन (व्यंजनों) का प्रायः लोप होता है। उदा.-क (का लोप)लोकः लोओ। शकट : सअडो। तीर्थकरः तित्थअरो। ग (का लोप)-नगरम् पअरं । नगः णओ। मृगाङ्कः मिअंको। च (का लोप)-शची सई। कचग्रहः कअग्गहो । ज (का लोप)---गजः गओ। रजतम् रअ । प्रजापतिः पवई । त (का लोप)-स्तुतः सुओ । यतिः जई। रतिः रई । रसातलम् रसाअलं । द (का लोप)-नदी गई । मदनः मअणः । गदा गआ । प (का लोप)-रिपुःरिऊ । विपुलम् विउलं | सुपुरुषः सुउरिसो। य (का लोप)-जयः जओ। वियोगः विओओ। नयनम् णअणं। व (का लोप)- लावण्यम् लाअण्णं । वडवानल: वडआणलो। यहाँ व का ग्रहण किए जानेसे, बकारका भो ग्रहण होता है। (इसलिए ब का भी लोप होता है ।) उदा.-विबुधः विउहो । प्रायोग्रहणसे कचित (क इत्यादि का लोप) नहीं होता । उदा.-सुकुसुमं । पआगजलं । सुगओ। अगरू । सचावं । विजणं । सुतारं । विदुरो । सपावं | समवाओ। देवो दाणवो। (ये व्यंजन) असंयुक्त (अस्तोः ) होनेपरही (ऐसा लोप होता है, संयुक्त होनेपर नहीं।) उदा.-अक्को । सग्गो। चच्चा । अज्जुणो । धुत्तो। उद्दामो। विप्पो । सव्वं । (ये ध्यंजन) अनादि (अखोः) होनेपरही (ऐसा लोप होता है, आदि
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४४
त्रिविकम-प्राकृत व्याकरण
होनेपर नहीं ।) उदा.-कुलं । गंगा। चरो । जडो। तमो। दआ। परो । वरो । (ये व्यंजन) स्वर के आगे होनेपरही (ऐसा लोप होता है। इन व्यंजनोंके पूर्व स्वर न हो तो ऐसा लोप नहीं होता।) उदा.-संकरो। संगमो। कंचणं । वंचणा । धणंजओ। अंतरं । चंदणं । कंपो। संअवरो। पर समासमें वाक्यविभक्तिकी अपेक्षासे ‘पद भिन्न है', ऐसी विवक्षा होती है। इसलिए वहाँ (वाङमयमें) जैसा दिखाई देगा वैसा दोनोभी (लोप और लोपका अभाव) होते हैं । उदा.सुहकरो सुहअरो सुखकरः । आअमिओ आगमिओ आगमिकः ।जलअरो जलचरो जलचरः । सुअणो सुजणो सुजनः । बहुअरो बहुतरो बहुतरः। सुहओ सुहदो शुभदः या सुखदः । इत्यादि । बहुलका अधिकार होनेसे, कचित् आद्य (व्यंजन) का भी (लोप) होता है। उदा.-चिह्न इण्हं । स पुनः सो उणो। न पुनः ण उणो । स च सो अ। कचित् च का ज होता है। उदा.-पिशाची पिसाजी॥८॥ नात्पः ॥ ९ ॥
आत् यानी अ-वर्णके आगे, अनादि पः यानी पकारका लोप नहीं होता। उदा.-सवहो शपथः । सावो शापः। अ-वर्णके आगे, ऐसा क्यों कहा है ? (कारण अ-वर्णको छोडकर अन्य स्वरोंके आगे प होने पर, उसका लोप होता है।) उदा.-विउलो विपुलः। अनादि (पकारका), ऐसा क्यों कहा है ? (कारण ५ आदि हो तो यह वर्णान्तर नहीं होता।) उदा.-परउट्टो परपुष्टः ॥ ९ ॥ यश्रुतिरः ।। १० ।
(इस सूत्रमें १.३.९ से) आत् शब्दकी अनुवृत्ति है। 'प्रायो लुक्कगचना (१.३.८) इत्यादि सूत्रसे लोप होनेपर, जो अ-वर्ण अवशिष्ट रहता है वह, अ-वर्णके आगे होनेपर, लघु प्रयत्नस उच्चारित यकारके समान सुनाई देता है। उदा.-शकटम् सयडं । आकरः आयरो। प्रकारः पयारो। आकाशः आयासो। नगरम् णयरं । सागरः सायरो। वचनम् वयणं । आचार: आयारो। रजतम् रययं। भाजनम् भायणं । प्रजापतिः पयावई | कृतम् कयं । पातालम् पायालं । “पदम् पयं| गदा गया। नादवती णायवई। नयनम् णयणं । जाया जाया। लावण्यम् लायणं । अ-वर्ण ऐसा क्यों कहा है ? (कारण अ-वर्ण न हो तो यश्रुति नहीं होती।) उदा.-सउणो शकुनः। पउणो प्रगुणः। परं प्रचुरम् । राईव राजीवम् । रई रतिः । ऊ स्वादुः। वाऊ वायुः। कई कपिः या कविः।
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हिन्दी अनुवाद-अ. १, पा. ३
४५.
अ-वर्णके (आगे होनेपरही य-श्रुति होती है, अन्यथा नहीं।) उदा.-विअडं विकटम् । देअरो देवरः । क्वचितू (अ-वर्णके आगे न होतभी यश्रुति) होती है। उदा.-पियइ पिबति ॥ १०॥ कामुकयमुनाचामुण्डातिमुक्तके मोङ्लुक् ।। १ ।।
__कामुक, इत्यादि शब्दोंमें मकारका लोप होता है । (सूत्रके ड्लुक् में) ङ् अनुबंध (इत्) होनेसे, शेष स्वरका उच्चार सानुनासिक होता है। उदा.कामुकः काउँओ । यमुना जउँणा | चामुण्डा चाउँण्डा । अतिमुक्तकम् अइउँतअं। कचित् अइमुत्तअं, अइमुंतअं येभी रूप दिखाई देते हैं ।। ११ ।। खो ऽपुष्पकुब्जकर्परकीले कोः ।। १२ ॥ ___'उकार अनुबंधसे स्ववर्गीय व्यंजनोंका ग्रहण होता है', यह अन्य व्याकरणोंसे सिद्ध हुआ है। जैसे-कु अर्थात् क-वर्ग। चुः यानी च-वर्ग। इसी प्रकार-टु (=ट-वर्ग), तु (-त वर्ग), पु (=प-वर्ग)। कुब्ज शब्द पुष्पवाचक न हो, तो उस शब्दमें, तथा कर्पर और कील शब्दोंमें, कोः यानी क-वर्गका ख होता है। उदा.-खुज्जो। किंतु (कुब्जका) पुष्प अर्थ होनेपर-पंधेउं कुज्जपसूणं । खप्परं । खलिओ ॥ १२ ॥ छागश्रृङ्खलकिराते लकचाः ॥ १३ ।।
(इस सूत्रमें १.३.१२ से) कोः पदकी अनुवृत्ति है। छाग, शंखल,. किरात शब्दोंमें क वर्गके ल, क, च ऐसे [विकार] यथाक्रम होते हैं | उदा.छागः छालो। छागी छाली । शंखलम् संकलं । किरातः चिलाओ-यह (शब्द) पुलिंद अर्थके पर्यायके रूपमें (यहाँ लिया है);, स्वेच्छासे रूप धारण करनेवाला (शंकर), यह (किरातका) अर्थ होनेपर, यहाँका वर्णान्तर नहीं होता। उदा.-. नमिमो हरकिराअं ॥ १३ ॥ वैकादौ गः ॥ १४ ।।
एक इत्यादि शब्दोंमें कु [क वर्ग] का गकार विकल्पसे होता है । उदा.-. एगो। विकल्पपक्षमें-एक्को एओ। आगरिसो आअरिसो आकर्षः। लोगो लोओ लोकः । असुगो असुओ असुकः । तित्थगरो तित्थरो तीर्थकरः । उज्जो--
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त्रिविकम-प्राकृत व्याकरण
अगरो उज्जोअअसे उद्योतकरः । सावगो सावओ श्रावकः! अमुगो अमुओ अमुकः । आगारो आआरो आकारः । इत्यादि ॥ १४ ॥ खोः कन्दुकमरकतमदकले ।। १५ ॥
(कन्दुक, मरकत, मदकल) इन शब्दोंमें खु यानी आद्य क-वर्गका ग होता है। यह नियम (१.३.१४ से) पृथक् कहा जानेसे, यहाँ विकल्प नहीं होता । उदा.-गंदुओ कन्दुकः ! मरगअं मरकतम् । मदगलो मदकलः ॥ १५ ॥ पुन्नागभागिनीचन्द्रिकासु मः ॥ १६ ॥
(पुन्नाग, भागिनी, चन्द्रिका) इन शब्दों में कु (कवर्ग) का म होता है। उदा.-पुण्णामो ! भामिणी । चंदिमा ॥ १६ ॥ शीकरे तु भहौ ।। १७ ॥
शीकर शब्दमें क-वर्गके भकार और हकार विकल्पसे होते हैं। उदा.सोहरो सीभरो सीभरो ॥ १७ ॥ उत्वे दुर्भगसुभगे वः ॥ १८ ॥
__(दुर्भग और सुभग) इन शब्दोंमें उ का ऊ होनेपर, कु (क वर्ग) का वकार होता है । उदा.-दूहवो । सूहवो । (उ का) ऊ होनेपर, ऐसा क्यों कहा है ? (उ का ऊ न हो तो यह वर्णान्तर नहीं होता।) उदा.-दुहओ सुहओ
निकषस्फटिकचिकुरे हः ॥ १९ ॥
(निकष, स्फटिक, चिकुर) इन शब्दोंमें क-वर्गका ह होता है । उदा.णिहसो । फलिहो । चिहुरो । चिहुर ऐसा शब्द संस्कृतमेंभी है, ऐसा भंगाचार्यका कथन है ॥ १९ ॥ खघथधभाम् ॥ २० ॥
इस सूत्रमें १.३.१९ से] हः पदकी अनुवृत्ति है । असंयुक्त, अनादि रहनेवाले और स्वरके आगे आनेवाले ख, घ, थ, ध, भ इन (व्यंजनों) का प्रायः हकार होता है। उदा.-ख (का ह)-शाखा साहा । मुखम् मुहं । लिखति लिहइ। घ का ह]-मेघः मेहो । जघनम् जहणं ! श्लावते सलाहइ । थ (का ह)-नाथ:
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हिन्दी अनुवाद - अ. १, पा० ३
हो । रथः रहो । मिथुनम् मिहुणं । कथयति कहेई । ध (का ३) - साधुः साहू । सुधा सुहा । बाधते बाहइ । भ ( का ह) - शुभम् सुहं । स्वभावः सद्दावो । स्तनभरः थणहरो । शोभते सोहइ । (ये व्यंजन) अस्तु अर्थात् असंयुक्त होनेपरही ( यह वर्णविकार होता है, अन्यथा नहीं ।) उदा. - सौख्यम् सोक्खं । आख्याति अक्खइ | अर्धः अग्यो । कत्थइ कथ्यते । गृद्धः गिद्धो । उद्धरति उद्धरइ । दर्भः दब्भो । लभ्यते लब्भइ । (ये व्यंजन ) अखु यानी अनादि रहनेपरही ( यह वर्णान्तर होता है, अन्यथा नहीं ।) उदा. - खगो । घंटा । थणो । धणं । भरो। (ये व्यंजन) स्वर के आगे होनेवरही ( यह वर्णान्तर होता है, अन्यथा नहीं ।) उदा.-संखो | संघो । कंथा । बंधो। रंभा । ( यह वर्णान्तर ) प्रायः ही (होता है । इसलिए क्वचित् इन व्यंजनोंका हकार नहीं होता ।) उदा. - सरिसवखलो सर्षपरवलः । पलअघणो प्रलयघनः । अस्थिरो अस्थिरः [१] । जिणधम्मो जिनधर्मः । पणठ्ठभवो प्रनष्टभवः ॥ २० ॥
धः पृथकि तु ।। २१॥
पृथक् शब्दमें थ का धकार विकल्पसे होता है । उदा. – पुत्रं पिधं पुहं पिहं ॥ २१ ॥
४७
चोः खचितपिशाचयोः सल्लौ ॥ २२ ॥
(इस सूत्र में १.३.२१से ) तु शब्दकी अनुवृत्ति है । खचित और पिशाच शब्दोंमें चु के यानी च वर्ग के यथाक्रम सकार और द्विरुक्त लकार ( =ल) विकल्पसे होते हैं | उदा. - खसिओ खइओ । पिसल्लो पिसाओ । (पिशाचके) स्त्रीलिंग के रूपमें कचित् ज भी होता है । उद. - पिसाजी ॥ २२ ॥
झो जटिले ॥ २३ ॥
(इस सूत्र में १.३.२२ से) चो: पदकी अनुवृत्ति है । जटिल शब्द में - वर्गका विकल्पसे होता है । उदा. - झडिलो जडिलो ॥ २३ ॥ टोर्बडिशादौ लः ॥ २४ ॥
बडिश, इत्यादि शब्दों में ट-वर्गका ल विकल्पसे होता है । उदा. - बलिसं डिसं । गुलो गुडो । णलं णडं । चविलो चविडो । आमेलो आमेडो । णाली गाडी | वेलू वेणू | दालिमं दाडिमं । फालेइ फाडेइ । (बडिश, इत्यादि शब्द
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४८
त्रिविक्रम-प्राकृत व्याकरण
ऐसे हैं ।) बडिश, गुड, नड, चपेटा, आपीड, नाडी, वेणु, दाडिम, पाटि ।पाटि अर्थात् पाटयति ऐसा प्रेरणार्थक प्रत्ययान्त (णिजन्त) पद धातु यहाँ लिया है ॥ २४ ॥ स्फटिके ।। २५॥
(इस सूत्रमें १.३.२४ से) टोः पदकी अनुवृत्ति है । स्फटिक शब्दमें टु का यानी ट-वर्गका ल होता है । यह नियम (१.३.२४ से) पृथक् कहा जानेसे, (यहाँका वर्णान्तर) नित्य होता है । उदा.-फलिओ ॥ २५ ॥ लरकोठे ।। २६ ॥
___ अंकोठ शब्दमें ट-वर्गका ल होता है । (सूत्रके लमें) र् इत् होनेसे, (ल का) द्वित्व होता है। उदा.- अंकोलं ॥ २६ ॥ ढः कैटभशकटसटे ।। २७ ।।
कैटभ, शकट, सटा शब्दोंमें टु (ट-वर्ग) का ढकार होता है। उदा.केढवो । सअढो। सढा ॥ २७ ॥ ठः ।। २८ ॥ ___असंयुक्त, अनादि रहनेवाले और स्वरके आगे होनेवाले ठकारका ढ होता है। उदा.-मठः मढो । कमठः कमढो । शठः सढो। कुठारः कुढारो। असंयुक्त होनेपरही (यह वर्णान्तर होता है, अन्यथा नहीं ।) उदा.-चिट्रह । अनादि रहनेपरही । यह वर्णान्तर होता है, अन्यथा नहीं।) उदा.-ठाइ । स्वरके आगे होनेपरही (यह वर्णान्तर होता है, अन्यथा नहीं।) उदा.-कंठो ॥ २८ ॥ पिठरे हस्तु रश्च ढः ॥ २९ ।।
(इस सत्र में १.३.२८ से) ठः पदको अनुवृत्ति है । पिठर शब्दमें ठ का ह विकल्पसे होता है, और उनके सांनिध्यसे र का ढ होता है। उदा.पिहढो पिढरो पिठरः ॥ २९ ॥ ललूडोऽनुडुगे ॥ ३० ॥
__ असंयुक्त (अस्तोः ), अनादि (अखो): और स्वरके आगे होनेवाले डकारका, उडु, इत्यादि शब्दोंको छोडकर, लकार होता है। (सत्रके लल् में)
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हिन्दी अनुवाद-अ. १, पा. ३
ल् इत् होनेसे, यहाँ विकल्प नहीं होता । उदा.-वडवामुखम् वलामुहं । गरुडः गरुलो । तडागर तलाभ। क्रीडति कीलइ । असंयुक्त होनेपरही (यह वर्णान्तर होता है, अन्यथा नहीं । उदा.-कुटुं कुड्यम् । अनादि रहनेपरही (यह वर्णीतर होता है, अन्यथा नहीं।) उदा.-डमरुओ डमरुकः । स्वरके आगे होनेपरही (यह वर्णान्तर होता है, अन्यथा नहीं।) उदा.-तोंडं तुण्डम् । उडु, इत्यादि शब्दोंको छोडकर (अनुडुगे), ऐसा क्यों कहा है । (कारण उड्डु, इत्यादि शब्दोंमें यह वर्णान्तर नहीं होता।) उदा.-उडु । निबिडं । गउडो। नाडी। पीडिअं । नीडं । इत्यादि ॥ ३० ॥ टो डः ॥ ३१ ॥
असंयुक्त (अस्तोः), अनादि (अखोः), स्वरके आगे रहनेवाले टकारका ड होता है। उदा.-भटः भडो। नटः णडो । घटः घडो। घटते घडइ। असंयुक्त होनेपरही (यह वर्णान्तर होता है, अन्यथा नहीं।) उदा.खग खट्वाङ्गम् । अनादि रहनेपरही (यह वर्णान्तर होता है, अन्यथा नहीं ।) उदा.-टक्को (इस नामका देश)। स्वरके आगे रहनेपरही (यह वर्णान्तर होता है, अन्यथा नहीं।) उदा.-घंटा । कचित् (ऐसा वर्णान्तर नहीं होता।) उदा.-अटति अटइ ॥ ३१ ॥ वेतस इति तोः ॥ ३२ ॥
(इस सूत्रमें १.३.३१ से) डः पदकी अनुवृत्ति है। वेतस शब्दमें, (तमेंसे) अ का इ होनेपर, तु का यानी त-वर्गका ड होता है। उदा.-वेडिसो। (अ का) इ होनेपर, ऐसा क्यों कहा है ? (कारण इ न हो तो यह वर्णान्तर नहीं होता)। उदा.-वेअसो। अतएव ऐसा विधान होनेसे, स्वप्न, इत्यादि शब्दसमूहमें आनेवाले वेतस शब्दमें (देखिए १.२.११) अ का इ विकल्पसे होता है, ऐसा जानना है ।। ३२ ॥ प्रतिगेऽप्रतीपगे ॥ ३३ ॥
(इस सूत्रमें १.३.३२ से)तोः पदकी अनुवृत्ति है। प्रति, इत्यादि शब्दोंमें तु का यानी त-वर्गका, प्रतीप, इत्यादि शब्दोंको छोडकर, ड होता
त्रि.प्रा.व्या....४
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त्रिविक्रम-प्राकृत व्याकरण
है। उदा.-प्रतिपन्नम् पडिवण्ण। प्रतिभासः पडिहासो। प्रतिहारः पडिहारो। प्रतिस्पर्धी पाडिप्फद्धी । प्रतिनिवृत्तम् पडिणिअत्तं । प्रतिकरोति पडिकरेइ । प्रतिपत् पडिवआ। प्रतिश्रुत् पडंसुआ। प्रतिमा पडिमा । प्रभृति पहुडि । मृतकम् मड। भिन्दिपालः भिण्डिवालो। पताका पडाआ। प्राभृतम् पाहुडं। विभीतकः बहेडओ। व्यापूतः वावडो। कन्दरिका कण्डरिआ (यानी) औषधविशेष । हरीतकी हरडई। इत्यादि । प्रतीप, इत्यादि शब्दोंको छोडकर, ऐसा क्यों कहा है ? (कारण इन शब्दोंमें यह वर्णान्तर नहीं होता।) उदा.-प्रतीपम् पईवं । प्रतिज्ञा पइण्णा। संप्रति संपइ । प्रतिसमयम् पइसमअं। प्रतिष्ठा पइट्टा। प्रतिष्ठानम् पइट्ठाणं । इत्यादि ।। ३३ ॥
दंशदहोः ॥ ३४॥
दंशति और दहति धातुओंमें त-वर्गका ड होता है । उदा.-डंसह । डहइ ॥ ३४ ॥
दम्भदरदर्भगर्दभदष्टदशनदग्धदाहदोहददोलादण्डकदने तु ॥ ३५ ॥
___दम्भ, इत्यादि शब्दोंमें त-वर्गका ड विकल्पसे होता है। उदा.डम्भो दंभो। डरो दरो । डब्भो दब्भो । गड्डहो गद्दहो। डट्ठो दट्ठो। डसणं दसणं । डड्ढो दड्ढो । डाहो दाहो। डोहलं दोहलं । डोला दोला। डंडो दंडो। कडणं कदणं । भीति अर्थ होनेपरही, दर-शब्दमें (द का ड होता है), अन्यत्र (द वैसाही रहता है।) उदा.-दरदलिअं। दोहद शब्दमें, दम्भ, इत्यादिके साहचर्यसे आद्य (द) काही (ड होता है ।) ॥ ३५॥ तुच्छे चच्छौ ॥ ३६॥
तुच्छ शब्दमें त-वर्गके चकार और छकार विकल्पसे होते हैं। उदा.-चुच्छं छुच्छं ।। ३६ ।।
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हिन्दी अनुवाद-अ. १, पा. ३
टल् त्रसरवृन्ततूबरतगरे ।। ३७ ॥
त्रसर, वृन्त, तबर, तगर) इन शब्दोंमें त-वर्गका टकार होता है। (सूत्रके टल में) ल् इत् होनेसे, यहाँ विकल्प नहीं होता। उदा.-टसरो। वेण्टं । तालवेण्टं । टूबरो तूबरः (यानी) शंगरहित बैल या श्मश्रुर हित पुरुष । टगरो तगरः (अर्थात् ) औषधि विशेष अथवा वृक्षविशेष ॥ ३७ ।। हः कातरककुद विस्तिमातुलिङ्गे ॥ ३८ ।।
(कातर, ककुद, वितस्ति, मातुलिंग) इन शब्दोंमें त-वर्गका ह होता है। उदा.-काहलो। कउहं । विहत्थी। माहुलिंग। किंतु मातुलुंग शब्दका (वर्णान्तर) माउलुंगं (ऐसा होता है) ॥ ३८ ॥ तु वसतिभरते ॥ ३९ ॥
(वसति और भरत) इन शब्दोंमें त-वर्गका ह विकल्पसे होता है । उदा.-वसही वसई । भरहो भरओ ।। ३९ ।। लः पलितनिम्बकदम्बे ॥ ४० ॥ . (पलित, निम्ब, कदम्ब) इन शब्दोंमें त-वर्गका ल विकल्पसे होता है। उदा.-पलिलं पलि। लिम्बो णिम्बो। कलंबो कअंबो ॥ ४० ॥ दोहदप्रदीपशातवाहनातस्याम् ॥ ४१ ॥
दोहद, प्र (उपसर्ग) पूर्वक दीप्यति धातु, शातवाहन और अतसी इन शब्दोंमें त-वर्गका ल होता है । यह नियम (१.३.४० से) पृथक् कहा जानेसे, (यह वर्णान्तर) नित्य होता है। उदा.-दोहलो। पलीवेइ । पलित्त । सालवाहणो सालाहणो । अलसी ॥ ४१ ।। रल सप्तत्यादौ ।। ४२ ।।
सप्तति, इत्यादि शब्दोंमें त-वर्गका र होता है। (सूत्रके रल में) ल इत् होनेसे, (यह र) नित्य होता है। उदा.-सप्ततिः सत्तरी। सप्तदश
सत्तरह। एकादश एआरह । द्वादश बारह । त्रयोदश तेरह । पञ्चदश 'पण्णरह । अष्टादश अट्ठारह । गद्गदम् गग्गरं । 'इत्यादि ।। ४२॥
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५२
अद्रुमे कदल्याम् || ४३ ॥
वृक्ष अर्थ न होनेपर, कदली शब्द में तु (त-वर्ग) का र होता है । उदा.-करली। वृक्ष अर्थ न होनेपर, ऐसा क्यों कहा है ? ( कारण वृक्ष अर्थ होनेपर, र नहीं होता ।) उदा. - कअली केली ॥ ४३ ॥
त्रिविक्रम - प्राकृत व्याकरण
कदर्थिते खोर्वः ॥ ४४॥
कदर्थित शब्दमें खु यानी आद्य (ऐसे ) त वर्गका व होता है । उदा. - कबट्टिओ ॥ ४४ ॥
पीते ले वा ।। ४५ ॥
( इस सूत्र में १.३.४४ से) वः पद (अध्याहृत ) है । पीत शब्द में स्वार्थिक (स्वार्थे) लकार आनेपर, तु (त-वर्ग) का वकार होता है । उदा.पीवलं पीअलं । स्वार्थिक लकार आनेपर, ऐसा क्यों कहा है ? (कारण स्वार्थे लकार न आवे तो यह वर्णान्तर नहीं होता ।) उदा. - पीओ ॥ ४५ ॥
डो दीपि ॥ ४६ ॥
दीप्यति धातुमें त वर्गका डकार विकल्पसे होता है । उदा. - डिप्पर दिप्पइ ।। ४६ ।।
-
ढः पृथिव्यैाषधनिशीथे ॥ ४७ ॥
(पृथिवी, औषध, निशीथ ) इन शब्दों में त वर्गका ढ विकल्पसे होता है । उदा.- पुढवी पुहवी । ओसढं ओसहं । णिसीढो णिसीहो ॥ ४७ ॥ प्रथमशिथिलमेथिशिथिरनिषधेषु ।। ४८ ।।
(इस सूत्र में १.३.४७ से) ढः पद (अध्याहृत) है | प्रथम, इत्याद शब्दों में तु (त-वर्ग) का ढ होता है । (१.३.४७ से ) यह नियम पृथक् कहा जानेसे, (यह ढ) नित्य होता है । उदा. - पढमं पुढमं । सिढिल सढिलं | मेढी । सिढिरो । णिसढो ।। ४८॥
I
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हिन्दी अनुवाद-अ. १, पा. ३ पर्दिना रुदिते ।। ४९ ।।
रुदित शब्दमें, दि अवयवके साथ त-वर्गका ण होता है । (सूत्रके गर में) र् इत् होनेसे, (ण का) द्वित्व होता है। उदा.-रुण्णं। इसी 'स्थानपर कोई वैयाकरण 'ऋत्वादिषु तो दः' इस (नियम) का प्रारंभ करते हैं; किंतु यह नियम शौरसेनी और मागधी भाषाओंके संबंधही दिखाई देता है; इसलिए यहाँ वह नियम नहीं कहा गया है। प्राकृतमें मात्रऋतुः उऊ । रजतम् रअ। एतत् एअं। गतः गओ। आगतः आगओ। सांप्रतम् संप। यतः जओ। ततः तओ। कृतम् क। हतम् हों। हताशः हआसो। श्रुतः सुओ। सुकृती सुकिई । निवृतिः णिव्वुई। तातः ताओ। कातरः काअरो। द्वितीयः दुईओ, इत्यादि प्रयोग होते हैं। कचित् (भिन्न विकार उपलब्ध होते हैं तो वे) 'तद्वयत्ययश्च' (३.४.६९) सूत्रानुसार सिद्ध होते हैं ।। ४९॥
णो वातिमुक्तके ॥ ५० ॥
अतिमुक्तक शब्दमें त-बर्गका ण विकल्पसे होता है। उदा.अणिवेत्तअं अइउत्तरं अइमुत्तरं ।। ५० ।।
गर्भिते ।। ५१ ॥
___(इस सूत्रमें १.३.५० से) णः पदकी अनुवृत्ति है। गर्भित शब्दमें त-वर्गका ण होता है। (१.३.५० से) यह नियम पृथक् कहा जानेसे, (यह ण) नित्य होता है । उदा.-गब्मिणो ॥५१॥
नः॥ ५२ ।।
असंयुक्त (अस्तोः), अनादि (अखोः), स्वरके आगे आनेवाले नकारका णकार होता है। उदा.-कनकम् कण। धनम् धणं । मानयति माणइ ।। ५२ ।।
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त्रिविक्रम-प्राकृत व्याकरण
आदेस्तु ॥ ५३ ॥
(इस सूत्रमें १.३.५२ से) नः पदकी अनुवृत्ति है । शब्दोंके आध नकारका ण विकल्पसे होता है । उदा.-नदी गई नई। नयति णेइ नेइ। (आध न) असंयुक्त होनेपरही (यह वर्णविकार होता है, अन्यथा नहीं।) उदा.-न्यायः नाओ ॥ ५३ ॥ नापिते ण्हः ॥ ५४ ॥
___ नापित शब्दमें नकारको ग्रह ऐसा आदेश विकल्पसे होता है। उदा.-हाविओ णाविओ नाविओ ।। ५४ ॥ पो वः ।। ५५ ।। असंयुक्त, अनादि, स्वरके आगे होनेवाले पकारका वकार प्रायः होता है । उदा.-शपथः सवहो । शापः सावो । उपसर्गः उवसग्गो। प्रदीपः पईवो। पापम् पावं । उपमा उत्रमा। कपिलः कविलो । कुणपम् कुणवं । कलापः कलावो। कपालम् कवालं । महीपालः महीवालो। गोपायति गोवाअइ । तपति तवइ । असंयुक्त होनेपरही (यह वर्णान्तर होता है, अन्यथा नहीं।) उदा.-विप्रः विप्पो। अनादि रहनेपरही (यह वर्णान्तर होता है, अन्यथा नहीं ।) उदा.-पडइ पतति । पढइ पठति । स्वरके आगे होनेपरही (यह वर्णान्तर होता है, अन्यथा नहीं।) उदा.-कंपइ कम्पते । (पकारका वकार) प्रायःही होता है (इसलिए कभी होता भी नहीं ।) उदा.-कपिः कई । रिपुः रिऊ । इसलिए पकारका लोप और वकार इन दोनोंका संभव जहँ। है वहाँ जिसके करनेसे श्रुतिसुख होगा, वह (वर्णविकार) करे ॥ ५५॥ फः पाटिपरिघपरिखापरुषपनसपारिभद्रेषु ।। ५६ ।।
(इस सूत्रमें १.३.५५ से) पः पदकी अनुवृत्ति है। प्रेरणार्थक प्रत्ययान्त (णिजन्त) पट (पटि) धातुमें, तथा परिघ, इत्यादि शब्दोंमें, पका फ होता है। उदा.-पाटयति फालेइ फाडे। परिघः फलिहो। परिखा फलिहा । परुषः फरसो। पनसः फणसो । फनस शब्द संस्कृतभी है, ऐसा कोई कहते हैं। पारिभद्रः फालिहद्दो ॥ ५६ ।।
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हिन्दी अनुवाद-अ. १, पा.३ नीपापीडे मो वा ॥ ५७ ॥ - नीप और आपीड शब्दोंमें प का म विकल्पसे होता है। उदा.नीमो नीवो । आमेडो आवेडो ॥ ५७ ।। रल् पापद्धौं ॥ ५८ ।।
पापर्द्धि शब्दमें प का र होता है। (सूत्रके रल् में) ल् इत् होनेसे, यहाँ विकल्प नहीं होता । उदा.-पारद्धी पापर्द्धिः (यानी) मृगया ।।५८ ।। प्रभूते वः ।। ५९ ।।
प्रभूत शब्दमें प का व होता है। उदा.-बहुत्तं ।। ५९ ॥ फस्य भहाँ वा ।। ६० ।।
____ असंयुक्त (अस्तोः), अनादि (अखोः), स्वरके आगे होनेवाले फकारके, वाङ्मयमें जैसा दिखाई देगा वैसा, व्यवस्थित विभाषासे, भकार
और हकार होते हैं। उदा.-क्कचित् (फ का) भ होता है ।-रेफः रेभो । शिफा सिमा । कचित् (फ का) ह होता है-मोत्ताहलं मुक्ताफलम् । कचित् (फ के भकार और हकार) दोनों होते हैं-सफलम् सहलं सभलं । शेफालिका सेहालि आ सेभालिआ। शफरी सहरी सभरी। गुम्फति गुभइ गुहइ । (फ) असंयुक्त होनेपरही (यह वर्णविकार होता है, अन्यथा नहीं।) उदा.-पुप्फं पुष्पम् । (फ) अनादि रहनेपरही (यह वर्ण विकार होता है, अन्यथा नहीं।) उदा. फणी । (फ) स्वरके आगे होनेपरही (यह वर्णान्तर होता है, अन्यथा नहीं।) उदा.-गुम्फइ। (फ के ये विकार) प्रायःही होते हैं। (इसलिए कचित् नहीं होते।) उदा.-कसणफणी कृष्णफणी ।। ६० ॥
बो वः ।। ६१ ॥
असंयुक्त, अनादि, स्वरके आगे होनेवाले बकारका व होता है। उदा.-शबलः सवलो । अलाबुः अलावू ॥ ६१ ।।
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त्रिविक्रम-प्राकृत व्याकरण
वयौ कबन्धे ।। ६२ ।
__ कबन्ध शब्दमें बकारके वकार और यकार होते हैं । (सूत्रके वयोमें) द इत् होनेसे, वकारका उच्चार सानुनासिक होता है। उदा.-कबन्धः कधो कयंधो ।। ६२ ॥ बिसिन्यां भः ।। ६३ ॥
बिसिनी शब्दमें ब का भ होता है। उदा.-मिसिणी ॥ ६३ ।। वो भस्य कैटभे ॥ ६४ ॥
कैटभ शब्दमें भ का व होता है । उदा.-कइढवो ।। ६४ ।। त्वभिमन्यौ मः ॥ ६५ ॥
(इस सूत्रमें १.३.६४ से) वः पदकी अनुवृत्ति है। अभिमन्यु शब्दमें म का व विकल्पसे होता है । उदा.-अहिवण्णू अहिमण्णू ।। ६५॥ मन्मथे ।। ६६ ॥
(इस सूत्रमें १.३.६५ से) मः पदकी अनुवृत्ति है। मन्मथ शब्दमें आध म का व होता है। यह नियम (१.३.६५ से) पृथक् कहा जानेसे (यहाँका व) नित्य होता है । उदा.-वम्महो ।। ६६ ॥ तु ढो विषमे ॥ ६७ ॥
विषम शब्दमें म का ढ विकल्पसे होता है। उदा.-विसढो विसमो ॥ ६७ ।। यो जतीयानीयोचरीयकृत्येषु ।। ६८ ॥
(इस सूत्रमें १.३.६७ से) तु पदकी अनुवृत्ति है। तीय और अनीय इन प्रत्ययोंमें, उत्तरीय शब्दमें, और कृत् ऐसे कहे हुए य प्रत्ययमें, यकारका जकार होता है। (सूत्रमेंसे जमें) र् इत् होनेसे, (ज का) द्वित्व होता है। उदा.-तीय प्रत्ययमें-द्वितीयः विइज्जो विइओ। तृतीयः तइज्जो तइओ। अनीय प्रत्ययमें-करणीयम् करणिज्ज करणीअं। विस्मय
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हिन्दी अनुवाद- -अ १, पा. ३
नीयम् विम्हअणिज्जं विम्हअणीअं । यापनीयम् जावणिज्जं जावणीअं । (उत्तरीय शब्द में ) - उत्तरीयम् उत्तरिज्जं उत्तरीअं । कृत् प्रत्यय-पेया पेज्जा पेआ । मेयम् मेज्जं मेअं ॥ ६८ ॥
इन्मयटि ।। ६९ ।।
(इस सूत्रमें १.३.६८ से) यः पदकी अनुवृत्ति है । मयट् प्रत्यय में य का इकार विकल्प से होता है | उदा. - विषमय ः विसमइओ विसमओ ॥ ६९ ।।
छायायां होsकान्तौ ॥ ७० ॥
जब कान्ति यह अर्थ नहीं होता, तब छाया शब्द में य का ह विकल्पसे होता है | उदा.- वच्छस्स छाहा वच्छस्स छाआ । पुद्गलका पर्याय 1 सच्छाहं सच्छाअं । जब कान्ति यह अर्थ नहीं होता, ऐसा क्यों कहा है ? ( कारण कान्ति अर्थ होनेपर, यहाँका वर्णविकार नहीं होता ।) उदा.-मुहच्छाआ (यानी ) मुहकी कान्ति ऐसा अर्थ ॥ ७० ॥
यष्ट्रयां लहू ।। ७१ ॥
यष्टि शब्दमें य का ल होता है । (सूत्रके लल् में) व् इत् होनेसे यहाँ विकल्प नहीं होता । उदा. - लट्ठी यष्टिः । वेलुलट्ठी वेणुयष्टिः । चूअलट्ठी चूतयष्टि: । महुलट्ठी मधुयष्टिः ॥ ७१ ॥
कतिपये वहशौ ॥ ७२ ॥
कतिपय शब्द में य के व और ह होते हैं। (सूत्रके हश् में) शू इत् होनेसे, ह होते समय पूर्व स्वर दीर्घ होता है । उदा. - कइअवं कइवाह ।। ७२ ।।
अर्थपरे तु युष्मदि ॥ ७३ ॥
युष्मत् शब्द जब (मूल यानी तु, तुम इस अर्थ में (अर्थपरे) होता तब य का तकार होता है । उदा.- तुम्ह च्चि
यैौष्माकम् । तुम्हकेरो
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त्रिविक्रम - प्राकृत व्याकरण
युष्मदीयः । (मूल) अर्थमें होनेपर, ऐसा क्यों कहा है ! (कारण ऐसा नहीं हो तो यहाँका वर्णान्तर नहीं होता ।) उदा.- जुम्हदम्हप्पअरणं, युष्मदस्मत्प्रकरणम् ॥ ७३ ॥
५.
आदेर्जः ॥ ७४ ॥
I
पदमें आद्य य का ज होता है । उदा - यशः जसो । यमः जमो । युवति: जुवई । याति जाइ । (पदमें) आद्य य का, ऐसा क्यों कहा है ? ( कारण य आद्य न होनेपर ज नहीं होता ।) उदा. - अवअवो । विणओ 1 बहुलका अधिकार होनेसे, पीछे ( पूर्व ) उपसर्ग रहनेसे अनादि होनेवाले यकाभी ज होता है । उदा. - संजोओ संयोगः । संजमो संयमः । अपजसो अपयशः । (पीछे उपसर्गके होते हुए भी, अनादि य का ज ) कचित् नहीं होता । उदा.- प्रयोगः पओओ ।। ७४ ॥
भयौ बृहस्पतौ तु बहोः ।। ७५ ।।
बृहस्पति शब्द में बकार और हकार इनके अनुक्रमसे भकार और यकार विकल्पसे होते हैं । उदा. - भयप्पई बहप्पई ॥ ७५ ॥
रोडा पर्या ।। ७६ ।।
पर्याण शब्द में रेफका डा ऐसा आदेश होता है । उदा. -पडाआणं. पहाणं ॥ ७६ ॥
लो जठरवठरनिष्ठुरे || ७७ ॥
(इस सूत्र में १.३.७६ से) र: पद (अध्याहृत ) है । जठर, इत्यादि शब्दों में र काल विकल्पसे होता है । उदा - जठरम् जढलं जढरं । वठर::. वढलो वढरः । निष्ठुरः णिठुलो निठुरो । भ्रमरका पर्याय भसल शब्द संस्कृत जैसेही है || ७७ ॥
हरिद्रादौ ।। ७८ ॥
हरिद्रा, इत्यादि शब्दों में र का ल होता है। यह नियम (१.३.७७ से) पृथक् कहा जानेसे, (यह ल ) नित्य होता है | उदा. - हल्दी हरिद्रा !
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त्रिविक्रम-प्राकृत व्याकरण
इंगालो अंगारः। चलणो चरणः । जहुहिलो युधिष्ठिरः । सउमालो सुकुमारः। सिढिलो शिथिरः। सक्कालो सत्कारः । मुहलो मुखरः। वलुणो वरुणः । चिलाओ किरातः । लुग्गो रुग्णः । अवद्दालं अपद्वारम् । कलुणो करुणः । दलिदो दरिद्रः। फलिहो परिघः। फलिहा परिखा। दलिद्दाइ दरिद्राति । मच्छलो मत्सरः । संत्रच्छलो संवत्सरः। फालिहइं पारिभद्रम् । दालिद दारिद्यम् । काहलो कातरः । इत्यादि । बहुलका अधिकार होनेसे, (अंगार शब्दमें अ का) इ होनेपरही (र का ल होता है); इतरत्र मात्र-अंगारो । चरण शब्द पाँव अर्थमें होनेपरही (र का ल होता है); इतरत्र चरणकरणं। किरात शब्दमें (क का च होकर) चकारके सान्निध्य होनेपरही (र काल होता है); इतरत्र-नमिमो हर किराअं ॥ ७८ ॥ किरिवेरे डः ॥ ७९ ॥
(किरि और वेर) इन शब्दोंमें रेफका ड होता है। उदा.-किडी किरिः (यानी) वराह, गर्त, चूहा या गंधर्व । वेडो वेरः (यानी) भीरु, शरभ, करभ, मंडूक या दुंदुभि ॥ ७९ ॥ खोः करवीरे णः ॥ ८० ॥
___ करवीर शब्दमें खु अर्थात् आद्य रेफका ण होता है। उदा.कणवीरो ।। ८० ॥ लो ललाटे च ।। ८१ ॥
(इस सूत्रमें १.३.८० से) णः पदकी अनुवृत्ति है। ललाट शब्दमें आद्य लकारका ण होता है। सूत्रमेंसे च (चकार) यह खोः (इम १.३. ८० मेंसे) पदकी अनुवृत्ति दिखानेके लिए है। उदा.-णिडालं णडालं. ॥ ८१ ॥ लोहललाङ्गललागूले वा ॥ ८२ ॥
(लोहल, लाङ्गल और लाशूल) इन शब्दोंमें आद्य लकारका ण विकल्पसे होता है। उदा.-णोहलो लोहलो । लोहल (यानी) शबरविशेष । जंगलं लंगलं। णंगलं लंगूलं ।। ८२ ।।
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त्रिविक्रम-प्राकृत व्याकरण
स्थूले रलूतश्चौत् ।। ८३ ॥
___स्थूल शब्दमें ल का लित् (=नित्य) र होता है, और उसके सांनिध्यसे ऊ का ओ होता है। उदा.-थोरो। किंतु थूलहद्दो शब्द मात्र हरिद्रादि शब्दोंकी (१.३.८८ देखो) तरह स्थूर शब्दमें र का ल होकर होगा ।। ८३ ॥ बो मः शबरे ।। ८४ ॥
शबर शब्दमें ब का म होता है। उदा.-समरो ।। ८४ ॥ नीवीस्वप्ने वा ।। ८५ ।।
(नीवी और स्वप्न) इन शब्दोंमें व का म विकल्पसे होता है । उदा.नीमी नीवी। सिमिणो सिविणो ।। ८५ ।। हस्य घो बिन्दोः ।। ८६ ।।
___ अनुस्वार (=बिंदु) के आगे होनेवाले ह का घ विकल्पसे होता है। उदा.-संघारो संहारो संहारः। सिंघो सिंहो सिंहः। कचित् अनुस्वारके आगे न होनेपरभी (ह का घ होता है।) उदा.-दाघो दाहः ।। ८६ ।। शोः सल् ।। ८७ ॥
अस्तोरखोरच: (१.३.७) सूत्रकी (यहाँ) निवृत्ति हो गई। शु यानी श, ष और स इन वर्णोंका सकार होता है। (सूत्रके सल में) ल् इत् होनेसे, (यह स) नित्य होता है । उदा.-श (का स)-शब्दः सहो । कुशः कुसो। नृशंसः णिसंसो। वंश: वंसो। अश्वः आसो। ३मश्रः मंसू । श्यामा सामा। दश दस। शोभते सोहइ। ष (का स)-षण्डः संडो । निकषः णिहसो। कषायः कसाओ। विष्वक् वीसुं । वर्षः वासो। तुष्यति तूसइ । शेषः सेसो ।। ८७ ॥ प्रत्यूषदिवसदशपाषाणे तु हः ।। ८८ ॥
(इस सूत्रमें १.३.८७ से) शोः पदकी अनुवृत्ति है। प्रत्यूष, इत्यादि शब्दोंमें श, ष, स का ह विकल्पसे होता है। उदा.-पच्चहो पच्चूसो (प्रत्यूष)।
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हिन्दी अनुवाद-अ. १, पा.३
दिअहो दिअसो (दिवस)। दह दस (दश)। दहमुहो दसमुहो (दशमुख)। दहबलो दसबलो (दशबल)। दहरओ दसरहो (दशरथ)। एआरह एआरस (एकादश)। बारह बारस (द्वादश)। तेरह तेरस (त्रयोदश)। पाहाणो पासाणो (पाषाण) ।। ८८ ।। स्नुषायां हः फोः ।। ८९ ।।
स्नुषा शब्दमें फोः यानी द्वितीय (ऐसे) शु का एह ऐसा आदेश विकल्पसे होता है । उदा.-सुण्हा सुसा स्नुषा ॥ ८९ ॥ छल् षट्शमीसुधाशावसप्तपणे ॥ ९०।।
(षट, शमी, सुधा, शाव, सप्तपर्ण) इन शब्दोंमें श, ष, स का लित् (=नित्य) छ होता है। उदा.-छट्ठी षष्ठी। छप्पओ षट्पदः। छम्मुहो षण्मुखः । छमी शमी। छुहा सुधा। छावो शावः । छत्तिवण्णो सप्तपर्णः ।। ९० ॥ सिरायां वा ।। ९१ ॥
सिरा शब्दमें शु का छ विकल्पसे होता है। उदा.-छिरा सिरा ॥९१॥ लुक्पादपीठपादपतनदुर्गादेव्युदुम्बरेऽचान्तर्दः ॥ ९२ ।।
पादपीठ, इत्यादि शब्दोंमें (दो स्वरोंके) बीच होनेवाले दकारका, (उससे संयुक्त रहनेवाले) स्वरके साथ, विकल्पसे लोप होता है। उदा.पावीढं पाअवीढं पादपीठम् । पावडणं पाअवडणं पादपतनम्। दुग्गावी दुग्गाएवी दुर्गादेवी। उंबरो उउंबरो उदुम्बरः। (दो स्वरोंके) बीच होनेवाले, ऐसा क्यों कहा है ? (कारण दुर्गादेवी शब्दमेंसे आद्य (दकार) में (विकल्पसे लोप) न हो ।। ९२ ॥ व्याकरणप्राकारागते कगोः ॥ ९३ ॥
(इस सूत्रमें १.३.९२ से) लुग् पदकी अनुवृत्ति है। (१.३.९१ सूत्रमेंसे) वा शब्द और (१.३.९२ मेंसे) अचा पद यहाँ (अध्याहृत) हैही। व्याकरण, इत्यादि शब्दोंमें ककार और गकार इनका, (उनसे संयुक्त
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त्रिविक्रम-प्राकृत व्याकरण
रहनेवाले) स्वरके साथ, विकल्पसे लोप होता है। उदा.-वारणं वाअरणं (व्याकरण)। पारो पाआरो (प्राकार)। आओ आअओ (आगत) ॥ ९३ ।। एवमेवदेवकुलप्रावारकयावज्जीवितावटावर्तमानतावति वः ॥ ९४ ॥
एवमेव, इत्यादि शब्दोंमें (दो स्वरोंके) बीच रहनेवाले वकारका, (उससे संयुक्त रहनेवाले) स्वरके साथ, विकल्पसे लोप होता है। उदा.एमेअ एअमेअ (एवमेव) । देउलं देवउलं (देवकुल)। पारओ पावारओ (प्रावारक)। जा जाव (यावत्)। जी जीविअं (जीवित)। अडो अवडो (अवट)। अतमाणं आवत्तमाणं (आवर्तमान)। ता ताव (तावत्)। (वकार) दो स्वरोंके बीचमें होनेपरही (उसका विकल्पसे लोप होता है, अन्यथा नहीं। इसलिए) एवमेव शब्दमें अन्त्य वकारका (विकल्पसे लोप) नहीं होगा ।। ९४ ॥ ज्योर्दनुजवधराजकुलभाजनकालायसकिसलयहृदयेषु ॥ ९५ ॥
दनुजवध, इत्यादि शब्दोंमें ज्योः यानी जकार और यकार इनका, (उनसे संयुक्त रहनेवाले) स्वरके साथ, विकल्पसे लोप होता है। उदा.दणुवहो दणुअवहो दनुजवधः । राउलं राअउलं राजकुलम् । भाणं भाअणं भाजनम् । कालासं कालाअसं कालायसम् । किसलं किसलअं किसलयम् । हि हिअ हृदयम् । महण्णवसमा सहिआ जाला ते सहिअएहिं घेप्पंति, महार्णवसमाः सहृदया यदा ते सहृदयैर्गृह्यन्ते ।। ९५ ।। अपतो घरो गृहस्य ॥ ९६ ।।
पति शब्द आगे न होनेपर, गृह शब्दको घर ऐसा आदेश विकल्पसे होता है। उदा.-घरो गृहम् । घरसामी गृहस्वामी। राअघर राजगृहम् । पति शब्द (आगे) न होनेपर, ऐसा क्यों कहा है ?(कारण पति शब्द आगे हो तो गृहको धर ऐसा आदेश नहीं होता।) उदा.-गहबई गृहपतिः।।९६॥ स्त्रीभगिनीदुहितवनितानामित्थीबहिणीधूआविलआः ॥ ९७ ॥
____ स्त्री, इत्यादि शब्दोंको इत्थी, इत्यादि आदेश यथाक्रम विकल्पसे होते हैं। उदा.-इत्थी थी स्त्री। बहिणी भइणी भगिनी। धूआ दुहिआ
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हिन्दी अनुवाद-अ. १, पा. ३ दुहिता। विलआ वणिआ वनिता। कोई कहते हैं कि विलया शब्द संस्कृतमेंभी है ॥ ९७ ॥ उभयाधसोरवहहेहौ ।। ९८ ॥
उभय और अधस् इनको यथाक्रम अवह, हेट्ट ऐसे आदेश विकल्पसे होते हैं। उदा.-अवहं । कोई लोगोंके मतानुसार, उहअं ऐसाभी (वर्णान्तर) होता है । हेडं अह । हेट्ठमग्गो अहमग्गो अधोमार्गः ।। ९८ ॥ मलिनधृतिपूर्ववैडूर्याणां मइलदिहिपुरिमवेरुलिआः ॥ ९९ ॥
____ मलिन, इत्यादि शब्दोंको यथाक्रम मइल, इत्यादि आदेश विकल्पसे होते हैं। उदा.-मइलं मलिणं मलिनम् । दिही धिई धृतिः । पुरिमं पुव्वं पूर्वम् । वेरुलिअं वेडुज्जं वैडूर्यम् ।। ९९ ॥ स्मरकट्वोरीसरकारौ ॥ १० ॥
___ स्मर और कटु शब्दोंको यथाक्रम ईसर और कार ऐसे आदेश विकल्पसे होते हैं । उदा.-ईसरो सरो स्मरः । कारं कडू कटुः।।१००॥ बाहिंबाहिरौ बहिसः ॥ १०१ ॥
बहिः शब्दको बाहिं और बाहिर ऐसे आदेश विकल्पसे होते हैं। उदा.-बाहिं बाहिरं । बाहिरब्भंतरकिरिआरोहो, बाह्याभ्यन्तरक्रियारोधः ॥ १०१ ।। कूरो गौणेषदः ॥ १०२॥
(समासमें) गौण (पद) होनेवाले ईषत् शब्दको कूर ऐसा आदेश विकल्पसे होता है। उदा.-चिंच व्व कूर पिक्का, चिञ्चेवेषत्पक्का । विकल्पपक्षमें-ईसि ॥ १०२ ॥ एण्हि एत्ताहे इदानीमः ॥ १०३ ॥
___ इदानीमको एण्हि और एत्ताहे ऐसे आदेश विकल्पसे होते हैं। उदा.-एण्हि एत्ताहे इआणिं। विकल्पपक्षमें-दाणिं ॥ १०३ ॥
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६४
त्रिविक्रम-प्राकृत व्याकरण तिर्यक्पदातिशुक्तेस्तिरिच्छिपाइकसिप्पी ।। १०४ ॥
तिर्यक्, इत्यादि शब्दोंको तिरिच्छि, इत्यादि आदेश होते हैं। उदा.-तिरिच्छि पेच्छइ, तिर्यक् पश्यति। पाइको पआई पदातिः। सिप्पी सुत्ती शुक्तिः ॥ १०४ ।। गोणाद्याः ॥ १०५ ।।
जिनके बारेमें प्रकृति, प्रत्यय, लोप, आगम और वर्णविकार नहीं कहे हैं, ऐसे गोण, इत्यादि शब्द बहुलत्वसे निपातके रूपमें आते हैं। उदा.-(१) गोणो गौ या गाय । यहाँ (गो के आगे) स्वार्थे ण आया है। (२) गोला गोदा ।- गोदा यानी गोदावरी। यहाँ द का ल हुआ है। कोई कहते हैं, गोला शब्द संस्कृत मेंभी है। (३) ओसायणं आपोशन या आचमन । (यहाँ) आपः शब्दको ओसा ऐसा आदेश, फिर सकारके आगे यकारका आगम (हुए हैं)। (अथवा)-नीहार अर्थमें ओसा यह देश्य शब्द है; उसका कण यानी ओसायण । (४) वाई वनराजि। यहाँ रेफका लोप हुआ है । (५) तल्लं तल्लडं तल्प शय्या। यहाँ ल का द्वित्व, प का लोप अथवा स्वार्थे ड (आये हैं)। (ल का द्वित्व) न होनेपर, तलं । (६) थोवो (७) थेवो थोको स्तोक या स्वल्प । यहाँ क का व और / अथवा ओ का ए, (और) सेवादिपाठमें होनेसे द्वित्व (हुए हैं)। (८) विरुअं विरुद्ध । यहाँ संयुक्त व्यंजनका लोप हुआ है। (९) आओ आप या जल। शरदादिपाठमें होनेसे, अन्त्य व्यंजनका अ और दीर्घ स्वर (हुए हैं)। (१०) गोसो गोसर्गः प्रत्यष या प्रभात । यहाँ र्ग का लोप हुआ है। (११) वोसिरणं व्युत्सर्जन या छोडना । यहाँ व्युत् का वो, सृजति ऐसा मानकर ज का र,
और (समें) समेंसे ऋ का इ (हुए हैं)। (१२) धिरत्थु धिगस्तु या धिक्कार हो । यहाँ ग का र हुआ है। (१३) पत्थेवा पाथेयं । यहाँ थाका द्वित्व और वकारका आगम (हुए हैं)। (१४) वेलंबो (१५) वडंबो विडम्बना ।---यहाँ इ का ए, ड का ल और नकारका लोप हुए हैं।
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हिन्दी अनुवाद-स. १, पा. ३ ।
(१६) बुलबुलो बुबुद । यहाँ दकारका ल और दो संयुक्त व्यंजनोंके बीचमें उ ऐसे वर्णविकार हुए हैं। (१७) करिल्लं करीर या बाँस । यहाँ र का ल्ल हुआ है। (१८) ऊआ युका । यहाँ आध य का लोप हुआ है। (१९) दोग्गं युग्म या जोडी। यहाँ यु का दो हुआ है। (२०) धणिया धन्या (यानी) प्रियतमा । यहाँ यकारके पूर्वमें इ आया है। (२१)णिव्वहणं उन्दहनं (यानी) विवाह । यहाँ उकारका णि हुआ है। (२२) मुव्वहह उद्वहति ब्याह करता है। यहाँ उकारका मु हुआ है। (२३) छिच्छि धिक् धिक् । यहाँ ध का छ हुआ है। (२४) वाडी वृतिः। यहाँ ऋ का आ और तकारका ड हुए हैं । (२५) गहिल्लो प्रहिल या पिशाचग्रस्त । यहाँ ल का द्वित्व हुआ है। (२६) गोणिको गोनीकः (यानी) गवां अनीकः (यानी) गौओंका समूह । यहाँ क का द्वित्व हुआ है। (२७) अइरजुवई अचिरयुवति । अपूर्वा ऐसा अर्थ। (२८) अणरहू नववधू । यहाँ नकार और वकार इनके (अनुक्रमसे) अ और ण, तथा वका र हुए हैं। (२९) अमआ असुर । यहाँ सुकार और रेफ इनके म और य हुए हैं। (३०) पण्णवण्णा (३१) पश्चावण्णा पश्चपश्चाशत् या पचपन । यहाँ आध संयुक्त व्यंजनका ण, प का व, चाशत्का णा, हुए हैं। (पंचावण्णामें) द्वितीय अ का आ, चाशत्का णा हुए हैं। (३२) गामहणं ग्रामस्थान । यहाँ स्थाकारका ह हुआ है। (३३) तेवण्णा त्रिपश्चाशत् या तिरपन । यहाँ इ का ए, चाशत्का ण हुए हैं। (३४) घुसिमं घुसूण या केसर। यहाँण का म, ऋकारका इ हुए हैं। (३५) छटा छटा। यहाँ टकारका द हुआ है। (३६) बइल्लो बलीवर्द य, बैल। यहाँ द का ल और लीव का इ हुए हैं। (३७) पाउरणं (३८) पंगुरणं प्रावरण । यहाँ द्वितीय का उ हुआ है और व को गु ऐसा भादेश हुआ है। (३९) लक्कुडो लगुड या लकडी। यहाँ गकारका क दुआ है। (४०) आसंघो आस्था। यहाँ स्थाकारका : संघ हुआ है। त्रिवि.मा.व्या....५
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H
त्रिविक्रम-प्राकृत व्याकरण
(४१) छेणो स्तेन या चोर। यहाँ स्त का छ हुआ है। (४२) दोसिणी ज्योत्स्ना या चन्द्रिका । यहाँ ज्यो का दो हुआ है और न के पूर्वमें इ माया है। (४३) हिज्जो ह्यः या कल । यहाँ यकारका इज्ज हुआ है। (४४) कक्खडो कश । यहाँ क और श इनके ख और ड हुए हैं। (४५) तेलीसा त्रिचत्वारिंशत् या तैंतालीस । यहाँ इ का ए, च और त्व इनका आ, र काल, हुए हैं; और विंशत्यादिपाठमें होनेसे, अनुस्वारका लोप हुआ है। (४५) कत्तं कलत्र या पत्नी। यहाँ स्वरके साथ ल् का लोप हुआ है। (४७) कलवू अलाबू । यहाँ अकारका क और आकारका अकार हुए हैं। (४८) नलि। (४९) निहेलणं निलय यानी घर । यहाँ इ और अ इनका (स्थान-) व्यत्यय, और य का ण हो गये, और ल के पूर्वमें हे आया है । (१०) णिकडो निश्चय। यहाँ श्च और य इनके क और ड हुए हैं। (५१) णिकडो निश्चल । यहाँ च और ल इनके क और ड हुए हैं । (५२) णिरासो नृशंस यानी क्रूर । यहाँ शंकारका रा हुआ है। (५३) णिप्फंसो निस्त्रिंश या खड्ग। यहाँ स्त्रिकारका फ हुआ है । (६४) विहुंडुओ विधुतुद् यानी राहु । यहाँ त का ड हुआ है। (६५) वहिओ मथित । यहाँ म का व हुआ है। (५६) खड़े खेल । यहाँ ल काड हुआ है। (५७) कोलीरं कुरुविन्द (यानी) एक प्रकारका पद्मराग । यहाँ (दो) उकारोंका ओं और ई, र का ल, तथा बिन्दुका र, हुए हैं। (१८) विसग्गो घ्युत्सर्ग या छोडना । यहाँ व्यु का वि हुआ है। (५९) संघयणं संहनन । यहाँ ह का घ, और आद्य न का य हुए हैं। (६०) घायणो गायन । यहाँ ग का व हुआ है। (६१) ढेक्कुणो मत्कुण । यहाँ म और त् इनका ढे हुआ है। (६२) ककुडं ककुद । यहाँ द का ड हुआ है। (६३) सेवालं जम्पाल या सेवाल । यहाँ ज और म् इनका से हुआ है । (६४) खुडओ क्षुल्लक या क्षुद्र । यहाँ ल का ड हुआ है। (६५) वड्ढुअरो बृहत्तर या बडा । यहाँ बृहत् का वड्दु हुआ है। (६६) अत्थक्कं अकाण्ड यानी यकायक । यहाँ का और ण्ड इनके त्थ और क हुए हैं। (६७) आणुअं आनन या मुख । यहाँ आद्य अका उ और द्वितीय न का लोप हुए हैं । (६८) संगोलं संघात या समूह । यहाँ घा और त इनका गोल हुआ है । (६९) सामरी (७०) सामली शाल्मलि एक
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हिन्दी अनुवाद-अ. १, पा. ३
वृक्षविशेष । यहाँ ल का लोप, और द्वित्वका अभाव हैं । (७१) हिमोरं हिमोदर। यहाँ द का लोप हुआ है । (७२) अब्बा अम्बा या माँ। यहाँ अनुस्वारका लोप, और ब का द्वित्व हैं। (७३) सिप्पी सूची। यहाँ ऊ का इ और च का द्विरुक्त प (प्प) हुए हैं। (७४) बम्हा वाणी या सरस्वती। यहाँ ण का म्ह हुआ है । (७५) जच्छन्दो स्वच्छन्द । यहाँ स्व का ज हो गया है । (७६) तलारो तलवरः (यानी) पुराध्यक्ष । यहाँ व का लोप हुआ है। (७७) कुटुं कुतुक या कुतूहल । यहाँ त का लोप हुआ और क का द्विरुक्त ड (ड) हो गया है। (७८) सीसकं शिरःपत्र । यहाँ पत्रका क हुआ है। (७९) जम्बालं शैवाल । यहाँ शै का जम् हो गया है । (८०) अणुदिवं दिनमुख यानो प्रभात । अनु (यानी) अनंतर (नंतर दिवा यानी दिन)। यहाँ न का व हुआ है। (८१) सत्थरो संस्तर या शय्या । यहाँ अनुस्वारका लोप हुआ है। (८२) विड्डरं विस्तार । यहाँ स्तकारका ड्ड हो गया है । (८३) वीली वेची और (८४) वीबी (यानी लहर)। यहाँ च का ल और च का ब हुआ है। (८५) डंमिओ दाम्भिक । यहाँ द का ड हुआ है। (८६) कडप्पो कलाप (यानी) समूह । यहाँ ल का ड हुआ और पका द्वित्व हो गया है। (८७)दूसलो दुर्भग पानी अभागी। यहाँ भ और ग इनके स और ल हो गये हैं। (८८)गलं गण्ड यानी कपोल । यहाँ ड का ल हुआ है । (८९)पडिसिद्धी प्रतिस्पर्धा । यहाँ स्प का सि हुआ और आ का ई हो गया है । (९०) वढो क्ट । यहाँ ट का ढ हुआ है। (९१) डोअणो (९२) डोअलो (९३) डोलो लोचन । यहाँ ल का ह, ल और न इनके ड और ल होकर, स्वरके साथ च का लोप हो गया है। (९४) कत्थइ कचित् । यहाँ चि का य हुआ है । (९५) डेड्दुरो दर्दुर यानी दादुर । यहाँ अ का ए हुआ और दोनों दकारोका ड हो गया है । (९६) छिल्लं छिद्र । यहाँ द्र का ल हो गया है । (९७) मंजरो (९८) वंजरो मार्जार । यहाँ विकल्पसे म का व हो गया है, वक्रादिपाठमें होनेसे, अनुस्वार आ गया, और आ का म्हस्व (यानी अ) हो गया। (९९) गहरो गृध्र । यहाँ र के पूर्वमें अ
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६८
त्रिविक्रम-प्राकृत व्याकरण
आया है । (१००) उरओ। (१०१) अज्जमो ऋजु पा सरल । यहाँ ज का र, ऋकार और उकार इनका म हुए और स्वार्थ म आपा है। (१०२) साइआ सारिआ शारिका । यहाँ रि का लोप हुआ और अन्त्य आ का इआ हो गया है। (१०३) अरणी सरणि यानी पद्धति । यहाँ स का लोप हुआ है। (१०४) वणेसी तृणराशि । यहाँ पूर्व स्वरके साथ राकारका ए हो गया है। (१०५) दुग्गं दुःख । यहाँ संयुक्त व्यंजनका ग हुआ। (१०६) चउक्कं चतुष्पध । यहाँ पथ का क हो गया । (१०७) कलेरं कराल यानी जटिल। यहाँ र और ल इनका (स्थान-) व्यत्यय हुआ और आ का ए हो गया । और (१०८) कक्कालं कंकाल यानी हड्डियोंका जाल । इत्यादि ॥ १०५॥
- प्रथम अध्याय तृतीय पाद समाप्त -
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चतुर्थः पादः
स्तोः ॥ १॥
(स्तोः) यह अधिकार है। 'ईल ज्यायाम्' (१.४.११०) सूत्रतक इसका अधिकार है । समझना है कि यहाँसे आगे जो कुछ अनुक्रमसे कहा जायेगा, वह स्तु का पानी संयुक्त व्यंजनका होता है ॥ १॥ चा रक्ते गः ॥२॥
रक्तमें स्तुको यानी संयुक्त व्यंजनको ग ऐसा आदेश विकल्पसे होता है । उदा.-ग्गो रत्तो ॥ २ ॥ शुल्के ङ्गः ॥ ३ ॥
शुल्कमें संयुक्त व्यंजनको ग ऐसा आदेश विकल्पसे हो जाता है । उदा.सुंगं सुकं ॥३॥ कः शक्तमुक्तदष्टमृदुत्वरुग्णेषु ॥ ४ ॥
(शक्त, मुक्त, दष्ट, मृदुत्व, रुग्ण) इन शब्दोंमें स्तु का यानी संयुक्त व्यंजनका ककार विकल्पसे होता है । उदा.-सको सत्तो (शक्त)। मुक्को मुत्तो (मुक्त)। डक्को दट्ठो (दष्ट)। माउकं मउक्कं माउत्तणं (मृदुत्व)। लुक्को लुग्गो (रुग्ण) ।। ४ ॥ क्ष्वेडकगे खल् ॥ ५ ॥
श्वेडक, इत्यादिमें संयुक्त व्यंजनका खकार होता है। (सूत्रके खल्में) ल् इत् होनेस, यहाँ विकल्प नहीं होता। उदा.-क्ष्वेडकः खेडओ। क्ष्वेडक शब्द विष का पर्यायी शब्द है । स्फोटकः खोडओ। स्फोटिका खोडिआ ॥५॥ कस्कोर्नाम्नि ॥ ६ ॥
(इस सूत्रमें) ख पदकी अनुवृत्ति है । संज्ञामें (होनेवाले) ष्क और स्क इनका ख हो जाता है। उदा.-पुष्करम् पोक्खरं । पुष्करिणी पोक्खरिणी । निष्कम् णिक्खं । स्कन्धः खंधो। स्कन्धावारः खंधावारो। अवस्कन्दः अवक्खदो । (सूत्रमें) संशामें (होनेवाले), ऐसा क्यों कहा है ? (कारण संज्ञाको छोडकर अन्य शब्दों में ऐसा वर्णान्तर नहीं होता।) उदा.-दुक्करं दुष्करम् । णिकम्पं निष्कम्पम् । णमोकारो नमस्कारः। सक्कभं संस्कृतम् । सक्कारो संस्कारः ॥६॥
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त्रिविक्रम-प्राकृत व्याकरण
वुश्च रुव॒क्षे ॥ ७ ॥
वृक्ष शब्दमें संयुक्त व्यंजनका ख होता है, और उसके सानिध्यसे वृकारका रु हो जाता है। उदा.-रुक्खो । यह शब्द स्पृहादि-गणमें होनेसे, क्ष का छ होनेपर, वच्छो (ऐसा वर्णान्तर हो जायेगा) ॥ ७ ॥ क्षः ॥ ८ ॥
क्षकारका ख होता है। उदा.-लक्षणम् लक्खणं । क्षयः खओ। विचक्षणः विअक्खणो । बहुलका अधिकार होनेसे, कचित् (क्ष के) च्छ और झ भी हो जाते हैं। उदा.-खीणं झीणं क्षीणम् । छिज्जइ झिज्जइ क्षीयते ॥८॥ स्थागावहरे ॥ ९॥
___ स्थाणुका अर्थ शंकर ऐसा न होनेपर, स्थाणु शब्दमें स्तु का यानी संयुक्त व्यंजनका ख होता है। यदि शंकर अर्थ अभिप्रेत हो, तो ख नहीं होता। उदा.-खाणू। शंकर अर्थ न होनेपर, ऐसा क्यों कहा है ? (कारण शंकर अर्थ होनेपर ख नहीं होता।) उदा.-थाण ॥ ९॥ स्कन्दतीक्ष्णशुष्के तु खोः ।। १० ॥
(स्कन्द, तीक्ष्ण, शुष्क) इन शब्दोंमें खु का यानी आद्य संयुक्त व्यंजनका ख विकल्पसे होता है । उदा.-खंदो कंदो । तिक्खं तिहं । सुक्खं सुकं ॥१०॥ स्तम्भे ।। ११ ॥
(इस सूत्रमें १.४.१० से) खोः और तु पदोंकी अनुवृत्ति है। स्तम्भमें खु का यानी आद्य संयुक्त व्यंजनका खकार विकल्पसे होता है। उदा.-खंभो थंभो। (यह स्तंभ) काष्ठ, इत्यादिका है। यह नियम(१.४.१० से) पृथक कहा है; कारण इसका उपयोग अगले पत्र में करना है ॥ ११ ॥ थलस्पन्दे ।। १२ ।।
- स्पंदका अभाव इस अर्थमें स्तम्भ शब्द होनेपर, आद्य संयुक्त व्यंजनका लितू (=नित्य) थ होता है। उदा.-यंभो । थंभिज्जइ ॥ १२ ॥ स्त्यानचतुर्थे च तु ठः ।। १३ ॥ .: स्त्यान और चतुर्थ शब्दोंमें, (तथा) सूत्रमेंसे चकारके कारण स्पंदका अभाव इस अर्थमें होनेवाले स्तम्भ शब्दमें, (संयुक्त व्यंजनका) ठ विकल्पसे होता है। उदा.-टोणं थीणं । चउट्ठो चउत्थो । ठभो ठंभिज्जइ ॥ १३ ॥
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हिन्दी अनुवाद- अ. १, पा. ४ ष्टः ॥ १४ ॥
(इस पत्रमें १.४.१३ से) ठः पदकी अनुवृत्ति है । ष्ट का ठ होता है। यह नियम (१.४.१३ से) पृथक् कहा जानेसे, (यह ठ) नित्य होता है। उदा.. दृष्टिः दिट्ठी । मुष्टिः मुट्ठी । षष्टिः लट्ठी । सौराष्ट्रम् सोरटुं ॥ १४ ॥ विसंस्थुलास्थ्यधनार्थे ।। १५ ।।
विसंस्थुल और अस्थि शब्दोंमें, तथा धन अर्थ न होनेवाले अर्थ शब्दमें, संयुक्त व्यंजनका ठ होता है। उदा.-विसंठुलं विसंस्थुलम् । अट्ठी अस्थि । अट्ठो अर्थः (यानी) प्रयोजन | धन अर्थ न होनेवाला अर्थ शब्द, ऐसा क्यों कहा है ? (कारण धनवाचक अर्थ शब्दमें ठ नहीं होता।) उदा.-अत्थो॥ १५॥
चः कृत्तिचत्वरे ॥ १६ ॥
कृत्ति और चत्वर शब्दोंमें संयुक्त व्यंजनका च होता है । उदा.--किच्ची कृत्तिः। चच्चरं चत्वरम् ॥ १६ ॥ त्योऽचैत्ये ॥ १७ ॥
चैत्य शब्दको छोडकर, (अन्य शब्दोंमें) त्य का च होता है। उदा.सत्यम् सच्च । प्रत्ययः पच्चओ। अमात्यः अमच्चो। चैत्य शब्दको छोडकर, ऐसा क्यों कहा है? (कारण चैत्य शब्दमें त्य का च नहीं होता।) उदा.चइत्तं ॥ १७ ॥ श्चश्चिके ञ्चुर्वा ।। १८ ॥
वृश्चिक शब्दमें श्चि को ञ्चु ऐसा आदेश हो जाता है। उदा.-विञ्चुओ विच्छुओ ॥ १८ ॥ उत्सवऋक्षोत्सुकसामर्थ्य छो वा॥ १९ ॥
(उत्सव, ऋक्ष, उत्सुक, सामर्थ्य) इन शब्दोंमें स्तु का यानी संयुक्त व्यंजनका छ विकल्पसे होता है। (इस सूत्रमें) पुनः 'वा' ऐसा कहा जानेसे, अगले सूत्रोंमें विकल्प नहीं होता। उदा.-उच्छओ ऊसओ। रिच्छो रिक्खो । उच्छुओ ऊसुओ । सामच्छं सामत्थं ॥ १९ ॥
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७२
त्रिविक्रम-प्राकृत व्याकरण
क्षमायां कौ ॥२०॥
(इस सूत्रमें १.४.१९ से) छः पदकी अनुवृत्ति है । कु यानी पृथिवी; तद्वाचक होनेवाले क्षमा शब्दमें स्तु का यानी संयुक्त व्यंजनका छ होता है। उदा.-छमा । व्याकरणके नियमानुसार होनेवाले (लाक्षणिक) (क्ष्मा का क्षमा होनेपर) वहाँ भी छ हो जाता है। उदा.-छमा । पृथिवीवाचक (क्षमा शब्द), ऐसा क्यों कहा है। (कारण क्षमा शब्दका पृथिवी अर्थ न होनेपर, छ नहीं होता।) उदा.-खमा, क्षमा (यानी) क्षांति ॥ २० ॥ क्षण उत्सवे ।। २१॥
उत्सव वाचक क्षण शब्दमें संयुक्त व्यंजनका छ होता है । उदा.-छणो। उत्सववाचक (क्षण शब्द), ऐसा क्यों कहा है ? (कारण उत्सववाचक क्षण शब्द न होनेपर, छ नहीं होता।) उदा.-खणो ॥ २१ ॥ स्पृहादौ ॥ २२॥
स्पृहा, इत्यादि शब्दोंमें स्तु का यानी संयुक्त व्यंजनकाछ होता है। उदा.स्पृहा छिहा । क्षुरः छुरो । क्षीरम् छीरं । वृक्षः वच्छो । क्षेत्रम् छेत्तं । वक्षः वच्छो । कुक्षिः कुच्छी । क्षुतम् छुअं । क्षतम् छ। क्षुण्णम् छुगणं । कक्ष्या कच्छा । कक्षः कच्छो । मक्षिका मच्छिआ । क्षारम् छारं । इक्षुः उच्छ। सदृक्षः सारच्छो। अक्षि अच्छी। स्थगितः छइओ। दशः दच्छो। कौक्षेयकम् कुच्छेअअं । उक्षा उच्छा। सादृश्यम् सारिच्छं । क्षुधा छुहा। लक्ष्मीः लच्छी। लक्ष्म लच्छं। इत्यादि ॥ २२ ॥ थ्यश्चत्सप्सामनिश्चले ।। २३ ॥
(सूत्रमेंसे) अनिश्चले यानी निश्चल शब्दको छोडकर, थ्य, श्च, त्स और प्स इनका छ होता है। उदा.-थ्य (का छ)-पथ्यः पच्छो । मिथ्या मिच्छा। श्व (का छ)-पश्चिमम् पच्छिमं । आश्चर्यम् अच्छेरं । पश्चात् पच्छा । स (का छ). उत्साहः उच्छाहो। मत्सरः मच्छरो। संवत्सरः संवच्छलो। चिकित्सति चिइन्छइ । प्स (का छ)-अप्सरसः अच्छरा। लिप्सते लिच्छइ । जुगुप्सति जुउच्छइ । निश्चल शब्दको छोडकर, ऐसा क्यों कहा है ? (कारण निश्चल शब्दमें थ का छ नहीं होता।) उदा.-णिश्चलो ॥ २३ ॥
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OF
हिन्दी अनुवाद-अ. १, पा. ४ द्यय्ययों जः ॥२४॥
___(द्य, य्य और र्य) इनका जकार होता है। उदा.-द्य (का ज)-मद्यम् मज्ज । भवद्यम् अवज्ज । आतोद्यम् आओज्जं । द्युतिः जुई । द्योतः जोओ। य्य (का ज)-शय्या सेज्जा। जय्यः जज्जो। क्षय्यः खज्जो। र्य (का ज)-कार्यम् कज्ज । पर्यायः पज्जाओ। पर्याप्तम् पज्जत्तं ॥ २४ ॥ त्वभिमन्यौ जज ॥ २५ ॥
अभिमन्यु शब्द स्तु के यानी संयुक्त व्यंजनके जर् और ज ऐसे ये (विकार) विकल्पसे होते हैं । (जर में) र् इत् होनेसे, (ज का) द्वित्व होता है। उदा.-अहिमज्जू अहिमजू । विकल्पपक्षमें-अहिवण्णू अहिमण्णू ॥ २५ ॥ ध्यह्योझल् ॥ २६ ॥
ध्य और ह्य इनका झ होता है । (झल् में, लू इत् होनेसे,(यह श) नित्य होता है । उदा.-ध्य (का झ)-ध्यानम् झाणं । अध्ययनम् अज्झयणं । सन्ध्या संझा। विन्ध्यः विझो। उपाध्यायः उवज्झाओ। ह्य (का झ)-सह्यः सज्झो। गुह्यम् गुज्झं । ग्राह्यम् गेज्झं । नह्यते णज्झइ ॥ २६ ॥ साध्वसे ॥ २७ ॥
साध्वसमें स्तु का यानी संयुक्त व्यंजनका झ होता है। उदा.-सज्झसं ॥ २७ ॥ ध्वजे वा ॥ २८ ॥
___ध्वजमें स्तु का यानी संयुक्त व्यंजनका झ विकल्पसे होता है। उदा.झओ धओ ध्वजः ॥ २८ ॥ इन्धौ ॥ २९ ॥
प्रदीत होना इस अर्थमें होनेवाले इन्ध (इन्धी) धातुमें स्तु को यानी संयुक्त व्यंजनको श ऐसा आदेश होता है । उदा.-समिध्यति समिज्झइ॥२९॥ तस्यापूर्तादौ टः ।। ३० ॥ ___अधूर्तादौ यानी धूर्त, इत्यादि शब्दोंको छोडकर, (अन्य शब्दोंमें) त का हो जाता है। उदा.-कैवर्तः केवट्टो । वर्तिः षट्टी । वर्तुलम् वट्ठल । संवर्तितः
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७४,
त्रिविक्रम-प्राकृत व्याकरण
संवट्टिओ। प्रवर्तते पअट्टइ । नर्तयति णट्टइ। सूत्रमें धूर्त, इत्यादि शब्दोंको छोडकर, ऐसा क्यों कहा है ? (कारण धूर्त, इत्यादि शब्दोंमें तं का दृ नहीं होता ।) उदा.-धूर्तः धुत्तो । वार्ता वत्ता। आतिः अत्ती। संवर्तनम् संवत्तणं । विवर्तनम् विवत्तणं । प्रवर्तनम् पवत्तणं। आवर्तनम् आवत्तणं | मुहूर्तः मुहुत्तो। मूर्तः मुत्तो। आवर्तकः आवत्तओ। संवर्तकः संवत्तओ। वार्तिकः वत्तिओ। वर्तिका वत्तिआ। प्रवर्तकः पवत्तओ। मूर्तिः मुत्ती। उकीर्तितः उक्कित्तिओ। निवर्तकः णिवत्तओ। निर्वर्तकः णिवत्तिओ। कीर्तिः कित्ती। कार्तिकः कत्तिओ। बहुलका अधिकार होनेसे, (कभी कभी त का दृ हो जाता है।) उदा.-वार्ता वट्टा ॥ ३० ॥ प्रवृत्तसंदष्टमृत्तिवृत्तष्टापत्तनकदर्थितोष्ट्रे ।। ३१ ॥
(प्रवृत्त, संदष्ट, मृत्ति, वृत्त, इष्टा, पत्तन, कदर्थित और उष्ट्र) इन शब्दोंमें स्तु का यानी संयुक्त व्यंजनका ट होता है। उदा.-प्रवृत्तः पवट्टो। संदष्टः संदट्टो । मृत्तिः मट्टी। वृत्तम् वटुं । इष्टा इट्टा । पत्तनं पट्टणं । कदर्थितः कवट्टिओ । उष्ट्र: उद्यो। किंतु संदष्ट और उष्ट्र शब्दोंमें होनेवाला ट (संयुक्त व्यंजनके होनेवाले) ठ का अपवाद है ॥ ३१ ॥ वा न्तन्धौ मन्युचिह्नयोः ॥ ३२ ।।
(मन्यु और चिह्न) इन शब्दोंमें संयुक्त व्यंजनको यथाक्रम न्त और न्ध ऐसे ये आदेश विकल्पसे होते हैं । उदा.-मन्तू मण्णू । इन्धं चिण्हं ॥ ३२ ॥ डल्फोर्मर्दितविच्छदछर्दिकपदवितर्दिगर्तसंमर्दे ।। ३३ ॥
(मर्दित, विच्छर्द, छर्दि, कपर्द, वितर्दि, गर्त, संमर्द) इन शब्दोंमें फोः यानी द्वितीय संयुक्त व्यंजनका लित् (-नित्य) ड होता है। उदा.-मर्दितः मड्डिओ। विच्छदः विच्छड्डो । छर्दिः छडी । कपर्दः कवड्डो । वितर्दिः विअड्डी । गर्तः गड्डो । संमर्दः संमड्डो ॥ ३३ ॥ ढोऽर्धर्द्धिश्रद्धामूनि तु ॥ ३४ ॥
. (इस सूत्रमें १.४.३३ से) फोः पदकी अनुवृत्ति है। (अर्ध, ऋद्धि, श्रद्धा, मूर्धन्) इन शब्दोंमें द्वितीय स्तु का यानी संयुक्त व्यंजनका ढ विकल्पसे होता
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हिन्दी अनुवाद-अ. १, पा. ४
७५. है । उदा.---अर्धम् अड्ढे अद्धं । ऋद्धिः इडुढी इद्धी। श्रद्धा सड्ढा सद्धा। मूर्धा मुढा मुद्धा ॥ ३४ ॥ . दग्धविदग्धवृद्धिदंष्ट्रावृद्धे ॥ ३५ ॥
(दग्ध, विदग्ध, वृद्धि, दंष्ट्रा, वृद्ध) इन शब्दोंमें संयुक्त व्यंजनका ढ होता है । (यह सूत्र १.४.३४ से) पृथक् कहा जानेसे, (यहाँका वर्णान्तर) नित्य होता है । उदा.- दग्धः दढो। विदग्धः वि ढो। वृद्धिः वुढी । दंष्ट्रा दाढा । वृद्धः वुढो। कचित् (ढ) नहीं होता। उदा.-विद्धकइणिरू विअं, वृद्धकविनिरूपितम् ॥ ३५ ॥ पश्चदशदत्तपश्चाशति णः ।। ३६ ॥
(पञ्चदश, दत्त, पञ्चाशत्) इन शब्दोंमें स्तु का यानी संयुक्त व्यंजनका ण होता है। उदा.-पञ्चदश पण्णरह । दत्तम् दिण्णं । पञ्चाशत् पण्णासा
ज्ञम्नोः ॥ ३७ ॥
ज्ञ और म्न इनमें (संयुक्त व्यंजनका) ण होता है। उदा.-ज्ञानम् णाणं । संज्ञा संणा । विज्ञानम् विण्णाणं । निम्नम् णिणं । प्रद्युम्नः पज्जुण्णो ॥ ३७॥ स्तवे थो वा ॥ ३८ ॥
स्तव शब्दमें संयुक्त व्यंजनका थ विकल्पसे होता है। उदा.-थवो तवो ॥ ३८ ॥ रो हश्चोत्साहे ॥ ३९ ॥
(इस सूत्रमें १.४.३८ से) थः और वा ये शब्द (अध्याहृत) हैं। उत्साह शब्दमें संयुक्त व्यंजनका थ विकल्पसे होता है और उसके सानिध्यसे ह का रेफ होता है। उदा.-उत्थारो उच्छाहो ॥ ३९ ॥ स्तः ॥ ४० ॥
स्त का थकार हो जाता है। उदा.-हस्तः हत्थो । स्तुतिः थुई। स्तोकम् थो। प्रस्तरः पत्थरो। स्वस्ति सस्थि ॥ ४० ॥
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त्रिविक्रम-प्राकृत व्याकरण
पर्यस्ते टश्च ॥ ११ ॥
__ पर्यस्तमें स्त का ट होता है। (सूत्रमेंसे) चकारके कारण, थ भी हो जाता है। उदा.-पल्लटो पल्लत्थो ॥ ४१ ॥ वात्ममस्मनि पः ॥ ४२ ॥
आत्मन् और भस्मन् इन शब्दोंमें स्तु का पानी संयुक्त व्यंजनका प विकल्पसे होता है। उदा.-अप्पा अप्पाणो । अत्ता अत्ताणो। भप्पो भस्सो ॥ ४२ ॥ मक्मोः ॥४३॥
ड्म और क्म इनका प होता है। उदा.-कुड्मलम् कुप्पलं । रुक्मिणी रुपिणी । (क्म का) कचित् म भी हो जाता है। उदा.-रुक्मी रुम्मी रुप्पी
पस्पोः फः ॥४४॥
प और स्प इनका फ होता है। उदा.-ष्प (का फ)-पुष्पम् पुप्फ । शष्पम् सप्फ । निष्पावः णिप्फावो । निष्पेषः णि फेसो । स्प (का फ)-स्पन्दनम् फंदणं । प्रतिस्पधी पडिप्फद्धी ।। ४४ ॥ भीष्मे ।। ४५ ॥
(इस सूत्रमें १.४.४४ से) फः पदकी अनुवृत्ति है। भीष्म स्तु का यानी संयुक्त व्यंजनका फ होता है । उदा.-भिप्फो ॥ ४५ ॥ श्लेष्मबृहस्पतौ तु फोः ।। ४६ ॥
(श्लेष्म और बृहस्पति) इनमें फु का यानी द्वितीय संयुक्त व्यंजनका फ विकल्पसे होता है । उदा.-सेप्फो सेम्हो। बिहप्फई पहप्पई ॥ ४६ ॥ ग्मो मः ॥ ४७ ॥
गम का म विकल्पसे होता है। उदा.-युग्मस् जुम्म जुग्ग। तिग्मम् तिग्गं तिम्मं ॥ ४७ ॥
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हिन्दी अनुवाद-अ. १, पा.४
NO
न्मः ॥४८॥
न्म काम होता है । (यह सूत्र १.४.४७ से) पृथक् कहा जानेसे, (यहाँका म) नित्य होता है। उदा.-जन्म जम्मो। मन्मथः वम्महो। मन्मनः मम्मणो ॥ ४८ ॥ ताम्राम्रयोर्बः ॥ ४९ ॥
(ताम्र और आम्र) इनमें संयुक्त व्यंजनका मकारसे आक्रांत ऐसा बकार (म्ब) होता है। उदा.-ताम्रम् तम्बं । आम्रम् अम्बं । तम्बिर, अम्बिरं ये शब्द देश्य हैं ॥ ४९ ॥ ऊर्चे भो वा ॥ ५० ॥
ऊर्ध्व शब्दमें स्तु का यानी संयुक्त व्यंजनका भ विकल्पसे होता है। उदा.-उभं उद्धं ॥ ५० ॥ ह्वः ।। ५१ ।।
(इस सूत्रमें १.४.५० से) भो वा पदाी अनुवृत्ति है। ह का भ विकल्पसे होता है। उदा.-जिह्वा जिब्भा जीहा ॥ ५१ ॥ भश्च विह्वले ।। ५२॥
विह्वल शब्दमें संयुक्त व्यंजनमेंसे वकारका भ विकल्पसे होता है। उदा.विन्भलो विहलो ॥ ५२ ॥
काश्मीरे म्भः ॥ ५३ ॥
काश्मीरमें संयुक्त व्यंजनको म्भ ऐसा आदेश होता है। उदा.कम्भारं कम्हारं ।। ५३ ॥
लो वादें ॥ ५४ ॥
बाई शब्दमें स्तु का यानी संयुक्त व्यंजनका ल विकल्पसे होता है। इस सूत्रमें पुनः 'वा' शब्द कहा जानेसे, अगले सूत्रमें विकल्प नहीं भाता। खदा.-मलं उलं मोलं। मई उई ओई ॥ ५४॥
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७८
त्रिविक्रम-प्राकृत व्याकरण र्यः सौकुमार्यपर्यस्तपर्याणे ॥ ५५ ॥
(सौकुमार्य, पर्यस्त, पर्याण) इन शब्दोंमें ये का ल होता है। उदा.सौकुमार्यम् सोअमलं । पर्यस्तम् पलट्ट । पर्याणम् पल्लाणं । पल्लंको यह वर्णान्तर मात्र पल्यंक शब्दका है ॥ ५५ ॥ अररीअरिज्जमाश्चर्ये ॥ ५६ ॥
(इस सत्र में १.४.५५ से) यः पदकी अनुवृत्ति है। आश्चर्य शब्दमें र्य को अर, रीअ, रिज्ज ऐसे तीन आदेश होते हैं। उदा.-अच्छअरं अच्छी अच्छरिजं ॥ ५६ ॥ डेरो ब्रह्मचर्यसौन्दर्ये च ।। ५७ ॥
ब्रह्मचर्य और सौन्दर्य शब्दोंमें, तथा (सूत्रमेंसे) चकारके कारण आश्चर्य शब्दमें,र्य को डित् एर ऐसा आदेश होता है। उदा.-बम्हचेरं । संदेरं । अच्छे । यहाँ (प्रत्ययमेंस) डित्त्वके कारण टि का लोप हुआ है। (ये शब्द) चौर्यसम (देखिए १.४.१०.) होनेसे, (स्वरभक्ति होकर अगले रूप भी सिद्ध होते हैं ।) उदा.-बम्हचरिअं । सुंदरिअं । अच्छरिअं ॥ ५७ ॥ वा पर्यन्ते ॥ ५८ ॥
पर्यन्त शब्दमें यं को डित् एर (डेर) (ऐसा आदेश) विकल्पसे होता है। उदा.-पेरन्तो पज्जन्तो॥ १८ ॥ धैर्य रः ॥ ५९॥
___ (इस सूत्रमें १.४.५८ से) वा पदकी अनुवृत्ति है। धैर्य शब्दमें य का र विकल्पसे होता है । उदा.-धीर धिज्जं ॥ ५९ ॥ तूर्यदशाहशौण्डीर्ये ॥ ६ ॥
(तूर्य, दशाह, शौण्डीर्य) इन शब्दोंमें स्तु का यानी संयुक्त व्यंजनका र होता है। यह नियम (१.४.६९ से) पृथक् कहा जानेसे, (यहाँका र) नित्य होता है । उदा.-तूरं । दसारो। सोण्डीरं ॥ ६० ॥ बाष्पे होऽश्रुणि।। ६१ ॥ .. अश्रुवाचक बाष्प शब्दमें स्तु का यानी संयुक्त व्यंजनका ह होता है। उदा.-बाहो (यानी) नेत्रजल (अश्रु) । अश्रुवाचक (बाष्प शब्दमें), ऐसा क्यों
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हिन्दी अनुवाद-अ. १, पा.४ कहा है ? (कारण बाष्प शब्द अश्रुवाचक न होनेपर, ह नहीं होता।) उदा.बप्फो (यानी) ऊष्मा ॥ ६१ ॥ कार्षापणे ।। ६२ ।।
कार्षापण शब्दमें संयुक्त व्यंजनका ह होता है। उदा.-काहावणो। कहावणो इस रूपमें, 'संयोगे' (१.२.४०) इस सूत्रानुसार पहले प्हस्व हो गया
और पीछे आदेश आया; अथवा-कहावणो शब्द कर्षापण शब्दसे साधा गया है ॥ ६२ ॥ न वा तीर्थदुःखदक्षिणदीर्धे ॥ ६३ ॥
(तीर्थ, दुःख, दक्षिण, दीर्घ) इन शब्दों में संयुक्त व्यंजनका ह विकल्पसे नहीं होता। उदा.-तूहं तित्थं । दुहं दुक्ख । दुहिओ दुक्खिओ। दाहिणो दक्खिणो । दीहो दीहरो दिग्धो ॥ ६३ ॥
कूष्माण्ड्यां ण्डश्च तु लः ।। ६४ ।।
कूष्माण्डी शब्दमें पहले संयुक्त व्यंजनका हकार होता है। (और) ण्डका ल विकल्पसे होता है । उदा.-कोहली कोहण्डी। कोहली इस रूपमें, 'संयोगे' (१.२.४०) सूत्रानुसार प्रथम -हस्व हो गया और बादमें ल हुआ
स्वथ्वद्वध्वां क्वचिच्चछजझाः ।। ६५ ॥
त्व, थ्व, द्व और ध्व इनके यथाक्रम च, छ, ज, झ ऐसे कचित् (वाङ्मयीन) प्रयोगानुसार विकार होते हैं । उदा.-त्व का च-भुक्त्वा भोच्चा। ज्ञात्वा णच्चा । श्रुत्वा सोच्चा । थ्व काछ-पृथ्वी पिच्छी । द्व का ज-विद्वान् विज्ज । ध्व का झ-ध्वनिः झुणी । बुवा बुज्झा | सअलपिच्छीविज्ज, सकलपृथ्वीविद्वान् ॥ १५ ॥
हलो ल्हः ॥ ६६ ॥
हलकारका लकारसे आक्रांत ऐसा हकार (=ल्ह) होता है। उदा.कहलारम् कलरं । प्रहलादः पल्हादो ॥६६॥
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८०
त्रिविक्रम - प्राकृत व्याकरण
श्मष्मस्मझामस्मरश्मौ म्हः ।। ६७ ।।
स्मर और रश्मि शब्दों को छोडकर, (अन्य शब्दों में ) इम, ष्म, स्म और ह्म इनको म्ह ऐसा आदेश होता है । उदा. - काश्मीरः कम्हारो । ग्रीष्मः गिम्हो । ऊष्मा उम्ह | | विस्मयः विम्हओ । अस्मादृशः अम्हारिसो । ब्रह्मा ब्रम्हा | ब्रह्मणः बम्हाणो | ब्रह्मचर्यम् बम्हचेरं । स्मर और रश्मि शब्दों को छोडकर, ऐसा क्यों कहा है ? (कारण उनमें स्म और इम इनका म्ह नहीं होता ।) उदा. - स्मरः सरो । रश्मिः रस्सी ॥ ६७ ॥
पक्ष्मणि ।। ६८ ।
(इस सूत्र में १.४.६७ से) म्हः पदकी अनुवृत्ति है | पक्ष्मन् शब्द में स्तु को यानी संयुक्त व्यंजनको म्ह ऐसा आदेश होता है । उदा. पक्ष्माणि पम्हाई । पम्हललोअणो पक्षमललोचनः ॥ ६८ ॥
श्रष्णस्नहृणां हः ।। ६९ ।।
(श्न, ष्ण, स्न, हून, हण और क्ष्ण) इनको ण्ह ऐसा आदेश होता है | उदा.श्न ( का ह) - प्रश्नः पण्हो । शिश्नः सिहो । ष्ण ( का ह) - विष्णुः विहूं । जिष्णुः जिहू | कृष्णः किहो । उष्णीषम् उण्हीसं । स्न ( का ह ) - स्नातः ण्हाओ । प्रस्नवः पण्हओ | ज्योत्स्ना जोण्हा । हून ( का ह)- -जहूनुः जण्हू । हूण (का ह) - पूर्वाह्णः पुण्वहो । अपराहूणः अवरणहो । क्ष्ण ( का ह ) - लक्षणस् सहं । तीक्ष्णम् तिन्हं ॥ ६९ ॥
सूक्ष्मे ॥ ७० ॥
सूक्ष्म शब्द में संयुक्त व्यंजनका व्ह होता है । उदा. - सुहं । सहं ॥ ७० ॥ आश्लिष्टे लधौ ॥ ७१ ॥
आश्लिष्ट शब्दमें संयुक्त व्यंजनोंके अनुक्रमसे ल और ध होते हैं । उदा.आलिद्धो ॥ ७१ ॥
ठौ स्तब्धे ॥ ७२ ॥
स्तब्ध शब्द में संयुक्त व्यजनोंके अनुक्रमसे ठ और ढ होते हैं। उदा.ठड्ढो ॥ ७२ ॥
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हिन्दी अनुवाद-अ. १, पा. ४ तो ढो रश्चारब्धे तु ॥ ७३ ।।
आरब्ध शब्दमें स्तु का यानी संयुक्त म्यंजनका तकार विकल्पसे होता है और उसके सानिध्यसे र का ढ हो जाता है। उदा.-आढत्तो आरो।। ७३ ॥ सो बृहस्पतिवनस्पत्योः ।। ७४ ॥
(बृहस्पति और वनस्पति) इनमें संयुक्त व्यंजनका सकार विकल्पसे होता हैं । उदा.-बहस्सई बहप्फई । बिहस्सई विहप्फई । वणस्सई वणप्फई ॥ ७४॥ शोर्लुक्खोः स्तम्बसमस्तनिःस्पृहपरस्परश्मशानश्मश्रौ ॥ ७५ ॥
स्तम्ब, इत्यादि शब्दोंमें संयुक्त व्यंजनमें खु यानी आद्य स्थानमें रहनेवाले जो शु यानी श, ष् और स् , उनका लोप होता है। उदा.-तम्बो (स्तम्ब)। समत्तो (समस्त)। निपिहो (निस्पृह)। परोप्परं (परस्पर)। मसाणं (श्मशान)। मंसू (श्मश्रू) ।। ७५ ॥ श्चस्य हरिश्चन्द्रे ।। ७६ ।।
हरिश्चन्द्र शब्दमें श्च का लोप होता है । उदा.-हरिअंदो ॥ ७६ ।। कगटडतदपक पशोरुपर्यद्रे ।। ७७ ॥
अद्रे यानी द्र इस संयुक्त व्यंजनको छोडकर, संयुक्त व्यंजनमें पहले स्थानमें रहनेवाले (उपरिस्थित) क्, ग्, टु, ड्, त्, द्, प, जिव्हामूलीय, उपध्मानीय,
और शु (=श, ष् , स्), इनका लोप होता है। उदा.-क (का लोप)-भुक्तम् भुत्तं । सिक्थम् सित्थं । म् (का लोप)-दुग्धम् दुद्धं । मुग्धम् मुद्धाट् (का लोप)षट्पदः छप्पओ। कट्फलम् कप्फलं । ड् (का लोप)-खड्गः खग्गो। षड्जः सज्जो । त् (क। लोप)-उत्पलम् उप्पलं । उत्पातः उप्पाओ। द् (का लोप)मद्गुः मग्गू । मुद्गरः मोग्गरो । उद्विग्नः उब्विग्गो। प् (का लोप)-सुप्तः सुत्तो। गुप्तः गुत्तो। क् (का लेप)-दुःखम् दुक्खं । प (का लोप)-अन्तःपात: अन्तप्पाओ। श (का लोप)-निश्चलः निच्चलो। लक्षणं लण्हं । श्वयोतति चुअइ। ष (का लोप)-गोष्ठी गोट्ठी । षष्ठः छट्ठो। स् (का लोप)-स्खलितः खलिओ। स्नेहः हो । द्र इस संयुक्त व्यंजनको छोडकर, ऐसा क्यों कहा है ? (कारण द्रमें द का लोप नहीं होता।) उदा.-समुद्रो। चन्द्रो। भद्रं । -'धात्रीद्रे
त्रि.प्रा,व्या....६
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त्रिविक्रम-प्राकृत व्याकरण
रस्तु' (१.४.८०) सूत्रानुसार, विकल्पसे रेफका लोप प्राप्त होनेपर, उस समय होनेवाला दकारका लोप न हो, इसलिए इस (१.४.७७) सूत्रमें 'अद्रे' ऐसा निषेध कहा गया है ।। ७७ ॥ लवरामधश्च ।। ७८ ॥ . संयुक्त व्यंजनमें (प्रथम स्थान छोडकर) अनन्तर स्थानमें रहनेवाले (अधो वर्तमानानाम् ), और (सूत्रमेंसे) चकारके कारण प्रथम स्थानमें होनेवाले, ल, व् और र् इनका लोप होता है। उदा.-अनंतर रहनेपरल (का लोप)-श्लक्ष्णम् सण्हं । विक्लव: विकओ। व (का लोप)-पक्कः पक्को । विध्वस्तः विद्धत्थो। र (का लोप)-चक्रम् चक्कं । ग्रहः गहो। रात्रिः रत्ती । प्रथम स्थान में होनेपर-ल् (का लोप)-उल्का उक्का। वल्कलम् वक्कलं । व (का लोप)-शब्दः सहो । अब्दः अद्दो । लुब्धकः लुद्धओ। र (का लोप)अर्कः अक्को। तर्कः तक्को ।। ७८ ॥ मनयाम् ॥ ७९ ॥
___ संयुक्त व्यंजनमें (प्रथम स्थानको छोडकर) अनन्तर स्थानमें रहनेवाले म्, न और य इनका लोप होता है । उदा.-म् (का लोप)-युग्मम् जुग्गं । रश्मिः रस्सी। स्मरः सरो। न (का लोप)-नग्नः नग्गो। लग्नः लग्गो। य (का लोप)-श्यामा सामा। कुड्यं कुटुं । यहाँ द्वितीय, कल्मष, माल्य, इत्यादि शब्दोंमें, इन तीन सूत्रोंमेंसे (१.४.७७-७९) नियम यदि लागू हों, तो जैसा वाङ्मयमें दिखाई देगा वैसा लोप हो जाता है। उदा.द्वितीयः पिइओ। द्विगुणः बिउणो। द्वादश बारह । द्वाविंशतिः बावीसा । द्वात्रिंशत् बत्तीसा। कल्मषम् कम्मसं। शुल्बम् सुब्बं । कचित् अनन्तर रहनेवाले (वर्णों) का लोप हो जाता है । उदा.-द्विपः दिवो । द्वीपः दीवो। द्विजातिः हुआई । काव्यम् कव्वं । दिव्यम् दिव्वं । माल्यम् मल्लं । कुल्या कुल्ला। कचित पर्यायसे (लोप हो जाता है।) उदा.-उद्विग्नः उद्दिग्गो उविण्णो। किंतु रेफका सर्वत्र (लोप हो जाता है ।) उदा.-सव्वं । वक्कं । चकं । 'सर्वत्र
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हिन्दी अनुवाद-अ. १, पा.४ लवरामचन्द्रे' (हेम. २.७९), ऐसा कोई कहते हैं। किंतु वह (कहना) अयोग्य है। (उसका कारण)-चंदो, चन्द्रो ऐसे उदाहरण उन्होंने स्वयंही दिए हैं; और उसी तरहके प्रयोग (वाङ्मयमेंभी) दिखाई देते हैं। इसलिए अगले सूत्रमें (१.४.८०) कहा गया विकल्पका स्वीकार करना चाहिए ॥ ७९ ॥ धात्रीद्रे रस्तु ॥ ८०॥
धात्री शब्दमें और द्र शब्दमें रेफ का लोप विकल्पसे होता है। उदा.-धात्री धत्ती धारी। र् का लोप होनेसे पहले (होनेवाले धत्ती) इस -हस्व (रूप) से धाई शब्द (सिद्ध हुआ है।) द्र (में विकल्पसे)-चन्दो चन्द्रो। मन्दो मन्द्रो । रुद्दो रुद्रो। भदं भद्रं । समुद्दो समुद्रो । 'ह्नदे दहयोः' (१.४.११५) सूत्रानुसार, ह्रद शब्दमें द् और ह् इनकी स्थिति-परिवृत्ति होकर, द्रह रूप सिद्ध होता है; और वहीं दहो (ऐसा भी रूप हो जाता है।) कुछ लोगोंके मतानुसार, द्र में र् का लोप नहीं होता। द्रह शब्द संस्कृतमेंभी है, ऐसा कोई कहते हैं । तरुण पुरुष, इत्यादि अर्थमें होनेवाले वोद्रह, इत्यादि शब्द नित्य रेफसे संयुक्त हैं और वे देशीही होते हैं । उदा.सिक्खन्तु वोद्रहीओ। वोद्रहद्रह म्मि पडिआ। शिक्षन्तु तरुण्यः । (युवतियोंको सीखने दो।) तरुणहदे पतिता (तारुण्यरूप तालाबमें गिर गई) ।। ८० ॥ हस्य मध्याह्ने ।। ८१ ॥
मध्याहन शब्दमें ह का लोप विकल्पसे होता है। उदा.-मज्झण्णो मज्झण्हो ॥ ८१ ॥ ज्ञो जोऽविज्ञाने ।। ८२ ।।
ज्ञकारसे संबंधित रहनेवाले अकारका लोप विकल्पसे होता है; किन्तु अविज्ञाने यानी विज्ञान शब्दमें (ऐसा लोप) नहीं होता । उदा. ज्ञानम् जाणं णाणं। सर्वज्ञः सव्वज्जो सव्वण्णो। आत्मज्ञः अप्पज्जो अप्पण्णो।
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त्रिविक्रम-प्राकृत व्याकरण
दैवज्ञः दइवज्जो दइवण्णो। इंगितज्ञः इंगिअजो इंगिअण्णो। अभिज्ञः अहिजो अहिण्णो । मनोज्ञः मणोजो मणोण्णो। प्रज्ञा पज्जा पण्णा। आज्ञा अज्जा अण्णा । संज्ञा सज्जा सण्णा। विज्ञान में नहीं होता, ऐसा क्यों कहा है ? (कारण विज्ञान शब्दमें अकारका लोप विकल्पसे नहीं होता।) उदा.विणाणं ।। ८२ ।। द्वोद्वारे ।। ८३ ॥
द्वार शब्दमें दकार और वकार इनका पर्यायसे लोप विकलरसे होता है। उदा.-वारं दारं । विकल्पपक्षमें-दुवार ।। ८३ ।। रात्रौ ॥ ८४ ॥
रात्रि शब्दमें संयुक्त व्यंजनका लोप विकल्पसे होता है। उदा.राई रत्ती ।। ८४ ॥ रितो द्वित्वल ।। ८५ ।।
रेफ अनुबंध होनेवाला जो व्यंजन आदेशके रूपमें आता है, उसका लित् (=नित्य) द्वित्व होता है। उदा -अंकोल्लो अङ्कोलः । रुणं रुदितम् । करणिज्नं करणीयम् ।। ८५ ॥ शेषादेशस्याहोऽचोऽखोः ॥ ८६ ।।
(इस सूत्रमें) द्वित्व पद (अध्याहृत) है। संयुक्त व्यंजनमेंसे किसीभी एक व्यंजनका लोप होनेपर जो (व्यंजन) शेष रहता है, वह शेष (व्यंजन) उसका, तथा हकार और रेफ इनसे रहित ऐसा जो संयुक्त व्यंजनका आदेश उसका, वह स्वरके आगे होकर, अखु यानी अनादि होनेपर, लित् (=नित्य) द्वित्व होता है । उदा.-शेष (का द्वित्व)-समस्तः समत्तो। निस्पृहः णिप्पिहो। भुक्तम् भुत्तं । दुग्धम् दुद्धं । षट्पदः छप्पओ । खड्गः खग्गो। उत्पलं उप्पलं। मुद्गरः मुग्गरो । प्राप्तः पत्तो। दुर्गम् दुग्गं । दुःखम् दुक्खं । अन्तःपातः अंतप्पाओ। निश्चलः णिच्चलो। दुष्करम् दुक्करं। विप्लवः
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हिन्दी अनुवाद-अ. १, पा. ४
विप्पओ। पक्कम् पकं । धूर्तः धुत्तो। रात्रिः रत्ती । युक्तम् जुत्तं । युग्मम् जुग्गं । रश्मिः रस्सी। नग्नः नग्गो। काव्यम् कव्वं । आदेश (का द्वित्व)रक्तः रग्गो। सक्तः सग्गो । अमात्यः अमच्चो। आत्मा अप्पा। आर्या अजा । उपाध्यायः उवज्झाओ। सह्यः सज्झो । साध्वसम् सज्झसं । बृहस्पतिः बहप्फई । हकार और रेफ इनसे रहित, ऐसा क्यों कहा है ? (कारण वैसा होनेपर, द्वित्व नहीं होता।) उदा.-विह्वलः विहलो । दुःखम् दुहं । बाष्पः बाहो। धात्री धारी। तूर्यम् तूरं । धैर्यम् धीरं । स्वरके आगे होनेपर, ऐसा क्यों कहा है ? (कारण स्वरके आगे न होनेपर, द्वित्व नहीं होता।) उदा.कांस्यम् कंसं । वयस्यः वअसो । संध्या संझा । भिन्दिपालः भिण्डिवालो। अनादि होनेपर, ऐसा क्यों कहा है ? (कारण अनादि न होनेपर, द्वित्व नहीं होता।) उदा.-स्खलितः खलिओ। स्थूलः थूरो। स्तम्भः खम्भो ॥ ८६ ॥
दीर्घान्न ॥ ८७ ॥
(इस सूत्रमें १.४.८६ से) शेषादेशस्य पद (अध्याहृत) है। व्याकरणके नियमोंसे आये हुए (लाक्षणिक) अथवा मूलतः (अलाक्षणिक) दीर्घ होनेवाले (स्वरों) के आगे शेष व्यंजन और आदेशके रूप में आये हुए व्यंजन, इनका द्वित्व नहीं होता। उदा.- लाक्षणिकके आगे-नि:श्वासः णीसासो। स्पर्शः फासो। दंष्टा दाढा। अस्पर्श: अप्फासो। अलाक्षणिकके आगे-पार्श्वम् पासं। शीर्षम् सीसं। ईश्वरः ईसरो। द्वेष्यः वेसो। लास्यम् लासं। आस्यम् आसं । प्रेष्यः पेसो । निर्माल्यम् ओमालं। आज्ञा आणा। आज्ञप्तिः आणत्ती। आज्ञापनम् आणावणं । अमच्चो, इत्यादि शब्दोंमें, 'संयोगे' (१.२.४०) सूत्रानुसार पहलेही हस्व होगया, बादमें लोप होनेपर द्वित्व हो गया। अलाक्षणिकके आगे प्रायः होनेवाला द्वित्वका अभाव (वाङ्मयीन) प्रयोगानुसार अनुसरनेका है ।। ८७ ।।
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S
त्रिविक्रम-प्राकृत व्याकरण
कर्णिकारे णो वा ।। ८८ ॥
कर्णिकार शब्दमें शेष ण का द्वित्व विकल्पसे नहीं होता । उदा.कण्णिआरो कणिआरो। (सूत्रमें किया हुआ) ण का ग्रहण अगले (१.४. ८९) सूत्रके लिए है ।। ८८ ।।
धृष्टद्युम्ने ।। ८९ ॥
. धृष्टद्युम्न शब्दमें आदेशके रूपमें आनेवाले ण का द्वित्व नहीं होता। (यह सूत्र १.४.८८ से) पृथक् कहा जानेसे, यहाँ विकल्प नहीं आता। उदा.-धट्ठज्जुणो ॥ ८९ ॥
वा से ॥ ९० ।।
से यानी समासमें, शेष व्यंजन और आदेशके रूपमें आनेवाला व्यंजन, इनका द्वित्व विकल्पसे होता है। उदा.-णइग्गामो णइगामो। कुसुमप्पअरो कुसुमपअरो। देवत्थुई देवथुई । हरक्खंदा हरखंदा हरस्कन्दौ । आणालक्खभो आणालखंभो ॥ ९० ।। प्रमुक्तगे ॥ ९१ ॥
(इस सूत्रमें १.४.९० से) से और वा ये पद (अध्याहृत) होते हैं। प्रमुक्त, इत्यादि शब्दोंमें, समासोंमें, वाङ्मयमें दिखाई देगा वैसा व्यंजनका द्वित्व विकल्पसे होता है। उदा.-प्रमुक्तः पम्मुक्को पमुक्को। सपिपासः सप्पिवासो सपिवासो । बद्धफलः बद्धप्फलो बद्धफलो। मलयशिखरखण्डः मलयसिहरक्खंडो मलयसिहरखंडो। त्रैलोक्यम् तेल्लोक्कं तेलोकं । सपरितापः सप्परितावो सपरितावो। परवशः परवसो परवसो । प्रतिकूलम् पडिक्कूलं पडिकूलं । अदर्शनम् अईसणं अदंसणं । इत्यादि । आकृतिगणमें अंतर्भाव होनेसे, प्रफुल्लम् पप्फुल्लं पफुल्लं, सपरिहासम् सप्परिहासं सपरिहास, इत्यादि रूप सिद्ध हो जाते हैं ॥ ९१ ।।
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हिन्दी अनुवाद-अ. १, पा.४ । दैवगेषु ॥ ९२ ॥
दैव इत्यादि शब्दोंमें, (वाङ्मयमें) दिखाई देगा वैसा, व्यंजनका द्वित्व विकल्पसे होता है। उदा.-दैवम् दइव्वं दइवं । व्याकुलः वाउल्लो वाउलो। नखः णक्खो णहो। नीडम् णेहुं णीडं। निहितः णिहित्तो णिहिओ। मृदुत्वम् माउकं माउअं। कुतूहलम् कोउहल्लं कोऊहलं । स्थूलः थुल्लो थोरो। एकः एक्को एओ। व्याहृतम् वाहित वाहिकं । तूष्णीकः तुहिक्को तुण्हिओ। मूकः मुक्को मूओ। सेवा सेव्वा सेवा । अस्मदीयम् अम्हक्केरं अम्हकेरं । हूतम् हुत्तं हुअं। स्त्यानम् ठिण्णं ठीणं । स्थाणुः खण्णू खाण्। स इव सो चिअ सो चिअ। स एव सो च्चेअ । इत्यादि । ९२ ॥ तैलादौ ॥ ९३ ॥
__ तैल, इत्यादि शब्दोंमें, (वाङ्मयमें) दिखाई देगा वैसा, अन्त्य और अनन्त्य व्यंजनका द्वित्व होता है। यह सूत्र (१.४.९२ से) पृथक् कहा जानेसे, यहाँका द्वित्व नित्य हो जाता है। उदा.-वैलम् तेलं। व्रीडा विड्डा। प्रेम पेम्मं । स्रोतः सोत्तं । प्रभूतम् पहुत्तं । मण्डूकः मण्डुक्को । उलूखलम् ओक्खलं । यौवनम् जोव्वणं । ऋजुः उज्जू । विच किलम् वेइल्लं । इत्यादि । ९३ ॥ पूर्वमुपरि वर्गस्य युजः ।। ९४ ।।
वर्ग-संबंधी (यानी वर्गीय) संयुक्त रहनेवाले व्यंजनका- वह शेष व्यंजन हो या आदेश व्यंजन हो-द्वित्व होते समय, (वर्गमेंसे) पूर्वका अक्षर पहले (उपरि) आता है। इसका अर्थ ऐसा-(वर्गीय व्यंजनोंका द्वित्व होते समय) द्वितीय व्यंजनके पूर्व पहला व्यंजन आ जाता है, और चतुर्थ व्यंजनके पूर्व तीसरा व्यंजन आता है । उदा.-व्याख्यानम् वक्खाणं । वृक्षः रुक्खो। व्याघ्रः वग्यो। अर्घति अग्घइ । मूर्छा मुच्छा। अक्षीणि अच्छीणि । निर्भरः णिज्झरो। मध्यम् मज्झं। निष्ठुरः णिठ्ठरो। मुष्टिः
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त्रिविक्रम- प्राकृत व्याकरण
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मुट्ठी । तीर्थम् तित्थं । हस्ती इत्थी । हस्तः हत्थो । आश्लिष्टः आलिद्धो । गुल्फम् गुप्कं । पुष्पम् पुष्कं । विभ्रमः विभो । पिप्पलः पिष्फलो । प्रमुक्त, इत्यादि शब्दों में (१.४. ९१) द्वित्व होनेपर, मलयसिहरक्खंडो ( इत्यादि रूप होते हैं) । दैव, इत्यादि शब्दों में (१.४.९२) (द्वित्व होनेपर ), णक्खो (इत्यादि रूप हो जाते हैं) । तैल, इत्यादि शब्दों में (१.४.९३ ) ( द्वित्व होनेपर ), ओक्खलं ( इत्यादि रूप होते हैं) । समास में (१.४.९०) (द्वित्व होनेपर ), कइद्धओ कपिध्वजः (इत्यादि रूप होते हैं) । द्वित्व होनेपरही (इस सूत्रका नियम लागू होता है । द्वित्व न होनेपर नहीं) । उदा.- ख्यात: खाओ
॥ ९४ ॥
प्राक् श्लाघाप्लक्षशार्गे इलोत् ॥ ९५ ॥
श्लाघा, इत्यादि शब्दों में डूलः यानी डकार और लकार इनके पूर्व अत् (= अकार) आता है । उदा - श्लाघा सलाहा । लक्षः पलक्खो । शार्ङ्गम् सारंगं ।। ९५ ।। क्ष्मारत्नेऽन्त्यहलः ॥ ९६ ॥
૮૮
(इस सूत्र में १.४.९५ से) प्राक् और अत् पर्दोकी अनुवृत्ति है । क्ष्मा शब्द में और रत्न शब्दमें, संयुक्त व्यंजन मेंसे अन्त्य व्यंजनके पूर्व अ आता है | उदा. - क्ष्मा छमा खमा । रत्नम् रअणं ।। ९६ ।।
निर्धन: मिद्धणो निर्भर: णिब्भरो ।
स्नेहाग्न्योर्वा ।। ९७ ॥
(इस सूत्र में १.४.९६ से) अन्त्यहल: पदकी अनुवृत्ति है । स्नेह और अग्नि शब्दों में, संयुक्त व्यंजनमें से अन्त्य व्यंजनके पूर्व अ विकल्पसे आता है | उदा. -सणेहो हो । अगणी अग्गी ॥ ९७ ॥
शेर्षतप्तवजेष्वित् ॥ ९८ ॥
र्श और र्ष इन (संयुक्त व्यंजनों) में, तथा तप्त और वज्र शब्दों में, संयुक्त व्यंजन में से अन्त्य व्यंजनके पूर्व इ विकल्पसे आता है ।
उदा. -र्श. आदर्श:
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हिन्दी अनुवाद-अ. १, पा. ४ आअरिसो आअसो। सुदर्शनः सुअरिसणो सुदंसणो। दर्शनम् दरिसणं दंसणं । र्ष-वर्षम् वरिस वासं। वर्षा वरिसा वासा। वर्षशतम् वरिससअं वाससअं। तप्तः तविओ तत्तो। वहम् वइरं वज्ज ।। ९८ ॥ . हर्षामर्षश्रीह्रीक्रियापरामर्शकृत्स्नदिष्टयाहे ॥ ९९ ॥
___ हर्ष, इत्यादि शब्दोंमें, और है इस (संयुक्त व्यंजन} में, संयुक्त व्यंजनमेंसे अन्त्य व्यंजनके पूर्व इ आता है। यह सूत्र (१.४.९८ से) पृथक् कहा जानेसे, यहाँका इ नित्य आता है। उदा.-हर्षः हरिसो। अमर्षः अमरिसो । श्रीः सिरी। ही हिरी। अह्रीकः अहिरिओ। क्रिया किरिआ। परामर्श: परामरिसो। कृत्स्नम् कसिण। दिष्टया दिद्विआ। ई-अर्हः अरिहो । गहीं गरिहा । बह: बरिहो ॥ ९९ ।। स्याद्भव्यचैत्यचौर्यसमे यात् ।। १०० ॥
स्याद्, भव्य, चैत्य इन शब्दोंमें, तथा चौर्यसम शब्दोंमें, यकारके पूर्व इ आता है। उदा.-स्यात् सिआ। स्याद्वादः सिआवाओ। भव्यः भविओ। चैत्यम् चेइ। चौर्यसम शब्दोंमें-चौर्यम् चोरि। गाम्भीर्यम् गंभीरिअं। धैर्यम् धीरिअं। भार्या भारिआ। सौंदर्यम् सुंदरिअं। ब्रह्मचर्यम् बम्हचरिअं। सूर्यः सूरिओ। शौर्यम् सोरिअं। आचार्यः आइरिओ। वर्यः वरिओ । वीर्यम् वीरिअं। चर्या चरिआ। स्थैर्यम् थेरिअं। इत्यादि । आकृतिगण होनेसे, पर्यंक इत्यादि शब्द यहाँ आते हैं। उदा.-पर्यङ्कः पलिअंको ।। १०० ॥ लादक्लीवेषु ॥ १०१ ।।
संयुक्त व्यंजनमेंसे लकारके पूर्व इ आता है। पर अक्लीबेषु यानी क्लीब शब्दके प्रकारके जो शब्द हैं उनमें इ नहीं आता। उदा.- क्लिन्नम् किलिन्न। क्लिष्टम् किलिहूं। क्लुप्तम् किलितं । प्लुष्टम् पिलुटुं । क्लान्तम् किलिन्तं । प्लोषः पिलोसो। श्लेष्मा सिलिम्हो। श्लेषः सिलेसो। शुक्लम् सुकिल । क्लेदः किलेओ । क्लेश: किलेसो। प्लवः पिलेवो । अम्लम् अमिलं । ग्लायति गिलाअइ। म्लायति मिलाअइ। म्लानम् मिलाणं । क्लाम्यति
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त्रिविक्रम-प्राकृत व्याकरण
किलम्मइ । क्लीब प्रकारके शब्दोंमें इ नहीं आता, ऐसा क्यों कहा है ! (कारण उसी प्रकारके शब्दोंमें आगे दिए प्रकारसे वर्णान्तर हो जाता है)। उदा.-क्लीबः कीवो। विक्लवः विक्कओ। क्लमः कमो। प्लव: पवो। विप्लवः विप्पओ । शुक्लपक्षः सुक्कपक्खो । उत्प्लावयति उप्पावेइ ॥ १०१ ॥ नात्स्वभे ।। १०२॥
स्वप्न शब्दमें संयुक्त व्यंजनमेंसे नकारके पूर्व इ आता है। उदा.सिविणो सिमिणो ॥ १०२ ।। स्निग्धे त्वदितौ ॥ १०३ ॥
(इस सूत्रमें १.४.१०२ से) नात् पद (अध्याहृत) है। स्निग्ध शब्दमें संयुक्त व्यंजनमेंसे नकारके पूर्व अ और इ विकल्पसे आते हैं ।उदा.सिणिद्धं सणिद्धं । विकल्पपक्षमें-णिद्धं ॥ १०३ ॥ कृष्णे वणे ।। १०४ ।।
(इस सूत्रमें १.४.१०३ से) अत् और इत् पद (अध्याहृत) हैं। वर्णवाचक कृष्ण शब्दमें संयुक्त व्यंजनमेंसे अन्त्य व्यंजनके पूर्व अ और इ आते हैं। उदा.-कसणो कसिणो । वर्णवाचक (कृष्ण शब्दमें), ऐसा क्यों कहा है ? (कारण कृष्ण शब्द वर्णवाचक न होनेपर,अ और इ नहीं आते।) उदा.-कृष्णः कण्हो (विष्णु यह अर्थ) ॥ १०४ ।। अर्हत्युच्च ।। १०५ ॥
अर्हत् शब्दमें (संयुक्त व्यंजनमेंसे) अन्त्य व्यंजनके पूर्व उ तथा अ और इ आते हैं। उदा.- अरुहो अरहो अरिहो। अरुहन्तो अरहन्तो अरिहन्तो ।। १०५॥ तन्व्याभे ॥ १०६॥
(इस सूत्रमें १.४.१०५ से) उत् पदकी अनुवृत्ति है। उकारान्त और ईकार-प्रत्ययान्त शब्द ये तन्व्याभ शब्द होते हैं। वैसे शब्दोंमें
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हिन्दी अनुवाद-अ. १, पा.४
संयुक्त व्यंजनमें से अन्त्य व्यंजनके पूर्व उ आता है। उदा.-तन्वी तणुवी। लध्वी लहुवी। गुर्वी गुरुवी । पृथ्वी पुहुई । मृद्वी मउई । बह्वी बहुई । पट्वी पटुई । इत्यादि । १०६ ॥ स्रुघ्ने रात् ॥ १०७ ।। ___ जुन शब्दमें संयुक्त व्यंजनमेंसे र् के पूर्व उ आता है। उदा.-सुरुग्धं (नामका) नगर ।। १०७ ॥ एकाचि श्वःस्वे ।। १०८ ।।
एक स्वर होनेवाले श्वः और स्व इनमें, संयुक्त व्यंजनमेंसे अन्त्य व्यंजनके पूर्व उ आता है। उदा.-श्वः कृतम् सुओ क । स्वे जनाः सुवे जणा। एक स्वर होनेवाले, ऐसा क्यों कहा है ? (कारण वैसा न होनेपर, उ नहीं आता।) उदा.-स्वजनः सअणो ।। १०८ ॥ वा छद्मपद्ममूर्खद्वारे ।। १०९ ॥ .
(छद्म, पद्म, मूर्ख, द्वार) इनमें स्तु यानी संयुक्त व्यंजनमें यमाने . व्यंजनके पूर्व उ विकल्पसे आता है। उदा.-छउमं छम्मं । पहा (ोम्म । मुरुक्खो मुक्खो। दुवारं, विकल्पपक्षमें-दारं वारं देरं वेरं ॥ १० (सा ईल ज्यायाम् ॥ ११० ॥
ज्या शब्दमें अन्त्य व्यंजनके पूर्व नित्य ई (वर्ण) आता है। उदा.जीआ ।। ११०॥ हश्च महाराष्ट्रे होर्व्यत्ययः ॥ १११ ॥
(अब) स्तोः यह अधिकार समाप्त हुआ है। महाराष्ट्र शब्दमें होः यानी हकार और रेफ इनका व्यत्यय यानी स्थिति-परिवृत्ति होती है। यानी एकके स्थानपर दूसरा आता है, ऐसा अर्थ होता है। और ह यानी दीर्घका हस्व हो जाता है। उदा.-मरहट्ठो ॥ १११॥
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त्रिविक्रम- प्राकृत व्याकरण
लनोरालाने ।। ११२ ।।
( इस सूत्र में १.४.१११ से) व्यत्यय पदकी अनुवृत्ति है । आलानमें लकार और नकार इनका व्यत्यय होता है । उदा:-आणालो ।। ११२ ।। वाराणसीकरेण्वां रणोः ॥ ११३ ॥
( वाराणसी और करेणु) इन शब्दों में रेफ और णकार इनका व्यत्यय होता है | उदा. वाणारसी । कणेरू । सूत्रमें करेण्यां (स्त्रीलिंगमेंसे करेणुमें), ऐसा क्यों कहा है ? ( कारण करेण्यां में स्त्रीलिंगका निर्देश है; इसलिए (यह शब्द) इतरत्र यानी अन्य लिंग में होनेपर, व्यत्यय नहीं होता) | उदा.एसो करेणू ॥ ११३ ॥
ललाटे डलोः ॥ ११४ ॥
ललाट शब्दमें ट का ड होनेपर, ड आर ल इनका व्यत्यय होता है | उदा. - णिडालं णडालं । - 'लो ललाटे च' (१.३.८१) सूत्रानुसार, (लला में) आद्य ल का ण ही होता है ।। ११४ ॥
(योः ।। ११५ ।।
कृ शब्द में द और ह इनका व्यत्यय होता है । उदा - द्रहो दहो
। उद ।। १।। चलयोरचलपुरे ।। ११६ ॥
अचलपुर में च और ल इनका व्यत्यय होता है | उदा. - अलअउरं ।। ११६ ।।
ह्येोर्वा ॥ ११७ ॥
ह्य इस शब्दमें हकार और यकार इनका व्यत्यय विकल्पसे होता है । उदा.- गुह्यम् गुहं गुज्झं । सह्यम् सरहं सज्झं ।। ११७ ।।
लघुके लहोः ॥ ११८ ॥
लघुक शब्दमें घ का ह होनेपर, ह और ल इनका व्यत्यय विकल्पसे होता है | उदा. - हलुओ लहुओ । घ का व्यत्यय यदि किया जाएगा, तो घ
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९३
हिन्दी अनुवाद-अ. १, पा. ४ पदादि होकर उसका ह नहीं होगा; इसलिए घ का ह होनेपर (ऐसा कहा है) ।। ११८॥ रलोहरिताले ॥ ११९ ।।
हरिताल शब्दमें र और ल इनका व्यत्यय होता है। उदा.-हरिआलो हलिआरो ।। ११९ ॥ दर्वीकरनिवहौ दव्वीरयणिहवौ ।। १२० ॥
(दर्वीकर और निवह) इनके यथाक्रम दव्वीरअ और णिहब ऐसा व्यत्यय करके आये हुए रूप निपातके रूपमें आते हैं। उदा.-दव्वीरओ (यानी) सर्प। विकल्पपक्षमें-दब्बीअरो। णिहवो ॥ १२० ।। गहिआद्याः ॥ १२१ ।।
जिनका स्पष्टीकरण दिया जा सकता है ऐसे गहिआ, इत्यादि शब्द निपातके रूपमें आते हैं। उदा.-(१) गहिआ (यानी) काम्यमान।। (उसकी) इच्छा की जानेके कारण लेनेके लिए योग्य (ग्राह्या)। यहाँ (पहले) हस्व, और (यह शब्द) चौर्यसम (देखिए १.४.१००) होनेसे, (संयुक्त व्यंजनमेंसे अन्त्य व्यंजनके पूर्व) इ आता है। (२) किमिधरवसणं कौशेय अर्थमें । कृमिगृहवसनम् ; कृमीसे किये हुए आवरणसे उसके तन्तु निर्माण होते हैं, इसलिए । (३) णन्दिणी (यानी) धेनु। नंदिनी के समान, नंदिनी । (४) पडिसाओ (यानी) घर्घर कण्ठ । प्रतिशब्दसे युक्त होनेसे या ध्वनिका प्रतिपादन होनेसे । (५) वइरोडो (यानी) जार । पति रोटयति वञ्चयति इति (पतिरोटः)। यहाँ प का व और ट का ड हुआ है। (६) अविणअवई अविनयपति । (७) अणडो अनृत यानी असत्य । प्रत्यादि-पाठमें होनेसे (१.३.३३), त का ड हुआ। (८) अजडो अजड, शीघ्रकारित्व होनेसे। (९) छिण्णो छिन्न, मदनके बाणोंसे छेदन होनेसे । (१०) छिण्णालो यानी व्यभिचारी। सदाचारच्छिन्ना लाति आदत्ते इति
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त्रिविक्रम-प्राकृत व्याकरण (सदाचारसे भ्रष्ट हुई स्त्रीका स्वीकार करता है।) (११) छिच्छओ अक्षिक्षतः यानी अंधा। आँखोंको आनंद देनेके लिए असमर्थ होनेसे । अक्षिमें अकारका लोप हुआ। (१२) मदोली यानी कामपरंपरा, कामपरंपराका कारण होनेसे। आद्य आ का अ हो गया। (१३) संचारी दूती। प्रीतिका संचार कराती, इसलिए। (१४) सहउत्थिआ सहोस्थिता दूती। कार्यमें अनुकूल होनेसे । (१५) मराली (यानी) दूती। मृदु स्वभाव होनेसे या मधुर वाणी होनेसे। (१६) पेसणआरी (यानी) दूती। प्रेषण करती है, इसलिए । (१७) अत्तिहरी दूती। आतिहरी, संतर्पण करनेका स्वभाव होनेसे । (१८) पडिसोत्तो प्रतिकूल अर्थमें । उलटा प्रवाह जिसका है वह । (१९) पडिक्खरो प्रतिकूल अर्थमें । उलटा बहता है, इसलिए । (२०) जोओ (२१) दोसणिज्जन्तो (२२) दोसारअणो (२३) समुद्दणवणीअं चन्द्र । द्योतते (प्रकाशता है) इति द्योतः । ज्योत्स्नायंत्र; यहाँ आ का इ, ज का द और नकारके पूर्व अ आकर (दोसणिज्जतो रूप बन गया)। दोषारत्नम् । (समुद्र-) मंथनसे उत्पन्न होनेके कारण समुद्रनवनीतम्। (२४) चिरिचिरिआ (२५) चिलिचिडिआ धारा । चिरिचिरि, चिलिचिलि ऐसा ध्वनि जिसका है वह। (२६) समुद्दहरं अबुगृह यानी जलगृह । जलधारोंके उपचारसे। (२७) तम्बकुसुमं कुरबक और कुरण्टक । ताम्रकुसुमम् ; वैसे फूल होनेसे । (२८) मुहरोमराई भिउडी अथवा मूंछ । मुखरोमराजि; वैसा स्वरूप होनेसे। (२९) थेवो बिन्दु। कम होनेसे । (३०) धूमद्धअमहिसीओ कृत्तिका। धूमध्वजमहिष्यः, अग्निसे संयुक्त होनेसे। (३१) विसारो सैन्य, विसरण (प्रसरण) स्वभाव होनेसे । (३२) अवहोओ विरह । अपभोगः, भोग शक्य न होनेसे। (३३) पाओ। (३४) पअलाओ, साँप। प्राणियोंको घातक होनेसे, पाप। पादोंको छिपाता है, इसलिए पदलाप। (३५) अहिअलो क्रोध। सर्पकी तरह नाश करता है, इसलिए अहिवल । (३६) सिहिणं स्तन । चूचुक होनेसे शिखित्व (शिखा (चोटी) होना); अस्ति अर्थमें ण। (३७) थिर
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हिन्दी अनुवाद-अ. १, पा.४ ण्णेसो । जो कभी स्थितिका धारण नहीं करता, स्थिर नहीं रहता, वह थिरणेसो (यानी) चपलहृदय । (३८) सूरंगो दीप । सूर (सूर्य) की तरह जिसका अंग है वह । (३९) जोइक्खो ज्योतिष्क । (४०) पासावओ गवाक्ष यानी खिडकी । प्राकृतमें पास यानी चक्षु; वह प्राप्त कर लेता है इसलिए पासावओ। (४१) पासो पश्यति (देखता है) इति पासो (यानी) नेत्र । (४२) कोप्पो अपराध । अपना कोप वही अपराध । (४३) उम्मुहो उन्मुख । (४४) उद्दणो उद्वदन यानी जिसका मुंह ऊपर है वह। यहाँ द् ओर व इनका लोप हुआ है । (४५) पहट्ठो प्रधृष्ट । गर्वयुक्त यह अर्थ । (४६) लम्बा केश । लम्बन्ते (लटकते हैं) इति लम्बाः । (४७) वल्लीकी तरह 'वेल्ली', वल्लरीकी तरह। (४८) वेल्लरिआ। आध अ का ए और स्वार्थे क-प्रत्यय (आये है)। (४९) जण्णहरो यज्ञहरः (यानी) राक्षस । वैसा स्वभाव होनेसे। (५०) जणउत्तो ग्रामप्रधाननरः (गाँवका मुख्य पुरुष) जनपुत्रः । उस प्रकारका आचरण करता है, इसलिए । (५१) बम्हहरं (५२) आरनालं (५३) थेरोसणं कमल अर्थमें । ब्रह्मगृहम् । आरात् (यानी) दूर तथा समीप नाल होता है, इसलिए आरनालम् । यहाँ (आरात् में) दूसरे आ का अ हुआ है। स्थविरासनम् ; स्थविर (यानी) ब्रह्मदेव । (आसनमें) आ का ओ हुआ है। (५४) कलिमं कन्दो, उत्पल अर्थमें । के (जलमें) रहता है इसलिए कलिमं । यहाँ डित् इम (डिम) प्रत्यय लग गया। कन्दात् (कन्दसे) उद्दीकते (उगम पाता है) इसलिए कंदोह । 'स्तौ' (१.२.६५) नुसार ओ आगया। (५५) चंदोज (५६) रअणिद्ध कुमुद । चंद्रेण उद्दयोतते (चंद्रसे प्रकाशता है), इसलिए चंदोज । रजनिध्वजम् । (५७) घरअन्दं मुकुर यानी आयना । गृहे चन्द्रवत् उद्दयोतते (घरमें चंद्रवत् प्रकाशता है), इसलिए । (५८) आआसतलं यानी हर्म्यपृष्ठ यानी आकाशतल । (५९) आणंदवडो, नववधूका रक्तकी तरह रक्त वस्त्र, पहले रजस्वलाका रक्तसे रांजत वस्त्र, (आनन्दपट), आनंदका विषय होनेसे । (६०) सूरद्धओ दिवस । सूर्य जिसका ध्वज है वह । (६१) पल्लवि
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त्रिविक्रम-प्राकृत व्याकरण
लाक्षारक्त । पल्लववत् पल्लविता हुआ। (६२) अच्छिवडणं निमीलन । (अक्षिपतन) आँखोंके पक्ष्मोंका गिरना। (६३) णीसको वृषः। नि:शंक । (६४) और, एलविलो धनवान् । चकारसे वृष (यह भी अर्थ)। (६५) सुहरओ लडकीका घर और चिडिया। (सुखरत) जिसको अच्छा रत है वह । (६६) हट्ठमहट्ठो स्वस्थ । जो हृष्ट और महार्थ है वह । (६७) णिम्मीसुओ युवा जिसे मँछ नहीं वह । आद्य अ का ई हो गया है। (६८) जहणारोहो ऊरु । जघनेन आरुह्यते इति । (६९) पल्लजीहो । (७०) अउज्झहरो र हरयभेदी। पर्यस्त जिह्वः । गुह्यहरः । यहाँ प्रारंभमें अ का आगम हुआ है । (७१) णिहुअं निधुवनं सुरत और निभृत । (७२) अब्बुद्धसिरी, मनोरथसे अधिक फलप्राप्ति । अबुद्धश्री:; (यह शब्द) प्रमुक्तादिपाठमें (१.४.९१) होनेसे, यहाँ द्वित्व हुआ है। (७३) बहुजाणो (यानी) चोर और धूर्त । बहुज्ञानः । (७४) परेओ परेतः (यानी)पिशाच । (७५) उज्जल्लो (यानी) बहुत बल होनेवाला । उज्ज्वलः । यह शब्द देवादिपाठमें (१.४.९२) होनेसे, द्वित्व हुआ है। (७६) जोई विद्युत् या ज्योति (७७) भिंग (यानी) कृष्ण (काला)। भ्रमरकी तरह काला होनेसे । भिंग शब्द संस्कृतमें है, ऐसा कोई कहते हैं। (७८) णिअंधणं परिधान । निबध्यते इति निबन्धनम् (जिससे बांधा जाता है वह)। (७९) जहणूसुअं चल्लणकम् । जघनांशुक यानी कटिवस्त्र । यहाँ अनुस्वारके साथ आ का ऊ हो गया है। (८०) पाउरणं कवच । प्रावरण करनेसे । यहाँ आध अ का उ हुआ है। (८१) ओअल्लो (यानी) अपसार और कंप। अपचारसे ओअल्लो । यह शब्द तैलादिपाठमें (१.४.९३) होनेसे, द्वित्व हुआ है। (८२) चवेडी, करसंपुटोंका आघात । (८३) रइलक्खं रतिलक्ष्यम् जघन । (८४)वावडो कुटुम्बी, व्यापृत । (८५) पुरिल्लदेवा (यानी) दैत्य, पुराभव । (८६) गोसण्णो मूर्ख । पशु जैसा होनेसे गोसंज्ञ । (८७) परभत्तो (यानी) भीर और निष्पीड । पर यानी शत्रु और उसका भक्त । (८८) चच्चिको (यानी) स्थासक। चर्चिका; यहाँ क का द्वित्व हुआ और पुल्लिंग हो गया।
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हिन्दी अनुवाद - अ. १, पा. ४ (८९) कालं तमिस्र (यानी) अंधकार, नील होनेसे । (९०) भट्टिओ (यानी ) विष्णु । भर्तृक; कारण वह जगका पोषक है । यहाँ 'ऋ' का 'इ' हुआ है । (९१) इंदग्गिधूमं तुहिन [ यानी] हिम । इन्द्रग्निधूमः । (९२) पत्थरं [ यानी ] पादताडन । फत्तरकी तरह होनेसे प्रस्तर, दुःसह होनेसे । (९३) ओवाअलो [ यानी ] अस्तकाल । अपातपः । (९४) पिउच्छा (९५) माउआ सखी | बुआ और मा की तरह होने से । (९६) पोरस्थो [ यानी ] मत्सरी । पौलस्त्यवत् । (९७) दोसो [ यानी] कोप । अपना दोष होने से । (९८) चच्चां चर्चा [ यानी ] तलाहतिः । (९९) पम्हलो केसर | पक्षमलसे युक्त | [१०] खंधलट्ठी [१०१] खंधमसो [ यानी ] भुजस्कंधकी र्याष्ट | स्कंध प्रमृशति इति । (१०२) अग्गिआओ (१०३) तंबकिमी इन्द्रगोप (लाल कीटक ) । अनिकी तरह जिसका देह है वह, अग्निकायः । ताम्रकृमि: । (१०४) विहाडणो अनर्थ । विघाटनम् । (१०५) जोइओ ज्योतिरिंगण (यानी ) खद्योत ( जुगनू ) । (१०६) सिंजिरो ध्वनि । शिंजनही । (१०७) जोइसो (१०८) जोभणा (१०९) जोडो (११०) खओओ, खद्योत अर्थमें । तारका । ज्योतिषं जोइस । द्योतना जोअणा । द्योतः जोडो । (यहाँ ) त का ड हुआ है । खे द्योतते ( आकाश में चमकता है), इसलिए खद्योतः खजोओ । (१११) दरवल्लहो कान्त । दर याना भय, वहाँ वल्लभ । (११२) काअरो कातर यानी भीरु । वियोगभीरु होनेसे । ( ११३) पण्डरंगो (पानी) महेश्वर । धवल अंग होने से । ( ११४) भोइओ ग्रामेश | भोगं चरति इति ( भोग लेता है इसलिए ) भोगिक । ( ११५) सग्गहो मुक्त । सुष्ठु अग्रहः, स्वग्रहः । ( ११६ ) संकरो (यानी ) रास्ता । जहाँ संकर होता है वह संकर | (११७) पअरो (यानी ) अर्थकी दृष्टिसे उत्कृष्ट | अर्थ में प्रकर्षेण वरः ( प्रवरः ) | ( ११८) मइमोहिणी (यानी ) सुर । मतिमोहिनी | (११९) धारावासी (यानी ) मंडूक । वर्षांमें उत्पन्न होनेसे । (१२०) कमलं (यानी ) मुख और कलह । कमलकी तरह होनेसे कमल । कं मस्तकं मलति इति (कं यानी मस्तकको ताप देता है इसलिए ) कमल (कलह ) | ( १२१) वेणुसाओ (१२२) धुअराओ (यानी ) भ्रमर । वेणुकी तरह जिसका शब्द है वह वेणुसाओ (वेणुशब्दः); यहाँ (ब्द इस ) संयुक्त व्यंजनका लोप हुआ है । रुवरागः, कारण वह सदा सुस्वर है । इत्यादि । इस गणमें (शब्दोंका) लिंग परिवर्तन ( वाङ्मयीन ) प्रयोगके अधीन होता है ॥ १२१ ॥ प्रथम अध्याय चतुर्थ पाद समाप्त
त्रि.वि ७
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द्वितीयोऽध्यायः- प्रथमः पादः ॥
मन्तमणवन्तमाआलुआलइरइल्लउल्लइन्ता मतुपः ।। १ ।।
मतुप प्रत्ययको मन्त, मण, वन्त, मा, आलु, आल, इर, इल, उल्ल और इन्त ऐसे ये दस आदेश (वाङ्मयीन) प्रयोगानुसार होते हैं । उदा.-मन्तसिरिमन्तो श्रीमान् । पुण्णमन्तो पुण्यवान् । मण-धणमणों धनवान् । वन्त-- धणवन्तो धनवान् । भत्तिवन्तो भक्तिमान् । मा-हणुमा हनुमान् । पडमा पटवान् । आलु-णेहालू स्नेहालुः । दआलू दयालुः । ईसालू ईर्ष्यालुः। आल-सद्दालो शब्दवान् । जडालो जटावान् । पडालो पटवान् । रसालो रसवान् । जोहालो ज्योत्स्नावान् । इर-गहिरो ग्रहवान् । इल्ल-सोहिल्लो शोभावान् । छाइलो छायावान् । धामिल्लो धामवान् । उल्ल-विभारल्लो विकारवान् । मंसुल्लो मांसवान् । दप्पुल्लो दर्पवान् । इन्त-कहइन्तो कथावान् । माणइन्तो मानवान् । मतुप् प्रत्ययको, ऐसा क्यों कहा है ? (कारण अन्य स्वामित्वबोधक प्रत्ययोंको ऐसे आदेश नहीं होते।) उदा.-धणी। अस्थी ॥ १ ॥ वतुपो डित्तिअमेतल्लुक चैतत्तद्यदः ॥ २ ॥
एतद्, यद्, तद् इनके आगे परिमाण अर्थमें आनेवाले वतुप् प्रत्ययको डित् एत्तिअ ऐसा आदेश होता है, और एतद् का लोप हो जाता है। उदा.एतावत् एत्तिरं । यावतू जित्तिरं । तावत् तित्तिमं ॥ २ ॥ किमिदमश्च डेत्तिअडित्तिलएदहम् ॥ ३ ॥
किम् और इदम् (सर्वनामों) के आगे, और सूत्रके चकारसे (चात् ) एतद्, तद् और यद् इनके आगे, आनेवाले वतुप् प्रत्ययको ड् अनुबंध (-डित्) होनेवाले एत्तिअ, इत्तिल और एबह ऐसे ये आदेश होते हैं। उदा.एतावत् एत्तिअ इत्तिल एदहं । यावत् जेत्तिअंजित्तिल जेद्दहं । तावत् तेति तित्तिलं तेद्दहं । कियत् केत्तिअंकित्तिल केदहं । इयत् इत्तिअं इत्तिल एइहं ॥३॥ इकः पथो णस्य ॥ ४ ॥
'पयो ण नित्यम् ' (देखिए पा. ५.१.७६) इस सूत्रसे पथिन् शब्दके आगे जो ण-प्रत्यय कहा है, उसको इक ऐसा आदेश होता है। उदा.पान्थः पहिओ ॥ ४॥
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हिन्दी अनुवाद-अ.२, पा. १
२९
खस्य सर्वाङ्गात् ।। ५ ॥ ___सर्वाङ्ग शब्दके आगे 'व्यापक' अर्थमें कहा हुआ जो ख प्रत्यय, उसका इक होता है। उदा.-सर्वाङ्गीण: सबंगिओ ॥ ५ ॥ छस्यात्मनो णअः ।। ६ ॥
आत्मन् के आगे आनेवाले छ प्रत्ययको णम ऐसा आदेश होता है। उदा.-आत्मीयम् अप्पणअं॥ ६॥ हित्थहास्त्रलः ॥ ७ ॥
____ सप्तम्यन्त सर्वनामोंके संबंधम कहे हुए त्रल् प्रत्ययको हि, त्थ और ह ऐसे तीन आदेश होते हैं। उदा.-यत्र जहिं जत्थ जह । तत्र तहिं तत्थ तह । कुत्र कहिं कत्थ कह । अन्यत्र अण्णहिं अण्णत्थ अण्णह ॥ ७ ॥ केर इदमर्थे ॥ ८ ॥
(अमुकका) यह इस अर्थमें (इदमर्थे) कहे हुए छ प्रत्ययको केर ऐसा आदेश होता है। उदा,-युष्मदीयः तुम्हकेरो। अस्मदीयः अम्हकेरो ! क्वचित् (ऐसा आदेश) नहीं होता। उदा.-मदीयपक्षः मइज्जपक्खो। पाणिनीयम् पाणिणीयं ॥ ८॥ राजपराड्डिकडक्कौ च ॥ ९ ॥
__गजन् और पर इनके आगे इदमर्थमें कहे हुए प्रत्ययको डित् इक्क और अक्क ऐसे ये (आदेश) होते हैं । (सूत्रमेंसे) चकारसे (इन शब्दोंके आगे) केर आदेशभी आता है । उदा.-राजकीयम् राइक्कं राअक्कं राअकरं । परकीयं परिक्कं परकं परकरं ॥ ९ ॥ डेच्चओ युष्मदस्मदोऽणः ।। १० ॥
युष्मद् और अस्मद् इनके आगे इदमर्थमें आनेवाले अण् प्रत्ययको डित् एच्चअ ऐसा आदेश होता है। उदा.-यौष्माकम् तुम्हेच्चअं। आस्माकम् अम्हेच्चों ॥ १० ॥ वर्वतेः ।। १ ।।
उपमान अर्थमें कहे हुए वति प्रत्ययको वर ऐसा आदेश होता है। (वर् में) र् इत् होनेसे, ( का) द्वित्व होता है। उदा.-महुर व पाडलिउते पासाआ," मथुरावत् पाटलिपुत्र प्रासादाः ॥ ११॥
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१००
त्रिविक्रम-प्राकृत व्याकरण
तैलस्यानकोलाड्डेल्लः ।। १२ ।
अंकोल शब्दको छोडकर (अन्य) शब्दोंके आगे आनेवाले तैल शब्दको डित् एल ऐसा आदेश होता है। उदा.-सुरहिजलेण कडेल्लं, सुरभिजलेन कटुतैलम् । अंकोल शब्दको छोडकर, ऐसा क्यों कहा है ? (कारण अंकोल. शब्दके आगे ऐसा वर्णान्तर नहीं होता!) उदा.-अंकोलतेलं ॥ १२ ॥ त्वस्य तु डिमातणौ ।। १३ ।।
____ 'भाव' के अर्थमें कहे हुए त्व प्रत्ययको डित् इमा, और त्तण ऐसे आदेश विकल्पसे होते हैं। उदा.-पीनत्वम् पीणिमा पीणत्तणं । पुष्पत्वम् पुष्फिमा पुप्फत्तणं । विकल्पपक्षमें--पीणत्तं पुप्फत्तं । त्व प्रत्ययको, ऐसा क्यों कहा है? (कारण अन्य प्रत्ययोंके बारेमें एसे आदेश नहीं होते ।) उदा.पीणआ पीणदा पीनता ॥ १३ ॥ दो तो तसः ।। १४ ।।
(इस सूत्रमें २.१.१३ से) तु पदकी अनुवृत्ति है । पंचम्यन्त सर्वनामोंके आगे आनेवाले तसिल् प्रत्ययको दो और तो ऐसे (आदेश) विकल्पसे होते हैं। उदा.-सव्वदो सम्वत्तो। एअदो एअत्तो। अण्णदो अण्णत्तो । कदो कत्तो। तदो तत्तो। जदो जत्तो । इदो इत्तो । विकल्पपक्षमें-सव्वओ । इत्यादि ॥ १४ ॥ एकादः सिसिआइआ ।। १५ ।। - एक शब्दके आगे आनेवाले दा प्रत्ययको सि, सिआ और इआ ऐसे तीन आदेश विकल्पसे होते हैं। उदा.-एक्का एक्कसि एक्कसिआ एक्कइआ एकआ ॥ १५ ॥ ल्हुत्तः कृत्वसुचः ॥ १६ ॥ ___वारे कृत्वसुच्' द्वारा कहे हुए कृत्वसुच् प्रत्ययको हुत्त ऐसा आदेश होता है । (सूत्र के ल्हुत्त में) ल् इत् होनेसे, यह आदेश नित्य होता है। उदा.सअहुत्तो । सहासहुत्तो । चुंबिज्जइ सअहुत्तो । उवगूहिज्जइ सहासहुत्तो । रमिआ वि पुणो रमिज्जइ णवत्तणे णत्थि पुणरुत्तं | पर पिअहुन्तं (यह रूप) मात्र अभिमुख अर्थमें होनेवाले हुन्त शब्दसे होगा ॥ १६ ॥
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हिन्दी अनुवाद-अ.२, पा. १
भवे डिल्लोल्लडौ ।। १७॥
संशाके आगे (अमुकस्थानमें) हुआ इस अर्थमें डित् इल्ल और उल्ल ऐसे ये (प्रत्यय) आते हैं। उदा.- इल-मातुलानी मामी, तत्र भवा मामिल्लिआ। पुरो भवं पुरिल्लं । अघो भवं हेदिलं उपरि भवं उवरिलं। उल्ल-आत्मभवम् अप्पुलं । कुछके मतानुसार, अल और ल ऐसेभी प्रत्यय आते हैं ॥ १७ ॥
स्वार्थे तु कश्च ।। १८ ।।
संज्ञाके आगे स्वार्थे क प्रत्यय विकल्पसे आता है। (सूत्रके) चकारसे डिल्ल (डित् इल) और उल्लड् (ये प्रत्ययभी आते हैं)। उदा.-चन्द्रः चंदओ। हृदयम् हिअअअं । इह इहअं। आश्लिष्टम् आलिद्धअं। (स्वार्थ क प्रत्यय) दो बारभी आता है। उदा.- बहुअअं। (क-प्रत्ययमेंसे) ककारका उच्चारण पैशाची भाषाके लिए किया है । उदा.-वदनम् वतनकम् । डिल्ल-णिज्जिआसोअपल्लविल्लेग, निर्जिताशोकपल्लवेन । पुरिल्लो (यानी) पुरा (पूर्वका) या पुरः (आगे)। उल्लड्-पिउल्लो प्रियः । मुहुल्लं मुखम् । हत्थुल्लो हस्तः । विकल्पपक्षमें-चंदो। इस्यादि । कुत्सा, इत्यादि अर्थमें संस्कृतकी तरह क प्रत्यय सिद्ध होता है ॥ १८ ॥
उपरेः संव्याने ल्लल् ॥ १९ ।।
(इस सूत्रमें २.१.१८ से) स्वार्थे पदकी अनुवृत्ति है । संन्यान (आच्छादन) अर्थमें होनेवाले उपरि शब्दके आगे (स्वार्थे) द्विरुक्त ल (=ल्ल) (यह प्रत्यय) आता है । (सूत्रके लल्में) ल् इत् होनेसे, यह ल-प्रत्यय नित्य आता है। उदा.-उवरिल्लो। संव्यान अर्थमें, ऐसा क्यों कहा है ? (कारण वैसा न होनेपर, यह प्रत्यय नहीं लगता । उदा.-उवारं ॥ १९ ॥ नवैकाद्वा ॥ २० ॥
नव और एक शब्दोंके आगे स्वार्थे द्विरुक्त ल (=ल) विकल्पसे आता है। उदा.-णवओ णवो | एकल्लो एको ॥ २० ॥
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१०२
मिश्रालि
।। २१ ॥
मिश्र शब्द के आगे स्वार्थे लिअ ऐसा आदेश विकल्पसे होता है । (सूत्र के लिअश्में) शू इत् होनेसे, पूर्व स्वर दीर्घ होता है । उदा - मीसालिअं मिस्सं ॥ २१ ॥
शनैसो लिडओ || २२ ॥
शनैः शब्दके आगे स्वार्थे लित् ( = नित्य) और डित होनेवाला इअं ऐसा आदेश होता है | उदा. - सणिअं ॥ २२ ॥
त्रिविक्रम - प्राकृत व्याकरण
मनाको डअं च वा ॥ २३ ॥
मनाकू शब्दके आगे स्वार्थे डित् अअं और इअं ऐसे प्रत्यय विकल्प से आते हैं । उदा. - मणअं मणिअं । विकल्पपक्षमें-म - मणा ॥ २३ ॥
रो दीर्घात् ॥ २४ ॥
(इस सूत्र में १.१.२३ से) वा पदकी अनुवृत्ति है । दीघ शब्द के आगे स्त्रार्थे र विकल्पसे आता है । उदा. -दीहरं दीहं दिग्घं ॥ २४॥ डुमअडमऔल स्वः ॥ २५ ॥
भ्ह शब्दके आगे स्वार्थे द्वित् और लित् ऐसे उमअ और अमअ ऐसे ये (प्रत्यय) आते हैं । (ये प्रत्यय) लितू होने से, नित्य आते हैं । उदा -मुमअ
भमआ || २५ ॥
लो वा विद्युत्पत्रपीतान्धात् ॥ २६ ॥
(विद्युत्, पत्र, पीत, अन्ध) इन शब्दों के आगे स्वार्थे ल विकल्पसे आता है | उदा. - विज्जुला विज्जू । पत्तलं पत्तं । पीअल पीअं । अंधलो अंधो ॥ २६ ॥
त्वादेः
ः सः ॥ २७ ॥
'तस्य भावस्त्वत लौ' (पा. ५.१.११९) इत्यादि (सूत्र) में कहे हुए त्व, इत्यादिके आगे स्वार्थे वही त्व, इत्यादि विकल्पसे आते हैं । उदा. - मृदुत्वेन मउत्तआइ । मृदुतया मउत्तआए | ज्येष्ठतरः जेट्टअरो । कनिष्टतरः कणिट्ठअरो ॥ २७ ॥
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हिन्दी अनुवाद-अ. २, पा. १ इरः शीलाद्यर्थस्य ॥२८॥
शील, धर्म, साधु इन अर्थों में कहे हुए प्रत्ययके स्थानमें इर ऐसा आदेश होता है। उदा.-हसनशीलः हसिरो। रोदनशीट: रोइरो। लज्जाशीलः लज्जिरो । जल्पशीलः जप्पिरो । वेदनशील: वेइरो | उच्छवस् नशीलः ऊसस्रोि। इरं यह तृन्को आदेश होता है, ऐसा कोई कहते है। उनके बारेमें नमिर, कमिर, इत्यादि (रूप) सिद्ध नहीं होते । कारण अगले सूत्र, इत्यादिमें कहे हुए तृन् से बाध होता है ॥ २८ ॥ तुमत्तुआणतूणाः क्त्वः ॥ २९ ॥
क्वा प्रत्ययको तुं, अ (अत्), तुआण और तूण ऐसे चार आदेश होते हैं । उदा.-तु-दटर्छ । मोत्तुं । भोत्तुं । अ (अत्) ममिअ । अि । तुआणघेत्तुआण । सोउआण। 'क्त्वासुपोस्तु सुणात्' (१.१.४ ३) सूत्रानुसार, अनुस्वार आनेपर घेत्तु आणं । सोउआणं । तूण-घेत्तण : सोऊण । काऊण । अनुस्वार आनेपर-घेत्तणं । सोऊणं । काऊणं। पर वंदित्ता यह रूप मात्र (वन्दित्वा इस) सिद्ध रूप से व् का लोप होकर सिद्ध हुआ है ॥ २९ ॥ वरइत्तगास्तृनाद्यैः ।। ३० ।।
वरइत्त, इत्यादि शब्द जो तृनादि प्रत्ययोसे सहित और स्वरादि आदेशोंसे विशिष्ट ऐसे होते हैं वे बहुलत्वसे निपातके रूपमें आते हैं । उदा.(१) वर इत्तो वरयितृक : (यानी) नवीन वर । यह। ऋ का अ और त् का द्वित्व हुआ है । (२) कणाल्लो (३) वाअडो (यानी) शुक। कण इल्लो-कणई शब्द लतावाचक देशी शब्द है; (उसको) भवार्थे या अस्ति इस अर्थमें रित् इल्ल प्रत्यय लगा। वाअडो-वाचाट शब्दमें द्वितीय आक। अ हुआ है। (४) मइलपुत्ती पुष्पवती। मलिन शब्दको मइल ऐसा आदेश होकर उसके आगे पुत्ती शब्द आगया । (५) दुग्घोट्टो दोग्घट्टो (६) दृणो (यानी) द्विप: (हाथी)। यहाँ पिबति धातुको घोट्ट (ऐसा आदेश है)। द्वाम्या पिति इति । (दूणो-) द्विपान शब्दमें पकारके साथ इ का ऊ होकर दुण रूप होगया । (७) विरिचरो (यानी धारा छोडनेका स्वभाव होनेवाला । (८) सूरल्ली (यानी) मध्याह्न । यहाँ सूर शब्दके आगे अस्ति अर्थमें ल्लि प्रत्यय आया है। (९) वेलहलो कामल और
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त्रिविक्रम-प्राकृत व्याकरण
विलासी । यहाँ वल्लभ शब्दके आगे ल (आया) और आद्य भ का ए (हुआ है)। (१०) सद्दालं नूपुरम् । 'शब्द' इस शब्दके आगे अस्ति अर्थमें आल प्रत्यय आकर (सद्दाल शब्द बना है)। (११) अल्लिल्लो (१२) फुलंघओ (१३) रसाओ नमरः (यानी मॅवरा)। इन शब्दोंमें क्रमसे-अलि शब्दके आगे स्वाथें डित् इल्ल (डिल्ल) और ल् का द्वित्व होकर (अलिल्लो)। पुष्पंधयः, यहाँ प का ल होकर (फुल्लंघओ)। रसं अत्ति इति (रसादः) रसाओ। (१४) लमणी लअणा (१५) कणई, लता अर्थमें । लता शब्दके आगे डणी और डणा (डित् अणी
और अणा) प्रत्यय आकर (लअणी, लअणा रूप हुए)। (कणई)-कनति धातुको स्त्रीलिंगबोधक डई (डित् अई) प्रत्यय लगकर (कणई); शोभावहत्वके कारणसे । (१६) वहुज्जा (यानी) कनीयसी श्वश्रः (छोटी सास)। वधू शब्दके आगे कहे हुए अर्थमें ज्जा प्रत्यय आगया । (१७) भाउमा भ्रातृवधूः । भाईकी भार्या इस अर्थमें (भ्रातृ शब्दके आगे) ज्जा प्रत्यय आगया। (१८) मेहुणिआ मातुलात्मजा और स्याली (ममेरी बहिन, साली)। मैथुनिका । मिथुन शब्दके आगे कहे हुए अर्थमें इकण और डात् (=डितू आ) प्रत्यय आगये। (१९) रिमिणो रोदनशीलः। रुद् धातुको शील अर्थ में डिमिण (=डित् इमिण) प्रत्यय जुट गया। (२०) पुण्णाली (२१) छिन्छई (२२) अडअणा असती। पुंश्चली शब्दमें श्च का णा होकर (पुण्णाली शब्द बना) । धिक् धिक (का वर्णान्तर) छिच्छि।' धिक धिक, ऐसी निंदा जिसकी होती है वह (छिच्छई)। अस्ति अर्थमें डई (=डित् अई) प्रत्यय (छिच्छि को लगा)। अट् धातुको शील अर्थमें अणा प्रत्यय लगकर, अडअणा (यानी) अटनशीला (घूमना जिसका स्वभाव है वह)। (२३) चप्पलओ मिथ्याबहुभाषी। चपल शब्द के आगे क आया और प का द्विरुक्त प (=प्प) हो गया। (२४) पिब्बं जलम् । पिब धातुमें ब का द्वित्व हो गया। (२५) मघोणो (यानी) मघवा (इंद्र)। यहाँ स्वाथें ण आया है और 'अवा' इसका ओकार हुआ है । (२६) सइलामिओ मयूर । सदालासिकः, कारण नृत्य करनेका उसका स्वभाव है। यहाँ 'इत्तु सदादौ' (१.२.३४) सूत्रानुसार (सदा शब्दका) सइ (रूप) हुआ है। (२७) वाउल्लो प्रलपिता (प्रलाप करनेवाला)। यहाँ वाच् शब्द को डुल्ल (डित् उल्ल) प्रत्यय लगा है। (२८) पलहिअओ मूर्ख । उपलहृदयः । (यहाँ) (आध) उकारका
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हिन्दी अनुवाद-अ. २, पा. १
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लोप हुआ है। (२९) चंडिको कोपः। चण्ड शब्दके आगे कोप अर्थमें डिक्क (=डित् इक्क) प्रत्यय आया । (३०) चण्डिज्जो पिशुन और कोप। चंड शब्दके आगे कहे हुए अर्थमें डिज्ज (=डित् इज्ज) प्रत्यय आया । (३१) कुम्मणो म्लानः । ग्लायति धातुको कुम्म आदेश होकर आगे ण आगया। (३२) अच्छिहरुल्लो द्वेष्य । अक्ष्णोः हरः (आँखोंका हरण करनेवाला, अक्षिहरः), अदर्शनीय होनेसे । अक्षिहर शब्दके आगे स्वाथे डुल्ल (=डित् उल्ल) प्रत्यय आया। (३३) छाइल्लो रूपवान् । छाया शब्दको अस्ति अर्थम डिल्ल (डित् इल्ल) प्रत्यय लगा; कान्तिमान् यह अर्थ । (३४) कुडुंगो कुडगो कुडुक्को लतागृह । कुड शब्दके आगे कहे हुए अर्थमें डुंग, डंग और डुक्क (=डित् उंग, अंग, और उक्क) प्रत्यय लगे हैं। (३५) जरण्डा वृद्धः । जरति धातुको अण्ड प्रत्यय लगा। (३६) अच्छिविअच्छी परस्पराकृष्टिः (परस्पर आकर्षण)। आकर्षीत व्याकर्षति इसमें कृष के स्थानपर विअच्छी (ऐसा आदेश आगया)। (३७) धूमरी तुहिन । धूमवत् (धूमकी तरह) यानी धूमरी । यहाँ उपमानार्थमें री है। (३८) सोती तरङ्गिणी। यहाँ स्रोतस् शब्दके आगे अस्ति अर्थम डी (डित् ई) आया, त का द्वित्व हुआ । (३९) अहिसिओ (यानी) ग्रहशंकासे रोनेवाला । अभिसीदति धातुको कहे हुए अर्थमें डिक (डित् इक) प्रत्यय लगा। (४०) गावी गौः । गो शब्दके आगे स्त्रीलिंगका डावी (डित् आवी) प्रत्यय आगा। (४१) उत्थल्लपत्थल्ला (यानी) पार्श्वयुगापवृत्ति । उत्स्थल और प्रस्थल शब्दोंके आगे पार्श्व द्वय अप्रवृत्ति इस अर्थमें डा (-डित् आ) आया और ल का द्वित्व हुआ। (४२) गज्जिलिओ (यानी) अंगको स्पर्श होनेपर आनेवाला हास्य और पुलक । 'अंगको स्पर्श होनेपर सानेवाला हास्य और पुलक' इन अर्थमें गर्दा धातुको इलिअ प्रत्यय लग गया। (४३) चित्तलं रम्यम् । चित्त लाति इति । (४४) पाडहुओ प्रतिभूः (यानी) जामिन । प्रतिभू शब्दके आगे स्वार्थे डुकण (डित् उकण) प्रत्यय आया और इ का अ हो गया। (४५) पासणिओ पासाणिओ साक्षी। साक्षात् पाव नीयते अनेन इति; पार्श्व के आगे आनेवाले नी धातुको डिक (डित् इक) प्रत्यय लगा। (४६) अवरिज्जं अद्वितीयम् । अवर शब्दके आगे भाव अर्थमें डिज्ज (डित् इज्ज) प्रत्यय लगा। (४७) लाहिल्लो लम्पटः । लाभ शब्दके आगे कहे हुए अर्थमें डिल्ल (डित् इल्ल) प्रत्यय आया। (४८) कडिल्लं (यानी) गहनं,
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त्रिविक्रम-प्राकृत व्याकरण
दौवारिकः, कटिवस्त्रम् , निर्विवरम् , विपक्षः और आशीः (आशीर्वाद)। कटि शब्दके आगे गहन, इत्यादि अर्थों में डिल्ल (डित् इल) प्रत्यय भागया। (४९) रूवसिणी रूपवती । रूप शब्दके आगे अस्ति अर्थमें स्त्रीलिंगका सिणी प्रत्यय आया । (५०) कुडुम्बिअं सुरतम् । कुटुम्ब शब्दके आगे कहे हुए अर्थमें डिक (डित् इक) प्रत्यय आया। (५१) अंतरिज्जं रशना, कटिसूत्र | अंतर शब्दके आगे कहे हुए अर्थमें डिज्ज (डित् इज्ज) प्रत्यय आगया। (५२) अवडुक्किअं (यानी) कूप, इत्यादि अवटमें पडा हुआ। अवट शब्दके आगे कहे हुए अर्थमें डुक्किअ (डित् उक्किअ) प्रत्यय आया। (५३) बुडिरो महिष । मजति धातुके 'बुड्ड' आदेशके आगे शील अर्थमें इर प्रत्यय आगया। (५४) पिपिडिअं (यानी, जो किंचित् पठित किया जाता है वह । पिडिपिडि इस अनुकरणवाचक शब्दके आगे क प्रत्यय आया, आद्य डिकारका लोप
और पका द्वित्व हुए । (५५) सरिसाहुलो सदृश । सदृश शब्दके आगे स्वार्थे हुलश् प्रत्यय आगया। (हुलश् में श् इत् होनेसे, पूर्व स्वर दीर्घ हुआ)। (५६) गुमिलो मूढः ! मुह धातुका आदेश जो गुम, उसके आगे इल प्रत्यय आगया । (५७) कच्चं कार्यम् । यहाँ कृ धातुको डच्च (डित् अच्च) प्रत्यय लगा है। (५८) घडिअघडा, घडी (यानी) गोष्ठी। घटिता घटा घटना यस्याः सा (जिसकी घटना घट गई है)। (५९) कमणी निश्रेणी (यानी) सीढी । (६०) किरिकिरिआ (यानी) कर्णोपकर्णिका और कुतकम् । कर्णोपकर्ण कर्णपरंपराप्राप्त कटुजल्पनं, तस्मिन्नथे और कौतुक अर्थमें किरिकिरि इस अनुकरणवाचक शब्दके आगे का प्रत्यय आगया। (६१) अण्णइओ (यानी) सब बातोंमें तृप्त ।-अर्णव शब्दके आगे उपमान अर्थमें डिक (डित् इक) प्रत्यय आगया । (६२) साहुली शाखा । यहाँ स्वार्थे डुलि (डित् उलि) प्रत्यय आगया । (६३) जंपेक्खिरमग्गिरओ (यानी) जो देखा वह माँगनेवाला। यद् दृष्टं इस अर्थमें (आनेवाले) जपेक्खिर निपातके आगे याचनशील अर्थम क-प्रत्ययान्त मग्गिरओ शब्द आगया। (६४) गअसाउल्लो विरक्तः । गतस्वाद शब्दके आगे कहे हुए अर्थमें डुल्ल (डित् उल्ल) प्रत्यय आगया। (६५) सिहण्डहिल्लो बालः। शिखण्ड शब्दके आगे कहे हुए अर्थमें हिल्ल प्रत्यय आया है। शिरवावान् यह अर्थ । (६६) अलवलवसहो (यानी) धूर्त, दुष्ट, पृष्ठवाही बलीवर्द । अलं अत्यर्थं बलं अस्य वृषभस्य इति (इस बैलका बल अत्यर्थ है)। अनुस्वारका लोप हुआ। (६७) खुरहखुडी प्रणयकोप । क्षुरवत्
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हिन्दी अनुवाद-अ.२, पा. १
भाति तोदयति इति (उस्तरकी तरह काटता है)। तुद् के खुड. आदेशको डी (डित् ई) प्रत्यय लग गया। (६८) सीउली सीउग्गं (यानी) हिमकाले दुर्दिनम् (हिमकालमें बरसातका दिन)। शीत शब्दके आगे डुल्लि और डग्ग (डित् उल्लि और उग्ग) प्रत्यय आये और त का लोप हो गया। (६९) वाण्डो वरण प्राकार । वृ (धातु)को रण्ड प्रत्यय लग गया। (७०) तत्ती तत्परता। त के आगे तात्पर्य अर्थमें डत्ती (डित् अत्ती) प्रत्यय आगया। (७१) हीरणा त्रप। (यानी) लज्जा । त्रपा अर्थ में णा और हीर ऐसे आदेश आगये । (७२) गामरेडो (यानी) योऽन्तर्भुक्त्वा ग्रामं भुक्ते । ग्राम शब्दके आगे कहे हुए अर्थमें रेड शब्द आया। (७३) लडहा (७४) वेल्लरी विलासरती। लस् (धातु) के आगे डहा शब्द आया और स का लोप हुआ। (वेल्लरी)--वेष्टयन्ते विटा अनया इति (जिससे विट घेरे जाते हैं।) वेष्ट्र के आगे री आया और ष्ट्र का ल्ल हो गया । (७५) दुम्मइणी कलहपरा । दुर्मति शब्दके आगे स्वार्थे स्त्रीलिंगका णी प्रत्यय लग गया । (७६) लज्जाटुइणी लज्जावती । लज्जालु शब्दके आगे स्वार्थे णी प्रत्यय आगया। (७७) तण्णाअं आर्द्रम् (यानी) भीगा हुआ। तम् धातुको (तिम्यतेः), डण्णा (डित् अण्णाअं) प्रत्यय लग गया। (७८) चिक्खअणो असहनः सहन न करनेवाला । नञ् के पूर्व होनेवाले सह धातुके आगे यण आगया और उसको चिक्ख आदेश हो गया। (७९) वणिअं वचनीयम् (यानी) निन्दा । वच धातुके आगे कहे हुए अर्थमें डेणिअ (डित् एणिअ) प्रत्यय आ गया । (८.) सुण्हसिओ निद्रालु । स्वप्न शब्दके आगे शील अर्थमें सिय आया, और न का ग्रह हुआ तथा आद्य अ का उ हो गया । अथवा-संस्कृतम सास्ना यानी निद्रा, फिर 'स्तावकसास्ने' (१.२.१८) सूत्रानुसार उ होनेपर, शील अर्थमें, डसिअ (डित् असिअ) प्रत्यय लग गया । (८१) वप्पिओ केदारः यानी खेत । उप्यन्ते अत्र इति । वप् के आगे पिअ ऐसा शब्द आया। (८२) बंधालो मेलकः (पानी) मेला। बंध् के आगे डोल्ल (डित् ओल्ल) आगया। (८३) वारिजो विवाह । वृ धातुके आगे इज्जण् प्रत्यय आया। 'अचो णिति'सूत्रानुसार वृद्धि हो गई । (८४) साउल्लो (८५) हडहडं अनुरागः (यानी) प्रेम | स्वाद् के आगे कहे हुए अर्थमें उल्ल प्रत्यय आगया। (हहहडं)-हडत् हडत् इति हृदयं स्फुरति यत्र इति; (अन्त्य) त् का लोप होगया। (८६) माणंसी (यानी) मायावी और मनस्वी । (८७) कोडिल्लो कोडओ पिशुनः (यानी) दुर्जन | कुड् धातुके आगे
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त्रिविक्रम-प्राकृत व्याकरण
इल और इक आये और उ का ओ होगया। (८८) अट्टण्णो आतज्ञः। आर्त जानता है वह । (८९) गंजोलो । परिभव अर्थमें होनेवाले देश्य 'गंज' धातुके आगे डोल (डित् ओल) प्रत्यय आगया। (९०) बंदिणो बन्दी। यहाँ स्वार्थे | आगया । (९१) तत्तिल्लो तच्छील यानी तत्पर । तत्ती यानी तत्परता (२.१. ३० के नीचे (७०) तत्ती शब्द देखिए), उसके आगे अस्ति अर्थमें ल आया (और उस) ल का द्वित्व होगया। (९२) ऊसुम्भिअं रुद्धगलरोदनम् (रुद्ध गलेसे रोना)। उद् के आगे होनेवाले सुम्भ के आगे कहे हुए अर्थमें डिक (डित् इक) प्रत्यय आगया। (९३)णि उक्को तूष्णीकः मूक । निर्मुक्तः। म का लोप हुआ, आर देवादिपाठमें होनेसे द्वित्व होगया। (९४) बहलो अपस्मारः । ब्रह्मन् शब्दके आगे कहे हुए अर्थमें ल आया। (९५) ठाणिज्जं गौरवम् । स्थान शब्दके आगे कहे हुए अर्थमें डिज्ज (डित् इज्ज) प्रत्यय आगया । (९६) उवउजो उपकारी । उपकृ धातुको डुज्ज (डित् उज्ज) प्रत्यय लग गया। (९७) एकला प्रबलः। एक शब्दके आगे कहे हुए अर्थमें ल आया । (९८) माउ सआ माउच्छा मातृष्वसा (यानी) मौसी। मातृ शब्दके आगे आनेवाले स्वसृ शब्दको सिआ और च्छ ऐसे (आदेश) हो गये। (९९) महल्लो मुखरः (यानी) बहुत बोलनेवाला । महत् शब्दके आगे डल्ल (हित् अल्ल) प्रत्यय आगया । (१००) कुच्छिमई गर्भवती। कुक्षि के आगे अस्ति अर्थमें मई प्रत्यय आय।। (१०१) रिछोली ऋक्षालिः नक्षत्रमाला, उसकी तरह होनेसे रिंछोली। ऋ के बाद अनुस्वार होगया । (१०२) धोरणी पंक्तिः। धारावत् होनेसे धोरणी। आ का ओ होगया, और उपमा अर्थमें डणी (डित् अणी) प्रत्यय आगया। (१०३) पडमा दूष्यग्टम् । पट शब्दके आगे अस्ति अर्थमें मा प्रत्यय आया । (१०४) जुअणो युवा । यहाँ स्वार्थे ण आया है। (१०५) करमरी हटहना स्त्री, बन्दी (बलात् हरण की हुई स्त्री, बंदी)। करेण मृद्यमानात् आकृष्यते' इस अर्थमें कर अपद होनेवाले मृद् धातुके आगे डरी (डितू अरी) प्रत्यय आया । (१०६) दड्ढाली दवम दवाग्निमार्ग। दग्ध के आगे डाली (डित् आली) प्रत्यय आगया। (१०७) कुडंगो कुडओ लतागृह | कुटी शब्दके आगे कहे हुए अर्थमे डंग और डक (डिन अंग और अक) प्रत्यय आ गये। (१०८) कारिम कृत्रिम | कृ धातुके आगे डारिम (डित आरिम) प्रत्यय आया।
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________________ हिन्दी अनुवाद-अ. 2, पा. 1 (109) जंघालुओ (110) जंघामओ दृत / जंघा शब्दके आगे शीघ्र अर्थमें लुअ और मअ आगये। (111) बलामोडी बलात्कार / बलात् मुख्यते यत्र / (112) चक्कलं परिवर्तुलम् / चक्र शब्दके आगे ल आगया / (113) बाउल्ली पुत्रिका (यानी) कुमारीकी क्रीडाके योग्य ऐसी गुढिया। कुमारीः व्यापारयति इति / व्यापृ धातुके आगे डुलि (हित् उलि) प्रत्यय आगया। (114) मत्तवालो मत्तः। (मत्त के आगे) स्वार्थे वाल प्रत्यय आया। (115) बहुणिआ (यानी) ज्येष्ठभाईकी भायो / वधू शब्दके आगे कहे हुए अर्थ में णिआ प्रत्यय आगया। (116) जंभणभणो स्वर भाषण करनेवाला / यद्वा तद्वा भणति अधिक इति / आदि और तृतीय वर्णके आगे अनुस्वार आया और त् का लोप हुआ। (117) भाइरो भेज्जलो भेज्जो। (118) ओज्जरो भीरुः (यानी) डरपोक / भी धातुके आगे शील अर्थमें डाइर, डेज्जल डेज्ज (डित् आइर,एज्जल, एज्ज) प्रत्यय आये / (ओज्जर)-त्रस् धातुका आदेश जो ओज्ज,उसके आगे र आगया / (119) आहडं सीत्कार / आहरति आदत्ते प्रिय हृदयं इति / आहृ धातुके आगे ड आया / (१२०)काअपिउला कोकिला / काकः पितृवत् पोषको यस्याः इस अर्थमें (पितृवत् कौआ जिसका पोषक है) काकपितृ शब्दके आगे ला आगया / (121) मुहलं मुख / (मुख शब्दके आगे) स्वार्थे ल प्रत्यय आगया। (122) गत्तडी गायिका। गात्री शब्दके आगे स्वार्थे डडी (डितू अडी) प्रत्यय आया। (123) दुद्दोलणा, दुग्धा अपि या दुह्यते गौः इति, इस अर्थमें दुग्ध शब्दके आगे दोलणा शब्द आया। (124) मा भाइ अभय / मा के आगे होनेवाले भी धातुके भा आदेशके आगे इ आया। (125) तोमरिओ शस्त्रप्रमार्जकः (यानी) शस्त्र साफ करनेवाला | तोमर शब्दके आगे कहे हए अर्थ में डिक (डित् इक) प्रत्यय आगया (126) वहुहाडिणी, वध्वा उपरि परिणीयते इति / वधू शब्दके आगे कहे हुए अर्थमें हाडिणी शब्द आया / (127) रुअरुइआ उत्कलिका (यानी) उत्कण्ठा / रुहरुहिका शब्दमें दो हकारोंका लोप हुआ(१२८) पिउसिआ पिउच्छा पितृष्वसा (बुआ)। पितृ शब्दके आगे होनेवाले स्वसृ शब्दके सिआ और च्छ होगये। (129) पुप्फी / पितृ शब्दके आगे होनेवाले स्वस का फी हुआ। (13.) अणुसूआ आसन्न प्रसवा / अनुसति शब्दके आगे आसन्नप्रसव अर्थमें डा (डित् आ) आगया। (131) भच्चो भगिनीसुतः / भगिनी शब्दको भ ऐसा आदेश होकर, बहेनका पुत्र इस अर्थमें
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________________ 110 त्रिविक्रम-प्राकृत व्याकरण रुच प्रत्यय आय।। (132) ओहल्ली अपसृतिः। (अपमृति शब्दमें) सृति को हल्ली (आदेश) हो गया। (133) मम्मको गर्व / मर्मन् शब्दके आगे कहे हुए अर्थमें क प्रत्यय आया। (134) मडप्परो मधुपर / यहाँ उ का अ और धु का ड हो गया / इत्यादि। कृष्ट, उपसर्गरहित धृष्ट, वाक्य, विद्वम् , वाचस्पति, विष्टरश्रयस्, प्रचेतस्, प्रोक्त, इत्यादि शब्द; और किए, इत्यादि प्रत्ययोंसे अन्त होनेवाले अग्निचित् , सोमसुत्, इत्यादि शब्द; सुग्लौ, सुम्ला, इत्यादि शब्द; जिनका उपयोग पूर्व विद्वानोंने नहीं किया है, उसके प्रतीति (अर्थ) घातक ऐसे प्रयोग न करें, उनका अर्थ अन्य (समानार्थक) शब्दोंके द्वारा व्यक्त करें। उदा.-कृष्टः कुशलः / वाचस्पतिः गुरुः। विष्टरश्रवस हरिः। इत्यादि / उपसर्गयुक्त घृष्ट शब्दका प्रयोग चलता है। उदा.मंदरअड परिघटुं, मन्दरतटपरिघृष्टम् / तं दिअसणिघट्ठाणं, इत्यादि // 30 // अव्ययम् / / 31 // ___ अव्यय पदका अधिकार इस पादकी परिसमाप्तितक है। यहाँसे आगे जो कहे जाएंगे वे अव्ययसंज्ञक शब्द है, ऐसा जानना // 31 // आम अभ्युपगमे // 32 / / .. आम यह अव्यय स्वीकार (अर्थ) में प्रयुक्त करें। उदा.-आम बहुला वणाली। कोई कहते हैं कि आम अव्यय संस्कृतमेंभी है / / 32 // तं वाक्योपन्यासे / / 33 / / तं यह अव्यय वाक्यारंभ करते समय प्रयुक्त करें। उदा.-तं तिअसबंदिमोक्खं // 33 // णइ चेअ चिअ च एवार्थे // 34 // णइ, चेअ, चिअ, च्च ये (अव्ययरूप) शब्द अवधारण अर्थमें प्रयुक्त करें / उदा.-गइओ णइ / गदित एव / / जं चेअ मुउलणं लोअणाणं अणुबंध तं चिअ कामिणीणं / यदेव मुकुलनं लोचनानामनुबन्धं तदेव कामिनीनाम् // (चिअ शब्द) देवादिपाठमें होनेसे, उसमें द्वित्व होता है। उदा.-ते च्चिअ धण्णा ते चअ सुउरिसा / त एव धन्यास्त एव सुपुरुषाः / / सो च्च वअरूवेण / स एव बयोरूपेण / / सो च सीले / स एव शीले // 34 //
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________________ हिन्दी अनुवाद-अ. 2, पा. 1 हद्धि निर्वेदे // 35 // हाद्ध ऐसा अव्यय निर्वेद (दिखाते समय) प्रयुक्त करें / हदि शब्द 'हा धिक्', शब्दकी तरह है / उदा.-इद्धि हो धावह / हा धिक् हो धावत // 35 / / दर अर्धेऽल्पे वा / / 36 // दर अव्यय अर्ध अर्थमें या ईषद् अर्थमें प्रयुक्त करें। दरविअसि अर्ध ईषद् वा विकसितम् // 36 // किणो प्रश्न / / 37 // किणो ऐसा अव्यय प्रश्न करते समय विकल्पसे प्रयुक्त करें। उदा.किणो धुवसि, किं धुवसि, किं धुनोषि // 3 // मिव पिव विव विअ व व्व इवार्थे / / 38 / / मित्र, पिव, विव, विअ, व, ब्व ऐसे ये छः (शब्द) इव अर्थमें विकल्पसे प्रयुक्त करें। उदा.-कमलं मिव / चंदणं पिव / हंसो विव। जीवो विअ / उअअस्स व ताविअ सीअलस्स, उदकस्येव तापितशीतलस्य / सारो व्व गहिरो, सागर इव गभीरः। साअरो व्य खारओ, सागर इव क्षारः। विकल्पपक्षमें-णीलुप्पलमाला इव, नीलोत्पलमालेव // 38 // किर इर हिर किलार्थे / / 39 // किर, इर, हिर ऐसे ये तीन (शब्द) किल अर्थमें विकल्पसे प्रयुक्त करें। उदा.-कल्लं किर खलहिअओ / तस्स इर पिअवअस्सो / वाहित्ता हिर देवी। विकल्पपक्षमें-एवं किल तेण सिविणए भणिअं // 39 // अम्हो आश्चर्ये // 40 // आश्चर्य दिखाते समय अम्हो (अव्यय) प्रयुक्त करें। उदा.--अम्हो देवस्स गई। अम्हो कह परिणिज्जा // 40 // अब्भो पश्चात्तापसूचनादुःखसंभाषणापराधानन्दादरखेदविस्मयविषादभये / / 41 // - अब्भो ऐसा (अव्यय) पश्चात्ताप, इत्यादि दिखाते समय प्रयुक्त करें। उदा.- पश्चात्तापमें- अब्भो. तह तेण कआ अहअं जह कस्स साहेमि।
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________________ त्रिविक्रम-प्राकृत व्याकरण सूचनामें-अब्भो दुकरआरअ / अब्भो आरद्धो / दुःखमें-अब्भो दलइ हिअ / संभाषण में-अब्भो किमिण / अपराधमें-अब्भो हरंति हिअ तह विव वेसा भवंति जुबईणं | आनंदमें-अम्भो सुप्पहाअमिणं / आदरमें-अब्भो मह सफलं जीविअं / खेदमें-अब्भो ण जाणामि चित्त / विस्मयमें-अब्भो किं पि रहस्सं मुणन्ति धुत्ता जणभहिआ, किमपि रहस्यं जानन्ति धूती जनाभ्याधिकाः। विषादमें-अब्भो णासोते धिइं पुल वढेन्ति देन्ति रणरणअं, नाशयन्ति धृति पुलकं वर्धयन्ति ददति रणरणकम् / भयमें-अब्भो गइअ म्हि तुमे व रज्जइ सा ण तारेहइ, अन्वो गदितास्मि त्वया नैव रज्येत सा न खेद्यते // 41 / हुँ पृच्छादाननिवारणे // 42 / / __ऐसा (अव्यय) पृच्छा, इत्यादिमें प्रयुक्त करें। उदा.-पृच्छामें-हुं साहसु सब्भावं / दानमें-हु गेह अप्पणो विअ / निवारणमें-हु णिलज्ज समोसर // 42 // वणे निश्चयानुकम्प्यविकल्पे // 43 / / वणे ऐसा (अव्यय) निश्चय, इत्यादिमें प्रयुक्त करें। उदा.-निश्चयमेंवणे देमि, निश्चयं ददामि | विकल्पमें-वणे होइ ण होइ, भवति वा न भवति / अनुकम्प्यमें-होइ दासो वणे ण मुच्चइ, भवति दासोऽनुकम्प्यो न मुच्यते // 43 // संभावने अइ च // 44 // __ अइ ऐसा (अव्यय), और (सूत्रमेंसे) चकारके कारण वणे यह (अव्यय), संभावनमें प्रयुक्त करें। उदा.-अइ दिअर किं ण पेच्छसि / णस्थि वणे जं ण देइ विहिपरिणामो // 44 // आनन्तर्ये णवरिअ / / 45 / / णवरिअ ऐसा (अव्यय) आनन्तर्य दिखाते समय प्रयुक्त करें / उदा.-- णवरिअ से रहुवइणो, अनन्तरमस्य रघुपतेः॥ 45 // केवले णवर / / 46 / / केवल अर्थमें णवर ऐसा (अव्यय) प्रयुक्त करें। उदा.-णवर पिआइ चिणिन्वडन्ति, केवलं प्रियाण्येव निष्पतन्ति (यानी) पृथग्भवन्ति / 'केवल
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________________ हिन्दी अनुवाद-अ. 2, पा. 1 नन्तर्ययोर्णवरणवरिअ' ऐसा एकही पत्र है, ऐसा कोई कहते हैं। उनके मतानुसार, दोनों (भी) अव्यय दो अर्थो में हैं // 46 // भन्द ग्रहणार्थे / / 47 / / ___ भन्द ऐसा (अव्यय) ग्रहण अर्थमें प्रयुक्त करें। उदा.-भन्द आलोएस में / गृहाण (ले) ऐसा अर्थ // 47 / / भन्दि विकल्पविषादसत्यनिश्चयपश्चात्तापेषु च / / 48 / / भन्दि ऐसा (अव्यय) विकल्प, इत्यादिमें, तथा ग्रहण अर्थमें प्रयुक्त करें। उदा.-विकल्पमें-भन्दि भोज्ज एत्ताहे, भवेदिदानीम् / विषादमेंभन्दि चरणे तओ संमाणिओ, चरणौ ततः संमानितौ। सत्यमें भन्दि तुह भणिमो। निश्चयमें-सासिज्जइ भन्दि तुह कज्जे / पश्चात्तापमें-भन्दि सहेहि धरणि / ग्रहण अर्थमें-मन्दि आलोएस मं // 48 / / संभाषणरतिकलहे रे अरे / / 49 / / ___ संभाषण और रतिकलह इनमें यथाक्रमसे रे और अरे ये (अव्यय) प्रयुक्त करें। उदा.-संभाषणमें-रे रे हिअअ मडअसरिसा। रतिकलहमेंअरे बहुवष्ठह मए समं मा करेसु उवहासं / / 49 / / हरे क्षेपे च / / 50 // क्षेप दिखाते समय, (और सूत्रमेंसे) चकारके कारण संभाषण और रविकलह इनमें, यथाक्रमसे हरे ऐसा (अव्यय) प्रयुक्त करें। उदा.-क्षेपमेंहरे जिल्लज्ज / संभाषणमें-हरे पुरिसा। रतिकलहमें-हरे बहुवल्लह // 50 // धू कुत्सायाम् / / 51 / / __ कुन्सामें धू ऐसा (अव्यय) प्रयुक्त करें। उदा.-५ जिल्लज्जो लोगो // 51 //
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________________ त्रिविक्रम-प्राकृत व्याकरण ऊ गाविस्मयसूचनाक्षेपे // 52 // गर्दा, इत्यादि दिखानेके समय ऊ ऐसा (अव्यय) प्रयुक्त करें। उदा.-गों में-ऊ णिल्लज। विस्मयमें-ऊ कहं मुणिआ अहं / सूचनमेंऊ केण ण विण्णाअं। शुरु किए हुए वाक्यका विपर्यास होगा, इस शंकासे विनिवर्तन करना, यह आक्षेपका लक्षण है। वहाँ (उस आक्षेपमें)ऊ किं मए भणिकं // 52 / / पुणरुत्तं कृतकरणे // 53 // पुणरत्तं ऐसा (शब्द) कृतकरणमें (किया हुआ पुनः करना) प्रयुक्त करें। उदा.-अइ सुव्वइ पंसुलि णीसहेहिं अंगेहिं पुणरुत्तं, अयि स्वपिषि पांसुले निःसहैरङ्गैः कृतकरणम् // 53 / / हु खु निश्चयविस्मयवितर्के / / 54 / / हु और खु ये (अव्यय) निश्चय, इत्यादिमें प्रयुक्त करें। उदा.निश्चयमें-तं पि हु अछिण्णसिरं / तं खु सिरीऍ रहस्सं। विस्मयमें-को खु एसो सहाससिरो। वितर्क यानी ऊह या संशय। ऊहमें-न हु नवरसग्गहिआ एवं खु हसइ / संशयमें-जलधरो धूमो खु। संभावनमेंभी (हु और खु प्रयुक्त करें)। उदा.-तरि ण हु णवर इमं / एवं खु तुम हसइ / बहुलका अधिकार होनेसे, अनुस्वारके आगे हु शब्द प्रयुक्त न करें // 54 // णवि वैपरीत्ये / / 55 // णवि ऐसा (अव्यय) वैपरीत्यमें प्रयुक्त करें। उदा.-णवि लोअणो // 55 // वेव्वे विषादभयवारणे // 56 // वेव्वे ऐसा (अव्यय) विषाद, इत्यादिमें प्रयुक्त करें / उदा.-विषादमेंउल्लाविरीइ वेव्वे त्ति तीऍ मणि ण विम्हरिमो, किं उल्लापयन्त्या उत, खिद्य
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हिन्दी अनुवाद- अ. २, पा. १
मानया त्वया वेल्वे इति भणितं न विस्मरामः। भयमें-वेव्वे पलाइदं तेण । निवारणमें-उल्लाविरीइ वि तुमं वेल्वे ति मयच्छि कि णेअं। यहाँ उल्ला विरीइ का संबंध स्वप्नमें घटी हुई घटनाके साथ है ॥ ५६ ।। आमन्त्रणे वेव्वे च ।। ५७ ॥
___और वेल्वे ऐसा (अव्यय) आमंत्रणमेंभी प्रयुक्त करें। उदा.-वेव्वे गोले । वेव्वे मुरन्दले वहसि पाणि ॥ ५७ ॥ वा सख्या मामि हला हले ॥ ५८ ॥
(इस सूत्रमें २.१.५७ से) आमंत्रणे पद (अध्याहृत) है। सखीको आमंत्रण इस अर्थमें, मामि, हला और हले ऐसे (शब्द) विकल्पसे प्रयुक्त करें। उदा.-मामि सरिसक्खराण वि। पणवह माणस्स हला। हला सउन्दले । हले हआसे। विकल्पपक्षमें-सहि, एरिस चिअ गई॥५८।। दे संमुखीकरणे च ॥ ५९ ॥
संमुखीकरण और सखीको आमंत्रण इनमें दे ऐसा (शब्द) प्रयुक्त करें। उदा.-दे पसिअ णिअत्तसु सुंदरि, यावत् प्रसीद निवर्तस्व सुन्दरि । दे सहि ॥ ५९॥ ओ पश्चात्तापसूचने ॥६०॥
पश्चात्तापमें और सूचनामें ओ ऐसा (अव्यय) प्रयुक्त करें। उदा.पश्चात्तापमें- ओ पच्चाअन्तिआए। सूचनामें-ओ अविणयत्तिल्लो। परिकल्प अर्थमें, उत का जो आदेश ओकार, उससे ही यह कार्य सिद्ध होता है। उदा.-ओ विरएमि णहअले ॥ ६० ॥ अण णाई नअर्थे ।। ६१ ॥
नकारके अर्थमें (नगर्थे) अण, णाई ये (शब्द) प्रयुक्त करें। उदा.अणचिंति मुणन्ति, अचिन्तितं जानन्ति । णाई करेमि रोसं, न करोमि रोषम् ॥ ६१ ॥
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त्रिविक्रम-प्राकृत व्याकरण
निश्चयनिर्धारणे वले ।। ६२ ।।
निश्चयंमें और निर्धारणमें वले ऐसा (अव्यय) प्रयुक्त करें। उदा.निश्चयमें-वले मीहो, सिंह एवायम् । निर्धारणमें-वले पुरिसो धणंजओ खत्ति आणं, पुरुषो धनंजय एव क्षत्रियाणाम् ।। ६२ ॥ मणे विमर्श ।। ६३ ॥
विमर्शमें मणे ऐसा प्रयुक्त करें । उदा.-मणे सूरो, किंस्वित् सूर्यः। मन्ये (मुझे भाता है) यह अर्थभी 'मन्ये'से दिखाया जाता है, ऐसा कोई मानते हैं ॥ ६३ ॥ माई मार्थे ।। ६४ ।।
माई ऐसा मा (मन) अर्थमें प्रयुक्त करें। उदा.-माई काहीअ रोसं, मा कार्षीद् रोषम् ॥ ६४ ॥ अलाहि निवारणे ।। ६५ ॥
____ अलाहि ऐसा (अव्यय) निवारणमें प्रयुक्त करें। उदा.-अलाहि विसाएण, अलं विषादेन ।। ६५ ।। लक्षणे जेण तेण ।। ६६ ।।
लक्षण दिखाते समय जेण तेण ये (दो शब्द) प्रयुक्त करें। उदा.भमररु जेण कमलवणं । भमररुअं तेण कमलवणं ॥ ६६ ॥ त्वोदवापोताः ॥ ६७ ।। - अब और अप ऐसे ये उपसर्ग, और विकल्प अर्थ दिखानेवाला निपात उत, (उनके स्थानमें) ओ ऐसा (आदेश) विकल्पसे प्रयुक्त करें। उदा.-ओआरो अवतारः या अपकारः । ओ विरएमि णहत्थले, उत विरचयामि नभःस्थले । विकल्पपक्षमें-अवआरो। इत्यादि । ६७ ॥ उ ओ उपेः ।। ६८ ॥
उप ऐसा उपसर्ग उ और ओ ऐसे दो प्रकारसे प्रयुक्त करें। उदा.उधारो ओआरो उपकारः ।। ६८ ।।
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हिन्दी अनुवाद-अ.२, पा. १ प्रत्येकमः पडिएक्कं पाडिक्कं ॥ ६९ ।।
प्रत्येकम् इस अर्थमें पाडिएक्कं और पाडिक्कं ऐसे (शब्द) विकल्पसे प्रयुक्त करें। उदा.-पाडिरक्कं। पाडिकं । विकल्पपक्षमें-पच्चे ॥६९।। स्वयमोऽर्थे अप्पणा ।। ७० ॥
_ स्वयं के अर्थमें अप्पणा ऐसा (शब्द) विकल्पसे प्रयुक्त करें। उदा.विस विअसंति अप्पणा कमलवणा। विकल्पपक्षमें-सअं चिअ मुणसि करणिज्जं, स्वयमेव जानासि करणीयम् ।। ७०॥ एकसरि झटिति संप्रति ।। ७१ ।।
झटिति अर्थमें और संप्रति अर्थमें एक्कसरिअं ऐसा (शब्द) विकल्पसे प्रयुक्त करें । उदा.-एक्कसरिअं झटिति या संप्रति । विकल्पपक्षमें— झत्ति । संपइ ।। ७१ ।। इहरा इतरथा ।। ७२ ।।
इहरा ऐसा (अव्यय) इतरथा (अन्यथा) के अर्थमें प्रयुक्त करें । उदा.इहरा नीसामन्नेहिं । विकल्पपक्षमें-इअरहा ।। ७२ ।। मुधा मोरउल्ला ।। ७३ ।।
मुधा के अर्थमें मोरउल्ला ऐसा (शब्द) विकल्पसे प्रयुक्त करें। उदा. मोरउल्ला। विकल्पपक्षमें-मुहा ।। ७३ ।। अयि ऐ ॥ ७४ ।।
अयि के अर्थमें ऐ ऐसा (शब्द) विकल्पसे प्रयुक्त करें। उदा.ऐ बीहेइ ! ऐ उम्मत्तिए । ऐसे इस विधानकेही कारण, ऐकारका भी प्राकृतमें प्रयोग होता है ।। ७४ ।। उअ पश्य ।। ७५ ॥
पश्य के अर्थमें उअ ऐसा (अव्यय) प्रयुक्त करें। उदा.-उअ णिच्चलणिफंदा। विकल्पपक्षमें-ओअच्छ, इत्यादि पश्यत इस अर्थमें (होते
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११८
त्रिविक्रम प्राकृत व्याकरण
हैं) । और उवह ऐसा भी (पश्य अर्थ में) दिखाई देता है । उदा. - उवह गोट्ठमज्झम्मि ।। ७५ ।।
इजेराः पादपूरणे ।। ७६ ॥
उदा.
इ, जे, र ऐसे ये (शब्द) पादपूरणके लिए प्रयुक्त करें । अणा इ । अच्छी इ । अण्णेक्क इ । रूवं तु जे गब्भइ । कलमगोवी र । अहो, हंहो, हा, नाम, इत्यादि संस्कृतसमके रूपमेंही सिद्ध होते हैं P ।। ७६ ।।
प्याद्याः ।। ७७ ॥
पि, इत्यादि ( अपने अपने ) मूल अर्थ में प्राकृत में प्रयुक्त करें । उदा.पि यह अव्यय अपि के अर्थ में (प्रयुक्त करें ) ।। ७७ ।।
- द्वितीय अध्याय प्रथम पाद समाप्त
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द्वितीयः पादः वीप्सात्तिदचि सुपो मस्तु ।। १ ।। ___ वीप्सार्थी पदके आगे होनेवाले विभक्ति-प्रत्ययके स्थान पर, तदचि यानी उस वीप्सार्थ वाचकसे संबंधित रहनेवाला स्वर आगे होनेपर, म विकल्पसे (बीचमें) आता है। उदा.-एकैकम् एकमेकं । एकैकेन एक्कमेक्केण । अंगे अंगे अंगमंगम्मि। विकल्पपक्षमें-एक्केकं इत्यादि ।। १॥ अमः ।। २ ।। . (इस सूत्रमें २.२.१ से) सुपः पदकी अनुवृत्ति है। संज्ञाके आगे आनेवाले विभक्तिप्रत्ययसे संबंधित होनेवाले अमः यानी द्वितीया एकवचनके स्थानपर मकार आता है। उदा.-वच्छं। मालं। गिरिं । गामणिं । तरूं। वहुं ।।२।। ग्जश्शसोः
___संज्ञाके आगे होनेवाले जस् और शस् इन दोनोंका लोप होता है। (सूत्रके श्लक्में) श् इत् होनेसे, पिछला (पूर्व) स्वर दीर्घ होता हैं । उदा.वच्छा । माला । गिरी। गोरी। गामणी । तरू। वहू चिट्ठन्ति पेच्छ वा ॥३॥ णशामः ॥ ४ ॥
. संज्ञाके आगे आनेवाले षष्ठी बहुवचनके आम् (प्रत्यय) को णश ऐसा आदेश होता है । (सूत्रके णश्में) श् इत् होनेसे, पूर्व स्वर दीर्घ होता है। उदा.-वच्छाण । वणाण। मालाण। गंगाण । गिरीण। दहीण । बुद्धीण । गामणीण । सुधीण । गोरीण । तरूण । महण । वहूण । 'क्त्वासुपोस्तु सुणात् ' (१.१.४३) सूत्रानुसार, विकल्पसे अनुस्वार आनेपर - वच्छाणं । गिरीणं । इत्यादि ।। ४ ।।
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१२०
हि हि हि भिसः || ५ ॥
संज्ञाके आगे आनेवाले भिस् प्रत्ययके सानुस्वार हि, सानुनासिक हि और केवल हि होते हैं । उदा - वच्छेहिं वच्छेहिँ वच्छेहि । धणेहिं धणेहिं धणेहि । मालाहि मालाहिँ मालाहि । गिरीहिं गिरीहिं गिरीहि । बुद्धीहिं बुद्धीहिँ बुद्धीहि । दहीहं दहीहिँ दहीहि । गामणीहिं गामणीहिँ गामणीहि । गोरीहिं गोरीहिँ गोरीहि । तरूहि तरूहिँ तरूहि । घेणूहिं घेणूहिँ घे । वहिं वहिँ वहूहि । महूहिँ महूहिँ महूहि । इत्यादि ॥ ५ ॥
त्रिविक्रम - प्राकृत व्याकरण
हितोत्तोदोदु ङसिस् || ६ ॥
1
संज्ञाके आगे होनेवाले ङसि यानी पंचमी विभक्तिके प्रत्ययोंको तो, द्विरुक्त तो (= तो), दो और दु ऐसे चार आदेश प्राप्त होते हैं उदा. - वच्छाहिंतो । 'भिस्म्यस्सुपि ' (२.२.२१) सूत्रानुसार, (संज्ञा शब्द के अन्त्य अकारका) ए होनेपर - वच्छेहिंतो । वच्छत्तो । वच्छादो। वच्छादु (यानी) वृक्षात् अथवा वृक्षेभ्यः || दहीहिंतो | दहित्तो | दहीदो । दहीदु || गोरी - तो । गोरितो । गोरीदो । गोरीदु ॥ तरूहिंतो । तरुतो । तरूदो | तदु ।। महिंतो । महुत्तो । महूदो । महूदु । घेणाहतो | घेणुत्तो। घेणूदो ।
1
1
दु || दो और दु इनमेंसे दकार अन्य भाषा के लिए है । इसलिए शौरसेनी और मागधी भाषाओं में - मलअकेदूदो मलअकेदूदु मलयकेतोः । पैशाची भाषा में, 'तख्तदो:' ( ३.२.४६) सूत्र तकार के लिए है। इसलिएगिरीतो । इसी प्रकार धन, माला, गिरि, बुद्धि, ग्रामणी, तरु, वधू, इत्यादि शब्दों के रूप होते हैं ॥ ६ ॥
सुंतो भ्यसः ॥ ७ ॥
पंचमी बहुवचन-प्रत्ययको सुंतो ऐसा आदेश होता है | उदा.वच्छासुतो वच्छेतो। घणाÇतो घणेसुंतो । माला सुंतो । गिरीसुंतो । दहीसुतो । गामणीसुंतो । इत्यादि ॥ ७ ॥
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हिन्दी अनुवाद-अ. २, पा. २
१२१
दिर्दोत्तोदु ङसौ ॥ ८ ॥
दो, तो, दु ये पंचमीके आदेश, और ङसि यानी पंचमी एकवचनका प्रत्यय, ये आगे होनेपर, पूर्व स्वर दीर्घ होता है। उदा.-वच्छाओ वच्छत्तो। 'संयोगे' (१.२.४०) सूत्रानुसार, दीर्घ होनेपरभी (वच्छत्तोमें) -हस्व होता है; तथापि यहाँ उसका ग्रहण करनेका कारण (यहाँ) एत्व (होने) का बाध हो । ङसि कहनेपर, (दो और दु प्रत्यय) सिद्ध होते हुए भी, दो और दु इसका जो ग्रहण किया है वह भी एत्वको अपवाद हो इसलिए । उदा.वच्छाउ वच्छाहिंतो वच्छाहि ॥ धणाओ धणत्तो धणाउ धणाहितो धणाहि ।। गिरीओ गिरित्तो गिरीउ गिरीहितो गिरीहि । गोरिओ गोरित्तो गोरीउ गोरीहि ।। दहीओ दहित्तो दहीउ दही हंतो दहीहि ।। बुद्धीओ बुद्धित्तो बुद्धीउ बुद्धीहितो बुद्धीहि ।। गामणीओ गामणित्तो गामणीउ गामणीहितो गामणीहि । तरूओ तरुत्तो तरूउ तरूहिंतो तरूहि ।। महूओ महुत्तो महूउ महूहिंतो महूहि । घेणूओ घेणुत्तो घेणूउ धेहितो घेणुहि ।। वडूओ वहुत्तो वहूउ वाहतो वहूहि ।। ८॥ सोलुक् ।। ९॥
संज्ञाके आगे होनेवाले सु का (यानी) प्रथमा एकवचन-प्रत्ययका लोप होता है। उदा.-हे देव । हे गंगे। हे गोरि । हे लच्छि। हे गामणि । हे वहु ।। ९॥ उसोऽस्त्रियां सर् ॥ १० ।।
___ङस् को (यानी) षष्ठी एकवचन प्रत्ययको स आदेश होता है; किंतु वह अस्त्रियां यानी स्त्रीलिंग शब्दकेबारेमें नहीं होता। (सूत्रके सर में) र . इत् होनेसे, (स का) द्वित्व होता है। उदा.-वच्छस्स । धणस्स । गिरिस्स। दहिस्स । गाणिस्स। तरस्स । महुस्स । स्त्रीलग-शब्दोंमें नहीं होता, ऐसा क्यों कहा है ? (कारण स्त्रीलिंगशब्दोंको स्स प्रत्यय नहीं लगता)। उदा.-गंगाए । गोरीए। घेणूए । वहूए ।। १० ।।
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१२९
त्रिविक्रम-प्राकृत व्याकरण मिर ॥ ११॥
स्त्रीलिंगमें न होनेवाली संज्ञाके आगे सप्तमी एकवचन प्रत्ययको मिर् ऐसा आदेश होता है। (मिर् में) र् इत् होनेसे, (मि का) द्वित्व होता है। उदा.-वच्छम्मि। धणम्मि । गिरिम्मि। दहिम्मि । तरुम्मि। महुम्मि । स्त्रीलिंगमें न होनेवाले (संज्ञाके आगेही म्मि आदेश होता है; स्त्रीलिंग--- शब्दके आगे नहीं) उदा.- मालाए। बुद्धीए । घेणूए । वहए ॥११॥ अतो डो विसर्गः ।। १२ ॥
_अकारान्त (शब्दों) के आगे विसर्गका डित् ओकार होता है । उदा.-सर्वतः सव्वओ। पुरतः पुरओ। अग्रतः अग्गओ। इसी प्रकार सिद्धावस्थामेंसे शब्दोंकी अपेक्षासे । उदा.-भवतः भवओ। भवन्तः भवन्तो। सन्तः सन्तो। कुतः कुओ ।। १२ ।। सोः ॥ १३ ॥
(इस सूत्रमें २.२.१२ से) अतः पदकी अनुवृत्ति है। (शब्दोंके अन्त्य) अकारके आगे सु (प्रथमा एकवचन) प्रत्ययके स्थान पर डो (डित्. ओ) होता है। उदा.-वच्छो । देवो ॥ १३ ॥ वैतचदः ॥ १४ ॥
अकारान्त एतद् और तद् (सर्वनामों) के आगे सु का डो (ढित् ओ) विकल्पसे होता है। उदा.-एसो एस । सो स ।। १४ ।। . ङसेः श्लुक् ।। १५ ।। .. (इस सूत्रमें २.२.१४ से) वा पदकी अनुवृत्ति है। (शब्दोंके. । अन्त्य) अकारके आगे ङसि (पंचमी ए. व.) प्रत्ययका श्लक विकल्पसे होता है। (श्लक में) श इत् होनेसे, पूर्व स्वर दीर्घ होता है। उदा.-वच्छा । धणा। विकल्पपक्षमें-वच्छााहतो वच्छत्तो वच्छाओ वच्छाउ वच्छाहि.
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हिन्दी अनुवाद-म. २, पा.२
१२३
ङ. ।। १६ ॥
(शब्दोंके अन्त्य) अकारके आगे सप्तमी एकवचनका डित् ए विकल्पसे होता है। उदा.-वच्छे । धणे । विकल्पपक्षमें-वच्छम्मि । धणम्मि
उसिसो हि ॥ १७ ॥
(शब्दोंके अन्त्य) अकारके आगे ङसिस्को यानी पंचमीको हि ऐसा (आदेश) विकल्पसे होता है। उदा.-वच्छाहि। धगाहि । भ्यस प्रत्ययके पूर्व (अन्त्य अकारका) ए होनेपर-वच्छेहि । धणेहि । विकल्पपक्षमें-हिंतो, त्तो, दो, दु, ये (आदेश होतेही हैं)।। १७ ।। टो डेणल् ॥ १८ ॥
(शब्दोंके अन्त्य) अकारके आगे टा-(तृतीया एक) वचनको डित् एण ऐसा आदेश होता है। (सूत्रके डेणल्में) ल् इत् होनेसे, (यह आदेश) नित्य होता है। उदा.-वच्छेण । धणेण। (क्वासुपोस्तु सुणात् । १.१. ४३ सूत्रानुसार) अनुस्वार आनेपर-वच्छेणं । धणेणं । (ऐसे रूप होंगे) ।। १८ ।।
दिर्वा भ्यसि ।। १९॥
_ (अबतक) अतः ऐसा जो पंचम्यन्त पद था (देखिए २.२.१२), वह (अब) षष्ठयन्त विभक्तिमें परिणत होता है। भ्यस् का आदेश (आगे) होनेपर, अत् का दि यानी दीर्घ विकल्पसे होता है। उदा.-वच्छाहितो वच्छेहितो। वन्छ।सुतो वच्छेसुतो। वच्छा हि वच्छेहि। त्तो, दो, दु (ये आदेश आगे होनेपर), दीर्घ होताही है (सूत्र २.२.८ देखिए) ।। १९ ।। शस्येत् ॥ २० ॥
. (शब्दोंके अन्त्य) अकारका शस् प्रत्यय आगे होनेपर, ए विकल्पसे होता है। उदा.-वच्छे वच्छा पेच्छ ।। २० ॥ .
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१२४
त्रिविक्रम -
- प्राकृत व्याकरण
भिस्म्यसुपि ॥ २१ ॥
भिस्, भ्यस् और सुप् ये (प्रत्यय) आगे होनेपर, (शब्दों के अन्त्य ) अ का ए होता है । यह सूत्र ( २.२.२० से ) पृथक् कहा जानेसे, (यहाँका ए) नित्य होता है । उदा - भिस् ( आगे होनेपर ) - वच्छेहिं । म्यसु (आगे होनेपर ) - बच्छेहिंतो वच्छेसुतो । वच्छेहि । तो, दो, दु (प्रत्यय) आगे होनेपर दी ही होता है । सुप् ( आगे होनेपर ) - वच्छेसु ।। २१ ॥
"
इदुतोर्दिः ।। २२ ।।
भिस्, म्यस् और सुप् (ये प्रत्यय) आगे होनेपर, ( शब्दों के अन्त्य ) इ और उ इनका दिः यानी दीर्घ होता है । उदा. - भिस् ( आगे होनेपर ) - गिरीहिं गिरीहि । इसी तरह - बुद्धीहिं । तरूहिं | घेहिं । महूहिं । भ्यस् ( आगे होनेपर ) - गिरीहिंतो । गिरीसुंतो । गिरीओ गिरीउ । इसी तरहबुद्धीओ । गामणीओ । तरुओ । महूओ आअअं । सुप् ( आगे होनेपर ) - गिरीसु । दहीसु । गामणीसु । तरूयुं ठिअ । कचित् (ऐसा दीर्घ) नहीं होता | उदा. - दिअभूमिसु दाणजल दिआई, द्विजभूमिषु दानजलार्दितानि । इ और उ इनका, ऐसा क्यों कहा है ? ( कारण अकार के बारेमें ऐसा नहीं होता ।) उदा.- वच्छेहि । वच्छेसुंतो । वच्छेषु ।। २२ ।।
चतुरो वा ।। २३ ।
उकारान्त चतुर् शब्दके आगे भिस्, भ्यस्, सुप् (प्रत्यय) होनेपर, दीर्घ विकल्पसे होता है । उदा. - चउहि चउहि । चउहिंतो चऊहिंतो । चउसु चऊसु ॥ २३ ॥
पुसो जसो डउडओ ॥ २४ ॥
(अब) इदुत: (देखिए २. २. २२) पदका पंचग्यन्त परिणाम होता है । पुलिंग शब्दों में से (अन्त्य) इ और उ इनके आगे आनेवाले जस् (प्रत्यय) को डित् अउ और अओ ऐसे ये (आदेश) विकल्पसे होते हैं । उदा.अग्गउ अग्गओ । वाअउ वाअओ । विवल्पपक्ष में- अग्गी अग्गिणो । वाऊ
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हिन्दी अनुवाद - अ. २, पा. २
१२५.
बाउणो । पुल्लिंग शब्दोंमें, ऐसा क्यों कहा है ? ( कारण अन्यलिंग शब्दों में ऐसा नहीं होता) | उदा. - बुद्धीइ | दही । इ और उ इनके आगेही (ऐसे आदेश होते हैं; अकारान्त शब्द के आगे नहीं ) | उदा.- वच्छा ।। २४ ॥ डवो उतः ।। २५ ।।
(इस सूत्र में २.२.२४ से) पुंसः और जसः पद (अध्याहृत ) हैं । पुल्लिंग - शब्द मेंसे ( अन्त्य) उ के आगे आनेवाले जस् (प्रत्यय) को डित् अवो ऐसा (आदेश) विकल्पसे होता है । उदा.- वाअवो। विकल्पपक्षमेंवाअओ वाऊ वाउणो । ( अन्त्य) उ के आगे, ऐसा क्यों कहा है ? (कारण अकारान्त पुल्लिंगशब्दों में ऐसा नहीं होता) । उदा. बच्छा । पुल्लिंग - शब्द में, ऐसा क्यों कहा है ? ( कारण उकारान्त स्त्रीलिंगशब्द में ऐसा नहीं होता ) | उदा. - घेउ । बहूउ ।। २५ ।।
णो शसश्च ।। २६ ।।
(यह सूत्र ) पृथक् कहा जानेसे, इत् और उत् इन दोनोंका ग्रहण यहाँ होता है । (शब्दों के अन्त्य ) इत् और उत् इनके आगे आनेवाले जस् (प्रत्यय) को और शस् (प्रत्यय) को णो ऐसा आदेश होता है । उदा.गिरिणो तरुणो चिट्ठन्ति पेच्छवा । विकल्पपक्ष में- गिरी । तरू ।। (इकारान्त और उकारान्त शब्द) पुल्लिंग में होनेपरही ऐसा आदेश होता है; (अन्य लिंग में होनेवर, ऐसा आदेश नहीं होता) | उदा. - बुद्धी । घेणू | दहीहं । महूई ॥ २६ ॥
"
नृनपि ङसिङसोः || २७ ॥
पुल्लिंग और नपुंसकलिंग ( शब्दों में ( अन्त्य स्थानपर) होनेवाले इ और उ इनके आगे आनेवाले ङसि और ङस् (प्रत्ययों ) को णो ऐसा आदेश विकल्पसे होता है | उदा. - गिरिणो तरुणो आगओ विआरो वा । विकल्पपक्षमें - ङसि (आगे होनेपर ) - गिरीओ । तरूओ । दहीओ । महूओ । डस् ( आगे होनेपर ) – गिरिस्त | तरुम्स । दहिस्स । महुस्स । नृनफि
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१२६
त्रिविक्रम-प्राकृत व्याकरण यानी : पुल्लिंगमें और नपुंसकलिंगमें (इकारान्त और उकारान्त शब्द) होनेपर, ऐसा क्यों कहा है ? (कारण ऐसे स्रीलिंगशब्दोंमें यह आदेश नहीं होता)। उदा.-बुद्धीर । धेणूए । ङसि और उस (प्रत्ययों) को, ऐसा क्यों कहा है ? (कारण अन्य विभक्तिप्रत्ययोंको ऐसा आदेश नहीं होता।) उदा.-रिद्धी ।समिद्धी । दिढें । इ और उ इनके आगे ही ऐसा आदेश होता है (अन्य स्वरों के आगे नहीं)। उदा.-कमले। कमलस्स ।। २७ ।। टोणा ।। २८ ।।
पुल्लिंग और नपुंसकलिंग (शब्दों)में (अन्त्य) होनेवाले इ और उ इनके आगे टा-(तृतीया एकवचनका णा होता है। उदा.-गिरिणा । दहिणा। गामणिणा। तरुणा। महुणा । खलपुणा । नृनपि यानी : पुल्लिंग
और नपुंसकलिंग (शब्दों) मेंही ऐसा होता है (अन्यथा नहीं)। उदा.बुद्धीए। घेणए । इ और उ इनके आगेही ऐसा होता है (अन्य स्वरोंके आगे नहीं)। उदा.-कमलेण ।। २८ ॥ इलुगनपि सोः ।। २९ ।।
(शब्दोंके अन्त्य) इ और उ इनके आगे आनेवाले सु (प्रत्यय) का शानुबंध लोप होता है। अनपि यानी (इकारान्त और उकारान्त) नपुंसकलिंग (शब्दों) में (ऐसा लोप) नहीं होता। उदा.-गिरी। बुद्धी। तरू । धे। नपुंसकलिंग-(शब्द) में (लोप) नहीं होता, ऐसा क्यों कहा है ? (कारण वहाँके रूप ऐसे)-दहिं। महुं ॥ २९ ॥ मङ्लुगसंबुद्धेर्नपः ॥ ३० ।।
. (अब) इदुतः पदकी निवृत्ति हुई। नप: यानी नपुंसकलिंग (शब्द) के आगे आनेवाले सु (प्रत्यय) का मकार और डानुबंध लोप होते हैं; आमंत्रण (संबोधन) इस अर्थमें (होनेवाले सु का ऐसा) नहीं होता। उदा.वणं । दहिं । महुँ । पर दहि, महु ये रूप मात्र सिद्धावस्थाकी अपेक्षासे हैं। बहुलका अधिकार होनेसे, अकारान्त शब्दके आगे लोप नहीं होता॥३०॥
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हिन्दी अनुवाद- -अ. २, पा. २
निशिशिङ् जश्शसोः ॥ ३१ ॥
(इस सूत्र में २.२.३० से ) नप: पदकी अनुवृत्ति है । नपुंसकलिंगशब्द के आगे आनेवाले जंसू और शस इन प्रत्ययोंको शू अनुबंध होनेवाले श्नि, शिं और शिड् ऐसे तीन आदेश प्राप्त होते हैं । शकार दीर्घके लिए है । ङकार सानुनासिक उच्चार के लिए है । उदा. वणाणि वणाई वणाँई । गुणाणि गुणाई गुणाइँ चिट्ठन्ति पेच्छ बा । इसी तरह दहि, महु, बिन्दु, इत्यादि शब्दों के बारेमें । नपुंसकलिंग (शब्द) के आगेही ऐसे आदेश होते हैं (अन्यथा नहीं ) | उदा.-वच्छा ॥ ३१ ॥
शोशु स्त्रियां तु || ३२ ।।
"
(इस सूत्र में २.२.३१ से) जसू और शस् पद (अध्याहृत ) हैं । स्त्रीलिंगमें होनेवाले संज्ञाके आगे जस और शस् ये (प्रत्यय) शित् ओ और उ विकल्पसे होते हैं । (शू इत् होनेसे, पूर्व स्वर दीर्घ होता है) । उदा.मालाओ मालाउ । बुद्धीओ बुद्धीउ । इसी तरह सही घेणु, वहू, इत्यादि शब्दों के बारेमें । विकल्पपक्ष में- माला | बुद्धी । सही । घेणू । वहू | स्त्रीलिंग में (होनेबाले), ऐसा क्यों कहा है ? ( कारण अन्य लिंगमें ऐसा नहीं होता) । उदा . - वच्छा । जसु और शस्, ऐसा क्यों कहा है ? (कारण - इतर प्रत्ययों के ऐसे विकार नहीं होते) । उदा. -मालाए कअं ।। ३२ ॥
आदीतः सोश्च ।। ३३ ॥
(इस सूत्र में २.२.३२ से) स्त्रियां पदकी अनुवृत्ति है । होनेवाले ईकारान्त संज्ञाके आगे सु (प्रत्यय) का तथा सूत्रमेंसे कारण जस् और शस् (प्रत्ययों) का आ विकल्पसे होता है । इसन्तीआ । जस् और शस्- गोरीआ रोहन्ति पेध्छ वा । इसन्तीओ। गोरीओ ॥ ३३ ॥
૨૦
स्त्रीलिंग में
चकार के
उदा. - एसा विकल्पपक्ष में
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૩૨૮
ङसेः शशाशिशे ।। ३४ ॥
स्त्रीलिंग में होनेवाली संज्ञा के आगे ङसि प्रत्ययको शित् अ, आ, इ और ए ऐसे चार आदेश विकल्पसे होते हैं । उदा.- मालाअ मालाइ मालाए । गोरी गोरीआ गोरी गोरीए । इसी तरह घेणु, वहू इनके बारेमें | विकल्पपक्ष में- मालाहिंतो । मालत्तो । मालाओ । मालाउ । इसी तरह बुद्धीहिंतो, इत्यादि ॥ ३४ ॥
त्रिविक्रम - प्राकृत व्याकरण
टाङिङसाम् || ३५ ॥
1
(इस सूत्र में २.२.३२ से) शशा शिशे पदकी अनुवृत्ति है । स्त्रीलिंग में ( होनेवाली) संज्ञा के आगे टा, ङि और ङस् इन प्रत्ययों) के स्थानपर शित् अ, आ, इ और ए ऐसे ये आदेश होते हैं । यह सूत्र ( २. २.३४ से) पृथक् कहा जानेसे, (ये आदेश ) नित्य होते हैं। उदा.-जाआअ जाआइ जाआए कअं ठिअ मुहं वा । (आगे) क - प्रत्यय होनेपर - जाइआ जाइआइ जाइआए । बुद्धिआअ बुद्धिआआ बुद्धिआइ बुद्धिआए । (आगे) क-प्रत्यय न होनेपर - बुद्धी बुद्धीआ बुद्धोइ बुद्धीए कअं ठिअं वअणं वा । स्त्रीलिंग में ( होनेवाली), ऐसा क्यों कहा है ? ( कारण अन्य लिंगमें ऐसे आदेश नहीं होते) । उदा. - वच्छेण । वच्छमि । त्रच्छस्स ॥ ३५ ॥
नातः था ।। ३६ ।।
स्त्रीलिंगमें होनेवाली संज्ञाके आगे टा, ङि और ङस् इन (प्रत्ययों ) का प्राप्त हुआ शा यानी शित् आकार, वह आकारान्त स्त्रीलिंग) संज्ञाके आगे नहीं आता । उदा. - मालाअ मालाइ मालाए कअं ठिअ मुहं वा ॥ ३६ ॥ पुंसोऽजातेब्वा ॥ ३७ ॥
जातिवाचक न होनेवाले पुल्लिंग - शब्दोंके आगे स्त्रीलिंग में आनेवाला ढी प्रत्यय विकल्पसे आता है । उदा. - नीली नीला । काली काला | इसमाणी हसमाणा । सुप्पणही सुप्पणछा । इमीए इमाए । इमीणं इमाणं । एईए एआए । एईणं एभणं । - जातिवाचक न होनेवाला, ऐसा क्यों कहा है ? (कारण जातिबाचक होने पर, डीपू प्रत्यय विकल्पसे नहीं आता ।) उदा. - अआअ भमाइ
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१२९
हिन्दी अनुवाद-अ. २, पा. २ भआए। (जहाँ यह प्रत्यय) प्राप्त नहीं होता, वहाँ यह विकल्पका नियम हैं; इसलिए गौरी, कुमारी, इत्यादि शब्दोंमें संस्कृतकी तरह (यह प्रत्यय) नित्य आता है ।। ३७॥ . भीष्प्रत्यये ॥ ३८ ॥
(इस सूत्रमें २.२.३७ से) वा पदकी. अनुवृत्ति है। ‘टिड्ढाणम्' (पा. ४.१.१५) इत्यादि सूत्रानुसार, प्रत्यय-निमित्तसे जो डीप प्रत्यय कहा गया है, वह स्त्रीलिंगमें होनेवाली संज्ञाओंको विकल्पसे लगता है । उदा.--साहणी साधनी । कुरुअरी। विकल्पपक्षमें---विकल्पके सामर्थ्यसेही टाप (प्रत्यय लगता है)। उदा:- साहणा। कुरुअरा ।। ३८ ॥ हरिद्राच्छाये ।। ३९॥
(हरिद्रा और छाया) इन शब्दोंमें डीप् (प्रत्यय) विकल्पसे आता है । उदा.-.हलदी हलद्दा। छाही छाहा ॥ ३९ ॥ किंयत्तदोऽस्वमामि सुपि ।। ४० ।।
म, अम् और आम् प्रत्ययोंको छोडकर, अन्य विभक्तिप्रत्यय आगे होनेवर, किम्, यद् और तद् इन (सर्वनामों)के आगे स्त्रीलिंगमें डीप (प्रत्यय) विकल्पसे आता है। उदा.- कीओ काओ। कीए काए । कीसु कासु ।। जीओ जाओ। जीए जाए। जीसु जासु ।। तीओ ताओ। तीए ताए । तीसु तासु ॥ सु,अम् , आम् प्रत्ययाको छोडकर, ऐसा क्यों कहा है !
कारण इन प्रत्ययोंके पूर्व डीप विकल्पसे नहीं आता)। उदा.-का। बासा। कंजं। तं। काणं । जाणं । ताणं ॥ ४० ॥ स्वसृगाव डाल ।। ४१ ।।
स्त्रीलिंगमें होनेवाले स्वसू, इत्यादि शब्दोंके आगे डित् मा प्रत्यय आता है । (सूत्रके डाल्में) ल इत होनेसे, (यह प्रत्यय) नित्य आता है। हदा.-ससा | गणन्दा। दुहिआ हिमाहि । दुहिभातु ॥ ११ ॥
त्रि.वि ....
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त्रिचिंक्रम-प्राहस-याकरण
मेशलुको तु संधुद्धे ॥ १२ ॥
'सोः' (२.२.१३) इस सूत्रसे प्राप्त हुआ डो, और 'इलगनर्षि सोः' (२.२.२९) इस सूत्रसे जो श्लक् कहा गया, वे दोनों, संबुद्धि पानी आमंत्रण इस अर्थमें होनेवाले सु (-प्र. ए. व.) प्रत्ययके विकल्पसे होते हैं। उदा.-हे देव, हे देवो । हे अज, हे अजो। श्लम (का उदाहरण)। हे हरि, हे हरी । हे गुरु, हे गुरू । हे बुद्धि, हे बुद्धी। हे वहु, हे वहू। जाइविसुद्धण पहू, जातिविशुद्धेन प्रभो। संबोधनके अर्यमें होनेवाले, ऐसा क्यों कहा है ! (कारण आमंत्रणके अर्थ में जब भव्ययोंका उपयोग होता है (देखिए २.१.५९), तब अगला प्रकार होता है)-दे कासवा । दे गोरा । रे रे पिलिआ। रे रे णिग्धणिआ॥१२॥ ऋदन्ताः ॥ १३ ॥
(इस सूत्रमें २.२.४२ से) संबुद्धेः पदकी अनुवृत्ति है। (हस्व) ऋकारान्त संज्ञाके आगे संबोधन (प्रत्यय) का डित् अ विकल्पसे होता है। उदा.-हे पितः हे पिभ । हे. दातः हे दा॥ ४३ ॥ नाम्नि डरम् ।। १४ ॥
नामवाचक यानी संज्ञावाचक (इस्व) ऋकारान्त शन्दोंके बाये संबोधन (प्रत्य को डित् अरं ऐसा (आदेश) विकल्पसे होता है। उदा.हे पितः हे पिरं । विकल्पपक्षमें-- हे पिअ । नाम (संज्ञा) वाचक, ऐसा क्यों कहा है। (कारण अन्यत्र ऐसा नहीं होता)। उदा. हे कत्तार ॥१४॥ टापो डे ॥१५॥
___टाप् प्रत्ययसे अन्त होनेवाले शब्दोंके आगे संबोधन (प्रत्यय) का डित् ए विकल्पसे होता है। उदा.-हे माले । हे अज्जे । विकल्पपक्षमेंहे माला। हे अज्जु । इत्यादि । टाप् प्रत्ययसे अन्त होनेवाले, ऐसा क्यों कहा है ?(कारण अन्यत्र ऐसा नहीं होता)। उदा.-हे पिउध्छा । हे माउछा।
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हिन्दी अनुवाद-अ.२, पा. २
१३१ बहूलका अधिकार होनेसे, क्वचित् ओ भी होता है। उदा.-अम्मो भणामि भणिए ।। ४५।। हबलीदूतः।। ४६॥
___ संबोधनके निमित्तसे, (शब्दों के अन्त्य) ई और ऊ लित् (=नित्य) हस होते हैं। उदा.-हे णइ । हे लच्छि । हे वहु ॥४६॥ किपः ॥ १७॥
अब संबुद्धेः पदकी निवृत्ति हो गई। किबन्त के रूपमें आनेवाले ई और ऊ इनका हस्व होता है। उदा.-गामणिणा । खलपुणा। गामणिसुंतो। खलपुहि ।। ४७ ।।
उदृतां त्वस्वमामि ॥ ४८ ॥
___अस्थमामि यानी सु, अम् और आम् प्रत्ययोंको छोडकर, अर्थात् अन्य विभक्ति-प्रत्यय आगे होनेपर, (हस्व) ऋकारान्त शब्दोंमें (ऋ का)उ विकल्पसे होता है। उदा.-जस् प्रत्यय (आगे होनेपर)-भत्त भत्तुणो भत्तओ भत्तउ । विकल्पपक्षमें-भतारा । शस् (प्रत्यय आगे होनेपर)-भत्त भत्तुणो। विकल्पपक्षमें-भतारा। टा (प्रत्यय आगे होनेपर)-भत्तुणा। (विकल्पपक्षमें) भत्तारेण । भिस् (प्रत्यय आगे होनेपर)-भत्तहिं । विकल्पपक्षमें-भत्तारोहिं । अति (प्रत्यय आगे होनेपर)-भत्तहितो भत्तुत्तो भत्तओ भत्तूउ भत्तूणो। विकल्पपक्षमें -भत्ताराहिंतो भत्तारत्तो भत्ताराउ भत्तारा भत्ताराहि । ङस् (प्रत्यय
आगे होनेपर)-भत्तुणो भत्तुस्स । विकल्पपक्षमें-भत्तारस्स। ङि (प्रत्यय आगे होनेपर)-भत्तुम्मि । विकल्पपक्षमें-भत्तारे। सुप् (प्रत्यय आगे होनेपर)भत्तसु । विकल्पपक्षमें:-भत्तारेसु । (ऋतां यानी ऋदन्तानां यह) बहुवचन व्याप्ति दिखानेके लिए है; इसलिए (वाङमयमें) दिखाई देगा वैसा संज्ञाओंमें (अन्त्य ऋ का) उ विकल्पसे होता है। उदा.-जस्, शस्, ङसि, ङस् (प्रत्यय आगे होनेपर उ होता है)। उदा.-पिउणो। जामाउणो। टा-भाउणा।
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१३२
त्रिविक्रम - प्राकृत-व्याकरण
1:
भिस-पिऊहिं । सुप्-पिऊसु । विकल्पपक्षमें पिआर, इत्यादि । और आin छोडकर, ऐसा क्यों कहा है ? ( कारण इन पूर्व ॠ का उ नहीं होता) । उदा. -सु-पिआ ।
अम्-पिअर ।
पिअराणं ॥ ४८ ॥
आर: सुपि ।। ४९ ॥
(स्व) ऋकारान्त शब्दों में (अन्त्य ऋ को), विभक्तिप्रत्यय आगे होनेपर, आर ऐसा आदेश विकल्पसे होता है | उदा. भत्तारो । भत्तारा । भत्तारं । भत्तारे । भत्तारेण । भतारेहिं । इसीप्रकार अन्य शब्दों के रूप उदाहरण के रूपमें लेना । लुप्त हुए विभक्तिकी अपेक्षासे 'भत्तार विहिअं' (ऐसा होता है ) || ४९ ॥
सु, अम्
प्रत्ययें। के
आम्
मातुरा अरा || ५० ॥
मातृ शब्द में (अन्त्य ऋ को) आ और अरा ऐसे आदेश होते हैं । उदा. -माआ. माअरा माआओ माअराओ । माआइ माअराइ | माअं माअरं । बहुलका अधिकार होनेसे, (मातृ शब्दका) माँ अर्थ होनेपर आ ( आदेश होता है) और देवता अर्थ होनेपर, अरा ( ऐसा आदेश होता है)। उदा. - माआर कुच्छिआए । णमो माअराणं । 'इदुन्मातुः ' (१.२.८२) सूत्रानुसार (मातृ में ऋ का ) उ होनेपर, माउणि ( ऐसा होगा ) । 'उद्यतां स्वस्वमामि' (२.२.४८) सूत्रानुसार (ऋका) उ होनेपर, माऊण माऊए (ऐसे रूप होंगे) । समत्तिअं वन्दे । सुप् प्रत्यय आगे होनेपरही (मातृमें ऋ को ऐसे आदेश होते हैं, अन्यथा नहीं ) । उदा. -माइदेवो । माइगणो
।। ५० ।।
संज्ञायामरः ।। ५१ ।।
संज्ञावाचक ऋकारान्त शब्दों के आगे विभक्ति प्रत्यय होनेपर, (ऋ को) अर ऐसा आदेश होता है । उदा. -पिअरा पिअरो । पिअरं । पिअरे । पिारेक पिअरेहिं । जामाअरो जामाअरा । नामाअरं जामाअरे । जामाअरेण जामाभरेहि ॥ ५१ ॥
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हिन्दी अनुवाद-अ.२, पा.२
- १३३
आ सौ वा ॥ ५२ ॥ - ऋकारान्त शब्दोंके आगे सु (प्र. ए. व.) प्रत्यय होनेपर, (ऋ का) आ. विकल्पसे होता है। उदा.-पिआ। माआ। जामाआ। भाआ। भत्ता । कत्ता। विकल्पपक्षमें-पिअरो। माअरो। जामाअरो। भाअरो। भत्तारो। कत्तारो ॥ १२॥ राज्ञः ।। ५३ ।।
(इस सूत्रमें २.२.५२ से) वा पदकी अनुवृत्ति है। राजन् शब्दमें न् का लोप होनेपर, (राजन् मेंसे) अन्त्य वर्णके आगे सु (प्र. ए.व.) प्रत्यय होनेपर, (उस अन्त्य वर्णका) आ विकल्पसे होता है। उदा.-राआ। हे राआ। विकल्पपक्षमें आण ऐसा आदेश होनेपर-राआणो। हे राआणो। हे राअं, ऐसा शौरसेनीमें होता है ॥ ५३॥ टोणा ।। ५४ ॥
(इस सूत्रमें २.२.५३ से) राज्ञः पदकी अनुवृत्ति है। राजन् शब्दके आगे आनेवाले टा (तृ. ए.) वचनको णा ऐसा आदेश विकल्पसे होता है। उदा.-रइणा रण्णा | विकल्पपक्षमें-राएण कअं ॥ १४ ॥ जशशस्ङसिङसां णोश् ॥ ५५ ॥
राजन् शब्दके आगे, जस् , शस्, डंसि और ङस् इन प्रत्ययोंको शित् णो ऐसा आदेश विकल्पसे होता है। उदा.-जस्-राआणो चिट्ठन्ति । विकल्पपक्षम-राआ। शस्-राआणो पेच्छ । विकल्पपक्षमें-राआ। डसि-राइणो रणो आअओ। विकल्पपक्षमें-राआहिंतो राअत्तो राआओ राआउ रामा राआहिं। हस्-राइणो रण्णो धणं । विकल्लपक्षमें-राअस्स ॥ ५ ॥ णोणाङिष्विदना जः ॥ ५६ ॥
___णो और णा ये दो आदेश, तथा ङि (स. ए.) वचन (प्रत्यय) आगे होनेपर, राजन् शब्दसे संबंधित होनेवाले (राजन्मेंसे) जकारका अन् के साथ इकार विकल्पसे होता है। उदा.-राइणो चिठन्ति पेच्छ अओ धणं वा। राहणा की राइम्मि ठिअं । विकल्पपक्षमें-रामाणो । रण्णा । गएण । रामम्मि
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१३४
त्रिविक्रम-प्राकृत-व्याकरण
इणममामा ।। ५७ ॥
(इस सूत्रमें २.२.५६ से) अना जः इन पदोंकी अनुवृत्ति है। राजन् पन्दसे संबंध होनेवाले, अन् के सहित जकारको, भम् और आम् प्रत्ययोंके साथ, इणं ऐसा आदेश विकल्पसे होता है। उदा.-राइणं पेच्छ धणं वा। विकल्पपक्षमें-राभं । राआणं ॥ ५ ॥ भिस्भ्यसाम्सुप्स्त्रीत् ।। ५८ ।।
... भिस, भ्यस्, आम और सुर ये प्रत्यय आगे होनेपर, गजन् शब्दमें, भन् से सहित जकारका ईकार विकल्पसे होता है । उदा.-भिम्-गाईहिं । भ्यस् - राइहितो । राईसुंतो। राईहि । आम्-राईणं। सुप्-गई । विकल्पपक्षमराए है । इत्यादि ।। ५८ ॥ स्ङसिटा णोणोर्डण ।। ५९ ॥
उस्, ङसि और टा-वचन प्रत्ययोंको जो णो और णा आदेश होते हैं, वे आगे होनेपर, राजन् शब्दमें अन्से सहित जकारको डित् अण् ऐसा आदेश विकल्पसे होता है । उदा.-रण्णो राइणो धणं आअओ वा। रण्णा राणा को। उस्, ङसि और टा (इन प्रत्ययोंके आदेश), ऐसा क्यों कहा है ? (कारण भन्य कुछ प्रत्ययोंके ऐसे आदेश होके भी, ऐसा नहीं होता)। उदा.-आणो चिट्ठन्त पेच्छ वा । (सूत्रमें) णोणो (णो और णा आगे होनेपर), ऐसा क्यों कहा है । (कारण ये आदेश न होनेपर, यहाँका वर्णान्तर नहीं होता)। उदा.रामस्स । रामओ । राएण ॥ ५९ ।। पुंस्थाणो राजवच्चानः ।। ६० ।।
पुलिंगमें होनेवाले (शब्दोंके अन्त्य) भन् के स्थानपर आण एसा आदेश विकल्पसे होता है । विकल्पपक्षमें, (वाङ्मयों) दिखाई देगा वैसा राजन् शब्दकी तरह कार्य होता है। आण आदेश होनेपर, सोः (२.२.१३) इत्यादि सूत्र लागू होते हैं। परंतु विकल्पपक्षमें, राजन् शब्दकी तरह, 'टो णा' (२.२.५४) 'जश्शस्ङसिङा गोश्' (२.२.५५), 'इणममामा' (२.२.५७) ये सूत्र लाय होते हैं। उदा.-अप्पाणो अप्वाणा| अप्पाणं अप्पाणे । अप्पाणेण अप्पाणेहिं। अप्पाणाओ अप्पाणासंतो | अप्पाणस्स अप्पाणाणं । अप्पाणाम्म अप्पाणेसु ।
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हिन्दीअनुवाद
. २, पा.२
विकल्पपक्षमें राजन् शब्दकी तरह-अप्पा भयो । दे अप्पा देभप्यो । अप्पाणो चिन्ति पेच्छ वा । अप्यणा अप्पहिं । अप्पाहिंतो अप्पत्तो अप्पाभो अप्पाउ मप्पा अप्पाहि अप्पासुंतो आअओ। अप्पाणो अप्पाणं । अप्पम्मि अप्पेसु ।। रामाणो राभाणा। राआणं रामाणे । रामआणेण राआणेहिं । रामाणासुतो राजाणाहितो। रामाणस्स राआणाणं । राआणम्मि राआणेसु ॥ विकल्पपक्षमेंराआ, इत्यादि । इसी प्रकार-युवन् जुवाणो जुवाणा जुवा ॥ ब्रह्मन्-बम्हाणो बम्ह! ।। अध्यन्-अद्धाणो अदा ॥ उक्षन्-३च्छाणो उच्छा ॥ प्रावन्-गावाणो गावा ।। पूषन्-पूमाणो पूसा ॥ तक्षन्-तरखाणो तक्खा । मूर्धन्-मुद्धाणो मुद्धा । चन्-साणो सा । सुकर्मन्-सुकम्मःणो सुकम्मा । पेच्छइ स कहं मुकम्माणो, पश्यति स कथं सुकर्मा ॥ पुलिंगमें होनेवाले, ऐसा क्यों कहा है :(कारण नपुंसकलिंगमें ऐसा नहीं होता) । उदा.-शर्मन् सम्मं ॥ ६ ॥ टो वात्मनो णिआ गइआ ॥ ६१ ।।
___ आत्मन् शब्दके आगे ह'नेवाले टा-वचन (-प्रत्यय) को णिआ और णइआ ऐसे आदश विकल्पसे होते हैं। (सूत्रमें) पुनः 'वा' शब्दका ग्रहण होनेस, अगले सूत्रों में विकल नहीं होता। उदा.-अप्पणिमा अप्पणा । विकल्पपक्ष-अप्पाणेण अप्पेण ॥ ६१ ॥ सर्वादोऽतो डे ।। ६२ ।।
अकारान्त सर्वादि (सर्वनाम) के आगे जस् (प्रत्यय) का डित् ए होता है। उदा.-सव्वे । अण्णे । ज । ते । के। इअरे। अवरे । एए। अकारान्त (सर्वादि), ऐसा क्यों कहा है ? (कारण सर्वादि शब्द अकारान्त न हों तो ऐसा भादेश नहीं होता।) उदा.-सन्धाओ ।। ६२ ॥
स्थस्सिम्मि ।। ६३ ।। ___ (इस उत्रने २.१.६२ से) सर्वादेः और अतः पदों की अनुवृत्ति है । अकारान्त सर्वादिके आगे ङि (स. ए. व. प्रत्यय) के स्थानपर स्थ, स्सि और म्मि ऐसे तीन आदेश होते हैं। उदा.-साथ सम्वस्सि सबम्मि। अप्णत्थ पस्सि अण्णम्म । इसी प्रकार सर्वत्र । अकारान्त (सर्वादिके आगे ही ऐसे आदेश होते है, अन्यथा नहीं)। उदा.-अमुम्मि ।। १३ ॥
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१३६
- त्रिविक्रम-प्राकृत-प्याकरण
अनिदमेतदस्तु कियत्तदः स्त्रियां च हिं ।। ६४ ।।
इदम् और एतद् इन् (शब्दों) को छोटकर, सर्वादिके आगे दि को. हिं ऐसा आदेश विकल्पसे होता है। किम् , यद्, और तद् इनके बारेमें स्त्रीलिंगभी (ऐसा आदेश होता है)। उदा.-सव्वहिं । अण्णार्हि । जहिं । तहि। कहिं । विकल्पपक्षम-सव्वत्थ सव्वस्सि सबम्मि, इत्यादि । (सूत्रमें) सीलिंगमभी, ऐसा क्यों कहा है ? (कारण) किम् , यद्, और तद् इनके स्त्रीलिंगभी ऐसा आदेश भाता है। उदा.-काहिं । जाहिं । ताहिं । बाहुलकत्वसेही 'किंयत्तदोऽस्व मामि सुपि (२.२.४०) सूत्रानुसार डीप विकल्पसे आता है। उदा.-कार कीए, इत्यादि । इदम् और एतद् इनको छोडकर, ऐसा क्यों कहा है ! (कारण उनके बारेमें ऐसा आदेश नहीं होता)। उदा.-इमस्ति । अस्सि ॥ ६४ ।। . आमां डेसिं ।। ६५ ॥
(इस सूत्रमें २.२.६४ से) तु पदकी अनुवृत्ति है । सर्वादिके आगे आम् प्रत्ययको डित् एसिं ऐसा आदेश विकल्पसे होता है। उदा.-सव्वेसि ! अण्णेसि । एसिं । इमेसि । एएसि । जसि । तेसिं। केसं विकलापक्षमें--- सवाणं । अण्णाणं । इत्यादि । आमाम् ऐसा बहुवचन (सूत्रमें) प्रयुक्त किया जानेसे, स्त्रीलिंगके बारेमें भी ऐसा आदेश होता है । उदा.-सर्वासाम् सव्वेसि । इसी प्रकार-मण्णेसिं । जेसिं । तसिं ॥ १५॥ किंतद्भयां सश् ॥ ६६ ॥
किम् और तद् इनके आगे भाम् प्रत्ययका शित् सकार विकल्पसे होता है । उदा.-कास । तास । विकल्पपक्षमें-केसि । तेसिं ॥ १६ ॥ किंयत्तद्भयो उस् ।। ६७ ।।
(इस सूत्रमें २.२.६६ से) सश् पदको अनुवृत्त है । किम् , यद् और तद् इनके आगे आनेवाल जो डस् प्रत्यय, उसको सश् ऐसा आदेश विकल्प होता है। उदा.-कास । जास । तास | विकल्पपक्षमें-कस्स । जस्म । तस्स ! बहुलका अधिकार होनेसे, स्त्रीलिंगमेंभी किम् , यद्, और तद् इनके आगे (यह आदेश भाता है)। उदा,-कस्याः कास । यस्या: जास। तस्याः तास । विकल्पपक्षमें-काए । जाए। ताए ।। ७ ।।
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हिन्दी अनुवाद-अ.२, पा.२ ईतः सेसार् ॥ ६८ ॥
(इस सूत्रमें २.२.६७ से) उस पद (अध्याहृत) है। ईकारान्त किम्, यद् और तद् (=की, जी, ती) इनके आगे ङस् (प्रत्यय)को से और साह (ऐसे आदेश) विकल्पसे होते है । सार् में र् इत् होनेसे, (सा का) द्वित्व होता है । उदा.-कोसे । किस्सा । विकल्पपक्षमें-कीम की । कोइ । कीए । जीसे जिस्सा । (विकल्पपक्षमें)-जीअ । जीआ। जीइ। जीर ॥ तीसे । तिस्सा। (विकल्पपक्षमें)-तीभ । तीआ। तीइ । ताए ॥ ६८ ॥ डिरिआ डाहे डाला काले ॥ ६९॥
काल कहना हो तो, किम् , यद् और तद् इनके आगे डि को इना ऐसा आदेश तथा डित् आहे और आला ऐसे (दो आदेश) विकलसे होते हैं। उदा.-कइआ काहे काल।। जइआ जाहे जाटा। तइआ ताहे ताला। ताला जामन्ति गुणा जाला ते सहिअएहि घेप्पन्ति (विषमबाणलीला), तदा जायन्ते गुणाः यदा ते सहृदयगुयन्ते । विकल्पपक्षमें-कहिं कत्थ कस्सि कम्मि, इत्यादि
म्हा डसेः ॥ ७० ॥
किम् , पद् और तद् इनके आगे उसि को म्हा ऐसा आदेश विकल्पसे होता है। उदा.-करहा । जम्हा । तम्हा । विकल्प क्षमें-काओ। जाओ। ताओ ।। ७०॥
किमो डीस डिणो ॥ ७१ ॥
किम् के आगे डांस को डित् ईस और इणो ऐसे दो आदेश होते हैं। उदा.-कीस किणो। विक ल्यपक्षमें-कम्हा । काओ ।। ७१ ॥
डो तदस्तु ॥ ७२ ॥
सद् के आगे सि को द्वित् ओ (ऐसा आदेश) विकल्पसे होता है। उदा.-तो। (विकल्पपक्षमें-) तम्हा ॥ ७२ ॥
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- त्रिविक्रम प्राकृत व्याकरण इदमेतत्कियत्तद्भयष्टो डिणा ॥ ७३ ॥ ..(इदर, एतद्, किम्, यद्, तद् ) इन अकारान्त सर्वादि (शब्दों)के आगे दा:वचनको डित् इणा ऐसा (आदेश) विकल्पसे होता है। उदा.-इमिणा इमेण । एदिणा एदेण । किणा केण | जिणा जेण । तिणा तेण ॥ ३ ॥ कचित्सुपि तदो णः ॥ ७४ ।।
विभक्तिप्रत्यय भागे होने पर, तत् (सर्वनाम-) शब्दमें ण विकल्पसे होता है। कचित् लक्ष्यानुसार (ण आता )। उदा.-ण पेच्छ, तं पश्य। स्त्रीलिंगमेंभी (ण आता है)। उदा -हथुण्णामिअमुही भणइ णं तिअडा,हस्तोनामित. मुखी भणति तां त्रिजट।। णेण भगिअं, तेन भणितम् । णीए तया। जेहिं अं, तैः कृतम् । णाहि करं, ताभिः कृतम् ॥ ७४ ॥ तसि च किमो ल्कः ।। ७५ ।।
(इस सूत्रमें १.२.७४ से) सुपि पद की अनुवृत्ति है। किम् शब्दके आगे ज, तस और विभक्तिप्रत्यय होनेर, किम का लित् (=नित्य) क होता है। उदा.-(सुप) को के । कं के । केण केहिं । त्र-कस्य कस्सि । तस्-कत्तो कदो ।। ७५ ॥ इदम इमः ।। ७६ ॥
विभक्तिप्रत्यय आगे होने पर, इदम् को इम ऐसा आदेश होता है। उदा.इमो इमे । इमं इमे । इण इमा। स्त्री.लगमें (इम्मी को इम आदेश होता है)। उदा.-इमा ॥ ७६ ॥ पुंसि सुना त्वयं स्त्रियामिमिआ ॥ ७७ ।।
: सु(प्रत्यय) के साथ इदम् के पुल्लिगमें अयं ऐसा और स्त्रीलिंगमें इमिा ऐसा (आदेश) विकल्पस होता है। उदा.-अयं कभकज्जो। इमिश्रा साण्णअमाआ। विकल्पपक्षमें-इमो । इमा॥ ७७ ॥ असुस्मिहिस्से ।। ७८ ॥ .. सुप, सि , भि और ङस् इन प्रत्ययोंके सु, स्१ि, हि और स्स ये भादेश आगे होनेपर, इदम् का अ विकल्पस होता है। उदा.-एसु । मस्ति ।
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हिन्दी अनुवाद-अ.२, पा. २ पहिं । अस्स । विकल्पपक्षमें-इमेसु । इमस्सि। इमेहिं । इमाहि ।. इमाम ॥ ७८॥ टाससि णः ॥ ७९ ॥ : टास् यानी तृतीया विभक्ति; अस् यानी द्वितीया विभक्ति; उन दोनों (के प्रत्यय) आगे होनेपर, इदम् के स्थानपर ण ऐसा आदेश विकल्पसे होता है। उदा.-णेण णेहि कणं पेच्छ । विकल्पपक्षमें-इमेण इमेहि । इम इमे ॥ ७९ ॥ इहेणं उथमः ।। ८० ॥
डि और अम् इन दो (प्रत्ययों) के साथ इदम के स्थानपर इह, इणं ऐसे ने (आदेश) क्रमसे विकल्पसे होते हैं। उदा.-डि-इह । अम्-इणं । विकल्पपक्षमें-इमस्सि इमम्मि । इमं ॥ ८ ॥ न स्थः ।। ८१॥
इदम् के आगे, 'डेस्त्थस्सिम्मि' (२.२.६३) सूत्रानुसार प्राप्त होनेवाला डि-वचनका स्थ, नहीं होता। उदा -इह । इमस्सि । इमम्मि ॥ ८१ ॥ कीबे स्वमेदमिणमिणमो ॥ ८२ ॥ .
नपुंसकलिंगमें रहने वाले इदम् को, सु और अम् प्रत्ययोंके साथ, इदं, इण और इणमो ऐसे तीन आदेश होते हैं। उदा. इदं इणं इणमो चिट्ठइ पेच्छ वा ॥ ८२ ॥ किं किं ॥ ८३ ॥
(इस सूत्रमें २.२.८२ से) क्लीबे और स्वम् ये ‘पद (अध्याहृत) हैं। नपुंसकलिंगमें रहनेवाला कि.म शब्द, सु और अम प्रत्ययके साथ, किं ऐसाही होता है । उदा.-किं कुलं । किं भणसि ॥ ८३ ॥ तदिदमेतदां सेसिं तु ङसामा ।। ८४ ।। - उस् औ आम् इन प्रत्ययोंके साथ तद्, इदम् और एतद् इनके स्थानपर यथाक्रम से और सिं एस आदेश विकल्पसे होते हैं। उदा.- तद्-से गुणा, स्य गुणाः, तस्या वा । सिं उच्छाही, तेषां उत्साहः, तासां वा । इदम्-से
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त्रिविक्रम-प्राकृत व्याकरण
सोलं, अस्य शीलं, अस्या वा । सिं गुणा, एषां गुणाः, आसां वा । एतद-से., हिअअं, एतस्य हृदयम्, एतस्या वा । सिं गुणा, एतेषां गुणाः, एतासा वा। विकल्पपक्षमें-तस्स । तेसिं। ताण || इमस्स। इमोस। इमाण ॥ एअस्स।. एएसिं । एआण ॥ तद् और एतद् इनके अम् प्रत्ययके साथ से और सिं ऐसे आदेश होते हैं, ऐसा कोई कहते हैं ।। ८४ ।। एत्तो एत्ताहे उसिनैतदः ॥ ८५ ॥
(इस सूत्रमें २.२.८४ से) तु पदकी अनुवृत्ति है । ङसि प्रत्ययके साथ एतद को एत्तो और एत्ताहे ऐसे आदेश विकल्पसे होते हैं। उदा.-एत्तो पत्ताहे भागओ। विकल्पपक्षमें-एआहिंतो एअत्तो एआओ एआहि एआउ एआ ८५॥ थे डेल ॥ ८६ ॥
र् अनुबंध रखनेवाला थकार आगे होनेर, एतद् के स्थानपर इ और लू भनुबंध रखनेवाला ए होता है। उदा.-एत्य ॥ ८६ ॥ एतदो म्मावदितौ वा ॥ ८७ ।।
सप्तमी एकवचनका म्मि आदेश आगे होनेपर, एतद् से. एकारको । और इ ऐसे आदेश विकल्पसे होते हैं। उदा.-अअम्मि इअम्मि । विकल्पपक्षमें-एअम्मि ॥ ८७ ॥ सुनैस इणमो इणं ।। ८८ ॥
सु प्रत्ययके साथ एतद् को एस, इणमो और इणं ऐसे आदेश विकल्पसे होते हैं। उदा.-एस सहाओ चिअ ससहरस्स, एष स्वभाव एष शशधरस्थ । एस गई, एषा गतिः। सव्यस्स वि एस गई, सर्वस्याप्येषा गतिः। एस सरं, एतत्सरः । इणमो । इणं । विकल्पक्ष-एसा । एओ । एअं॥ ८८ ॥ तस्सौ सोऽक्लीवे तदश्च ॥ ८९ ।।
तद् और (सूत्रमेंमे) चकारके कारण एतद्, इनमेंसे तकारका, सु प्रत्यय आगे होनेपर, सकार होता है। अक्लीवे यानी नपुंसकलिंगमें ऐसा नहीं होता। उदा.-सो पुरिसो। सा महिला ॥ एसो पिओ। एसा पिआ । एसा मुदा ॥ सु प्रत्यय आगे होनेपरही (यह सकार होता है, अन्यथा नहीं)। उदा.-ते, एप
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हिन्दी अनुवाद-अ. २, पा. २
चिट्ठन्ति । ताओ, एआओ महिलाओ । मधुमकलिंगमें नहीं, ऐसा क्यों कहा है ? (कारण नपुंसकलिंगमें आगे दिये रूप होते हैं)-तं, एअं वणं ।। ८९ ।। सुप्यदसो मुः ॥ ९० ।।
विभक्तिप्रत्यय आगे होनेपर, भदस् के स्थानपर अमु ऐसा आदेश होता है। उदा.-अम् पुरिसो। अमुणो पुरिसा। अमुं वणं। अमई वणाई। अमू महिला । अमओ महिलाओ। टा-अमुणा । अमहि ॥ ङसि-अमूहिंतो अमूमओ भमूहि अमउ अमुत्तो। भ्यस्-अमूहिंतो अमूसुतो। ढस- अमुणो अमुस्स। आम्-अमूणं । डि-अमुम्मि । सुप्-अम्सु ॥ ९० ॥ अहद्वा सुना ॥ ९१ ।।
सु प्रत्ययके साथ अदस् को अहत् ऐसा आदेश विकल्पसे होता है। (अहत् में) तकार 'सिर्फ उतनाही' (तावन्मात्र) यह दिखानेके लिए है, इसलिए स्त्रीलिंगमें आ नहीं होता। उदा.-अह पुरिसो। अह महिला । अह वण । मह णे हसइ हिअएण मारुअतणओ, असावस्मान् हसति हृदयेन मारुततनयः। विकल्पपक्षमें-अमू पुरिसा । भम् महिला । अमुं वणं ॥ ९१ ॥ इआऔ म्मौ ॥ ९२ ।।
डिवचनका म्मि आदेश आगे होनेपर, अदर को इअ और अअ ऐसे भादेश विकल्पसे होते हैं। उदा.-इमम्मि । अअम्मि ॥ ९२॥ ।
-द्वितीय अध्याय द्वितीय पाद समाप्त -
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तृतीयः पादः
युष्मत्सुना तुवं तुं तुमं तुह ॥ १ ॥
सुप्रत्यय के साथ युष्मद् शब्दको तुवं, तुं, तुमं, तुह ऐसे चार आदेश प्राप्त होते हैं | उदा. - तुवं, तुं, तुमं तुह दिट्ठो सि ॥ १ ॥
अमा तुमे तुए च ॥ २ ॥
(इस सूत्र में २.३.१ से) युष्मद् पदकी अनुवृत्ति है । अम् प्रत्यय के साथ युष्मद् शब्द के तुमे, तुए ऐसे (दो रूप ), तथा (सूत्र में से) चकारके कारण तुवं, इत्यादि चार रूप (२. ३. १ से) होते हैं। उदा.- तुमे । तुए । ( चकार) पक्षमेंतु तुं तुमं तुह वन्दामि । तं यह रूप त्वां इस सिद्धावस्था में से रूपमें व का कोप और हस्व होकर, होगया है ॥ २ ॥
J
जसा भे तुब्भे तुम्हे उन्हे तुब्भ ।। ३ ।।
प्रत्यके साथ युष्मद् शब्दको मे, तुम्भे, तुम्हे, उच्हे, तुम्भ ऐसे.. पाँच आदेश प्राप्त होते हैं । उदा.- भे तुब्भे तुम्हे उच्हे तुम्भ चिट्ठर । 'वा न्मो म्हौ' (२.३.१४) इस वचनानुसार, तुम्हे, तुज्झें, तुम्ह, तुज्झ, ऐसे (कुल) नौ रूप होते हैं ॥ ३॥
शंसा वो च ॥ ४॥
शस् प्रत्यय के साथ युष्मद् शब्दको वो ऐसा (आदेश), और (सूत्रमेंसे) चकारके कारण मे, इत्यादि (पाँच) आदेश (२.३.३. से) प्राप्त होते हैं | उदा.यो भे तुम्भे तुम्हे उम्हे तुम्भ तुम्हे तुज्झे तुम्ह तुज्झ ऐसे (कुल) दस रूप होते हैं ॥ ४ ॥
टा भे ते देदि तुमं तुमइ ।। ५ ।।
टा-वचनके साथ युष्मद् शब्दको भे, ते, दे, दि, तुम और तुमइ ऐसे छ आदेश प्राप्त होते हैं । भे ते दे दि तुमं तुमइ कथं ॥ ५ ॥ डिटाभ्यां तुम तुइ तुए तुमाइ तुमे ॥ ६ ॥
डि और टाइन प्रत्ययों के साथ युष्मद् शब्दको तुपए, तुइ, तुए, तुमाइ और तुमे ऐसे पाँच रूप होते हैं । उदा. --- तुमए तुइ तुए तुनाइ तुमे ठि कथं वा ॥ ६ ॥
ર
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हिन्दी अनुवाद-. २, पा. ३
तुब्भ तुहिंतो तुम्ह उसिना ।। ७ ।।
ढसि प्रत्ययके साथ युष्मद् शब्दको तुम, दहितो और तुम्हें ऐसे तीन रूप प्रास होते हैं। उदा. तुभ तुहितो तुम्ह वा भागओ। 'वा भो म्हनों (२.३.१४) इस वचनानुसार, तुम्ह, तुजा (रूप होते हैं)। एवं (कुल) पाँच रुप होते हैं ॥ ७ ॥ तु.तुइ ङिपङमौ ॥ ८॥
डिप यानी सप्तमी विभक्ति; हार्स यानी पंचमी एकवचन; ये प्रत्यय आगे होनेपर, युष्मद् शब्दको यथाक्रम तु, तुइ ऐसे आदेश प्राप्त होते हैं। सप्तमी और ढसि इनमें यथाप्राप्त (प्रत्यय होते ही हैं)। पर सप्तमीमें मात्र-तुम्मि तुसु' । इसिम-तइ तुइसो तुईहितो तुईओ तुईउ आगो ॥ ८ ॥ तुव तुम तुह तुब्भ ॥ ९ ॥
(इस सूत्रमें २.३.८ से) डिण्डसौ पदकी मनुवृत्ति है । डिप् और उसि भागे होनेपर, युष्मद शब्दको तुव, तुम, तुह, और तुब्भ ऐसे चार रूप प्राप्त होते हैं। ढिप् और ङसि इनमें यथाप्राप्त (प्रत्यय होते ही हैं)। डिपतुवम्मि तुम्मि तुहम्मि तुब्मम्मि । 'वा भो म्हज्झौ' (२.३.१४) इस वचनानुसार, तुम्हम्मि तुन्मम्मि । सप् में-तुवेसु तुमेसु तुहेसु तुब्भेसु तुम्हेसु तुझे ठिअं । 'क्वासुपोस्तुमुणात्' (१.१.४३) सूत्रानुसार, अनुस्वार प्राप्त होनेपर, तुवेसुं, इत्यादि रूप होते हैं । ङसिमें-तुवाहितो तुमाहितो तुहाहिंतो तुब्भाहिंतो। 'वा ब्भो म्हज्झौ' (२.३.१४) इस वचनानुसार, तुम्हाहिंतो तुज्झाहिंतो। इसीप्रकार-तुवत्तो तुमत्तो तुइत्तो तुब्भत्तो तुम्हत्तो तुज्झत्तो। इसीप्रकार दो, दु, हितो और सुंतो इन प्रत्ययोंमें उदाहरण लेना है। पर तत्तो रूप मात्र त्वत्तः शन्दमेंसे व का लोप होकर सिद्ध हुआ है ॥९॥ भिसा भेतुब्भेाब्भेाय्हेहितुम्हेहि ।। १० ॥
भिस प्रत्ययके साथ युष्मदको भे, तुमहि, उन्भेहि, उव्हेहि और तुय्हेहि ऐसे पाँच रूप प्रात होते हैं । उद।.-भे तुभेहि उब्भेहि उव्हेहि तुम्हेहि करं । 'वा भो म्हज्झौ' (२.२.१४) वचनानुसार, तुम्हेहि तुझेहि उम्हे हि सोहि (प होते हैं)। इसीतरह (कुल) नौ रूप होते है ॥ १०॥
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त्रिविक्रम-प्राकृत-व्याकरण
उम्होरहतुरहतुब्भ भ्यसि ॥ ११ ॥
भ्यस् प्रत्यय आगे होनेपर, युष्मद्को उम्ह, उपह, तुरह, और तुम्भ ऐसे चार रूप प्राप्त होते हैं । भ्यस् के (प्रत्यय मात्र) यथाप्राप्त होते हैं। उदा.उम्हाहिंतो उय्हाहिंतो तुम्हाहितो तुब्भाहितो आगओ। 'वा ब्मो म्हज्झौ' (२.२.१४) इस वचनानुसार, तुम्हाहिंतो तुज्झाहिंतो (रूप होते हैं)। उम्हसो उयहत्तो तुम्हत्तो तुम्भत्तो तुम्हत्तो तुज्झत्तो, इत्यादि । इसीतरह दो, दु, हिंतो और सुंतो प्रत्ययों भी उदाहरण लेना है ॥ ११॥ तुब्भोभोव्हतइतुहंतुहतुम्हंतुवतुमतुमेतुमाइतुमोदेतेदितितुइए .. सा. ।। १२ ।। ___उस् प्रत्ययके साथ युष्मद्को तुब्भ, उब्भ, उय्ह, तुइ, तुहं, तुह, तुम्हं, तुब, तुम, तुमे, तुमाइ, तुमो, दे, ते, दि, ति, तु, इ, और ए ऐस अठारह आदेश होते हैं। 'वा ब्भो म्हज्झौ' (२.३,१४) इस वचनानुसार, तुम्ह, तुन्झ, उम्ह, उज्य; ऐस (कुल) बाईस रूप होते हैं ॥ १२ ॥ तुम्हाणतुभंतुब्भाणतुमाणतुवाणतुहाणतुब्भवोभे त्वामा ॥१३ ।।
आम् प्रत्ययके साथ युष्मदको तुम्हाण, तुब्भ, तुम्भाण, तुमाण, तुर्माण, तुहाण, तुब्भ, वो, भे और त्वा ऐसे दस आदेश प्राप्त होते हैं। उदा. तुम्हाण तुम्भं । 'वा ब्भो म्हज्' । (२.३.१४) वचनानुसार, तुम्हं, 'तुझं; तुब्भाण तुम्हाण तुज्झाण तुम्भ तुम्ह तुज्झ वो भे त्वा । 'क्त्वासुपोस्तु सुणात् (१.१.४३) सूत्रानुसार, अनुस्वार प्राप्त होनेपर, तुम्हाणं, तुन्भाणं, तुझाणं, तुमाणं, तुवाणं, तुहाणं । एवं (कुल) तेईस रूप होते है ॥ १३ ॥ वा ब्भो म्हज्झौ ।। १४ ।।।
युष्मद् के आदेशोंसे संबंधित रहनेवाले द्विरुक्त भकारको (=न्म को) म्ह और ज्या ऐसे आदेश विकल्पसे होते हैं। इसके उदाहरण योग्य स्थानपर (२.३.२, ७, ९, १३ देखिए) दियही हैं ॥ १४ ॥ अस्मत्सुना अम्हिहमहअमहमहम्यम्मि ॥ १५ ॥
सु के यानी प्रथमा एकवचन (प्रत्यय)के माथ अस्मद् शब्दको अम्हि ? हं, अहअं, अहं, अहम्मि और अम्मि ऐसे छः आदेश प्राप्त होते हैं। उदा.--- अम्मि करेमि, अहं करोमि । तेण हं दिट्ठो, तेनाहं दृष्टः। बहनं जप्यामि,
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हिन्दी अनुवाद-अ.२, पा. ३
अहं जल्पामि । अहं गमिस्स, अहं गमिष्यामि। अज्ज अहम्मि हासिआ, भयाहं हासिता । न अम्मि कुविभा, नाहं कुपिता ॥ १५ ॥ मो भे व जसा ॥ १६॥
___(इस सूत्र में २.३.१५ से) अस्मद् पदकी अनुवृत्ति है। जस् प्रत्ययके साथ अस्मद् शब्दको मो, भे, और वअं ऐसे तीन आदेश प्राप्त होते हैं। उदा.मो भणामो, इत्यादि ॥ १६ ॥ अम्हे अम्हो अम्ह ॥ १७ ॥
जस् प्रत्यय के साथ अस्मद् शब्दको अम्हे, अहो और अम्ह ऐसे तीन आदेश प्राप्त होते हैं। यह सूत्र (२.३.१६ से) स्वतंत्र रूपसे कहनेका कारण यह है कि उसका उपयोग अगले सूत्र में हो। उदा. अम्हे, इत्यादि ॥ १७ ॥ णे च शसा ।। १८ ॥
शस् प्रत्ययके साथ अस्मद् शब्दको जे ऐसा (आदेश), और (सूत्रामसे) चकारके कारण अम्हे, इत्यादि (२.३.१७ मेंसे) तीन आदेश प्राप्त होते हैं। उदा.-णे अम्हे पेच्छ, इत्यादि ॥ १८ ॥ मंणे णं मि मिमं मममम्मि अहं मम्हाम्ह अमा॥ १९ ॥
अम् प्रत्ययके साथ अस्मद् शब्दको मं, णे, णं,मि, मिमं, ममं, अम्मि,अहं, मम्ह, अम्ह ऐसे दस आदेश प्राप्त होते हैं। उदा.-मं पेच्छ, इत्यादि ॥ १९ ॥ मि मइ ममाइ मए मे डिटा ॥ २० ।।
डिवचन और टावचन इनके साथ अस्मद् शब्दको मि, मइ, ममाइ, मए, मे ऐसे पाँच आदेश प्राप्त होते हैं। उदा.-मि ठिअं कअं वा, इत्यादि ॥ २० ॥ ममं णे मआइ ममए टा॥ २१ ॥
टावधन के साथ अस्मद् शब्दको ममं, णे, माइ और ममए ऐसे चार आदेश प्राप्त होते हैं। उदा.-ममं करं, इत्यादि ।। २१॥ त्रि.प्रा.व्या....१०
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१५६..
त्रिविक्रम-प्राकृत-व्याकरण णेऽम्हे ह्यम्हाह्यम्हेऽम्ह भिसा ॥ २२ ।।
भिस् प्रत्ययके साथ अस्मद् शब्दको णे, अम्हेहि, अम्हाहि, अम्हे और अम्ह ऐसे पाँच आदेश प्राप्त होते हैं । उदा.णे करं, इत्यादि ॥ २२ ॥ मइ मम मह मज्झ ङसौ ॥ २३ ।।
. ङसि यानी पंचमी एकवचन प्रत्यय आगे होनेपर, अस्मद् शब्दको मह मम, मह, मज्झ ऐसे चार आदेश प्राप्त होते हैं। सिके (प्रत्यय) यथाप्रास होतही हैं । उदा.-मईहिंतो मइत्तो मईमो मईउ । इसीप्रकार-ममाहितो ममत्तो ममाउ ममाहि ममा। इसीतरह-महाहितो महत्तो मज्झाहितो मज्झत्तो, इत्यादि
अम्ह मम भ्यसि ॥ २४ ॥
भ्यस् यानी पंचमी बहुवचन प्रत्यय आगे होनेपर, अस्मद् शन्दको अम्ह और मम ऐसे दो आदेश प्राप्त होते हैं । उदा.-अम्हाहितो अम्हेहितो अम्हत्तो अम्हाओ अम्हाउ अम्हासुतो अम्हेसुंतो अम्हाहिं अम्हे हिं। ममाहितो ममेस्तिो ममत्तो ममाओ ममाउ ममासुंतो ममाहि ॥ २४ ।।
अम्हं मज्झं मज्झ मइ मह महं मे च ङसा ॥ २५ ॥ ____ उस् प्रत्ययके साथ अस्मद् शब्दको अम्हं, मज्झं, मज्झ, मइ, मह, महं, मे. ऐसे सात आदेश, और (सूत्रमेंसे) चकारके कारण (२.३.२४ मेंसे) अम्ह और मम (ये दो आदेश) प्राप्त होते हैं । उदा. अम्हं, इत्यादि ॥ २५॥
अम्हे अम्हो अम्हाण ममाण महाण मज्झाण मज्झाम्हाम्हं णे णो आमा।। २६।।
आम् प्रत्ययके साथ अस्मद् शब्दको अम्हे, अम्हो, अम्हाण, ममाण, महाण, मझाण, मज्झ, अम्ह, अम्हं णे और णो ऐसे ग्यारह आदेश प्राप्त होते हैं। उदा.-अम्हे पण, इत्यादि । 'क्त्वासुपोस्तु सुणात्' (१.१.४३) सूत्रानुसार अनुस्वार प्राप्त होनेपर, अम्हाणं (ममाण, महाणं, मज्झाणं)। इसीतरह (कुल) पंद्रह रूप होते हैं ।। २६ ।।
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हिन्दी अनुवाद-अ.२, पा. ३
१४७
अम्ह मम मज्झ मह डिपि ।। २७ ॥
- सप्तमी विभक्ति (के प्रत्यय) आगे होनेपर, अस्मद् शब्दको अम्ह, मम मज्झ, मह ऐसे चार आदेश प्राप्त होते हैं । ङिप के प्रत्यय यथाप्राप्तही होते हैं। उदा.-ङिमें-अम्हम्मि ममम्मि मज्झम्मि महम्मि । सुप्में-अम्हेसु ममेसु मज्झेस महेसु । (इस प्रत्ययके पूर्व अन्त्य अ का) ए विकल्पसे होता है, इस मतानुसारअम्हसु ममसु मज्झसु महसु ) कुछके मतानुसार, (इस प्रत्ययके पूर्व अन्त्य अ का) आ होता है । उदा.-अम्हासु ममासु मज्झासु महासु । 'क्त्वासुपोस्तु सुणात्' (१.१.४३) सूत्रानुसार, अनुस्वार प्राप्त होनेपर-अम्हेसुं ममेसुं मज्झेसु महेसुं। अम्हसु ममसुं मज्झसु महसु। अम्हासु ममासु मध्झासु महासुं। इसीप्रकार (कुल) अठारह रूप होते है ॥ २७ ॥ चतुरो जश्शस्भ्यां चउरो चत्तारो चचारि ।। २८ ।।
जस् और शम् प्रत्ययोंके साथ चतुर शब्दको चउरो, चत्तारो, चत्तारि ऐसे तीन आदेश होते हैं। उदा.-चउरो चत्तारो चत्तारि चिट्ठन्ति पेच्छ चा ॥ २८॥ तिण्णि त्रेः ॥ २९ ॥
(इस सूत्रमें २.३.२८ से) जश्शस्भ्याम् पद (अध्याहृत) है । जस् और शस प्रत्ययोंके साथ नि शब्दको तिण्णि ऐसा आदेश होता है ।उदा.- तिणि पुरिसा महिला वणाणि वा चिट्ठन्ति पेच्छ वा ॥ २९ ॥ दोण्णि दुवे बेण्णि द्वे ॥ ३० ॥
. जस् और शस् प्रत्ययोंके साथ द्वि शब्दको दोष्णि, दुवे, बेणि ऐसे तीन आदेश होते हैं। उदा.-दोण्णि दुवे बेणि महिला चिट्ठन्ति पेच्छ वा। 'संयोगे' (१.२.४०) सूत्रानुसार हस्व होनेपर, दुण्णि, चिण्णि (ऐसे रूप होते
दो बे टादौ च ।। ३१ ॥
(इस सूत्रमें २.३.३० से) द्वेः पद (अध्याहृत) है । टादि यानी तृतीया, इत्यादिके विभक्तिप्रत्यय आगे होनेपर, द्वि शब्दको दो और बे ऐसे आदेश होते हैं। (सत्र से) चकारके कारण, जस् और शस् प्रत्ययोंके सहित (द्वि को
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ર૪૮
त्रिविक्रम-प्राकृत-व्याकरण
एस आदेश होते है)। उदा.-दोहिं बेहिं क। दोहितो बेहितो आगो। दोण बेण्णं धणं । दोसु बेसु ठिअं । जस् और शस् प्रत्ययोंके साथ-दो बे ठिआ पेच्छ वा ।। ३१ ।। ति त्रेः ।। २२ ।।
(इस सूत्रमें २.३.३१ से) टादौ पदकी अनुवृत्ति है । टादौ यानी तृतीया, इत्यादि विभक्तिप्रत्यय आगे होनेपर, त्रि शब्दको ति ऐसा आदेश होता है। उदा.-हिं कसं, त्रिभिः कृतं तिसृभिः वा। तिहिं तो आगओ, त्रिभ्यः तिसृभ्यो वा आगतः। तिण धणं, त्रयाणां तिसृणां वा धनम् । तिसु ठिअं, त्रिषु तिसृषु वा स्थितम् ॥ ३२ ॥ ण्ड ण्हं संख्याया आमोऽविंशतिगे ॥ ३३॥
अविंशतिगे यानी विंशति-गणमेंसे शब्दोंको छोडकर, (अन्य), संख्यावाचक शब्दों के आगे आम् प्रत्ययको प्रह, ग्रहं ऐसे आदेश होते हैं । उदा.-दोह तिण्ह । दोण्हं तिण्हं । चउण्ह चउण्हं । पंचण्ह पंचण्हं । छह छण्हं। सत्तण्ह सत्तण्ह । अट्ठण्ह अट्टण्हं । नवण्ह नवण्हं। दसण्ह दसण्हं । पण्णारहण्ह पण्णारहण्हं । अट्ठारहण्ह अट्ठारहण्हं । कइण्ह कइण्हं, कतीनाम् । विंशतिगणमेंसे शब्दोंको छोडकर, ऐसा क्यों कहा है ? (कारणा उन्हें ये प्रत्यय नहीं लगते) । उदा.-वीसाणं । तिसाणं ।। ३३ ॥ द्विवचनस्य बहुवचनम् ॥ ३४ ॥
सु, इत्यादि सब विभक्ति और तिङ् इत्यादिमें द्विवचनके स्थानपर बहुवचन (अनेकवचन) आता है। उदा.-दोणि कुणन्ति, द्वौ कुरुतः। दोहिं । दोसुतो। दोण्हं । दोसु ॥ दो पाआ, द्वौ पादौ। दोण्णि हत्था, द्वौ हस्तौ । दुवे णअणा, द्वे नयने । बेणि कण्णा, द्वौ कौँ ।। ३४ ॥ सो उम् ॥ ३५॥
डेस् यानी चतुर्थी विभक्ति; डम् यानी षष्ठी विभक्ति। डेस् के स्थानपर डम् आती है। उदा.-मुणिस्स, मुणीण भोअणं देहि। णमो देवस्स, देवाणं ।। ३५ ॥
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हिन्दी अनुवाद-अ.२, पा. ३
तादर्थे उस्तु ॥ ३६॥
तादर्य (उसके, अमुकके) के लिए कही हुई ङे यानी चतुर्थी एकवचनके स्थानपर ङम् यानी षष्ठी विभक्ति विकल्पसे आती है। उदा.देवस्स, देवाअ, देवार्थम् ऐसा अर्थ। .:, ऐसा क्यों कहा है ? (कारण)देवाणं ।। ३६ ।। वधाड्डाइ च ।। ३७ ।।
(इस सूत्रमें २.३.३६ से) तु पदकी अनुवृत्ति है। वध शब्दके आगे आनेवाले डे यानी चतुर्थी एकवचनके स्थान पर डित् आइ ऐसा आदेश, तथा पष्ठी और चतुर्थी (एकवचन प्रत्यय) आते हैं। उदा.-वहाइ चहस्स बहाअ (यानी) वधके लिए ऐसा अर्थ ।। ३७ ।। क्वचिदसादेः ।। ३८।।
अस् यानी द्वितीया विभक्ति। अस् इत्यादि विभक्तियोंके स्थानपर कचित् षष्ठी विभक्ति आती है। उदा. सीमंधरस्स वन्दे, सीमंधरं वन्दे । तिस्सा मुहस्स भरिमो, तस्या मुखं स्मरामः। यहाँ द्वितीयाके स्थानपर (षष्ठी आई है)। धणस्स लद्धं, धनेन लब्धम् । तेसिमेसमणाइण्णं, तैरेतद् अनाचीर्णम् । यहाँ तृतीयाके स्थानपर (षष्ठी आगयी है)। चोरस्स बीहइ, चोराद् बिभेति । इमाण पाअन्तसहिआण इअरांई लहुअक्खराई ति, एभ्यः पादान्तसहितेभ्य इतराणि लध्वक्षराणि । यहाँ पंचमीके स्थानपर (षष्ठी आई है)। वणसिरिपट्ठीऍ कबरि ब, वनश्रीपृष्ठे कबरीव । यहाँ सप्तमीके स्थानपर (पष्ठी आगयी है) ॥ ३८ ॥ अस्टासोर्डिप ॥ ३९।।
__ अस यानी द्वितीया विभक्ति; टास् यानी तृतीया विभक्ति; उन दोनों के स्थानपर ङिप यानी सप्तमी विभक्ति कचित् विकल्पसे आती है। उदा.-गामे वहा मि, णअरे णआमि, ग्रामं वहामि, नगर नयामि । यहाँ द्वितीयाके स्थानपर (सप्तमी हुई है)। तेसु अलंकिआ पुहवी, तैरलंकृता पृथिवी। यहाँ तृतीयाके स्थानपर (सप्तमी विभक्ति आई है)॥ ३९॥
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-प्राकृत-व्याकरण
१५० असिसष्टाश्च ।। ४० ॥
सिस् के यानी पंचमी विभक्तिके स्थानपर टास् यानी तृतीया विभक्ति, और (सूत्रमेंसे) चकारके कारण सप्तमी विभक्ति कचित् आती है। उदा.-चोरेण बीहइ, चोराद् बिभेति। अंतेउरे रमिअ आगओ, अन्त:पुरात् रन्वा आगतः ॥ ४० ॥ डिपोऽस् ।। ४१ ॥
डिप् के यानी सप्तमी विभक्तिके स्थानपर अम् यानी द्वितीया विभक्ति कचित् आती है। उदा.-विज्जुज्जोअं भरइ रई, विद्युयोते स्मरति रतिम् ॥ ४१ ॥ लुक् क्यङोर्यस्य तु ।। ४२ ॥
क्यङ् से अन्त होनेवाले शब्द के द्विवचनके आगे और क्यषसे अन्त होने वाले शब्दसे संबंधित होनेवाले य का लोप विकल्पसे होता है । उदा.क्य-गुरूअइ गुरूइ (यानी) अगुरुर्गुरुर्भवति या गुरु रिवाचरति । क्यषधमचमाअई धमधमाइ । लोहिआअइ लोहिआइ ॥ ४२ ।।
---- द्वितीय अध्याय तृतीय पाद समाप्त
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चतुर्थः पादः
लटस्तिप्ताविजेच् ।। १ ॥
लट् यानी वर्तमानकाल; तत्संबंधी प्रथमपुरुषके एकवचन में होनेवाले, परस्मैपद और आत्मनेपद में ऐसे कहे, जो तिप् और त ऐसे ये (दो प्रत्यय होते हैं), उनको प्रत्येकको इच् और एच् ऐसे ये (आदेश) होते हैं । ( इच् और एच में से दो ) चकार 'हुर चिति' (३.१.५) सूत्रानुसार, विशेषणार्थ में होते हैं । उदा. हसइ हसए । रमइ रमए ।। १ ।
सिष्यास्सेसि ॥ २ ॥
( इस सूत्र में २.४. १ से) लटः पदकी अनुवृत्ति है । परस्मैपद और आत्मनेपद इनमें से मध्यम पुरुषके एकवचन में होनेवाले जो हिपू और थास् ये (दो प्रत्यय होते हैं) उनको प्रत्येकको से और मि ऐसे थे (दो आदेश) विकल्पसे होते हैं । उदा. -हससे हससि । रम्से रमसि ॥ २ ॥
मिर्मिविटी ।। ३ ।।
वर्तमानकालके परस्मैपद और आत्मनेपद इनके उत्तमपुरुष के एकवचन में होनेवाले जो म्पूि और इट ऐसे (दो प्रत्यय होते हैं), उन्को प्रत्येकको मि होता है । उदा. हसामि । रमामि । और बहुलका अधिकार होनेसे, मि और इट् इनके आदेशके रूपमें अ नेवाले मि में इ का लोप होता है | उदा.- बहु वण्णिउं न सक्के, बहु वर्णितुं न शक्नोमि । नमर, न म्रिये ॥ ३ ॥
झिझौ न्ति न्ते इरे ॥ ४ ॥
वर्तमान काल में प्रथमपुरुषके दो प्रत्यय हैं ) उनको प्रत्येक को हैं | उदा. - हसन्ति हसन्ते ।
बहुवचन में होनेवाले झि और झ थे (जो न्ति, ते, इरे ऐसे तीन आदेश होते रमन्ति रमन्ते । हस्जिन्ति इतेि । १५१
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त्रिविक्रम-प्राकृत-व्याकरण
रमिज्जन्ति रमिज्जन्ते। गज्जन्ते खे मेहा। उप्पज्जन्ते कइ हिअअसाअरे कव्वरअणाई। दोणि वि ण पहुप्पिरे बाहू, द्वावपि न प्रभवतः बाहू । कचित् एकवचनमेंभी इरे (प्रत्यय होता है)। उदा.-सूसइरे ताण तारिसो कण्ठो, शुष्यति तासां तादृशः कण्ठः ।। ४ ।। थध्वमित्थाहचौ ॥५॥
वर्तमानकालमें मध्यमपुरुषके बहुवचनमें होनेवाले थ और ध्वम् ऐसे ये (जो दो प्रत्यय हैं), उनको प्रत्येकको, इत्था और हचू ऐसे आदेश प्राप्त होते है। उदा.-हसित्था हसह । रमित्था रमह । बहुलका अधिकार होनेसे इतरत्रभी (यानी अन्य पुरुषोंमेभी) इत्था (आदेश दिखाई देता है)। उदा.-जं जं ते रोइत्था, यद्यत्ते रोचते । हच मेंसे चकार 'इहहचोः' (३.२. ५) सूत्रानुसार विशेषणार्थमें है ॥ ५ ॥
मो म मु मस्महिङ् ॥ ६॥
वर्तमानकालमें उतमपुरुपके बहुवचनमें होनेवाले मस् और महिङ् ऐसे थे (जो दो प्रत्यय हैं), उनको प्रत्येकको मो, म, मु ऐसे तीन आदेश प्राप्त होते हैं। उदा.-हसामो हसाम हसामु । रमामो रमाम रमामु
अत एवैच् से ।। ७ ॥ ___ वर्तमानकालमें प्रथमपुरुषके एकवचनमें जो एच् (प्रत्यय) और मध्यमपुरुषके एकवचनमें कहा हुआ जो से (प्रत्यय),वे दोनों अकारान्त (धातुओं) के आगेही आते हैं, अन्य स्वरान्त धातुओंके आगे नहीं आते। उदा.हसए हससे। तुवरए तुवरसे | करए करसे। अकारान्तके आगे आते हैं, ऐसा क्यों कहा है ? (कारण अन्य स्वरान्त धातुओंके आगे ये प्रत्यय नहीं भाते)। उदा.-ठाइ ठासि। वसुआइ वरआसि । होइ होसि ।। ७ ।।
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१५३
हिन्दी अनुवाद-म. २, पा. ४ स्वस्तेर्हम्होम्हि ममोमिना ॥ ८ ॥
अस् धातुके स्थान पर, म, मो और मि इनके सह यथाक्रम म्ह, म्हो और म्हि ऐसे आदेश विकल्पसे होते हैं। उदा.-गअ म्ह गअ म्हो गअ म्हि, गताः स्मः। एस म्हि एषोऽस्मि। (२.४.६ में कहे हुए) मुकारका यहाँ ग्रहण न होनेसे, उसका प्रयोग नहीं होता, ऐसा निश्चित होता है। विकल्पपक्षमें-अस्थि अम्हे। अस्थि अहं ।। ८॥ सिना ल्सि ।। ९।।
(इस सूत्रमें २.४.८ से) अस्तेः पदकी अनुवृत्ति है। सि के साथ यानी मध्यमपुरुषके एकवचनके आदेशके साथ, अस् धातुको सि ऐसा आदेश लित् (=नित्य) होता है । उदा.-णिठुरो जं सि, निष्ठुरो यदसि । सि के साथ, ऐसा क्यों कहा है ? (कारण) से आदेश होनेपर-अस्थि तुम, ऐसा होता है ॥ ९॥
तिङाथि ॥ १०॥ - अस् धातुको तिङ् यानी तिम्, इत्यादिके साथ अत्थि ऐसा आदेश होता है। उदा.-अस्थि सो। अस्थि ते। अत्थि तुमं । अस्थि तुम्हे । अत्यि अहं । अस्थि अम्हे ॥ १० ॥ णिजदेदावावे ॥ ११ ॥
धातुको प्रेरणार्थमें कहा हुआ जो णिच् प्रत्यय, उसको अ,ए,आव, आवे ऐसे चार आदेश प्राप्त होते हैं। (अत्, एत् मेंसे) तकार तावन्मात्रव दिखानेके लिए है। उदा.-अत्-दरिसइ। एत्- कारेइ । आव- कारावई। आवे कारावेइ ।। हासावइ हासइ हासावेइ हासेइ। उवसमावइ उसमेइ । बहुलका अधिकार होनेसे, कचित् ए (प्रत्यय लगता) नहीं। उदा.-जाणइ जाणावइ जाणावेइ। कचित् आवे (प्रत्यय लगता) नहीं। उदा.-धावइ धावेइ धावावइ ॥ ११ ॥
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१५४
कम-प्राकृत-व्याकरण
शुष्यादेरविर्वा ।। १२ ।।
(इस सूत्रमें २.४.११ से) णिच् पदकी अनुवृत्ति है। शुष् , इत्यादिके आगे आनेवाले णिच् को अवि ऐसा (आदेश) विकल्पसे होता है। उदा.-शोषितं सोसाविअ सोसि। तोषितं तोसावि तोसि ॥१२॥ भ्रमेराडः ।। १३ ॥
भ्रम् धातुके आगे णिच् (प्रत्यय) आड ऐसा विकल्पसे होता है। उदा.-भमाडइ। विकलापक्षमें-भामइ भामेइ भमात्रइ भमावेइ ॥ १३॥ लुगाविल् भावकर्मक्ते ॥ १४ ॥
__ भाव (और) कर्म के लिए कहा हुआ प्रत्यय तथा क्त-प्रत्यय आगे होनेपर, णिच् प्रत्ययको लुक् और आवि ऐसे आदेश होते हैं। (सूत्रमेंसे लुगा विल में) ल् इत् होनेसे, यहाँ विकल्प नहीं होता। उदा.-भाव और कर्म (प्रत्यय आगे होनेपर)-कारिअइ कागविअइ कारिजइ काराविज्जइ । हासिअइ हासाविअइ हासिज्जइ हासाविज्जइ। क्त प्रत्यय आगे होनेपरकारि काराविरं। हसि हासाविअं। खामिअं खामावि ॥ १४ ॥ अदेल्लुक्यात्खोरतः ॥ १५ ॥
णिच् प्रत्ययके स्थानपर आनेवाले ऐसे कहे हुए जो अत्, एत् और लुक्, वे आगे होनेपर, (धातुमेंसे) खु यानी आद्य अत् का यानी अकारका थात् (आकार) होता है। उदा.-अत्-पाडइ । मारइ । एत्-कारेइ । मारेइ । खामेइ। लुक-कारिअइ कारिज्जइ। खामिअइ खामिज्जइ । अत् , एत्
और लुक आगे होनेपर, ऐसा क्यों कहा है १ (कारण अन्य आदेश आगे होनेपर)-कारावि कारि। काराविअइ काराविज्जइ। खु (आद्य अका, ऐसा क्यों कहा है ? (कारण इसीप्रकार) संगामेइ, यहाँ व्यवहित (अ का मा) न हो। कारिअ, यहाँ अन्य (अ का आ) न हो। अत् का, ऐसा क्यों कहा है ? (कारण-) आसेइ । आवे और आवि प्रत्यय आगे होनेपरभी
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- हिन्दी अनुवाद-अ. २, पा. ४ भाध अ का आ होता है, ऐसा कोई कहते हैं। उदा..कारवेइ । हासाविमो जणो सामलंगीए ।। १५।। तु मौ ॥ १६ ।।
(इस सूत्रम २.४.१५ से) अतः और आत् इन पदोंकी अनुवृत्ति है। अकारान्त धातुके आगे, मि यानी वर्तमानकालीन उत्तमपुरुषके एकवचनका आदेश आगे होनेपर, (अन्त्य अका) आ विकल्पसे होता है। उदा.-हसामि हसमि। जाणामि जाण मि। लिहामि लिह मि | अकारान्त धातुके आगेही ऐसा होता है (अन्य स्वरान्त धारके गे नहीं)। उदा.होमि ।।१६।। मोममुविच्च ।। १७ ।।
(इस सूत्रमें २.४.१६ से) तु पदकी अनुवृत्ति है। अकारान्त धातुके आगे, मो, मु और म ऐसे ये (प्रत्यय) आगे होनेपर, (अन्य) अ का इ, और (सूत्रमेंसे) चकारके कारण आ विकल्पसे होते हैं। उदा.-णिमो भणामो। भणिभ भणाम । भणिभु भणामु। विकल्पपक्षमें-भणमो भणम मणमु । 'वा लड्लोट्छतृषु' (२.४.२०) सूत्रानुसार, विकल्पसे (अ का) ए होनेपर-मणेमो भणेम भणेमु। अकारान्त धातुके आगेही ऐसा होता है (अन्य स्वरान्त धातुके आगे नहीं)। उदा.- होमो । १७ ।। ते ।। १८॥
(इस सूत्रमें २.४.१७ से) इत् पदकी अनुवत्ति है। क्त.प्रत्यय आगे होनेपर, (धातुके अन्त्य) अ का इ होता है। उदा.-हसि। पढि। नमि। हासि। पाढिों। नामि। अ, ग, इत्यादि रूप मात्र उनके सिद्धावस्थाकी अपेक्षासे होते हैं। (धातुमसे अन्त्य) अकाही (इ होता है; इतर अन्त्य स्वरोंका नहीं)। उदा. टूअं । हूअं ॥ १८॥
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त्रिविक्रम-प्राकृत-व्याकरण
एच्च क्त्वातुंतव्यभविष्यति ।। १९।।
क्वा, तुम् और तव्य (ये प्रत्यय) तथा भविष्यकालका ऐसा कहा हुआ प्रत्यय, ये आगे होनेपर, (धातुके अन्त्य) अ का ए, और (सूत्रमेंसे) चकारके कारण इ होते है। उदा.-क्वा-हसेऊण हसिऊण । तुम्-हसेउं। तव्य-हसेअव्वं हसिअव्वं । भविष्यकाल का प्रत्यय-हसे हिइ हसिहिइ । (धातुमेंसे अन्त्य) अकेही (इ अथवा ए होते है; अन्य अन्त्य स्वरोंके नहीं) उदा.-जाऊण | काऊण ।। १२॥ वा लट्लोट्छतृषु ॥ २० ॥
(इस सूत्रों २.४.१९ से) एत् पदकी अनुवृत्ति है। लट् यानी वर्तमानकाल; लोट् यानी पंचमी (=आज्ञार्थ); इन दोनोंके प्रत्यय, तथा शतृ प्रत्यय आगे होनेपर, (धातुमेंसे अन्त्य) अ का ए विकल्पसे होता है।उदा.लट्-हसेइ हसइ। हसेम हसिम। लोट-हसेउ हसउ । सुणेउ सुणउ । शत्हसेन्तो। कचित् (धातुमेंसे अन्य अ का) ए नहीं होता। उदा.-जअइ । कचित् (धातुके अन्त्य अका) आ होता है। उदा.-सुणाइ ।। २० ।। ज्जा ज्जे ॥ २१ ।। - जा और ज्ज प्रत्यय आगे होनेपर, (धातमेंसे अन्त्य) अ का ए होता है। उदा.-हसेज्जा हसेज्ज । (धातुमेंसे अन्त्य) अकाही (ए होता है, अन्य अन्य स्वरोंका नहीं)। उदा. होज्जा होज्ज ।। २१ ।। भूतार्थस्य सी ही ही।। ६२।।।
भूतार्थमें यानी भूतकालके अर्थ कहे हुए जो अनद्यतन, इत्यादि (भूतकालके) प्रत्यय (यानी सूत्रमेंसे भूतार्थ यानी लुङ्, लङ् और लिट् इन तीन भूतकालों के प्रत्यय), उनके स्थानपर सी, हीअ और ही ऐसे तीन
आदेश होते है। अगले (२.४.२३) सूत्र में 'हल ईअ' ऐसा विधान -होनेसे, यह विधि (नियम) स्वरान्त धातुकोही लगता है। उदा.-कासी काहीअ काही, अकार्षीत् अकरोत् चकार वा। इसीप्रकार-ठासी ठाही ठाही ॥२२॥
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हिन्दी अनुवाद-अ. २, पा.४
हल ईअ ॥ २३।।
(इस सूत्र में २.४.२२) से) भतार्थस्य पदकी अनुवृत्ति है। हलन्त (व्यंजनान्त) धातुके आगे आनेवाले भतार्थके यानी लुङ्, इत्यादिके प्रत्ययोंके स्थानपर ईअ ऐसा आदेश होता है। उदा.-भुवीअ, अभूत् , अभवत , बभूक वा। इसीतरह-आसीअ, आसिष्ट आस्त आसांचक्रे वा। गहीअ, अग्रहीत् अगृह्णात् जग्राह वा ।। २३ ।। अहेस्यासी तेनास्तेः ।। २४ ।।।
(सूत्रमेंसे) तेन यानी भतार्थके प्रत्ययोंके साथ, अस् धातुको अहेसि और आसि ऐसे आदेश होते हैं। उदा.-अहेसि सो तुम अहं वा। जे अहेसि, ये आसन् । इसीप्रकार-आति ।। २४ ।। भविष्यति हिरादिः ।। २५ ।।
___भविष्यदर्थमें कहे हुए प्रत्यय आगे होनेपर, उसके पूर्व हि ऐसा प्रयुक्त करें। उदा. होहिइ, भविष्यति भविता वा। होहिन्ति । होहिसि होहित्था। होहिम । हसिहिइ। काहिइ ।। २५ ।। हा र्सा मिमोमुमे वा ।। २६ ।।
(इस सूत्रमें २.४.२५ से) भविष्यति और आदिः पदोंकी अनुवृत्ति है। भविष्यत्यर्थमें, उत्तमपुरुषके आदेश आगे होनेपर, उनके पूर्व हा और
स विकल्पसे प्रयुक्त करें। [मि र् इत् होनेसे, सा का द्वित्व (=स्सा), होता है। विकल्पपक्षमें-हि भी (प्रयुक्त करें)। उदा.-होहामि होस्सामि। होहामो होस्सामो। होहामु होस्सामु । होहाम होस्साम। होहिमो होहिमु होहि मि होहिम। कचित् हा नहीं होता। उदा.-हसिहिमो हसिस्सामो। हसिहिमु हसिस्सामु। हसिहिम हसिस्साम ।। २६ ।। हिस्सा हित्था मुमोमस्य ।। २७ ।।
(इस सूत्रमें २.४.२६ से) वा पदकी अनुवृत्ति है। भविष्यकालमें मु, मो और म इनके स्थानपर हिस्सा और हित्या येधातुके आगे विकल्पसे
होहामो हो विकल्पपक्षमें हि भारत इत् होनेसे, सा का
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२५८
त्रिविक्रम - प्राकृत-व्याकरण
प्रयुक्त करें। उदा. - हो हिस्सा होहित्था | विकल्पपक्षमें - होहिमु होहिमो होहिम । कचित् वैसा नहीं होता । उदा. - होस्सामो, इत्यादि । । २७ ।। उच्छ रशिगम इजादौ हिलक्च वा ।। २८ ॥
1
1
दृश् और गम् इन धातुओंके आगे, भविष्यकाल इत्यादिमेंसे इच् इत्यादि प्रत्यय होनेपर, डित् अच्छ ऐसा विकल्पसे होता है अथवा हि का लोप विकल्पसे होता है । (अच्छ) डित होनेसे, (धातुमेंसे) अन्त्य स्वर के साथ अगले वर्णोंका लोप होता है । उदा . - ( दृश्) - दछि दच्छिहि । दच्छिन्ति दच्छिहिन्ति । दच्छिसि दच्छिहिसि । दच्छित्तथा दच्छिहित्था । दच्छिह दच्छिहिह । दच्छिमि छच्छिहिमि । दच्छिहामि दच्छिस्सामि । दच्छिस्सं दच्छिहिस्सं । दच्छिमो दच्छिहिमो । दच्छिहामो दाच्हिस्सामो । दच्छिहिस्सा दच्छिहित्या । दच्छिम दच्छिहिम । दच्छिहाम दच्छिस्साम । दच्छिमु दच्छिहिमु दच्छिहामु दच्छिरसामु । इसीतरह ( गम् ) - गच्छ गच्छहि । गच्छन्ति गच्छिहिन्ति । गच्छिसि गच्छहिसि । गच्छित्था गच्छिहित्था । गच्छिह गच्छिहिह । गच्छिमि गच्छिहिमि । गच्छिहामि गच्छस्सामि । गहिस्सं गच्छहिस्सं । गच्छिमो गच्छिहिमो । गच्छिहामो गछिस्सामो । गच्छिहिस्सा गच्छहित्था । गच्छिम गच्छिहिम । गच्छिहाम गच्छिस्साम । गच्छिमु गच्छिहिमु । गच्छिहामु गच्छिरसामु ।। २८ ।। भिदिविदिच्छिदो डेच्छ ।। २९ ।। (इस सूत्र में २.४.२८ से) हिलुक्च वा और इजादौ पदाकी अनुवृत्ति है। मिदू, विदू और छिदू इन धातुओंके आगे भविष्यदर्थमें होनेवाले तिप्, त्, इत्यादिके आदेश होनेपर, डित् एच्छ ऐसा यह (आदेश) विकल्प से होता है और हि का शेप विकल्पसे होता है । उदा.- भिद - मेच्छिहि भेच्छिहि । भेच्छिन्ति मेच्छिहिन्ति । भेच्छिसि छिहिसि । च्छिहित्था । भेच्छि भेच्छिहिह । मेच्छिम मेच्छिमि । भेच्छिमि भेच्छिंहिमि । भेच्छिहामि भेच्छिस्सामि । मेच्छिस्सं भेच्छिहिस्सं । मेच्छिमो भेच्छिहिमो । भेच्छिहामो भेच्छित्तामो ।'
--
भेच्छा
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हिन्दी अनुवाद
१५९
-अ. २, पा. ४
|
हिस्सा भेच्छिहित्था | इसीतरह मु और म इनके बारेमें भी । विद्वेच्छिहि वेच्छिहि । वेच्छिन्ति वेच्छिहिन्ति । वेच्छिसि वेच्छिहिसि । वेच्छिथा वेच्छिहित्था | वेच्छिह वेच्विहिह । वेच्छिमि वेच्छिहिमि | वेच्छिहा मि | वेच्छिस्सामि । वेच्छिस्सं वेच्छिहिस्सं । वेच्छिमो वेच्छिहिमो । वेच्छिहामो वेच्छितामो । इसीतरह म और मु इनके छेच्छिन्ति छेच्छिहिन्ति ।
बारेमें भी ।
वेच्छिहिस्सा वेच्छिहित्था | छिदू—छेच्छिइ छेच्छिहिइ । छेच्छिसि छेच्छिहिसि । छेच्छित्था छेच्छिहित्था । छेच्छिह छेच्छिहिह । 1 छेच्छिम छेच्छिहिम । छेच्छिमि छेच्छिहिमि । छेच्छिहामि छेच्छिरसामि । छेच्छिस्सं छेच्छिहिस्सं । छेच्छिमो छेच्छिहिमो । छेच्छिहामो छेच्छिरसामो । छेच्छिहिस्सा छेच्छिहित्था । इसीप्रकार म और मु इनके बारेमें भी ॥ २९॥
I
डोच्छ वचिमुचिरुदिश्रुभुजः ।। ३० ।।
"
वोच्छिमो वोच्छिहिमो ।
वच् (वचि), मुच् (मुचि), रुदू (रुदि), श्रु और भुज् (भुजि ) इन धातुओं के आगे भविष्यदर्थमें रहनेवाले तिप् इत्यादि प्रत्ययों के आदेश होनेपर, डित् ओछ ऐसा (आदेश) विकल्पसे होता है, और हि का लोप विकल्पसे होता है । उदा. च-वोच्छि बोच्छिहि । वोच्छिन्ति वोच्छिहिन्ति । वोच्छिसि वोच्छिहिसि । वोच्त्यिा वोच्छिहित्या | वोच्छिह वोच्छिहिह । वोच्छिमि वोच्छिहिमि | वोच्छिहामि वोच्छिरसामि । वोच्छिस्सं वोच्छिहिस्स । वोच्छिामो वोच्छिस्सामो । वोच्छित्था वोच्छिहित्था । इसीप्रकार म और इनके बारेमें भी । मुच - मोच्छिइ मोच्छिहिइ । मोच्छिन्ति मोच्छिहिन्ति । 1 मोच्छिसि मोच्छिहिसि । मोच्छित्था मोच्छिहित्था | मोच्छिह मोच्छिहिह । 1 मोच्छिमि मोच्छिहिमि । मोच्छिहामि मोच्छिस्सामि । मोच्चिस्स मोच्छिहिस्सं । मोच्छिमो मोच्छिहिमो । मोच्छिहामो मोच्छिरसामो । मोच्छित्था मोच्छिहित्या । इसीप्रकार म और मु. इनके बारेमें भी । रुद्रोच्छिइ रोच्छिहि । रोच्छिन्ति रोच्छिहिन्ति । इसीप्रकार स्सा, इत्यादिके बारेमें
Į
/
--
भी ।
श्रु
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त्रिविक्रम-प्राकृत-व्याकरण
सोच्छिइ सोच्छिहिइ। सोच्छिन्ति सोच्छिहिन्ति । सोच्छिसि सोच्छिहिसि । इसीप्रकार इद इत्यादिके बारेमें भी । भु-भोच्छिइ भोच्छिहिए। भोच्छिन्ति भोच्छिहिन्ति । भोच्छिसि भोच्छिहिसि। इसीप्रकार इट, इत्यादिके बारेमें भी ।। ३०।। डं मेश्छात्ततः ।। ३१।। ___ भविष्यकालमें दृश्, इत्यादि धातुओंके अगले, पूर्व (तीन) सूत्रोंमें (२. ४.२८-३०) कहे हुए उच्छ, डेच्छ और डोच्छ इनमेंसे जो च्छकार, उसके अगले मि के (यानी उत्तमपुरुष एकवचनके) आदेशके स्थानपर डित् अं ऐसा आदेश विकल्पसे होता है। उदा. दच्छं द्रक्ष्यामि । गच्छं गमिष्यामि । संगच्छं संगस्ये। भेच्छं भेत्स्यामि । वेच्छं वेदिष्यामि। छेच्छं छेत्स्यामि । वोच्छं वक्ष्यामि। मोच्छं मोक्ष्यामि। रोच्छ रोदिष्यामि। सोच्छं श्रोष्यामि । भोच्छं भोक्ष्ये। विकल्पपक्षमें-दच्छिमि दच्छिहि मि दच्छिहामि दच्छिस्सामि दच्छिस्सं। इसीप्रकार गम् , इत्यादि धातुओंके उदाहरण लेना। (सूत्रमें) छ के बाद आनेवाले, ऐसा क्यों कहा है ? इसका कारण-हि, हा, स्सा इनके आगे ऐसा न हो इसलिए। उदा.-गच्छिहि मि गच्छिहामि गच्छिस्सामि ।। ३१।। कृदो हं ।। ३२ ।।
(इस सूत्रमें २.४.३१ से) मेः पदकी अनुवृत्ति है। कृ (करोवि) और दा (ददाति) इनके आगे, भविष्यकालमें कहे हुए मि के स्थानपर हं ऐसा विकल्पसे प्रयुक्त करें। उदा.-काहं। दाहं। विकल्पपक्षमें काहि मि. दाहिमि, इत्यादि ।। ३२।। सं ।। ३३ ।।
धातुके आगे भविष्यकाल में मि के स्थानपर से ऐसा विकल्पसे होता है। (संमेंसे) र् इत् होनेसे, (सका) द्वित्व होता है। उदा..होस्सं हविस्स। विकल्पपक्षमे-होहिमि होहामि होस्सामि, इत्यादि ।। ३३ ।। :
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हिन्दी अनुवाद-प्र. २, पा.४
त्विज्जाल्लिङः ॥ ३४ ॥
लिङ् यानी सप्तमी (=विध्यर्थ) का आदेश ऐसा जो 'जा', उसके आगे इकार विकल्पसे प्रयुक्त करें। उदा.-होज्जा होज्जाइ भवेत् । (यहाँ) बा का अधिकार होनेपरभी, पुनः (सूत्रमें) तु ऐसा कहा जानेसे, अगले सूत्रमें विकल्प नहीं होता ।। ३४ ॥ एकस्मिन् प्रथमादेविध्यादिषु दु सु मु ॥ ३५॥
विधि, इत्यादिमें यानी विधि, निमंत्रण, आमत्रंण, अभीष्ट, संप्रश्न और प्रार्थना, इनमें होनेवाले प्रथम, इत्यादिके यानी प्रथम, इत्यादि पुरुषोंके एकवचनमें होनेवाले प्रत्ययोंके स्थानपर यथाक्रम दु, सु और मु ऐसे आदेश होंगे। उदा.-हसउ सा। हससु तुमं । हसामु अहं । पेच्छउ पेछन पेच्छामु । (दुमेंसे) दकारका उच्चार अन्य भाषाओंके लिए है ॥३५॥ बहौ न्तु ह मो ॥ ३६॥
विधि, इत्यादि अर्थोंमें कहे हुए प्रथम, मध्यम और उत्तम पुरुषोंके बहुवचनमें होनेवाले प्रत्ययोंके स्थानपर यथाक्रम न्तु, ह और मो ऐसे आदेश होते हैं। उदा.-हसन्तु, हसन्तु हसेयुः वा । हसह, हसत हसेत वा। हसामो, हसाम हसेम वा । इसीप्रकार-तुवरन्तु तुवरह तुवरामो। इसीप्रकार सर्व धातुओंके बारेमें उदाहरण जानें ॥ ३६॥ सोस्तु हि ॥ ३७॥
विधि, इत्यादि अर्थो में सु के यानी मध्यमपुरुष एकवचनके स्थानपर हि ऐसा आदेश विकल्पसे होगा। उदा.-देहि देसु । होहि होसु ॥३७॥ लुगिज्जहीजस्विज्जेऽतः ॥ ३८ ॥
(इस सूत्रमें २.४.३७ से) सोः और तु पदोंकी अनुवृत्ति है। अत् के आगे यानी (धातुके अन्त्य) अकारके आगे सु के स्थानपर लोप, और इजहि, इनस, इब्जे ऐसे तीन आदेश विकल्पसे होते हैं। वि.प्रा.म्या....११
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त्रिविक्रम-प्राकृत-ध्याकरण उदा.-हस हसिज्जहि हसिज्जसु हसिज्जे। विकल्पपक्षमें-हससु । अकारके आगे, ऐसा क्यों कहा है ? (कारण इतर स्वरोंके आगे ऐसा नहीं होता)। उदा.-होसु ठाहि ॥ ३८ ॥ लड्लटोश्व जर्जारौ ।। ३९ ॥
___ लट् और लृट् इनमें यानी वर्तमानकाल तथा भविष्यकाल इनमें तथा (सूत्रमेंसे) चकारके कारण विधि, इत्यादिमें कहे हुए प्रत्ययोंके स्थानपर ज और जा ऐसे ये रित् (प्रत्यय) विकल्पसे होते हैं। (सूत्रमेंसे जर्जरी में) र् इत् होनेसे, (ज का) द्विव (=ज) होता है। उदा.-लट्हसेज्ज हसेज्जा। पढेज्ज पढेज्जा। सुणेज सुणेज्जा। विकल्पपक्षमें--- हसइ । पढइ । सुणइ । लट्-पढेज्ज पढेज्जा । सुणेज्ज सुणेज्जा। विकल्पपक्षमेंपढिहिइ । सुणिहिइ । विधि, इत्यादिमें-हसेज्ज हसेउजा, हसतु हसेत् वा । विकल्पपक्षमें-हसउ। इसीतरह सब पुरुषों में और सब वचनोंमें अन्य लकारों के बारे में भी होता है (ऐसा कोई) कहते हैं। उदा-होज्ज होज्जा,भवति भवेत् भवतु अभवत् अभूत् बभूव भूयात् भविता भविष्यति अभविष्यत् ऐसा अर्थ (होता है) ॥ ३९ ॥
मध्ये चाजन्तात् ॥ ४० ॥
(इस सूत्रमें २.४.३९ से) जर्जारौ पदकी अनुवृत्ति है । लट्, लूटू और विधि, इत्यादिमें, अजन्त यानी स्वरान्त धातुके बारेमें, प्रकृति और प्रत्यय इनके बीचमें, तथा (सूत्रमेंसे) चकारके कारण प्रत्ययोंके स्थानपर, जर और जार् ये दो आदेश होते हैं। उदा.-होज्जइ होज्जाइ। होज्ज होजा। होज्जहिमि होज्जा हिमि। विधि, इत्यादिमें-होजइ होज्जाइ । होज्ज होज्जा। भवतु भवेत् वा। विकल्पपक्षमें-होइ। स्वरान्त धातुके बारेमें, ऐसा क्यों कहा है ! (कारण व्यंजनान्त धातुके बारेमें ऐसा नहीं होता)। उदा.-हसेज्ज हसेज्जा। तुबरिज तुव रिज्जा ।। ४०।।
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हिन्दी अनुवाद-अ.२, पा. ४
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माणन्तौल च ङलः ।। ४१ ॥
लुङ् यानी क्रियातिपत्ति (=संकेतार्थ); उसके जो तिप् और त (ऐसे दो प्रत्यय हैं),उनके स्थानपर माण और न्त ऐसे ये (दो), तथा (सूत्रमेंसे) चकारके कारण जर् और जार ऐसे होते हैं। (जर और जानें र् इत् होनेसे, ज और जा का द्वित्व होता है)। (सूत्रमेंसे माणन्तौल में) ल इत् होनेसे, यहाँ विकल्प नहीं होता। उदा. होमाणो होन्तो होज्ज होजा। (यानी) अभविष्यत् ऐसा अर्थ ॥ ४१ ॥ शतृशानचोः ॥ ४२ ॥
(इस सूत्रमें २.२.४ १ से) माणन्तौ पदकी अनुवृत्ति है। शतृ और शानच् इन दो प्रत्ययों के स्थानपर माण और न्त ऐसे ये (दो) प्रत्येकको होते हैं। उदा.-शत-इसमाणो हसन्तो शानच-सहमाणो सहन्तो ।। ४२ ॥ स्त्रियामी च ।। ४३॥
स्त्रीलिंगमें रहनेवाले शतृ और शानच् इन प्रत्ययोंके स्थानपर ई, और (सूत्रमेंसे) चकारके कारण माण और न्त होते हैं। उदा.-हसई हसमाणा हसन्ती। वेवई वेवमाणा वेवन्ती ।। ४३ ॥ धेत तुंतव्यक्त्वासु ग्रहः ।। ४४ ।।
तुम्, तव्य और क्त्वा प्रत्यय आगे होनेपर, ग्रह धातुको धेत् ऐसा (आदेश) होता है। उदा.-तुम् -धेत्तुं। तव्य-घेत्तव्वं । क्वा-घेत्तुआण घेत्तण। कचित् ऐसा नहीं होता। उदा.-गहिउं। गेण्हिअ ।। ४४ ।। अन्त्यस्य वचिमुचिसदिश्रुभुजां डोत् ।। ४५ ।।
(इस सूत्र, २.४.४ ४ से) तुंतव्यवत्वासु पदकी अनुवृत्ति है। बच् (वचि), मुच (मुचि), रुद् (रुदि), श्रु और भुज् (भुजि) इन धातुओंके अन्त्य वर्णको, तुं, त य और क वा प्रत्यय आगे होनेपर, डित् ओ ऐसा
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त्रिविक्रम-प्राकृत-व्याकरण
आदेश होता है। उदा.-वच्-वोत्तुं। वोत्तव्वं । वोत्तुआण वोत्तूण । मुच मोत्तुं । मोत्तव्वं । मोत्तुआण मोत्तूण ।। रुद्-रोत्तुं । रोत्तव्यं । रोत्तुआण रोत्तण।। श्रु-सोत्तुं। सोत्तव्वं । सोत्तुआण सोत्तण ।। भुज-भोत्तुं । भोत्तव्वं । भोत्तुआण भोत्तण ।। ४५।। ता हो दृशः ।। ४६ ।।
(इस सूत्रमें २.४.४५ से) अन्त्यस्य पदकी अनुवृत्ति है। तुं, तव्य और क्या प्रत्यय आगे होनेपर, उन प्रत्ययोंका आद्य तकारके साथ, दृश् धातुके अन्त्य वर्णका द्विरुक्त ठकार (=) होता है । उदा.-दटुं। दट्ठवं। दछुआण दळूण ।। ४६ ।।
आ भूतभविष्यति च नः ॥ ४७ ।।
भूतकाल और भविष्यकाल इनके प्रत्यय, तथा (सूत्रमेंसे) चकारके कारण तुम् , तव्य और क्त्वा प्रत्यय, ये आगे होनेपर, कृ (कृन् ) धातुके अन्त्य वर्णको आ ऐसा आदेश होता है। उदा. काहीअ, अकार्षीत् अकरोत् चकार वा ।। काहिइ, करिष्यति कर्ता वा ॥ तुम्-काउं। तव्य-काअब। क्त्वा-काउआण काऊण ॥ ४७ ॥ नमोद्विजरुदां वः ।। ४८॥
नम् , उद्विज और रुद् धातुओंके अन्त्य वर्णका वकार होता है। उदा.-णवइ। उबिवइ उव्वेइ । रुवइ रोवइ ।। ४८ ।। चर् नृतिमदिव्रजाम् ।। ४९ ॥
नृत् , मद्, व्रज् धातुओंके अन्त्य वर्णका चकार होता है। (सूत्रमैसे चर् में) र् इत् होनेसे, (च का) द्वित्व (=च्च) होता है। उदा.-णच्चइ । मञ्चह। वच्चइ ॥ १९॥
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हिन्दी अनुवाद-अ.२, पा.४
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छर् गमिष्यमासाम् ॥ ५० ॥
गम् , इष्, यम् और आस् धातुओंके अन्त्य वर्णका छ होता है। (सूत्रमेंसे छर् में) र् इत् होनेसे) (छ का) द्वित्व (=च्छ) होता है। उदा.गच्छइ । इच्छइ । जच्छइ। अच्छह ॥ ५० ॥
रुधो धम्भौ ।। ५१ ॥
रुध् धातुके अन्त्य वर्णको न्ध और म्भ ऐसे ये आदेश होते हैं। उदा.-रुन्धइ । रुम्भ ।। ५१ ॥
युधबुधगृधक्रुधसिधमुहां च ज्झः ॥ ५२ ॥
युध, बुध् , गृध, क्रुध्, सिध् , मुह इन धातुओंके, तथा (सूत्रमेंसे) चकार के कारण रुध् धातुके, अन्त्य वर्णका द्विरुक्त झकार (=ज्झ) होता है। उदा.-जुज्झइ । बुज्झइ । गिज्झइ। कुज्झइ । सिज्झइ । मुल्झइ । रुज्झइ ॥ ५२ ।। जर् स्त्रिदाम् ॥ ५३॥
स्विद् प्रकारके धातुओंके अन्त्य वर्णका ज होता है। (सूत्रमेंसे जर में) र् इत् होनेसे, (ज का) द्वित्व (ज) होता है। उदा.-सिजइ । सव्यंगसिरीए संपज्जइ, सांगश्रिया संपद्यते। खिजइ । प्रयोगका अनुसरण करें, इसलिए (स्त्रिदाम् ) ऐसा बहुवचन (सूत्रमें) है ।। ५३ ।।
छिदिभिदो न्दः ॥ ५४ ॥
छिद् और भिद् धातुओंके अन्त्य वर्णको न्द, ऐसा आदेश होता है उदा.-छिन्दइ। भिन्दइ ।। ५४ ॥
द: कथिवर्धाम् ॥ ५५॥
क्वथ् और वृध् धातुओंके अन्त्य वर्णका ढ होता है। उदा.-कढइ । बड्ढइ । (सूत्रमें वर्धाम् ऐसा) बहुवचन होनेसे, जिसमें गुण किया गया
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त्रिविक्रम-प्राकृत-व्याकरण है ऐसे वृध धातुकाभी थोडा भी बदल न होते (अविशेषेण) ग्रहण होता है ॥ ५५ ॥ वेष्टेः ॥ ५६ ॥
(इस सूत्रमें २.४.५५ से) ढः पद (अध्याहृत) है। वेष्टन अर्थमें होनेवाले वेष्ट धातुमें, 'कगटड' (१.४.७७) इत्यादि सूत्रानुसार एका लोप होनेपर, (शेष) ट का ढ होता है। उदा.-वेढइ । वेढिज्जइ ॥ ५६ ॥ समुदो लर् ॥ ५७ ॥
सम् और उद् उपसगों के आगे रहनेवाले वेष्ट धातुके अन्त्य वर्णका रित् लकार होता है। (सूत्रमेंसे लर् में र् इत् होनेसे, लकारका द्वित्व होता है)। उदा-संवेल्लइ। उबेछ।। बहुलका अधिकार होनेसे, उद् (उपसर्ग) के अगले (वेष्ट धातु के अन्त्य वर्णका) विकल्पसे ढ भी होता है। उदा.-उज्वेल्लइ उव्वेढइ ॥ ५७ ॥ खादधावि लुक् ॥ ५८ ॥
खाद् और धाव् धातुओंमें अन्य वर्णका लोप होता है। उदा.खाइ खाअइ। खाओ खाइओ। धाइ ध अइ। धाओ। धाइओ। बहुलका अधिकार होनेसे, वर्तमानकाल, भविष्यकाल, विधि, इत्यादिके एकवचनमेंही (इन धातुओंके अन्त्य वर्णका लोप) होता है, इसलिए यहाँ (आगे दिये उदाहरणोंमें) नहीं होता। उदा.-खादन्ति । धावन्ति । कचित् 'धावइ पुरओ' ऐसा भी (वाड्मय में) दिखाई देता है ।। ५८ ।। रः सृजि ॥ ५९॥
सृज् धातुमें अन्त्य वर्णका र होता है। उदा.-विसरइ । ओसरइ । ओमगमि ॥ ५९॥ डः सादपति ।। ६० ।।
.. सद् (सीदति) और पत् (पतति) धातुओंमें अन्त्य वर्णका ड होता है। उदा.-सडइ । पडइ ।। ६० ।
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हिन्दी अनुवाद-अ. २, पा.४
मीले प्रादेहूँ तु ॥ ६१ ॥
प्र, इत्यादि उपसगोंके अगले मील (मीलि) धातुके अन्त्य वर्णके दो रूप विकल्पसे होते हैं। उदा.-पमिहइ । पमीलइ। निमिल्लइ निमीलइ । संमिश्लइ संमीलइ। उम्मिल्लइ उम्मीलइ। प्र, इत्यादि उपसर्गोके अगले, ऐसा क्यों कहा है ? (कारण उपसर्ग पीछे न हो तो ऐसे दो रूप नहीं होते)। उदा.-मीलइ ॥ ६१ ॥ चलस्फुटे ।। ६२ ।।
(इस सूत्रमें २.४.६१ से) द्वे पदकी अनुवृत्ति है। चलू और स्फुट धातुओंमें अन्त्य वर्णके दो रूप विकल्पसे होते हैं । उदा.-चलूइ चलइ । फुइ फुडइ ।। ६२ ।। शकगे ।। ६३ ॥
शक्, इत्यादि धातुओंमें अन्य वर्णके दो रूप होते हैं। यह सूत्र (२.४.६२ से) पृथक् कहा जानेसे, (यहाँका वर्णान्तर) नित्य हेता है। उदा.-शक्-सक्कइ । मृग-मन्गइ। लग लगइ । सिच (पिच)- सिचाइ । अट्-दृइ । लुट-सुदृ३ । त्रुट-दृइ । वुप्-वुप्पइ। जिम्-जिम्मइ । नश् (ण)-णस्सइ । इत्यादि ॥ ६३ ॥ उवर्णस्यावः ॥ ६४ ॥
__धातुके अन्त्य उ-वर्णको अब ऐसा आदेश होता है। 3८1.-हु (हु)-निन्हवइ । च्यु-चवइ । रु-रवइ । कु-कवइ । सु-सवइ । पसवइ ॥ ६४ ॥ योरेछ ।। ६५ ॥
(सूत्रमेंसे यु यानी) इ और उ=यु, उस युके-धातुमेंसे उस इ-वर्ण और उ-वर्ण इनके-एङ् यानी ए और ओ यथाक्रम होते हैं। (यानी) इ-वर्णका एकार और उ-वर्णका ओकार (होते हैं)। उदा.-जेउण जित्वा ।
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त्रिविक्रम-प्राकृत-व्याकरण नेऊण नीत्वा । नेइ नयति । उड्डेइ उड्डयति । सोऊण श्रुत्वा । कचित् (ऐसा वर्णान्तर) नहीं होता। उदा.-नीओ । उड्डीणो ।। ६५ ॥ अर उः ।। ६६ ।।
धातुके अन्त्य ऋ-वर्णको अर ऐसा आदेश होता है। उदा.-करइ । धरइ। वरइ । सरइ । भरइ । मरइ । तरइ । जरइ ।। ६६ ॥ अरि वृषाम् ।। ६७ ।।
वृष् प्रकारके धातुओंके ऋ-वर्गको अरि ऐसा आदेश होता है। उदा.-वृष्-वरिसइ । मृष्-मरिसइ । कृष्-करिसइ । हृष्-हरिसइ । प्रयोगका अनुसरण करें यह दिखाने के लिर (वृषाम्) ऐसा बहुवचन (सूत्रामें) है ।।६७।। रुपगेऽचो दिः ॥ ६८ ॥
हर, इत्यादि धातुओं i, अव् का यानी स्वरक दीर्घ होता है। उदा.-रुर रूह। शुर-पूतह । दुर-दून। तुष्-जूपइ। पुष्-मूसह। शिष्सीसइ। इत्यादि । ६८ ॥ हलोऽक् ॥ ६९॥
हलन्त (=ज्यं जनान्त) धातुके आगे अक् ऐसा आगम होता है। (अक् मेंसे) ककार अन्त का विधि दिवाने के लिए है । उदा. हसइ । भभइ। रमइ । गच्छइ । भुज्जइ । उवसमइ । पावह। सिंचा। रंधइ। मुसइ। वहइ। सहइ। शस्, इत्यादि धातुओंके प्रयोग प्रायः नहीं होते ॥ ६९ ॥ त्वनतः ।। ७०॥
___ (इस सूत्रमें २.४.६९ से) अक् पद (अध्याहृत) है। अकारान्त धातुको छोडकर (अन्य) धातुके आगे अक् का आगम विकल्पसे होता है। उदा.-पाअइ पाइ । ठाअइ ठाइ । वाअइ वाइ । धाअइ धाइ। जाअइ जाइ । झाअइ झाइ । भाइ भाइ, बिभेति भाति वा। जम्भाअइ जम्भाइ जम्भते। उव्वाअइ उब्दाइ उन्दाति। मिलाइ मिलाइ,म्लायते। विक्केअइ विक्केइ,
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हिन्दी अनुवाद-अ.२, पा. ४ विक्रीणीतें। अकारान्त धातुको छोडकर, ऐसा क्यों कहा है ! (कारण अकारान्त धातुके आगे अक् नहीं आता)। उदा.-चिइच्छइ चिकित्सते ।। ७०॥ अचोऽचाम् ।। ७१ ॥
धातुमेंसे अच् के यानी स्वरोंके स्थानपर (अन्य) स्वर बहुलत्वसे आते हैं। उदा.-हवइ हिवइ । चिणइ चुणइ। सद्दहणं सदहाणं। धावह धुवइ । रुवइ रोबइ। कचित् (ऐसा परिवर्तन) नित्य होता है। उदा.जेइ । चेइ । देइ । लेइ । विहेइ । नासइ ।। ७१ ॥ णो हश्च चिजिपूश्रुधूस्तुहुलूभ्यः ।। ७२ ।।
चि, जि, पू, श्रु, धू, स्तु, हु और लू इन धातुओंके आगे ण ऐसा आगम होता है, और उसके सानिध्यके कारण ह का यानी दीर्घका व्हस्व होता है। उदा.-चिणइ । जिणइ । पुणइ । सुणइ। धुणइ । थुणइ । हुणइ । लुणइ। बहुलका अधिकार होनेसे, कचित् विकल्प होता है उदा.-उच्चेणइ उच्चेइ। जिणिऊण जेऊण | जिणइ जेणइ। सुणिऊण सोऊण ।। ७२ ।। भावकर्मणि तु वर्यग्लुक् च ॥ ७३ ।।
भावे और कर्मणिमें रहनेवाले चि, जि, पू, श्रु, धू, स्तु, हु और ल् धातुओंके आगे चकारका आगम विकल्प से होता है। और उसके सांनिध्यके कारण यक् प्रत्ययका लोप होता है। (सूत्रमेंसे वर में) र् इत् होनेसे, (व का) द्वित्व (=व्व) होता है। उदा.-चिब्वइ चिणिज्जइ । जिव्वइ जिणिज्जइ। पुबइ पुणिज्जइ । सुबइ सुणिज्जइ । धुम्बइ धुणिज्जइ । इसीप्रकार भविष्यकालमें चिवहिइ चिणिज्जि हिइ, इत्यादि ।। ७३ ।। मर्चेः ॥ ७४॥
(इस सूत्रमें २.४.७३ से) भावकर्मणि पदकी अनुवृत्ति है । भावकर्मणिमें चि धातुके आगे रित् म-आगम होता है, और उसके सानिध्यके
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त्रिविक्रम - प्राकृत-व्याकरण
कारण यक् का लोप होता है । चिम्मइ । विकल्प पक्ष में चिव्वइ चिणिञ्जइ भविष्यकाल में चिम्महिइ, चिव्यहि, चिणिज्जहि (इत्यादि) ।। ७४ ॥ अन्त्यस्य हनखनोः ॥ ७५ ॥
(इस सूत्र में २.४.७४ से) मर् पद (अध्याहृत) है । भावकर्मणि हन् और खन् धातुओंके अन्त्य वर्णको रित् म-आगम विकल्पसे होता है, और उसके सांनिध्यके कारण यक् का लोप होता है । उदा.- हम्मइ हणिज्जइ । खम्मइ खणिज्जइ । भविष्यकाल में- हम्मिहिइ हणिज्ज हिइ, खम्मिहिइ खणिज्जहिइ । बहुलका अधिकार होनेसे, हन् धातुके कर्तरि रूप में भी (म् का आगम रित् होता है ) । उदा. - हम्मर (यानी ) हन्ति ऐसा अर्थ । कचित् (म का आगम नहीं होता) । उदा . - हन्तव्वं । हन्तूण । हओ
|
॥ ७५ ॥
दुहलिवहरुहां भरत उच्च ।। ७६ ।। दुइ, लिहू, बहू, रुह धातुओं के अन्त्य वर्णका रितू भकार विकल्प से होता है, और उसके सांनिध्य के कारण यक् का टोप होता है। बहु धातुमें अ का उकार होता है | उदा. दुब्नइ दुहिज्जइ । लिम्भइलिजिइ । वुम्भइ हिज्जइ । रुभइ रुहिज्जइ । भविष्यकाल में दु भिहिइ, दुहिज्जह, इत्यादि ।। ७६ ।।
दहेर्झर् ॥ ७७ ॥
(इस सूत्र में २.४.७५ से ) अन्त्यस्य पदकी अनुवृत्ति है । भावकर्मणिमें दहू धातुमेंसे अन्त्य वर्णका रितू झकार विकल्पसे होता है, और उसके सांनिध्यसे यक् का लोप होता है । उदा. - उज्झइ डहिज्जइ । भविष्यकाल में - इज्झि हिइ डहिज्जहिइ || ७७
॥
बन्धो न्धः ।। ७८ ॥
(इस सूत्र में २.४.७७ से) झर् पदकी अनुवृत्ति है । न्ध का भात्रकर्मणिमें झर् ऐसा आदेश विकल्पसे होता है,
बन्धू धातुके और उसके
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हिन्दी अनुवाद-अ.२, पा. ४ सांनिध्यसे यक् का लोप होता है । उदा.-बज्झइ बन्धिज्जइ । भविष्यकाल मेंबञ्झिहिइ बंधिजहिइ ।। ७८ ॥ रुध उपसमनोः ॥ ७९॥
उप, सम् और अनु इन उपसगाके आगे रुन्ध धातुके अन्त्य वर्णका भावकर्मणिमें झर् विकल्पसे होता है, और उसके सानिध्यसे यक् का लोप होता है। उदा.-उवरज्झइ । संरुज्झइ । अणुरुज्झइ। विकल्पपक्षमें-उवरु-- न्धिज्जइ। संरुन्धिज्जइ। अणुरुन्धिजइ। भविष्य कालमें-उवरुज्झहिइ । संरुज्झहिइ। इत्यादि ।। ७९ ।। द्वे गमिगे ।। ८० ॥
गम् , इत्यादि धातुओंमें अन्त्य वर्णोंके भावकर्मणिमें दो रूप होते हैं और उनके सांनिध्यसे यक् प्रत्ययका लोप होता है। उदा.-गम् गम्मइ गमिज्जइ। हस्.हस्सइ हसिज्जइ। भण-भण्णइ भणिज्जइ। लुभ् लुब्भइ. लुभिज्जइ। कथ्-कत्थइ कहिज्जइ। कुप्-कु.प्पइ कुविज्जइ। भुज-भुज्जइ भुजिज्जइ। रुद-रुबइ रुविजइ। 'नमोदिजरुदाम्' (२.४.४८) इस सूत्रानुसार जिसमें वकारका आदेश किया गया है वह रुद् धातु यहाँ लिया है। भविष्यकालमें-गम्मिहिइ गष्ठिज्ज हिइ, इत्यादि ।। ८० ॥ ईर हृकृतजाम् ॥ ८१ ।।
भावकर्मणिमें हृ (हन), कृ (कृञ् ), त और ज़ इन धातुओंके अन्त्य वर्णका ईर ऐसा आदेश विकल्पसे होता है, और उसके सानिध्यसे यक् का लोप होता है। उदा.-हीरइ हरिज्जइ। कीरइ करिज्जइ। तीरइ तरिज्जइ। जीरइ जरिज्जइ ॥ ।। ८१ ॥ अर्जेविढप्पः ।। ८२ ॥ ..(यहाँ) 'अन्त्यस्य' पदकी निवृत्ति हुई। भावकर्मणिमें अर्जु धातुको विढप्प. ऐसा आदेश विकल्पसे होता है, और उसके सानिध्यसे यक् का
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त्रिविक्रम-प्राकृत-व्याकरण लोप होता है। उदा.-विढप्पइ। विकल्पपक्षमें-अज्जिजइ विढप्पिज्जइ 11 ८२॥
आरभ आढप्पः ।।८३॥
भावकर्मणिमें आरभ् धातुको आढप्प ऐसा आदेश विकल्पसे होता है, और यक् का लोप होता है। उदा.-आढप्पइ। विकल्पपक्षमेंआरभिजह आढपिज्जइ ।। ८३ ।। णप्पणज्जौ ज्ञः ॥ ८४ ॥
भावकर्मणिमें ज्ञा (जानाति) धातुको गप्प और णज्ज ऐसे आदेश विकल्पसे होते हैं, और यक् का लोप होता है। उदा.-णप्पइ । णज्जइ । विकल्पपक्षमें-जाणिज्जइ। मुणिज्जइ । 'ज्ञम्नोः' (१.४.३७) सूत्रानुसार (ज्ञा मेंसे ज्ञ का) ण होनेपर, णाइज्जइ (ऐसा रूप होगा)। नव पूर्व होनेचाले ज्ञा का अणाइज्जइ (ऐसा रूप होगा) ॥ ८४ ॥
सिप्पः सिचस्निहोः ॥ ८५ ॥
___ भावकर्मणिमें सिच् (सिञ्चति) और स्निइ धातुओंको सिप्प ऐसा आदेश विकल्पसे होता है, और यक् का लोप होता है। उदा.-सिप्पड़ सिच्यते स्निह्यते वा। विकल्पपक्षमें सिंचिज्जइ । हिज्जइ ॥ ८५ ॥
चाहिप्पो व्याहुः ॥ ८६ ॥
व्याहृ (व्याहरति) धातुको भावकर्मणिमें वाहिप्प ऐसा आदेश विकल्पसे होता है, और यक् का लोप होता है। उदा.-वाहिप्पइ । विकल्पपक्षमें-बाहरिज्जइ ॥ ८६ ॥ अहेर्धेप्पः ॥ ८७ ॥
___ भावकर्मणिमें ग्रह धातुको घेछ ऐसा आदेश विकल्पसे होता है,और यक् का लोप होता है। उदा.-घेप्पइ । विकल्पपक्षमें-हिज्जइ । ८७ ॥
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हिन्दी अनुवाद-अ. २, पा. ४
१७हे. छिप्पः स्पृशतेः ॥ ८८ ॥
भावकर्मणिमें स्पृश् (स्पृशति) धातुको छिप्प ऐसा आदेश विकल्पसे होता है, और यक् का लोप होता है। उदा.-छिप्पइ। विकल्पपक्षमेंछिविज्जइ ।। ८८ ॥ दीसल् दृशेः ।। ८९ ॥
भावकर्मणिमें दृश् (दृशि) धातुको लित् (=नित्य) दीस ऐसा आदेश होता है, और यक् का लोप होता है। उदा.-दीसइ ।। ८९ ।। वचेरुश्चः ॥ ९० ॥
__ भावकर्मणिमें वच् (वचि) धातुको उच्च ऐसा आदेश विकल्पसे होता है, और यक का लोप होता है। उदा.-उञ्चइ। विकल्पपक्षमें-बइज्जइ ॥ ९० ॥ ईअइज्जौ यक् ।। ९१ ।।
अपवादके निमित्तसे यह नियम कहा है। भावकर्मणिमें कहा हुआ जो यक् प्रत्यय है, उसको ईअ और इज्ज ऐसे आदेश होते हैं। उदा.हसीअइ हसिज्जइ। हसीअन्तो हसिज्जन्तो। हसीअमाणो हसिज्जमाणो । पढीअइ पढिज्जइ। होईअइ होइज्जइ। बहुलका अधिकार होनेसे, क्वचित् यक् प्रत्ययभी विकल्पसे होता है। उदा.-तेण लहिज्ज । तेण लहिज्जेज्ज । मर णवेज्ज । मए णविजेज। तेण अच्छिज्ज | तेण अच्छिज्जेज्ज । तेण अच्छीअइ ॥ ९१ ॥ स्पृहदूझोः सिहौ णिचोः ।। ९२ ।।
णिच् प्रत्ययान्त (प्रेरणार्थी प्रत्ययान्त) स्पृहू और दू (दूध) धातुओंको सिह और दूम ऐसे आदेश यथाक्रम होते हैं। उदा.-सिहइ । दूमइ ।।९।।
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२७४
त्रिविक्रम-प्राकृतः-ध्याकरण
निवृपतोणिहोडो वा ।। ९३ ॥
(इस सूत्रमें २.४.९२ से) णिचोः पदकी अनुवृत्ति है। णिच् प्रत्ययान्त, नि (उपसर्ग) जिसके पूर्व है ऐसा वृ (वृन् ) और पत् (पति) इन धातुओंके स्थानपर णिहोड ऐसा आदेश विकल्पसे होता है। उदा.णिहोडइ निवारयति पातयति वा। विकल्पपक्षमें-णिवारेइ । पाडेइ ।।९३।। 'धवलोद्घटोर्दुमोग्गौ ॥ ९४ ।।
__(इस सूत्रमें. २.४.९३ से) वा पदकी अनुवृत्ति है। णिच् प्रत्ययान्त धवलयति और उत् (उपसर्ग) पूर्व होनेवाला घटयति, इनको विकल्पसे दुम
और उग्ग ऐसे आदेश यथाक्रम होते हैं। उदा.-दुमइ । उग्गइ। विकल्प“पक्षमें-धवलेइ। उग्घाडेइ । 'अचोऽचाम्' (२.४.७१) सूत्रानुसार, दुममेंसे (उ का) अ होनेपर-दमि धवलिअं ।। ९४ ।।
भ्रमवेष्टयोस्तालिअण्टपरिआलौ ।। ९५ ।।
णिच्-प्रत्ययान्त ऐसे भ्रम् और वेष्ट धातुओंको तालिअण्ट और परिआल ऐसे ये (आदेश) यथाक्रम विकल्पसे होते हैं। उदा.-तालिअण्टइ विकल्पपक्षमें-भमाडइ। भमाडे । भामइ। भामावइ। भामावेइ। वेष्टपरिआलइ। विकल्पपक्षमें-वेढइ ।। ९५ ॥ रावो रञ्जयतेः ।। ९६ ।।
णिच्-प्रत्ययान्त रञ्जयति धातुको रात्र ऐसा आदेश विकल्पसे होता है। उदा.-रावेइ। विकल्पपक्षमें-रजेइ ।। ९६ ।। तुलिडोल्योरोहामरक्खोलौ ॥ ९७ ।।
. णिच्-प्रत्ययान्त तुलयति और दोलयति नामधातुओंको यथाक्रम ओहाम और रक्खोल ऐसे. ये (आदेश) विकल्पसे होते हैं। उदा.ओहामइ 1 रक्खोलइ । विकल्पपक्षमें-तुलइ । डोलइ ।। ९७ ।।
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हिन्दी अनुवाद-अ.२, पा.४
वासंघः संभावः ॥ ९८ ।।
णिच-प्रत्ययान्त मुंभावयति धातुको आसंघ ऐसा (आदेश) विकल्पसे होता है । उदा.-आसंघइ । विकल्पपक्षमें-संभावेइ, संभावयति ।। ९८ ।।
अरल्लिवपणामचच्चुप्पाः ।। ९९ ॥
णिच्-प्रत्ययान्त अर्पयति धातुको अल्लिव, पणाम और चचुप्प ऐसे ये तीन आदेश विकल्पसे होते हैं। उदा.-अल्लिवइ । पणामइ। चचुप्पइ । विकल्पपक्षमें-अप्पेइ ओप्पेइ ।। ९९ ।।
गुलुगुच्छोत्थङ्घोव्वेल्लोल्लाला उनमेः ।। १०० ॥
णिच्-प्रत्ययान्त, उत् (उपसर्ग) पूर्वक ऐसे नम् (नमि) धातुको गुलुगुच्छ, उत्थंघ, उव्वेल्ल और उल्लाल ऐसे चार आदेश विकल्पसे होते हैं । उदा.-गुलगुच्छइ । उत्थंघइ। उव्वेल्लइ । उल्लालइ। विकल्पपक्षमें-उण्णवेइ ॥ १० ॥ प्रकाशेणुव्वः ॥ १०१॥
__ णिच्-प्रत्ययान्त प्रकाश (प्रकाशि) धातुको गुव्व ऐसा (आदेश) विकल्पसे होता है। उदा.-णुव्वइ । विकल्पपक्षमें-पआसेइ ।। १०१ ॥ णिहुवः कमेः ॥ १०२ ।।
... स्वार्थे णिच-प्रत्ययान्त कम् (कमि) धातुको णिहुब ऐसा आदेश विकल्पसे होता है । उदा.-णिहुवइ । विकल्पपक्षमें-कामेइ ।। १०२ ॥ नशेविप्पगालनासवपलावहारवविउडाः ॥ १०३ ।।
णिच्-प्रत्ययान्त नश् (नाशयति) धातुको विप्पगाल, नासव, पलाव, हारव, विउड ऐसे पाँच आदेश विकल्पसे होते हैं। उदा.-विपगालइ । नासबइ। पलावइ । हारवइ । विउडइ। विकल्पपक्षमें-गासेइः॥ १.०३ ॥
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१७६
वल आरोपेः ।। १०४ ॥
णिच्-प्रत्ययान्त आरोपि धातुको वल ऐसा आदेश विकल्पसे होता है | उदा.- वलइ | विकल्पपक्ष में- आरोवेइ ॥ १०४ ॥
त्रिविक्रम - प्राकृत-व्याकरण
विरेचेरोलुड्डोल्लुडुपल्लत्थाः ॥ १०५ ॥
जिच्-प्रत्ययान्त विरेचयति धातुको ओल्लुङ, उल्लुड, पलत्य ऐसे तीन आदेश विकल्पसे होते हैं । उदा. - ओल्ड | उड्ड । पलत्थइ | विकल्प पक्ष में- विरेअइ ।। १०५ ।।
कम्पेर्विच्छोलः ।। १०६ ॥
णिच्-प्रत्ययान्त कम्पयति धातुको विच्छोल ऐसा (आदेश) विकल्प से होता है | उदा. विच्छोलइ । विकल्पपक्ष में कम्पेइ ।। १०६ ।। रोमन्थेरोग्गालवग्गालौ ॥ १०७ ॥
1
णिच्-प्रत्ययान्त रोमन्थि इस नामधातुको ओग्गाल और वग्गाल ऐसे आदेश विकल्पसे होते हैं । उदा. - ओग्गाला । बग्गालइ । विकल्पपक्ष में- रोमन्थे ।। १०७ ॥
प्रावेरोवालपव्वाल ॥ १०८ ॥
णि प्रत्ययान्त प्लावयति धातुको ओव्वाल, पव्वाल ऐसे आदेश विकल्पसे होते हैं | उदा.- ओव्वालइ । पव्वाल ॥ विकल्पपक्षमें - पावे ।। १०८/ मिश्रेालमेलवौ ।। १०९ ।।
णिच् प्रत्ययान्त मिश्रयति धातुको मीसाल, मेलव ऐसे आदेश विकल्पसे होते हैं | उदा. - मीसालइ । मेलवइ । विकल्पपक्ष में-मीसेइ ।। १०९ ॥ छादेर्नू मनु मोव्वालडकपव्वालसंतुमाः ॥ ११० ॥
।
णिच प्रत्ययान्त छादयति धातुको नूम, नुम, उव्वाल, डक्क, पव्वाल और संतुम ऐसे छः आदेश विकल्पसे होते हैं । उदा. - नूमइ ( न का ) ण होनेपर - णूमइ । उन्वालेइ । उक्केई । पव्वालेइ । विकल्प पक्षमें छाएइ ॥ ११०
नुमइ । संतुमइ ।
॥
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हिन्दी अनुवाद-अ.२, पा.४
अच्चुकवोको विज्ञापेः ॥१११॥
णिच्-प्रत्ययान्त विज्ञापि धातुको अच्चुक और वोक ऐसे आदेश विकल्पसे होते हैं। उदा.-अच्चुक्कइ । वोक्का। विकल्पपक्षमें-विण्णावेइ ॥ १११ ॥ परिवाडो घटेः ।। ११२ ॥ - णिच्-प्रत्ययान्त घटयति धातुको परिवाड ऐसा आदेश विकल्पसे होता है। उदा.-परिवाडेइ । विकल्पपक्षमें-घडे ॥ ११२ ॥ दृशेर्दावदक्सवदंसाः ॥ ११३ ॥
णिच-प्रत्ययान्त दर्शयति धातुको दाव, दवखव, दंस ऐसे तीन आदेश विकल्पसे होते हैं । उदा.-दावइ । दक्खवइ । दसइ । विकल्पपक्षमें-दरिसइ
प्रस्थापेः पेडवपेडवौ ॥ ११४ ।।
. णिच-प्रत्ययान्त प्रस्थापयति धातुको पेट्ठव, पेड्डव ऐसे आदेश विकल्पसे होते हैं। उदा.-पेट्ठवइ । पेड्डवइ । विकल्पपक्षमें-पट्ठावेइ ॥ ११४ ॥ यापेर्जवः ॥ ११५ ॥
_ णिच्-प्रत्ययान्त यापयति धातुको जव ऐसा आदेश विकल्पसे होता है। उदा.-जवइ । विकल्पपक्षमें-जावेइ ॥ ११५ ॥ विकोशेः पवखोडः ।। ११६ ॥ .. णिच् प्रत्ययान्त विकोशयति नामधातुको पक्खोड ऐसा आदेश विकल्पसे होता है। उदा.-पक्खोडइ । विकल्पपक्षमें-विओसेइ ॥ ११६॥ गुण्ठ उध्दूले ।। ११७ ॥
णिच प्रत्ययान्त उध्द लयति धातुको गुण्ठ ऐसा आदेश विकल्पसे होता है। उदा.-गुण्ठइ । विकल्पपक्षमें-उध्दूलेइ ॥ ११७॥ तडेराहोडविहोडौ ॥ ११८ ॥
णिच् प्रत्ययान्त तारयति धातुको आहोड और बिहोड ऐसे आदेश विकल्पसे -होते हैं उदा.-आहोडइ । विहोडद। विकल्पपक्षमें-वाडे ॥११॥
त्रि.वि....१२
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त्रिविक्रम-प्राकृत-प्याकरण
हादेवअच्छलणिचश्च ॥ ११९ ॥
णिच्-प्रत्ययान्त और णिच्-प्रत्ययरहित हादयति धातुको भवाच्छ ऐसा लित् आदेश होता है । उदा.-अवअच्छइ (पानी) हादते हादयति वा॥११॥ निर्मेनिम्मवनिम्माणौ ॥१२० ॥
निर (उपसर्ग) पूर्वमें रहनेवाले मिमीते धातुको निम्मव और निम्माण ऐसे आदेश विकल्पसे होते हैं। उदा.-निम्मवइ । निम्माणइ । 'भादेस्तु' (१.३.५३) सूत्रानुसार, (न का) होनेपर-णिम्मवइ । णिम्माणइ । विकल्पपक्षमें-णिम्मइ ॥ १२० ॥
आल्लीङोल्लिः ॥१२१॥ - आ (भाङ्) (उपसर्ग) पीछे होनेवाले लीयति धातुको अल्लि ऐसा आदेश होता है। उदा.-अल्लिइ । अल्लिअइ अल्लीणो ॥ १२१ ॥ क्रियः कीणः ।। १२२ ॥
क्रीणाति धातुको कोण ऐसा आदेश होता है। उदा.-कीणइ ॥१२२॥ केर च वेः ॥ १२३ ॥
वि उपसर्गके आगे होनेवाले क्रीणाति धातुको केर ऐसा (आदेश) होता है; और (सूत्रमेंसे) चकारके कारण कोण (आदेश भी होता है)। (केर में) र इत् होनेसे, (के का) द्वित्व (के) होता है। उदा.-विक्केइ । विक्कीणइ॥१२३॥ स्त्यः समः खा ॥ १२४ ॥
_ 'स्त्यै ष्ट्यै शब्दसंघातयोः' मेंसे स्स्यै धातु (यहाँ अभिप्रेत है)। सम् (उपसर्ग) पीछे होनेवाले स्त्यै स्स्यायति) धातुको खा ऐसा आदेश होता है। उदा.-संखाइ । संखाअइ। संखाअं॥ १२४ ॥ भ्मो धुमोदः ॥ १२५॥ __'ध्मा शब्दाग्निसंयोगयोः मेसे ध्मा धातु (यहाँ अभिप्रेत है)। उद् (उपसर्ग)के अगले ध्माको धुमा ऐसा आदेश होता है। उदा.-उद्घमाइ ॥ १२५ ॥ स्थष्ठकुकुरौ ॥ १२६॥
8 उदू (उपसर्ग) के अगले 'ष्ठा गतिनिवृत्ती से ष्टा धातुको ठ और कुकर ऐसे आदेश होते हैं। उदा.-उद्वइ । उक्कुंरइ ।। १२६ ॥
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हिन्दी अनुवाद-अ.२, पा. ४
निरप्पथक्कठाचिहाः ॥ १२७ ॥
(इस सूत्रमें २.४.१२६ से) स्थः पदकी अनुवृत्ति है। स्था (तिष्ठति) धातुको निरप्प, थक्क, ठा, चिट्ठा ऐसे चार आदेश होते हैं। उदा.-निरप्पड़। (न का) ण होनेर-णिरप्पइ । थक्कइ । ठाइ । चिट्ठाइ । ठाणं। पट्टाओ।उट्ठ ओ। पट्टाविओ। उहाविओ । चिट्ठिऊण । बहुलका अधिकार होनेसे, थिों (ऐसा भी रूप होता है)। थाणं । पत्थिओ । उत्थिओ । थाऊण ।। १२७ ।। विस्मरः पम्हसवीसरौ ॥ १२८ ॥
विस्मृ (विस्मरति) धातुको पम्हस, वीसर ऐसे आदेश होते हैं। उदा.पम्हसइ । वीसाइ । विकल्पपक्षमें-विग्हरइ । (यह रूप) इमम...'(१.४.६७) सूत्रानुसार स्म का म्ह होकर, और 'अर उः (२.४.६६) सूत्रानुसार ऋषर्णको अर् आदेश होकर सिद्ध होगा ॥ १२८ ॥ कृपौ णिजवहः ॥ १२९॥
'कृप कृपायाम्भेसे कृग् धातुका अवह ऐसा णिच्-प्रत्ययान्त : आदेश होता है। उदा.-अवहावेइ, कृपां करोति ऐसा अर्थ॥ ११९॥ जाणमुणौ ज्ञः ॥ १३०॥
'ज्ञा अवबोधने मेंसे ज्ञा धातुको जाण,मुण ऐसे आदेश होते हैं। उदा.जाणइ । मुणड । बहुलका अधिकार हनेसे, कचित् विकल्प होता है। उदा.जाणिअं मुणि णाअं, ज्ञातम् । जाणिऊण णाऊण, ज्ञात्वा । जाणणं णाणं, ज्ञानम् । परंतु मगइ यह रूप मात्र मन्यते धातुसे है ॥ १३०॥ धो दह श्रदः ॥ १३१ ॥
'डुधाञ् धारणपोषग्योः से धा धातु अत् अव्ययके आगे होनेपर, उसको दह ऐसा आदेश होता है। उदा.-सदहइ । सद्दहमाणो जीवों । सद्दहणं होइ सम्मत्तं ॥ १३१॥ स्पृशिश्छिवालुक्खफरिसफासफंसालिहच्छिहान् ।। १३२ ।। ...... 'स्पृश स्पर्शने' मेंसे स्पृश् (स्पृशति) धातुको छिव, आलुक्ख, फरिस, फास, फंस, आलिह, छिह ऐसे सात आदेश होते हैं। उदा.-छिवइ । आलुक्खइ । फरिमइ । फासइ । फसइ । आलिहई। छिहइः ॥ १३२ ॥ १.
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२८०
त्रिविक्रम-प्राकृत-व्याकरण
फक्कस्थकः ।। १३३ ।।
फक्कति को थक्क ऐसा आदेश होता है। उदा.-थक्कइ ॥ १३३ ।। श्लाघः सलाहः ॥ १३४ ॥
'श्लाघृ कत्थने मेंसे श्लाघ् धातुको सलाह ऐसा आदेश होता है । उदा.सलाहइ ॥ १३४ ॥ थिप्पस्तृपः ।। १३५ ।।
'तृप प्रीणने मेंसे तृप् धातुको थिप्प ऐसा आदेश विकल्पसे होता है। उदा.थिप्पइ ।। १३५ ॥ भियो भाविहौ ।। १३६ ।।
"जिभी भये मेंसे भी धातुको भा, बिह ऐसे आदेश होते हैं ! उदा.-भाइ। भाअड । भाइअं। बिहइ । परंतु भी रूप मात्र सिद्धावस्थामेंसे है ॥ १३६ ।। भुजिरणभुज्जकम्मसमाणचमडचड्डजेमजिमान् ।। १३७ ॥
'भुज पालनाभ्यवहारयोः'मेसे भुज धातुको अण्ण, भुज्ज, कम्म, समाण, चमड, चड्ड, जेम, जिम ऐसे आठ आदेश प्राप्त होते हैं। उदा.-अण्णइ । भुजइ। कम्मइ । समाणइ । चमडइ। चड्डइ । जेमई। जिमइ॥ १३७ ॥ जम्भेऽवेर्जम्भा ।। १३८ ॥ 'जुभी गात्रविनामे मेंसे जुभ धातुको जम्भा ऐसा आदेश होता है । (सूत्रमेंसे), अवेः का अभिप्राय वि उपसर्गके आगे यह धातु होनेपर, (ऐसा आदेश) नहीं होता । उदा.-जम्भाइ। जम्भाअइ। वि उपसर्गके आगे नहीं होता, ऐसा क्यों कहा है ? (कारण वि उपसर्गके आगे इस धातुका रूप) केलिपसरो विअम्भह (ऐसा होता है) ॥ १३८॥ जुञ्जजुज्जजुप्पा युजेः ।। १३९ ॥ _ 'युजिोंगे' मेंसे युज् धातुको जुन, जुज्ज, जुप्प ऐसे तीन आदेश होते हैं। उदा.-जुञ्जइ । जुज्जइ । जुप्पइ ॥ १३९ ॥ जनो जाजम्मौ ॥ १४० ॥
'जनी प्रादुर्भावे से जन् धातुको जा, जम्म ऐसे देश होते हैं। उदा.-जाइ । जाअइ। जम्मइ ।। १४०॥
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हिन्दी अनुवाद-अ. २, पा. ४
उत्थल उच्चलेः ॥ १४१ ॥
'चल. गतौ मसे चलू धातुके पीछे उत् (उपसर्ग) होनेपर, उस धातुको उत्थल ऐसा आदेश होता है। उदा.-उत्थलइ ।। १४१ ।। धूर्गेधुम्मपहल्लघोलघुलाः ।। १४२ ॥ - 'धूर्ण भ्रमणे मेंसे घूर्ण धातुको घुम्म, पहल्ल, घोल और धुल ऐसे चार
आदेश होते हैं । उदा.-घुम्मइ । पहल्लइ । घोलइ । घुलइ ।। १४२ ।। लिम्पो लिपः ॥ १४३ ।।।
लिए (लिपि) धातुको लिम्म ऐसा आदेश होता है। उदा.-लिम्पइ ॥१४३।। शदेझडपक्खोडौ।। १४४ ॥
___ 'शद्ल शातने मेंसे शद् धातुको झड, पक्खोड ऐसे आदेश होते हैं । उदा.-झडइ । पक्खोडइ ।। १४४ ।। नेः सदेमज्जः ॥ १४५ ।। _ 'पद्ल. विशरणगत्यवसादने भैसे षद् (सद्) धातुके पीछे नि (उपसर्ग) होनेपर, उस धातुको मज्ज ऐसा आदेश होता है। अत्ता एत्थ णुमज्जइ, श्वश्रूरत्र निषीदति ।। १४५ ॥ पुच्छः पृच्छेः ।। १४६ ।।
पृच्छति को पुच्छ ऐसा आदेश होता है। उदा.-पुच्छइ ।। १४६ ।। गण्ठो ग्रन्थेः ।। १४७ ।।
ग्रंन्थ् (प्रन्थि) धातुको गण्ठ ऐसा आदेश होता है । उदा.-गण्ठइ ॥१४७॥ तुवरजअडौ त्वरेः ।। १४८ ।। ____ त्वर (स्वरि) धातुको तुवर, जअड ऐसे आदेश होते हैं। उदा. तुवाइ । जअडइ । तुरन्तो । जअडन्तो।। १४८ ॥ अतिङि तुरः ॥ १४९।।
(इस सूत्रमें २.४ १४८ से) त्वरेः पदकी अनुवृत्ति है। तिङ् प्रत्ययोंको छोडकर अन्य प्रत्यय आगे होनेपर,त्वर् को तुर ऐसा आदेश होता है। उदा.. तरिओ। तुरन्तो । तिङ् प्रत्ययोंको छोडकर, ऐसा क्यों कहा है ? (कारण तिङ यत्यय आगे होनेपर, तुवर ऐसा आदेश होता है)। उदा. वरतुह ॥ १४९ ॥
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૧૮૨
तूरः शतृतिङि ॥ १५० ॥
शतृ प्रत्यय और तिङ् प्रत्यय आगे होनेपर, स्वरति धातुको तूर ऐसा आदेश होता है | उदा. - तुरन्तो । तूरइ ॥ १५० ॥ पर्यसः पल्लपल्लो पल्हत्था: ।। १५१ ।
'अक्षेप' से अस् धातुके पीछे परि (उपसर्ग) होनेपर, उस धातुको पल, लोह, पलत्थ ऐसे तीन आदेश प्राप्त होते हैं। उदा. - पलाइ । पल्लोइ पहत्थइ ॥ १५१ ॥
त्रिविक्रम प्राकृत-व्याकरण
मृदनातेर्मल परिहट्टखुड्डपन्नाडचड्डमड्डमडाः || १५२ ॥
मृद् (मृद्नाति) धातुको मल, परिहट्ट, खुड्ड, पन्नाड, चड्डु, मड्ड, मड ऐसे सात आदेश होते हैं । उदा. मलइ । परिहइ । खुड्डइ | पन्नाडइ । चड्डइ | मड्डुइ | मडइ ॥ १५२ ॥
शिगे अक्खणिअच्छा व अच्छचज्जाव अज्झपुलअपुलो अदेवखावअक्खपेच्छा व आसपासणिअ मच्चत्रा वक्खान् ॥ १५३ ॥
'दृशिर प्रेक्षणे' में से दृश् धातुको ओअक्ख, णि अच्छ, अव अच्छ, चज्ज, अत्रअज्झ, पुल, पुलोअ, देख, अवअक्ख, पेच्छ, अवआस, पास, णिभ सन्नव, अवक्ल ऐसे पंद्रह आदेश प्राप्त होते हैं | उदा. ओअक्खइ । णिअच्छइ अत्रअच्छइ । चज्जइ । अवअज्झइ । पुत्रअ । पुलोअइ | देक्खइ । अवअक्खइ पेच्छइ । अत्रआसइ | पासइ । णिअइ | सच्चवइ । अवअक्खइ । पर णिज्झअइ रूप मात्र दर्शन अर्थ में होनेवाले नि (उपसर्ग) पूर्वक ध्यायति धातुका है ।। १५३ ॥ झरपज्झरपच्चइखिरणिड्डु अणिब्बलाः क्षरेः ।। १५४ ।।
"
क्षर् (क्षरते :) धातुको झर, पज्झर, पच्चड्डु, खिर, णिड्डुअ और णिब्बल ऐसे छः आदेश होते हैं | उदा.- झरइ | पज्झरइ । पच्चड्डुइ । खिग्इ | णिड्डूाइ णिब्बलइ ॥ १५४ ॥
कासेरवाद्वासः ।। १५५ ।।
अव (उपसर्ग) के अगले कास् (कासेः) धातुको वास ऐसा आदेश होता | उदा. - ओवासइ ॥ १५९ ॥
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२८३
हिन्दी अनुवाद-अ.२, पा.४
१८३ न्यसेणिमणुमौ ॥ १५६ ॥
___नि (उपसर्ग) पीछे होनेवाले अस्यति धातुको णिम, गुम ऐसे आदेश होते हैं। उदा.-णिमइ । णुमइ ॥ १५६ ॥ प्रहेणिरुवारगेण्हबलहरपग्गाहिंपच्चुआः ।। १५७ ॥
_ 'ग्रह उपादाने' से ग्रह् ध तुको णिस्वार, गेह, बल, हर, पग्ग, महिपच्चुअ ऐसे छः आदेश होते हैं। उदा.-णिरुवाग्इ। गेहइ । बलइ । इरइ । परगइ । अहिपच्चुअइ ॥ १५७ ॥
- द्वितीय अध्याय चतुर्थ पाद समाप्त -
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तृतीयोऽध्यायः-प्रथमः पादः॥ होहुवहवा भुवेस्तु ॥१॥
भू (भुवि) धातुको हो, हुव, हव ऐसे तीन आदेश विकल्पसे होते हैं । उदा.-होइ होन्ति हुवइ हुवन्ति । हवइ हवन्ति । विकल्पपक्षमें-भवइ । परिहीणविहवो भविउं पभवइ । परिभवह | सं भवइ । कचित् दूसराभी रूप होता है। उदा.-उभअहुत्तं ॥ १ ॥ पृथक्स्पष्टे णिव्वडः ॥ २॥
(इस सूत्रमें ३.१.१ से) भुवेः पदकी अनुवृत्ति है । पृथग्भूत और स्पष्ट अोंमें कर्तरि भू धातुको णिवह ऐसा आदेश होता है । उदा.-णिव्वटइ, पृथक् स्पष्टो वा भवति, ऐसा अर्थ ॥२॥ प्रभो हुप्पः ॥ ३ ॥
___ (इस सूत्रमें ३.१.१ से) तु पदकी अनुवृत्ति है। प्रभु-कर्तृक भू धातुको हुन ऐसा आदेश विकल्पसे होता है। उदा.-अंगे वि न पहुप्पइ । विकल पक्षमेंपहवइ प्रभवति ॥ ३ ॥ हुक्ते ॥ ४ ॥
क्त प्रत्यय आगे होने पर, भू धातुको हु ऐमा आदेश होता है ! उदा.हुअं॥४॥ हुरचिति ॥ ५॥
चित् (जिसमें च इत् है) प्रत्ययोंको छोडकर अन्य प्रत्यय आगे होनेपर, (भू धातुको) हु ऐसा रित् आदेश विकल्पसे होता हैं। उदा.-हुन्ति । होन्ति । हुओ। चित् प्रत्ययों को छोडकर, ऐसा क्यों कहा है ? (कारण वे प्रत्यय आगे होनेर हु आदेश नहीं होता)। उदा.-होइ ॥५॥
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हिन्दी अनवाद-अ. ३, पा. १
आघ्राक्षिस्नामाइग्घणिज्झराब्बुत्ताः ॥ ६ ॥
आजिव्रति, क्षयति और स्नाति धातुओंको यथाक्रम आइग्व, णिज्झर और अब्बुत्त ऐसे आदेश विकल्पसे होते हैं। उदा.-आइग्घइ आजिघ्रति । णिज्झरइ क्षयति | अब्बुत्तइ स्नाति । विकल्पपक्षमें--अग्घाइ | खअइ । हाइा
रा वेर्लियः ॥ ७ ॥
'लीङ् श्लेषणे' मेंसे ली धातु वि उपसर्गके आगे होनेपर, उसको रा ऐसा आदेश विकल्पसे होता हैं । उदा.-बिर:इ । विराअइ । विकल्पपक्षमें-विलिज्जई
निना ल्हिकणिलुकणिलिअलिकलुक्कणिरुग्धाः ॥ ८ ॥
(इस सूत्रमें ३.१.७ से) लियः पदकी अनुवृत्ति है । नि उपसर्गके साथ लीयति धातुको ल्हिक्क, णिलुक्क, णिलि अ, लिक, लुक्क और णिरुग्घ ऐसे छः आदेश विकल्पसे होते हैं । उदा.-हिकइ । णिलुक्कइ। णिीलअइ । लिक्कइ । लुक्कइ । णिरुग्धह । विकल्पपक्षमें-णिलिजइ ॥ ८॥ सारः प्रहुः ॥ ९॥
__ प्रहरति धातुको सार ऐसा आदेश विकल्पसे होता है। उदा. सारइ । विकल्परक्षमें-पहरइ ॥९॥ प्रसुवल्लव अल्लो ।। १० ।।
प्रसाति धातुको उवेल्ल और वाल्ल ऐसे आदेश विकल्पसे होते हैं। उद... उवेल्लइ । वअल्लइ । विकल्पपक्षमें-पसरइ ॥ १०॥ महमहा गन्धे ।। ११ ।।
गंध विषयमें प्रसरति चातुको महमह ऐसा आदेश विकल्प से होता है। उदा -महमहइ मालईगंधो । गंध विषयमें, एसा क्यों कहा है ? (कारण गंध विष में न होनेपर) पसाइ ऐसा रूप होता है) ॥ ११ ॥ झर, रसुमरविम्हरहरहललुढपअरपम्हाः स्मरतेः ।। १२ ।।
स्मरनि धातुको झर, झू', सुपर, विम्हर, हर, हल, लुढ, पअर, पम्हुह ऐसे ही देश विकल्पसे होते हैं। उदा.-साइ। झूरइ। सुमरइ। विम्हाइ। हर । हलइ । लुढइ । पअग्इ । पम्हुहइ । विकल्पपक्षमें-सरइ ॥ १२॥
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२८६
-प्राकृत-व्याकरण
ध्याप्रेराअड्डः ॥ १३ ॥
व्याप्रियति धातुको आअड्डु ऐसा आदेश विकल्पसे होता है। उदा.आअहह । विकल्पपक्षम-वावरह ॥ १३ ॥
निस्सुनिहरनिलदाढवरहाढाः ।। १४ ।।
निःसराति धातुको, निहर, निल, दाढ, वरहाढ ऐसे चार आदेश विकल्पसे होते हैं । उदा.-निहरइ । निलइ। दाढइ । वरहाढइ । (विकल्पपक्षमें)-नीसरह ॥ १४ ॥ जाग्रेजग्गः ॥ १५ ॥
'जागृ निद्राक्षये' से जागृ धातुको जग्ग ऐसा आदेश विकल्पसे होता है। उदा.-जगइ । विकल्पपक्षमें-जागरइ ॥ १५ ॥ पट्टधोडल्लपिज्जाः पिवः ॥ १६ ॥
पिब ऐसा जिमको आदेश कहा है ऐसे 'पा पाने से पा धातुको पट्ट बोट्ट, हल्ल, पिज्ज ऐसे चार आदेश विकल्पसे होते हैं। उदा.-पट्टइ। घोहइ । डल्लह । पिज्जइ । विकल्पपक्षमें-पिवइ ॥ १६ ॥ धुवो धूञः ॥ १७ ॥ ___ 'धून कम्पने से धू धातुको धुव ऐसा आदेश विकल्पसे होता है। उदा.धुवइ । (विकल्पपक्षमें)-धुणइ ॥ १७ ॥ हणः शृणोतेः॥ १८ ॥ __ 'श्रु श्रवणे' मेंस श्रु धातुको हण ऐसा आदेश विकल्पसे होता है। उदा.हणइ । (विकल्पपक्षमें)-सुणइ ॥ १८ । म्लापव्वाऔ ॥ १९॥
'म्लै गात्रविनामे' मेंसे म्लै धातुको वा और पव्वाअ ऐसे आदेश विकल्पसे प्राप्त होते हैं। उदा.-वाइ । वाअइ । (विकल्पपक्षमें)-मिलाइ ॥ १९॥ कुत्रः कुणः ॥२०॥
'डुकृञ् करणे मेंसे कृ धातुको कुण ऐसा आदेश विकल्पसे होता है। उदा.-कुणइ । (विकल्पपक्षमें)-करइ ॥ २० ॥
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हिन्दी अनुवाद-अ. ३, पा. १
१८७ काणेक्षिते णिआरः ॥ २९ ॥ . (इस सूत्रमें ३.१.२० से) कृत्रः पदकी अनुवृत्ति है । काणेक्षित विषयमें कृ धातुको णिआर ऐसा आदेश विकल्पसे होता है। उदा.-णिआरइ, काणेक्षितं करोति, ऐसा अर्थ ॥ २१ ॥ निष्टम्भे णिठ्ठहः ॥ २२॥
निष्टम्भ विषय हनेवाले कृ धातुको पिठुड ऐसा आदेश विकल्पस होता है। उदा.-णिठुहइ, निष्टम्भं करोति, ऐसा अर्थ ॥ २२ ॥ श्रमे वापम्फः ।। २३ ।।
श्रम विषय होनेवाले कृ धातुको वापम्फ ऐसा आदेश विकल्पसे होता है। उदा.-बापम्फइ, श्रमं करोति (ऐसा अर्थ) ॥ २३ ॥ संदाणोऽवष्टम्भे ॥ २४ ॥
भवष्टम्भ विषय होनेवाले कृ धातुको संदाण एस. आदेश विकल्पसे. होता है। उदा.-संदाणइ, अवष्टम्भं करोति (ऐसा अर्थ) ॥ २४ ।। णिवोलो मन्युनौठमालिन्ये ।।२५॥ - क्रोध इस कारणसे जो ओष्टमालिन्य, उस विषयमें कृ धातुको णिन्योल ऐसा आदेश होता है। उदा.-णिन्योल इ, मन्युना ओष्ठं मलिनं करोति (ऐसा अर्थ) ॥ २५ ॥ गुललाटौ ॥ २६ ॥
चाटु विषय होनेवाले कृ धातुको गुलल ऐसा आदेश होता है । उदा.गुललइ, चाटु करोति, ऐसा अर्थ ॥ २६ ॥ पअल्लो लम्बनशैथिल्ययोः ॥ २७ ॥
लम्बन या शैथिल्य विषय होनेवले कृ धातुको पसल ऐसा आदेश होता है। उदा. पअल्लइ, लम्बयति शथिल्यं करोति वा (ऐ-1 ) ।। २७ ।। क्षुरे कम्मः ।। २८ ॥
क्षुर विषय होनेवाले कृ धातुको कम्म ऐसा आदेश विकल्पसे होता है। उदा.-कम्मइ, क्षुरं करोति (ऐसा अर्थ) ॥ २८ ॥
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-१८८
त्रिविक्रम-प्राकृत-व्याकरण णिलुञ्छो निष्पाताच्छोटे ॥ २९॥
निष्पतन और आच्छोटन विषय होनेवाले कृ धातुको णिलुछ ऐसा आदेश विकल्पसे होता है । उदा.-णिलुञ्छइ, निष्पतति आच्छोटयति वा (ऐसा अर्थ) ॥ २९॥ साहट्टसाहरौ संवुः। ३० ॥
सम् (उपसर्ग) पीछ होनेवाले वृणोति धातुको साहट्ट और साहर ऐसे आदेश विकल्पसे होते हैं। उदा. साहट्टइ। साहरइ । (विकल्पपक्षमें)-संवरइ ॥ ३०॥ ओहिरोग्घा निद्रः ।। ३१ ॥ _ 'दै स्वप्ने' में से द्रा धातुके पीछे नि उपसर्ग होनेपर, उस धातुको ओहिर और उग्ध ऐसे आदेश विकल्पसे होते हैं । उदा.-ओहिरइ । उग्घइ। विकल्पग्क्षमें)णिदाइ ॥ ३१॥ उद्व ओरुम्मावसुऔं ।। ३२ ।।
वा गतिगन्धनयोः' मेंसे वा धातुके पीछे उद् (उपसर्ग) होनेर, उस धातुको ओरुम्मा और वसुआ ऐसे आदेश विकल्पस होते हैं। उदा.-ओरुम्माइ। वसुआइ । (विकल्पपक्षमें)-उव्वाइ ।। ३२ ॥ रुवो रुञ्जरुण्टौ ॥ ३३ ॥ ___ 'रु शब्दे'मॅसे रु (रौति) धातुको रुञ्ज, रुण्ट ऐसे आदेश विकल्पसे होते हैं। उदा.-रुञ्जइ। रुण्टइ । (विकल्पक्ष रुवइ ।। ३३ ।। कोकयोको व्याहुः ॥ ३४ ॥
व्याहरति धातुको कोक, वोक ऐसे आदेश विकल्पसे होते हैं। उदा.कोकइ । वोक्कइ । (विकल्पपक्षमें)-वाहग्इ ॥ ३४ ।। संनाम आङः ।। ३५ ।।
आद्रियति धातुको सनाम ऐमा आदेश विकल्प से होता है। उदा. संनामइ । (विकल्पपक्ष)-आदरइ ॥ ५ ॥
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हिन्दी अनुवाद-अ. ३, पा. १
ओहरौसराववतरेस्तु ॥ ३६ ।।
_ 'तृ प्लवनतरणयोः'मेंसे तु धातुके पीछे अव (उपसर्ग) होनेपर, उसके ओहर, ओसर ऐसे आदेश विकल्पसे होते हैं । उदा. ओहरइ। औसर । (यहाँ) तु का अधिकार होनेपरभी, (सूत्रमें) पुनः तु कहनेका कारण तु) अधिकारका स्मरण हो ॥ ३६ ॥ शकेस्तरतीरपारचआः ।। ३७ ।।
'शक्ल शक्ती'मसे शक् धातुको तर, तीर, पार और चअ ऐसे चार आदेश विकल्पसे होते हैं । उदा.-तर३ | तीरइ। पारइ । चअइ । विकल्पपक्ष सक। तरति धातुकाभी तरङ् (ऐसा रूप होता है)। 'तीर पार कर्मसमाप्त भेसे तीर
और पार इन धातुओंकेभी (रूप) ती इ, पारइ (प्स होते हैं)। त्यज् (त्यजि) धातुकाभी चअइ (ऐसा रूप होता है) ॥ ३७ ॥ सोल्लपडल्लो परेः ॥ ३८ ।।
___ 'डुपच पाके मेंस पच् धातुको सोल्ल, पउल्ल एसे आदेश विकल्पसे होते है। उदा.-सोल्लइ । पउल्लइ । विकल्पपक्षमें-पअइ ॥ ३८ ॥ वेअडः खः ।। ३९ ।।
खचति धातुको वेअड ऐसा आदेश विकल्पसे होता है। उदा.-वेअडइ। विकल्परक्षमें-खअ !॥ ३९॥ णिबलो मुचे?ःखे ।। ४० ।।
'मुच्ल मोक्षणे' मेंसे मुच् धातुको दुःख विषयमें णिब्बल ऐसा आदेशः विकल्पसे होता है। उदा.-णिब्बट इ, दुःखं मुश्च ति, एसा अर्थ ॥ ४० ॥ अवहेडमेल्लणिल्लुञ्छोसिक्कदिसडरेअवछण्डाः ।। ४१ ।।
(इस सत्र में ३.१.४० से) मुचेः पदकी अनुवृत्ति है। मुञ्चति धातुको अवहेड, मेल्ल, जिल्लुञ्छ, उसिक, दिसड, रेअव, छण्ड ऐसे सात आदेश विकल्पसे होते हैं । उदा.-अवहेडइ । मेल्लइ । जिल्लञ्इ । उसिक्का। दिसडइ । रेअवइ । छण्डइ । विकल्पपक्षम-मुअइ ।। ४१ ॥ सिञ्चसिप्पो सिचेः ।। ४२ ।।
सिञ्चति धातुको सिञ्च, सिप्प ऐसे आदेश विकल्पसे होते हैं। उदा.सिञ्चइ । सिप्पइ । (विकल्पपक्षमें)-सेअइ॥ ४२ ॥
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१९०
त्रिविक्रम-प्राकृत-व्याकरण
रचेडिविड्डावहोग्गहाः ॥ १३ ॥
'रचि प्रतियत्ने' मेंसे रच् धातुको विडविड्ड, अवह, उग्गह, ऐसे तीन आदेश विकल्पसे होते हैं । उदा.-विडविड्डइ। अवहइ। उग्गहइ। (विकल्पपक्षमें)रअ॥ ४३ ॥ केवलाअसारवसमारोवहत्थाः समारचेः ।। ४४ ॥
___ सभारच (समारचि) धातुको केवटाअ, सारव, समार, उवहत्थ ऐसे चार आदेश विकल्पसे होते हैं । उदा.-केवलाअइ । सारवइ । समारइ। उवहत्या । (विकल्पपक्षमें)-समारअइ ।। ४४ ।। मस्जेराउडुणिउड्डबुड्डखुप्पाः ॥ ४५ ॥
'टुमस्जी शुद्धो मेंसे मस्ज् धातुको आउड्ड, णिउड्ड, बुड्ड, खुप्प ऐसे चार आदेश विकल्पसे होते हैं। उदा.-आउड्डइ। णिउड्डइ । बुड्डइ । खुम्पद। (विकल्पपक्षमें)-मज्जइ ॥ ४५ ॥ अनुव्रजतेः पडिअग्गः॥ ४६ ।।
'ज गतौ'मॅसे ब्रज धातुके पीछे अनु (उपसर्ग) होनेपर,उसको पडिअग्ग ऐसा आदेश विकल्पसे होता है। उदा.-पडिअग्गइ । (विकल्पपक्षमें)-अणुवअइ
वञ्चेर्वेहववेलवजूरबोम्मच्छाः ॥ ४७ ॥
वञ्चति धातुको वेहव, वेलव, जूरव, उम्मच्छ ऐसे चार आदेश विकल्पसे होते हैं। उदा.-वेहवइ। वेलवइ । जूरवइ । उम्मच्छइ । (विकल्पपक्षमें) वञ्चइ
रोसाणोवुसलुहलुच्छपुच्छफुसफुस्सघसहुला मार्टः ॥ ४८ ॥
___'मृजू शुद्धौ'से मृज् धातुको रोसाण, उबुस, लुह, लुच्छ, पुच्छ, फुस, फुस्स, घस, हुल ऐसे नौ आदेश विकल्पसे होते हैं। उदा. रोसाणइ। उबुसाइ । लुहइ। लुच्छइ । पुच्छइ । फुसइ फुस्सइ । घसइ । हुलइ । विकल्पपक्षम-मज्जइ ॥ ४८ ॥ भञ्जर्वेमअमुसुमूरमूरपविरज्जसूरसूडकरजनिरञ्जविराः ।। ४९ ॥ - 'भजी आमदने से भञ्ज् धातुको वेम अ, मुसुमुर, मुर, पमिरज, सूर, सड, करञ्ज, निरञ्ज, विर ऐसे नौ आदेश विकल्पसे होते हैं। उदा. वेगसइ ।
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हिन्दी अनुवाद - अ. ३, पा. १
१९१
मुसुमूरइ | मूरइ । पविरज्जइ । सूरह | सूड । करजइ । निजइ । विश्व । 'विकल्पपक्ष में- भञ्जइ ॥ ४९ ॥ गर्जेर्बुकः ॥ ५० ॥
गर्जति धातुको बुक ऐसा आदेश त्रिकल्पसे होता है | उदा. - बुकइ ! विकल्पपक्ष में- गज्जइ ॥ ५० ॥
डिक्को वृषे ।। ५१ ॥
वृष-कर्तृक गर्जति धातुको टिक ऐसा आदेश विकल्पसे होता है। उदा. डिक्कर, वृषो गर्जति, ऐसा अर्थ ॥ ५१ ॥
तिजेरोसुक्कः ॥ ५२ ॥
'तिज निशातने' में तिज् धातुको ओसुक्क ऐसा आदेश विकल्प से होता है | उदा. ओमुक्कई । विकल्पपक्षमें तेअइ । तेअणं ॥ ५२ ॥ आरोलवमालौ पुजेः ।। ५३ ॥
पुज् (पुञ्ज) धातुको आरोल, वमाल ऐसे आदेश विकल्पसे होते हैं । उदा.- आरोलह | वमालइ । ( विकल्पपक्ष में ) - पुञ्जइ ॥ ५३ ॥
कम्मवमुपभुजः ।। ५४ ॥
उप (उपसर्ग) पीछे होनेवाले भुज् (भुजि) धातुको कम्मत्र ऐसा आदेश विकल्प से प्राप्त होता है । उदा. कम्मवइ । (विकल्पपक्ष में) - उपभुञ्जइ ॥ ५४ ॥ विडवमर्जिः ः ।। ५५ ।।
अर्ज (अर्ज) धातुको विडव ऐसा आदेश विकल्पसे प्राप्त होता है । उदा. - विडव | (विकल्पपक्ष में ) - अज्जइ ॥ ५५ ॥
लज्जेजहः ।। ५६ ।
'ओलजी व्रीडायाम्' मेंसे लज् धातुको जीह ऐसा आदेश विकल्प से होता है | उदा--जीहइ | ( विकल्पपक्ष में ) - लज्जइ || ५६ || राजेः सहरेहच्छज्जरिराग्धाः ।। ५७ ।।
'राजू दीसों मेंसे राज् धातुको सह, रेह, छज्ज, रिर और अब ऐसे पाँच आदेश विकल्प से होते हैं । उदा--सहइ | रहेइ | छज्जइ । रिइ । अम्बा (विकल्पपक्ष में) - राइ ॥ ५७ ॥
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१९२
घटेर्गड: ।। ५८ ।।
त्रिविक्रम - प्राकृत-व्याकरण
घटति धातुको गड ऐसा आदेश विकल्पसे होता है । उदा. - गडइ
( विकल्प पक्ष में ) - घडइ ॥ ५८ ॥
समो गलः ।। ५९ । सम् (उपसर्ग) के अगले घटति धातुको गल होता है | उदा. संगलइ | (विकल्पपक्ष में ) - संघडइ ॥ हासेन स्फुटतेर्मुरः ।। ६० ।।
ऐसा आदेश विकल्पसे
५९ ॥
हास इस करण के साथ प्रयुक्त किए जानेवाला जो 'स्फुट विकसने'मेंसे स्फुट् धातु, उसको मुर ऐसा आदेश विकल्पसे होता है । उदा. - मुरइ, हासेन स्फुटति, ऐसा अर्थ ॥ ६० ॥
मण्डेष्टिविडिकरिडचिञ्वचिचिलचिञ्चः ॥। ६१ ।।
'मडि भषायाम् ' में से मण्ड् धातुको टिविंडिक, रिड, चिञ्च, चिञ्चिल्ल, चिञ्चअ ऐसे पाँच आदेश विकल्पसे होते हैं | उदा. टिविटिक्कर | रिडइ चिञ्चइ | चिचिल्लर | चिञ्चअइ । विकल्पपक्षमें - मण्डइ || ६१ ||
तु डिरुल्लुकणिल्लुकोल्लूरोक्खुडलुक तोडखुडखुडान् ।। ६२ । ।
' तुड तोडने 'मेंसे तुड् धातुको उल्लुक्क, णिलुक, उल्लूर, उक्खुड, लुक्क, तोड, खुट्ट, खुड ऐसे आठ आदेश विकल्पसे होते है | उदा. - उलुकइ । पिल्लुकइ । उल्लूरइ | उक्खुडइ | लुक | तोडइ । खुट्टइ । खुडइ । विकल्पपक्ष में- तुडइ । पर तुट्ट रूप त्रुटू घातुसे; (यह धातु) शकादि ठमें होनेसे, द्वित्व होकर (२.४.६३), तुइ रूप होगा ॥ ६२ ॥
घुसलविरोलो मन्थेः ।। ६३ ।।
'मन्थ विलोडने' मेंसे मन्थ् धातुको घुसल, विरोल ऐसे आदेश विकल्पसे होते हैं | उदा. - घुसलइ । विरोलइ । (विकल्पपक्ष में ) - मन्थइ || ६३ ॥
सोत्थौ विवृतिरुध्योः ॥ ६४ ॥
'ऋतु वर्तने' मेंसे वृत् धातुके पीछे वि उपसर्ग होनेपर, और 'रुधि आवरणे'मेंसे रुधू, इन धातुओंको क्रमसे ढंस, उत्थंघ ऐसे आदेश विकल्पसे होते हैं । उदा.-ढंसह । विकरूपपक्ष में- विवहह । उत्यंषह । विकरूपपक्षमें - रुंधइ ॥ ६४ ॥
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हिन्दी अनुवाद-अ. ३, पा. १ णिहर आक्रन्देः ॥ ६५ ।।
आ (आङ्) (उपसर्ग) पीछे होनेवाले क्रन्द् (क्रान्दि) धातुको णिहर ऐसा आदेश विकल्पसे होता है। उदा.- णिहरइ । (विकल्पपक्षमें)-अक्कन्द इ
ओअन्दोदालो छिदेराङा ।। ६६ ।।।
__'छिदिर् द्वैधीकरणे' मेंसे छिद् (छिदि) धातुको आ (आङ् ) इस (उपसर्ग)के साथ ओअन्द, उद्दाल ऐसे आदेश विकल्पसे होते हैं । उदा.ओअन्द६ । उद्दालइ । (विकल्पपक्षमे)- अच्छिन्दइ ॥ ६६ ॥ गिल्लूर लूणिचरणिच्छल्लदुहावणिज्झोडाः ।। ६७ ।।
(इस सूत्रमें ३.१.६६ से) छिदेः पदकी अनुवृत्ति है। छिद् धातुको णिल्लूर, लूर, णिव्बर, णिच्छल्ल, दुहाव,णिज्झोड ऐसे छः आदेश विकल्पसे होते हैं। उदा.-णिल्लूरइ । टूरइ । णिव्यरइ । णिच्छल्लइ । दुहावइ । णिज्झोडइ। विकल्पपक्षमें छिन्दइ ।। ६७ ।। अट्टः क्वथेः ॥ ६८॥
'क्कथ निष्पाके मेंसे कथ् धातुको अट्ट ऐसा आदेश विकल्पसे होता है। उदा. अट्टइ। विकल्पपक्षमें-कढइ ॥ ६८ ।। कथेर्वज्जरपज्जरसग्धसाससाहचवजप्पपिसुणबोल्लोव्वालाः ॥६९ ।।
कथयति धातुको वज्जर, पज्जर, सग्घ, सास, चव, जप्प, पिसुण, बोल्ल, उव्वाल ऐसे दस आदेश विकल्पसे होते हैं। उदा.-वज्जरइ । पज्जरइ। सग्घइ। सासइ। साहइ । चवइ । जप्पइ। पिसुणइ । बोल्लइ । उव्वालइ । विकल्पपक्षमें-कहइ ॥ ६९ ॥ दुःखे णिव्वरः ॥ ७० ॥
दुःख विषय होनेवाले कथयति धातुको णिव्वर ऐसा आदेश विकल्पसे होता है। उदा.-णिन्वरइ, दुःखं कथयति, ऐसा अर्थ ॥७० ।।
त्रि.वि....१३
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१९४
त्रिविक्रम-प्राकृत-व्याकरण
निषेधेर्हक्कः ।। ७१ ।।
‘षिधू शास्त्रे माङ्गल्ये च मेंसे सिध् धातुके पीछे नि (उपसर्ग) होनेपर, हक ऐसा आदेश विकल्पसे होता है। उदा.-हक्कइ । (विकल्पपक्षमें)-णिसेहइ
जूरः क्रुधेः ।। ७२ ॥
कुप्, क्रुध्, रुष् ये तीन क्रुध्यति (अर्थमें हैं)। उस (क्रुध)को जूर ऐसा आदेश (विकल्पसे) होता है। उदा.-जूरइ । (विकल्पपक्षमें)-कुल्झइ ।।७२॥ विमूरश्च खिदेः ।। ७३ ॥
___ 'खिद दैन्थे मेंसे खिद् धातुको विसूर ऐसा आदेश, और (सूत्रमेंसे) चकारके कारण जूर (ऐसा आदेश) विकल्पसे होता है। उदा.-विसूरइ । जरइ। (विकल्पपक्षमें)-खिज्जइ ।। ७३ ।। तडवविरल्लतडतड्डास्तनेः ।। ७४ ।।
___ 'तनु विस्तारे' मेंसे तन् धातुको तड्डव, विरल्ल, तड, तड्ड ऐसे चार आदेश विकल्पसे होते हैं। उदा.-तडवइ । विरल्लइ। तडइ। तइइ । (विकल्पपक्षमें)-तणइ ।। ७४ ॥ निरः पद्यतेलः ॥ ७५ ।। ___पद गतौ' से पद् धातुके पीछे निर् (उपसर्ग) होनेपर, उसको वल ऐसा आदेश विकल्पसे होता है। उदा.-णिव्वलइ । (विकल्पपक्षमें)णिवज्जइ ।। ७५ ।। संतपां झङ्खः ।। ७६ ॥
सम् (उपसर्ग) पीछे होनेवाले तप्यति धातुको इस ऐसा आदेश विकल्पसे होता है। (सूत्रमें संतपाम् ऐसा) बहुवचन होने के कारण, निःश्वसिति, विलपति, उपालभति (इन धातुओंको भी झङ्ख ऐसा आदेश होता है)। उदा.-झङ्खइ. (यानी) संतप्यते, नि:श्वसिति, विलपति उपालभते । विकल्पपक्षमें-संतवइ। णीससइ। विलवइ । उवालहइ ।। ७६ ।।
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हिन्दी अनुवाद-अ. ३, पा..१
ओअग्गममाण। व्यापिसमाप्योः ।। ७७ ॥
व्याप्नोति और समाप्नोति इन धातुओंको यथाक्रम ओअग और समाण ऐसे आदेश विकल्पसे होते हैं। उदा.-ओ अग्गइ। समाणइ । विकल्पप झमें-आवेइ व्याप्नोति । समावेइ समाप्नोति ।। ७७ ।। णिरवो बुभुक्ष्याक्षिप्योः ॥ ७८ ॥ __ आचारे किम् (प्रत्यय) अन्तमें होनेवाला बुभुक्षि, और आ (उपसर्ग) पीछे होने वाला क्षिपति, इन धातुओं को णिरव ऐसा आदेश विकल्पसे होता है। उदा.-णिर बइ, बुभुक्षते आक्षिपति वा । (विकल्पपक्षमें)-बुभुक्खइ । अविश्वबइ ।। ७८॥ क्षिपिरड्डक्वपरिहुलघत्तछुहकेल्लणोल्लसोल्लगल्लत्थान् ।। ७९ । ।
क्षिप प्रेरणे' मेंसे क्षिप् धातुको अड्डक्ख, परि, हुल, घत्त, छुह, फेल्ल, णल्ल, सोल्ल, गल्लत्थ ऐसे नौ आदेश विकरुपसे प्राप्त होते हैं। उदा.अड्डक्वड । परिइ। हुलइ। घत्तइ । छुहइ । फेल्लइ । णोल्लइ। सोल्लइ । गल्लत्थइ। विकल्पपक्षमें-खिबइ ।। ७९ ।। उत्क्षिपिरुत्थग्घोसिकहवखुवाल्लत्थगुलुगुञ्छाब्भुत्तान् ।। ८० ॥
उरिक्षपति धातुको उत्थग्घ, उसिक्क, हवखुव, अल्लस्थ, गुलुगुञ्छ, अब्भुत्त, ऐसे छः आदेश विकल्पसे प्राप्त होते हैं। उदा.-उत्थग्घइ । उसिक्कइ। हक्खुबइ। अल्लथइ । गुलुगुञ्छइ । अभुत्तइ। विकल्पपक्षमेंउक्विवइ ।। ८० ॥ चेपेराअब्बाअन्झौ ।। ८१ ।।
'टुवेपृ कम्पने मेंसे वेप् धातुको आअब्ब और आअज्झ ऐसे आदेश विकल्पसे होते हैं। उदा.-आअब्बइ । आअज्झइ । विकल्पपक्षम-वेबई ।।८।। विरणडौ गुपेः ।। ८२ ॥ ___ गुप व्याकुलवे मेंसे गुप् धातुको चिर और णड ऐसे आदेश विकल्पसे होते हैं। उदा.-बिरइ। पाडइ । विकल्पपक्षमें-गुप्पङ ।। ८२ ।।
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त्रिविक्रम-प्राकृत-व्याकरण
चच्चारवेलवावुपालभेः ।। ८३ ।।
'डुलभष् प्राप्तौ'मेंसे लम् धातुके पीछे उप और आ (उपाङ्) के उपसर्ग होनेपर, उसको चच्चार, वेलब ऐसे आदेश विकल्पसे होते हैं। उदा.-चच्चारइ। वेलवइ । (विकल्पपक्षमें)-उवालम्भइ ।। ८३ ।। खउरपड्डुहौ क्षुभेः ।। ८४ ॥
क्षुभ्यति धातुको खउर, पड्डुह ऐसे आदेश विकल्पसे होते हैं। उदा.खउरइ। पड्डुहइ। (विकल्पपक्षमें)-खुब्भइ ।। ८४ ।। प्रदीपेः संधुक्काबुत्ततेअवसंधुमाः ॥ ८५ ।।
प्र (उपसर्ग) पीछे होनेवाले दीप्यति धातुको संधुक्क, अब्बुत्त,तेअव, संधुम ऐसे चार आदेश विकल्पसे होते हैं। उदा.-संधुक्का। अब्बुत्तइ । तेअवइ। संधुमइ। विकल्पपक्षमें-पलीवइ ।। ८५ ॥ अल्लिअ उपसर्पः ।। ८६।।
_ 'सृप गती' मेंसे सृप् धातुके पीछे उप (उपसर्ग) होनेपर, उसको अल्लिअ ऐसा आदेश विकल्पसे होता है। उदा.-अल्लिअइ। (विकल्पपक्षमें) उवसप्पइ ॥ ८६॥ कमवसलिसलोट्टाः स्वः ।। ८७ ।।
निष्वप शये' मेंसे स्वप् धातुको कमवस, लिस और लोह ऐसे तीन आदेश विकल्पसे होते हैं। उदा.-कमवसइ । लिसइ । लोदृइ । विकल्पपक्षमेंसुवइ । सोत्रइ ॥ ८७ ॥ बडबडो विलपेः॥ ८८॥
'लप व्यक्तायां वाचि'मेंसे लप् धातुके पीछे वि (उपसर्ग) होनेपर, उसको बडबड ऐसा आदेश विकल्पसे होता है। उदा.-बडबडइ । (विकल्पपक्षमें)-विलवइ । 'संतपाम् मनः' (३.१.७६) सूत्रानुसार, (सूत्रमें)
(उपसर्ग) होने
स होता है।
'संतपाम्
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हिन्दी अनुवाद - अ. ३, पा. १
१९७
बहुवचन कहे जानेसे, विनिःश्वसिति इत्यादि धातुओं को शङ्खर ऐसा आदेश होता है ॥ ८८ ॥
,
रभिराङो रम्भडवौ ॥ ८९ ॥
'रभ रामस्ये 'मेंसे रम् धातु आ (उपसर्ग ) के आगे होनेपर, उसको रम्भ और डब ऐसे आदेश विकल्प से प्राप्त होते हैं | उदा. आरम्भइ | आडवाइ ( विकल्प पक्ष में ) - आरहइ ॥ ८९ ॥
भाराक्रान्ते नमेर्निंसुः ।। ९० ।।
'मु प्रहृत्वे शब्दे' में से नम् धातुको भाराकान्त (मनुष्य) कर्ता होनेपर, निसु ऐसा आदेश विकल्पसे होता है । उदा. - निसुडइ, भाराक्रान्तः नमति, ऐसा अर्थ ।। ९०॥
उब्भाव वेल्लणि सरकोड्डुमसक्खुड्डखेड्डमोट्टाअकिलिकिञ्चा रमतेः १९१ ॥
"
'रमु क्रीडायाम्' में से रम् धातुको उब्भाव, वेल्ल, णिसर, कोड्डुम सक्खुड्ड, खेड, मोट्टा, किलिकिञ्चि ऐसे आठ आदेश विकल्प से होते हैं । उदा. - भाव | वेल्लइ । णिसरइ | कोड्डुमइ । सक्खुड्ड | खेड्डइ | मोट्टाइ | किलिकिञ्चइ । विकल्पपक्षमें - रमइ ॥ ९१ ॥
पडिसा परिसामौ शमेः ।। ९२ ।।
'शमु उपशमे' मेंसे शम् धातुको पडिसा और परिसाम ऐसे आदेश विकल्पसे होते हैं। उदा. -पडिसाइ । परिसामइ । ( विकल्पपक्ष में ) समइ ।। ९२ ।।
लुभेः संभावः ।। ९३ ।।
'लुभ गाघ्न्यें'मेंसे लुभ् धातुको संभाव ऐसा आदेश विकल्प से होता है | उदा. संभाव । ( विकल्प पक्ष में ) -- लुम्भ ॥ ९३ ॥
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१९४
त्रिविक्रम-प्राकृत व्याकरण
आक्रामिरोहावोत्थारच्छन्दान् ।। ९४ ।। __ 'क्रमु पाद विक्षेपे' मेंसे क्रम् धातुके पीछे आ (उपसर्ग) होनेपर, उसको ओहाव, उत्थार, छन्द ऐसे तीन आदेश प्राप्त होते हैं। उदा.-ओहावइ । उत्थारइ । छुन्दइ। (विकल्पपक्षमें)-अक्कमइ ।। ९४ ।। विश्रमणिप्पा ।। ९५।।
श्रमु तपसि खेदे च मेंसे श्रम् धातुके पीछे वि (उपसर्ग) होनेपर, उसको णिप्पा ऐसा आदेश विकल्पसे होता है। उदा.-णिप्पाइ । (विकल्पपक्षमें) वीसमइ ।। ९५ ॥ डुण्डुल्लडुमडण्डल्लभमाडभम्मभमुडतलअण्टझण्टगुमटिरिटिल्लपरिपरघमचकमभमडघसझम्पडसा भ्रमेः ।। ९६ ।।
'भ्रम अनवस्थाने' मेंसे भ्रम् धातको डुण्डुल्ल, डुम, डण्डल्ल, भमाड, भम्म, भमुड, तलअण्ट, झण्ट, गुम, टिरिटिल्ल, परि, पर, घम, चक्कम, भमड, घस, झम्प, डुस, ऐसे अठारह आदेश विकल्पसे होते हैं। उदा.डुण्डुल्लइ। डुमइ । डण्डल्लइ । ममाडइ । भम्मइ । भमुडइ। तलअण्टइ | झण्टइ गुमइ । टिरिटिल्लइ । परिइ । परइ । धमइ । चक्कमइ । भमडइ । घसइ । झम्पइ । डुसइ। विकल्पपक्षमें-भमइ ॥ ९६ ॥ गमिरणुवज्जावज्जसावकुसोक्कुसाइच्छाईअवहरावसेहवडअवरिअलवरिअल्लबोल्लणिारणासवच्छड्डणिणणिम्महपच्छन्दणिलुक्करम्भणिणिवहान् ।। ९७।। ___ गम्लु गतौ'मेंसे गम् धातुको अणुवज्ज, अवज्जस, अक्बुस, उक्कुस, अइच्छ, अई, अवहर, अवसेह, वडअ, वरिअल, वरिअल्ल, वोल्ल, णिरिणास, वच्छड्ड, पिण, णिम्मह, पच्छन्द, णिलुक्क, रम्भ, णि, णिवह, ऐसे इकिस आदेश विकल्पसे प्राप्त होते हैं। उदा.-अणुवज्जइ । अवज्जसइ । अक्कुसइ। उक्कुसइ । अइच्छइ। अईइ। अवहरइ। अवसेहइ । वडअइ। वरिअलइ । वरिअल्लइ । वोल्लइ । णिरिणासइ । वच्छड्डइ । णिणइ । णिम्महइ ! पच्छन्दइ।
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हिन्दी अनुवाद-अ. ३, पा. १
णिलक्कइ । रम्भइ । णिइ। णिवहइ। विकल्पपक्षमें-गच्छ। पर हम्मइ, णिहम्मइ, आहम्मइ, इत्यादि रूप मात्र, 'हम्म गतौ' मेंसे हम्म् धातुके होंगे ।। ९७ ।। प्रत्यागमागमाभ्यागमां पल्लोट्टाहिपच्चुओम्मच्छाः ॥ ९८ ॥
प्रत्यागम्, आगम् और अभ्यागम् धातुओंको यथाक्रम, पल्लोह, अहिपच्चुअ, उम्मच्छ ऐसे आदेश विकल्पसे होते हैं। उदा.-पलोट्टइ, पञ्चागमइ, प्रत्यागच्छति । अहिपच्चुअइ, आअच्छइ, आगच्छति । उम्मच्छइ, अब्भागच्छइ, अभ्यागच्छति ॥ ९८॥ रिहरिग्गौ प्रविशेः ॥ ९९ ।।
प्रविशति धातुको रिह और रिग्ग ऐसे आदेश विकल्पसे होते हैं। उदा.-रिहइ । रिग्गइ । (विकल्पपक्षमे)-पविसइ ।। ९९ ।। संगमोऽभिडः ।। १०० ॥
___संगच्छति धातुको अभिड ऐसा आदेश विकल्पसे होता है। उदा.अभिडइ । (विकल्पपक्षमें)-संगच्छइ ।। १०० ॥ डिप्पणिड्डुहौ विगलेः ।। १०१ ।।
वि (उपसर्ग) पीछे होनेवाले गलति धातुको डिप्प, णिड्डुह ऐसे आदेश विकल्पसे होते हैं। उदा.-डिप्पइ । गिड्डहइ। विकल्पपक्षमें-विगलइ ॥ १०१॥ णिवहणिरिणासणिरिणिज्जरोश्चचड्डाः पिषेः ।। १०२ ।।
_ 'पिष्ल संचूर्णने मेंसे पिष् धातुको णिवह, णिरिणास, णिरिणिज्ज, रोच्च, चड्ड ऐसे पाँच आदेश विकल्पसे होते हैं। उदा.-णिवहइ । णिरिणासइ । णिरिणिज्जइ । रोञ्चइ । चड्डुइ । विकल्पपक्षमें-पिसइ ।।१०२।। वलेवम्फः।। १०३ ॥
वलति धातुको वम्फ ऐसा आदेश विकल्पसे होता है। उदा.-वम्फइ । (विकल्पपक्षमें)-वलइ ।। १०३ ।।
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२००
त्रिविक्रम-प्राकृत-व्याकरण भ्रंशेः पिड्डपिट्टछुक्कछुल्लपुट्टपुडाः ॥ १०४ ॥
भ्रंश (भ्रंशि) धातुको पिड्ड, पिट्ट, छुक्क, छुल्ल, पुट्ट, पुडं ऐसे ये छः आदेश विकल्पसे होते हैं। उदा.-पिड्डइ । पिट्टइ । छुक्कइ । छुल्लइ । पुदृइ। पुडह। (विकल्पपक्षमें)-भंसइ ॥ १०४ ॥ भषेर्बुकः ।। १०५॥
भषति धातुको बुक्क ऐसा आदेश विकल्पसे होता है। उदा.बुक्कड। (विकल्पपक्षमें)-भसइ ।। १०५ ।। पुरग्धवाग्घोडाहिरेमाग्गुमाध्दुमाः ।। १०६ ।।
'. पालनपूरणयोः' मेंसे प धातुको अग्धव, अग्घोड, अहिरेम, अग्गुम, अदुम ऐसे पाँच आदेश विकल्पसे होते हैं। उदा.-अग्घवइ । अग्घोडइ । अहिरेमइ । अग्गुमइ । अदुमइ। विकल्पपक्षमें-पूरइ ।। १०६ ।। आहाहिलंघवच्चाहिलक्खमहसिहचिल्लुम्पचम्पाः कांक्षेः ॥ १०७॥
कांक्षति धातुको आह, अहिलंघ, वच्च, अहिलक्ख, मह, सिह, चिल्लुम्प, चम्प ऐसे आठ आदेश विकल्पसे होते हैं। उदा.-आहइ । अहिलंघइ। वच्चइ। अहिलक्खइ । महइ। सिहइ । चिल्लम्पइ। चम्पइ । विकल्पपक्षमें-कंखइ ।। १०७ ।। नशिरवहरावसेहणिवहपडिसासेहणिरिणासान् ।। १०८ ।।
नश्यति धातुको अवहर, अवसेह, णिवह, पडिसा, सेह, णिरिणास ऐसे छः आदेश विकल्पसे प्राप्त होते हैं। उदा.-अवहरइ। अवसेहइ । णिवहइ । पडिसाइ । सेहइ। णिरिणासइ। विकल्पपक्षमें-णासइ ॥१०८।। साअडढाणच्छकड्ढाच्छाअञ्छाणञ्छाः कृषः ।।१०९।।
'कृष विलेखने मेंसे कृष् धातुको साअड्ढ, अणच्छ, कड्ढ, अच्छ, आअञ्छ, आणञ्छ ऐसे छ: आदेश विकल्पसे होते हैं। उदा.-साअड्ढइ । अणच्छइ। कड्ढइ। अच्छइ। आअञ्इ । आणज्छइ। विकल्पपक्षमेंकरिसइ ।। १०९।।
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हिन्दी अनुवाद-अ. ३, पा. १
असावक्खोडः ।। ११० ॥
असि विषयके बारेमें कर्षति धातुको अक्खोड ऐसा आदेश विकल्पसे होता है। उदा.-अक्खोडइ (यानी) असि कोषात् कर्षति ॥ ११० ॥ उल्लसेरूसलोसुम्भारोअणिल्लसगुञ्जोल्लपुलआआः।। १११ ॥
_ 'लष कान्तौ से लस् धातुके पीछे उत् (उपसर्ग) होनेपर, उसको ऊसल, ऊसुम्भ, आरोअ, जिल्लस, गुजोल्ल, पुलआअ ऐसे छः आदेश विकल्पसे होते हैं। उदा.-ऊसलइ। ऊसुम्भइ। आरोअइ। णिल्लसइ । गुजोल्लइ । -हस्व होनेपर-गुजुल्लइ। पुलआअइ! विकल्पपक्षमें-उल्लसइ ॥ १११ ।। संदिशोऽप्पाहः ।। ११२ ।।
'दिश अतिसर्जने' मेंसे दिश् धातुके पीछे सम् (उपसर्ग) होनेपर, उसको अप्पाह ऐसा आदेश विकल्पसे होता है। उदा.-अप्पाहइ । (विकल्पपक्षमें)-संदिसइ ।। ११२ ।। ग्रसेर्घिसः ।। ११३ ॥
'ग्रस अदने' से ग्रस् धातुको घिस ऐसा आदेश (विकल्पसे) होता है। उदा.-घिसइ । (विकल्पपक्षमें)-गसइ ॥ ११३ ॥ भासेर्भिसः ॥११४ ।।
'भास दीप्त से भास धातुको भिस ऐसा आदेश विकल्पसे) होता है । उदा.-भिसइ । (विकल्पपक्षमें)-भासइ ।। ११४ ।। प्रतीक्षेविहिरविरमालसामआः ।। ११५ ।।
'ईक्ष दर्शने मेंसे ईक्ष धातुके पीछे प्रति (उपसर्ग) होनेपर, उसको विहिर, विरमाल, सामअ ऐसे तीन आदेश विकल्पसे होते ह । उदा.विहिरइ। विरमालइ । सामअइ। विकल्पपक्षमें-पडिक्खइ ॥ ११५ ॥
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२०२
त्रिविक्रम-प्राकृत-व्याकरण स्रंसेहँसडिम्भौ ॥११६ ॥
___ 'संसु अवस्रंसने मेंसे संस् धातुको ल्हस, डिम्भ ऐसे आदेश विकल्पसे होते हैं। उदा.-ल्हसइ । परिल्हसइ । परिल्हसणं । डिम्भइ । (विकल्पपक्षमें)संसइ ।।११६ ।। मृक्षेश्वोप्पडः।। ११७ ।।
मृक्षति धातुको चोप्पड ऐसा आदेश विकल्पसे होता है। उदा.चोप्पडइ। (विकल्पपक्ष)-मक्खइ ॥ ११७ ॥ विसट्टो दलेः ॥ ११८ ॥
___ दलति धातुको विसदृ ऐसा सादेश विकल्पसे होता है। उदा.विसइ। (विकल्पपक्षमें). दलइ ।। ११८ ।। बसेर्वज्जडरौ ।। ११९॥
__ त्रसति धातुको वज्ज, डर ऐसे आदेश विकल्पसे होते हैं। उदा.वज्जइ। डरइ । (विकल्पपक्षमें)-तसइ ।। ११९ ।। वोज्जो वीजेश्च ।। १२० ॥
'वीज व्यजने मेंसे वीज् धातुको, और (सूत्रमेंसे) चकारके कारण त्रस् (त्रसि) धातुको, वोज्ज ऐसा आदेश विकल्पसे होता है। उदा. वोज्जइ । विकल्पपक्षमें-बीजइ । तसइ ।। १२० ।। गवेषेपत्तगमेसडुण्डुल्लडण्डोलाः ।। १२१ ।।
गवेष धातुको धत्त, गमेस, डुण्डुल्ल, डण्डोल ऐसे चार आदेश विकल्पसे होते हैं। उदा.-घत्तइ। गमेसइ । डुण्डुल्लइ । डण्डोलइ । विकल्पपक्षमें-गवेसइ ।। १२१ ।। तक्षेश्चञ्छरम्परम्काः ।। १२२ ।।
__ 'तक्ष् तनूकरणे'मेंसे तक्ष् धातुको चञ्छ, रम्प, रम्फ ऐसे तीन आदेश विकल्पसे होते हैं। उदा.-चञ्छइ । रम्पइ । रम्फइ। विकल्पपक्षमें-तक्खइ । स्पृहादिगणमें (तक्ष होनेसे, क्ष का) छ होनेपर-तच्छइ ।। १२२ ॥
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हिन्दी अनुवाद-अ. ३, पा. १
२०३.
हसेर्गुजः ॥ १२३ ॥
.. हसति धातुको गुज ऐसा आदेश विकल्पसे होता है । उदा.-गुजइ । (विकल्पपक्षमें)-हसइ ।। १२३ ॥ दहिरहिऊलालुक्खौ ।। १२४ ॥
'दह भस्मीकरणे' मेंसे दह धातुको अहिऊल, आलुक्ख ऐसे आदेश (विकल्पसे) प्राप्त होते हैं। उदा.-अहिउलइ । आलुवखइ । (विकल्पपक्षमें)दहइ ॥ १२४ ।। विकसेः कोआसवोसग्गौ ॥ १२५ ।।
विकसति धातुको कोआस,वोसग्ग ऐसे आदेश विकल्पसे होते हैं। उदा.-कोआसइ। वोसग्गइ। (विकल्पपक्षमें). विअसइ ।। १२५ ।। श्लिप्पोऽवआससामग्गपरिअन्ताः ।। १२६ ॥
‘श्लिष आलिङ्गने मेंसे श्लिष् धातुको अवआस, सामग्ग, परिअन्त ऐसे तीन आदेश विकल्पसे होते हैं। उदा.-अवआसइ । सामग्गइ । परिअन्तइ। (विकल्पपक्षमें)-सिलिसइ ।। १२६ ।। जुगुप्सतेर्दुगुञ्छझूणदुगुच्छाः ।। १२७ ।।
जुगुप्सति धातुको दुगुञ्छ, झूण, दुगुच्छ ऐसे तीन आदेश विकल्पसे होते हैं। उदा.- दुगुञ्छइ । झूणइ । दुगुच्छइ । (विकल्पपक्षमें)-जुउच्छइ ।।१२७॥ वलग्गचडमारुहेः ।। १२८।।
_ 'रुह बीजजन्मनि प्रादुर्भावे च मेंसे रुह् धातुके पीछे आ (आह्) उपसर्ग होनेपर, उसको वलग्ग, चड ऐसे आदेश विकल्पसे होते हैं। उदा.वलग्गइ। चडइ। (विकल्पपक्षमें;-आरुहइ ।। १२८ ।। हुल्लो लक्ष्यात् स्खलेः ॥ १२९ ।।।
लक्ष्य विषयके बारेमें स्खल ति धातुको हुल्ल ऐसा आदेश विकल्पसे होता है। उदा.-हुल्लइ (यानी) रक्ष्यात् स्खलति, ऐसा अर्थ ॥ १२९ ।।
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२०४
त्रिविक्रम-प्राकृत-ध्याकरण
गाहोऽवाद्वाहः ।। १३० ।।
'गाहू विलोडने मेंसे गाह् धातु अब (उपसर्ग) के आगे होनेपर, उसको वाह ऐसा आदेश विकल्पसे होता है। उदा.-ओवाहइ । (विकल्पपक्षमें)-ओगाहइ ।। १३० ।।
गुम्मगुम्मडौ मुहेः ॥ १३१ ।।
_ 'मुह वैचित्ये' मेंसे मुह धातुको गुम्म, गुम्मड ऐसे आदेश विकल्पसे होते हैं। उदा.-गुम्मइ । गुम्मडइ। (विकल्पपक्ष)-मुज्झइ ।। १३१ ॥ अपुण्णगाः क्तेन ॥ १३२ ।।
क्त प्रत्ययके साथ अपुण्ण, इत्यादि शब्द निपातके रूपमें आते हैं। उदा.-(१) अपुण्णं आक्रान्तम् । (२) उम्मच्छं (यानी) असंबद्धं क्रोधेन भङ्गया च यद् भणितम् । (३) उल्लुको (४) ओसण्णो (५) मुरुओ (यानी) त्रुटितः । (६) पहढं अविरतदृष्टम् । (७) गुज्जणि (८) पेज्जलिअं (यानी) संघटितम् । (९) सउलिओ (१०) गलस्थलिओ (११) उरुसोट्टो (यानी) प्रेरितः । (१२) उक्खिणं अवकीर्णम् । (१३) वोसट्टो (१४) विहि मिहिओ (यानी) विकसितः । (१५) उद्धरिअं अर्दितः । (१६) कमिओ उपसर्पितः। (१७) कडंतरिअं छिन्नं छिद्रितं च । (१८) सुढिओ श्रान्तः । (१९) परिहाइअं परिक्षीणम् । (२०) णिक्कज्जो (२१) अणिकजो (२२) उक्कग्गो (२३) तडहडिओ (यानी) अनव स्थितः । (२४) उद्धओ श्रान्तः । (२५) उभग्गो मुण्डितः।(२६) उच्चुल्लो उद्विग्नः। (२७) उच्छूरणं उच्छिष्टम् । (२८) उब्बिल चकितं क्लान्तं वा । (२९) पहोइअं (३०) अकासि अं (यानी) पर्याप्तम्। (३१) णालं (३२) गोरिहि (३३) हित्थो (३४) डड्ढो यानी) त्रस्तः। (३५) उपिथो क्रुद्धः ।
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हिन्दी अनुवाद-अ. ३, पा. १
२०५
(३६) णिविड्डो सुप्तोत्थितः। (३७) ओमिसं अप्रवृत्तम् । (३८) उग्धक्कं प्रलपितम् । (३९) उप्पि हृतं रोषितं विमुक्तं च । (४०) मोहरणं (४१) जिग्घि (४२) ओअग्घिअं (यानी) आघातम् । (४३) ऊसविअं उद्भ्रान्तम् । (४४) आहित्थो रुद्धः गलितः च । (४५) णिसुद्धो निपातितः। (४६) णिव्वूठो (४७) उम्मण्डो (यानी) उद्धतः । (४८) उल्लुण्डिअं (४९) जसिअं (पानी) क्षिप्तम् । (५०) णिज्जो (५१) लवओ (५२) लिहओ (५३) लुक्को (यानी) सुप्तः। (५५) उज्जणिअ वक्रितं निम्नीकृतं च। (५५) ऊढं त्यक्तम् । (५६) उज्जरिअ शुष्कं निम्नीकृतं च। (५७) फुटुं स्पृष्टम् । (५८) डिढओ जलान्तःपातितः । (५९) ओसरिओ आकीर्णः अक्षिनिकोचात् संकुचितः च। (६०) गुलिअं मथितम् । (६१) उम्मरिअं (६२) गुत्थिों (यानी) उन्मूलितम् । (६३) उड्डाहिअं (६४) परिच्चूडं (६५) उग्गाहिअ (यानी) उत्क्षिप्तम् । (६६) हासिअं दत्तम् । (६७) हेसिअं (६८) दुंदुमिअ (यानी) रक्षितम् । (६९) चित्तविओ परितोषितः। (७०) पल्लोट्टे (७१) झसिअं (७२) पल्हत्यं (यानी) पर्यस्तम्। (७३) पम्हुट्ठो प्रमुषितः प्रमृष्टः च। (७४) ओलेहडो प्रवृद्धः अन्यसक्तः च । (७५) ओट्ट (७६) ओआमिअं (यानी) अभिभूतम् । (७७) रुमिल्लं अभिलषितम् । (७८) पच्चुडरिअं प्रत्युद्गतम् । (७९) अक्वन्तो प्रवृद्धः । (८०) ओअल्लो छन्नः । (८१) करमो क्षीणः । (८२) कडो उपरतः क्षीणः च । (८३)पेक्किअं वृषरटितम् । (८४) अंकि आलिंगितम् । (८५) अविअं उक्तम् । (८६) उद्बुसि (८७) उल्लुसि (८८) चिमिणं (८९) उलुकुसि (९०) ऊसलिअ (यानी) रोमाश्चितम्। (९१) असंगिओ सक्तः। (९२) आरेइअं मुकुलितं मुक्तं भ्रान्तं पुलकित च। (९३) उच्छण्डिअं शरादिव्यथित अपहृतं च। (९४) चण्टिअं छन्नम् । (९५) ऊससि (९६) ऊस (यानी) उपधानीकृतम् । (९७) भाविध प्रोतम् । (९८) अवहट्ठो दर्पितः। (९९) आरद्धो वृद्धिंगत:
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त्रिविक्रम-प्राकृत व्याकरण
-गृहायातः च । (१००) घुत्तिअ (१०१) घुसिणिों .(यानी) अन्विष्टम् । (१०२) घुग्घुस्सिअं अशंकं भणितम्। (१०३) उल्टूढो (१०४) उच्चप्पो (यानी) आरूढः। (१०५) खबलिओ कुपितः । (१०६) चक्कडिअं प्रीणितम् । (१०७) उञ्चत्तो गलित: विरक्तः च । (१०८) गुडिओ संनद्धः। (१०९) गुम्मइओ आपूरितः स्खलितः आमूलात् संवलितः मूढः विघटितः च । (११०) पडिरिग्गअं भग्नम् । (१११) परिअड्डिअं प्रकटिनम् । (११२) परिअलिअ परिच्छिन्नम् । (११३) ओप्पं मृष्टम् । (११४) कोज्जरिअं पूरितम्। (११५) उम्मलं धनीभूतम् । (११६) वेल्लाइ (११७) खडइअं (यानी) संकुचितम् । (११८) झण्टिअ प्रहृतम् । (११९) अणुअज्झिओ प्रयातः प्रतिजागरितः च। (१२०) णज्झरं दलितम् । (१२१) उलुहुलिओ अवितृप्तः । (१२२) वप्पिरं (खप्पि?) (१२३) आरोग्गिअं (यानी) भुक्तम् । (१२४) उब्भालणं (१२५) उच्छुण्णं (१२६) अहिरेइअं (१२७) उध्दुमाअं (१२८) अप्पुण्णं (यानी) परिपूर्णम् । (१२९) पच्चावेणिओ संमुख आगतः । (१३०) दुग्गुच्छं भ्रमितम् । (१३१) बट्टावि समापितम् । (१३२) पारद्धं अभिपीडितम् । (१३३) उद्दा लिअं रणद्रुतम् । (१३४) उज्झमाणं पलायितम । (१३५) विडतं अर्जितम् । (१३६) छिक्कं स्पृष्टम् । (१३७) थेणिल्ल हृतम् । (१३८) विउलो आविग्नः । (१३९) साणिअं (१४०) तिक्खालिअं (यानी) शातम् । (१४१) सोहिल्लं (१४२) पक्कं (१४३) समराड (१४४) आइपणं (यानी) पिष्टम् । (१४५)
ओत्थों (१४६) ओस विअं (यानी) अवसन्नम् । (१४७) पडिमारिअं स्मृतम् । (१४८) पेण्डइअं पिण्डितम् । (१४९) उग्गहिओ निपुणगृहीतः विरचितः च । (१५०) गमिअं अवधृतम् । (१५१) उद्दच्छिओ निषिद्धः। (१५२) णिग्गिण्णो निर्गतः । । (१५३) किवाडो स्खलितः।। (१५४) लोट्टो अत्यासक्तः स्मृतः च । ।(१५) पविरं जिओ स्निग्धः ।। (१५६)
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हिन्दी अनुवाद-अ. ३, पा. १
२०७
हुरुहुण्डिअ (१५७) उध्दूलिअं (१५८) ओसत्तं (यानी) अवनतम्।(१५९) ओझरिअं प्रक्षिप्तं विक्षिप्तं च। (१६०) विस्सुओ (१६१) क्वहिओ (यानी) उन्मत्तः। (१६२) परिक्खाइअ परिक्षीणम्। (१६३) ठिक्कं (१६४) हेलुअं (यानी) क्षुतम् । (१६५) थमिअं विस्मृतम् । (१६६) अज्झसि (१६७) अवडाहिअं(१६८) उक्कासं (यानी) उत्क्रुष्टम् । (१६९) हल्लप्फलिअं त्वरितम् । (१७०) उद्द। रिअं उत्खातम् । (१७१) अटो यातः। (१७२) उल्लिक्कं दुश्चेष्टितम् । (१७३) उच्छड्डिअं मुषितम् । (१७४) वोग्गिणं (१७५) परिअम्मि (यानी) अलंकृतम्। (१७६) उक्किअ प्रसृतम। (१७७) झत्थो (१७८) ल्हिवको (१७९) मोओ (१८०) सत्थो (यानी) गतः। (१८१) खसि (१८२) उच्छुरिअं (१८३) पडिहत्थो (यानी) आपूर्णम् । (१८४) णिज्जरं जीण खिन्न च। (१८५) उज्जल्लो (१८६) उच्छुल्लो (१८७) उव्वालो (१८८) अवाहिओ (१८९) उत्तप्पो (यानी) अध्यासितम्। (१९०) ओइल्लअं (१९१) उक्कुण्डं (यानी) विप्रलब्धः। (१९२) उद्धच्छो लिप्तम् । (१९३) हिअं पार्श्वपरावृत्तम् (१९४) अणग्गपल्लडें पुनरुक्तम् । (१९५). अण्णसअं आस्तृतम् । (१९६) उप्पड्डिअं नष्टम् । (१२७) अणहप्पणअं भर्सितम् । (१९८) उज्झरिओ (१९९) उग्धओ (२००) विमइओ (२०१) मइओ (२०२) पइओ (यानी) विस्तीर्णः । (२०३) कुद्दो (२०४) वामो (२०५) अवगदो (२०६) पइण्णो (२०७) धुत्तो यानी आक्रान्तम् । (२०८) ओक्खलिअं (२०९) ओरम्पिअं (२१०) उक्खण्डिअं (यानी) त्रुटितम् (यानी) खण्डितम् ऐसा अर्थ । (२११) अण्णं (२१२) कप्परिअं (यानी) आरोपितम् । (२१३) आह विओ चूर्णितम् । (२१४) उल्लुण्टिअं (२१५) दुह (२१६) उत्थिों (२१७) उकासि (२१८) ओरिअं (यानी) रणलब्धम् । (२१९) ओमहिअं पुरस्कृतम् । (२२०) बक्ख लिअ उत्संगितम्। (२२१) उअक्कि पुञ्जीकृतम् । (२२२) पिण्डइअं प्रशान्तम् । (२२३)
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त्रिविक्रम-प्राकृत-ध्याकरण
उलुहुण्डिअं हेषितम् । (२२४) हेकिनं (२२५) हीसमण (यानी) उन्नतं, उत्तमं चुम्बितं च। (२२६ मुम्मिों (२२७) मुल्लिअं (यानी) शीलितम् । (२२८) महुरालि (२२९) णिस्सीमिओ (यानी) निर्वासितः। (२३०) विविखण्णो अवकीर्णः। (२३१) णिरित्तो नतः। (२३२) गुम्मिओ मूलोत्सन्नम्। (२३३) णिरुत्तं निश्चितम् | (२३४) पक्कड्डिअं प्रस्फुटितम् | (२३५) खण्डिओ मद्यासक्तः । (२३६) वेट्ठिओ वेष्टितः। (२३७) वोलीणो अतिक्रान्तः। (२३८) णिम्मिओ स्थापितः । (२३९) लक्खिओ(२४०) मिओ (यानी) विघटितः। (२४१) णिच्चणिओ जलधौतः । (२४२) चक्खिअ आस्वादितम् । (२४३) तुच्छ रंजितम् । [२४४] रेक्किअं आक्षिप्तम्। (२४५) परट्ठो भीतः पतितः पीडितः च । (२४६) पडि अग्गिअं वर्ध पितं परिभुक्तं च । (२४७) उच्छुल्लो विधारितः । (२४८) णडिओ वञ्चितः। (२४९) ओसकिओ (२५०) सग्गओ (२५१) फंसुलो (यानी) मुक्तः । १२५२) गुमिलो मूढः स्खलितः आपूर्णः च । (२५३) संसोसिओ चूर्णितः भीत: आरूढः उद्विग्नः च। (२५४) उच्चल्लो (२५५) अज्झंसिअ (यानी) दृष्टम् । इत्यादि ।। १३२॥
धातवोऽर्थान्तरेष्वपि ॥ १३३ ।।
कहे हुए अर्थसे भिन्न अभी धातु होते हैं। उदा.-बल् (वलि) प्राणन अर्थमें कहा है, वह खादन अर्थमेंभी है। वलइ, खादति प्राणनं करोति वा। इसी प्रकार कल् (कलि) धातु संख्यान और संज्ञान अर्थोमें है। कलइ, जानाति संख्यानं करोति वा। गिर् [गिरि गति और प्रवेश अथामें है। गिरइ प्रविशति गच्छति वा। काङ्क्षति को प्राकृतमें पम्फ भादेश होता है। पम्फइ, इश्छति खादति वा। पति (१) धातुको थक्क आदेश होता है। थक्का नीचां गतिं करोति विलम्बयति वा।
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हिन्दी अनुवाद-अ. ३, पा. १
२०९ विलप् , उपालम्भ , संतप् और निःश्वस् धातुओंको झंख आदेश होता है। शंखइ, विलपति उपालभते संतपति नि:श्वसिति वा। कुछ धातु नित्य कुछ उपसगोंके साथ होते हैं। पहरइ युध्यते। संहरइ संवृणोति । अणुहरइ सदृशो भवति । णीहरइ पुरीषोत्सर्ग करोति। विहरइ क्रीडति। आहरइ खादति । पडिहरइ पुनः पूरयति । परिहरइ त्यजति। उपहरइ पूजयति । वाहरइ आह्वयति। पवसइ देशान्तरं गच्छति। उच्छुवइ चोरयति । उरुहइ निःसरति ।। १३३ ॥
-- तृतीय अध्याय प्रथम पाद समाप्त ---
त्रि.शामा....१४
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द्वितीयः पादः दस्तस्य शौरसेन्यामखावचोऽस्तोः ॥ १ ।।
शौरसेनी भाषामें अखु (अनादि होनेवाला), स्वरके आगे होनेवाला, अस्तु (असंयुक्त) ऐसे तकारका दकार होता है। उदा.-तदो पूरिदपदिण्णेण मारुदिणा मन्तिदो। एतस्मात् एदाहि। सततम् सददं। अखु, ऐसा क्यों कहा है ? (कारण तकार आदि होनेपर, ऐसा वर्णान्तर नहीं होता)। उदा.तया तहा । तधा करेध । तरइ । स्वरके आगे होनेवाला, ऐसा क्यों कहा है ! (कारण स्वरके आगे तकार न हो तो यह वर्णान्तर नहीं होता)। उदा.चिन्ता । मन्तिदं । अस्तु, ऐसा क्यों कहा है ? (कारण तकार संयुक्त हो तो ऐसा वर्णान्तर नहीं होता)। उदा.-मन्तो। अय्यउत्तो। असंभाविदसक्कार। हला सउन्तले ॥ १ ॥ अधः क्वचित् ॥ २ ॥
(इस सूत्रमें ३.२.१ से) तस्य पदकी अनुवृत्ति है। शौरसेनीमें संयोगमें (संयुक्ताक्षरमें) अनंतर (=बादमें) (अधो) होनेवाले त का दकार कचित् लक्ष्यानुसार होता है। उदा.-महन्दो । अन्देउरं ॥ २॥ तावति खोर्वा ॥३॥
___ शौरसेनीमें तावत् शब्दमें खु यानी आध होनेवाले तकारका द विकल्पसे होता है। उदा.-दाव। ताव ॥ ३ ॥ थो धः ॥ ४ ॥
(इस सूत्रमें ३.२.३ मेंसे) वा पदकी अनुवृत्ति है। शौरसेनीमें थका ध विकल्पसे होता है। उदा.-कधेदि कहेदि, कथयति। कधं कहं, कथम् । पिधं पिह, पृथक् । कथा कहा, कथा। (थ) अखु (अनादि) होनेपरही (ऐसा वान्तर होता है, अन्यथा नहीं होता)। उदा.- थाम |
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हिन्दी अनुवाद-अ. ३, पा.२
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थेवं । (थ) स्वरके आगे होनेपरही, (ऐसा वर्णान्तर होता है, अन्यथा नहीं)। उदा.-कन्या। (थ) अस्तु [ असंयुक्त] होनेपरही ऐसा वर्णान्तर होता है [अन्यथा नहीं] । उदा.-तिथं तीर्थम् ॥ ४ ॥ इहहचोर्हस्य ॥ ५ ॥
शौरसेनीमें इह शब्दमेंसे ह का, और 'थध्व मित्थाहचौ' [२.४.५] सूत्रसे कहा हुआ जो हच प्रत्यय उसमेंसे हकारका, धकार विकल्पसे होता है। उदा.-इध इह । होध होह । परित्ताअध परित्ताअह ।। ५ ॥ भुवो भः ।। ६ ।।
इस सूत्रमें ३.२.५ मेंसे] हस्य पदकी अनुवृत्ति है। शौरसेनीमें भू धातुके आदेशके रूपमें आनेवाले हकारका भकार विकल्पसे होता है। उदा.-भोदि होदि, भुवदि हुवदि हवदि ॥ ६ ॥
अन्त्यादिदेति मो णः ।।७।।
शौरसेनीमें इत् और एत् यानी इकार और एकार आगे होनेपर, अन्त्य मकारके आगे णकारका आगम विकल्पसे होता है । उदा.-जुत्तं णिम जुत्तमिणं, युक्तमिदम् । सरिसंणिमं सरिसमिण, सदृशमिदम् । किं णेदं किमेदं, किमेतत् । एवं णेदं एवमेदं, एवमेतत् ।।७।। यो य्यः ।। ८ ।।
शौरसेनीमें 2 के स्थानपर य्य ऐसा यह (वर्णान्तर) विकल्पसे होता है। उदा.-अय्यउत्तो। पय्याउलीकिद म्हि। सुय्यो। कय्यपरवसो। विकल्पपक्षमें-अज्जउत्तो। पज्जाउली किद म्हि । सुज्जो । कज्ज परयसो ॥८॥ पूर्वस्य पुरवः ।। ९॥
शौरसेनीमें पूर्व शब्दको पुरव ऐसा आदेश विकल्पसे होता है । उदा.अपुरवमेदं । विकल्पपक्षमें-अपुचमेदं ।। ९॥
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त्रिविक्रम-प्राकृत व्याकरण
इअदूणौ क्त्वः ।।१०॥
शौरसेनीमें क्त्वा प्रत्ययको इअ और दूण ऐसे आदेश विकल्पसे होते हैं। उदा.-भविअ होदूण | पढिअ पढिदूण । रमिअ रमिदूण । होता, भोत्ता, पढित्ता, रन्ता ये रूप सिद्धावस्थाके रूपोंमें व का लोप होकर, हुए हैं ॥१०॥ कुगमोर्डदुअः ॥ ११ ॥
कृ (कृञ् ) और गम् धातुओं के आगे क्त्वा प्रत्ययको डित् अदुअ ऐसा आदेश विकल्पसे होता है। उदा.-कदुअ । गदुअ। (विकल्पपक्षमें)करिअ । गमिअ । करिदूण | गमिदूण ॥ ११ ॥ इदानीमो ल्दाणिं ।। १२ ।।
शौरसेनीमें इदानीम् के स्थानपर दाणिं ऐसा लित् (=नित्य) आदेश होता है। (सूत्रमें से दाणिं में) ल् इत् होनेसे, यहाँ विकल्प नहीं होता। उदा.-अणन्दरकरणिज्जं दाणिं आणवेदु अय्यो। 'तद्व्यत्ययश्च' (३.४. ६९) सूत्रानुसार, प्राकृतमभी (दाणिं आदेश दिखाई देता है)। उदा.अण्णं दाणिं होइ ।। १२ ।। तस्मात्ता ।। १३॥
शौरसेनीमें तस्मात् शब्दको ता ऐसा आदेश प्राप्त होता है। उदा.ता जाव पविसामि | ता अलं एदिणा माणेण ॥ १३ ॥ णं नन्वर्थे ॥ १४ ॥
शौरसेनीमें ननु के अर्थ के लिए णं ऐसा निपात प्रयुक्त करें। उदा.ण अफलोदअं। णं अय्य मिस्सेहिं पुढम एव आणतं। णं भवं मे अग्गदो चलदि ॥१४॥ अम्महे हर्षे ॥१५॥
शौरसेनीमें अम्महे ऐसा निपात हर्ष दिखाते समय प्रयुक्त करें। उदा.-अम्महे एदार उम्मिलाए सुपरिषडिदो भवं ॥ १५॥
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हिन्दी अनुवाद- अ. ३, पा.२
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ही ही वैदूषके ।। १६॥ ___ शौरसेनीमें विदूषकसे संबंधित हर्ष दिखाते समय, हीही ऐसा निपात प्रयुक्त करें। उदा.-संपण्णा मणोरहा पिअवअस्सस्स ॥ १६ ॥ हीमाणहे निर्वेदविस्मये ॥ १७ ॥ ___ शौरसेनीमें हीमाणहे ऐसा निपात निर्वेद और विस्मय दिखाते समय प्रयुक्त करें। उदा.-निवेदमें-हीमाणहे परिस्सन्ता अम्हे एदेण णिअविहिणो दुबिलसिदेण, परिश्रान्ता वयमनेन निजविधेर्दुर्विल सितेन। विस्मयमेंहीमाणहे जीवन्तवच्छा मे जणणी ॥ १७ ॥ एवार्थे एच ॥ १८ ॥
शौरसेनीमें एव अर्थमें एक ऐसा निपात प्रयुक्त करें। उदा.-मह एव्य भणन्तस्स । सो एव्व देसो ॥१८॥ हज्जे चेटयाह्वाने ।। १९ ।।
__ शौरसेनीमें हले ऐसा निपात चेटीको बुलाते समय प्रयुक्त करें। उदा.-हले चदुरिए ।। १९ ।। अतो ङसेवुदोश् ॥ २० ॥
शौरसेनीमें (शब्द से अन्त्य) अकारके आगे डसि (प्रत्यय)को दु और दो ऐसे शित् आदेश होते हैं। (श् इत् होनेसे, पिछला स्वर दीर्घ होता है)। उदा.-दूगदु । दूरादो एव्व ॥ २० ॥ आत्सावामन्त्र्य इनो नः ॥ २१ ॥
शौरसेनीमें (शब्दके अन्त्य) इन्मेंसे नकारका, आमंत्रण अर्थमें होनेवाला सु आगे होनेपर, विकल्पसे आ होता है। उदा.-हो कञ्चुइआ हो तवस्सिआ। हो मणस्सिआ ।। २१॥
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२१४
प्राक्त-व्याकरण
मः ॥ २२ ॥
शौरसेनीमें आमंत्रण अर्थमें होनेवाला सु आगे होनेपर, नकारका मकार विकल्पसे होता है। उदा.-हो राअं। हो पिअवम्मं । हो सुकम्मं । भअवं कुसुमाउह। विकल्पपक्षमें-सअललोअन्तआरि भअव हुदवह ॥२२॥ भवताम् ॥ २३ ॥
आमन्त्र्ये पदकी निवृत्ति हो गयी। शौरसेनीमें सु (प्रत्यय) आगे होनेपर, भवत् प्रकारके शब्दोंमेंसे नकारका म होता है। उदा.-किं भवं हिअएण चिन्तेदि, किं भवान् हृदयेन चिन्तयति । एदु भवं, पजलिदो भअवं हुदासणो, एतु भवान् , प्रज्वलितो भगवान् हुताशनः । मघवं पाकसासणो, मघवान् पाकशासनः। कअवं करेमि काहं च, कृतवान् करोमि करिष्यामि च ।। २३ ॥ भविष्यति स्सिः ।। २४ ॥
शौरसेनीमें भविष्य (कालके) अर्थमें कहा हुआ प्रत्यय आगे होनेपर, स्सि ऐसा होता है। हि, स्सा, इत्यादि होते हैं, इस नियमका (देखिए २.४.२५-२७) यह नियम अपवाद है। उदा.-भविस्सिदि। करिस्सिदि। गच्छिस्सिदि ॥ २४ ॥ इचेचोर्दट् ।। २५ ॥
'लटस्तिमाविजेच' (२.४.१) सूत्रानुसार, वर्तमानकालमें प्रथम - पुरुष एकवचनके स्थानपर कहे हुए इच् और एच् (प्रत्ययों में दकारका आगम होता है। (सूत्रमेसे दट् में) टु इत् होनेसे, (दकारागम) आदिप्रथम-होता है। उदा.-रमदि रमदे। हसदि हसदे। गच्छदि गछदे । होदि । देदि । णेदि ॥ २५॥ शेषं प्राकृतवत् ॥ २६ ॥
इस प्रकरणमें, शौरसेनीमें (होता है ऐसा)जो कार्य कहा है, उसके अतिरिक्त इतर कार्य (शौरसेनीमें) प्राकृतकी तरहही होता है । (अभिप्राय यह-)
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हिन्दी अनुवाद-अ. ३, पा.२ 'दिही मिथः से' (१.१.१८) इस सूत्रसे 'दस्तस्य शौरसेन्यामखावचोऽस्तोः ' (३.२.१) सूत्रतक जो सूत्र और उनमें जो उदाहरण कहे गए हैं, वे उसी अवस्था ही शौरसेनीमें होते हैं, ऐसा विभाग प्रतिसूत्रके बारेमें देखें। उदा.-अन्तावेई। जुबईजणो। मणसिला। इत्यादि ॥ २६॥ मागध्यां शौरसेनीवत् ॥ २७ ॥
(इस सूत्रमें ३.२.२६ से) शेषम् पद (अध्याहृत) है। मागधीमें जो (होता है ऐसा) कहा जाएगा, उसके अतिरिक्त अन्य, शौरसेनीकी तरह होता है,ऐसा समझें। (अभिप्राय यह-) 'दस्तस्य शौरसेन्यामखावचोऽस्तोः' (३.२.१) सूत्रानुसार-विशदु आउत्ते शामिपशादाअ । 'अधः क्वचित्' (३. २.२) सूत्रानुसार-अले किं एशे महन्दे कलकले, किमेष महान् कलकलः । 'तावति खोवी' (३.२.३) सूत्रानुसार-मालेध वा मुंचेध वा, अयं दाव से आगमे। 'थो घः' (३.२.४) सूत्रानुसार-अले कुम्भीलआ कधेहि । 'इहहचोर्हस्य' (३.२.५) सूत्रानुसार ओशलध अय्या ओशल्ध। 'भुवो भः' (३.२.६) सूत्रानुसार-भोदि । 'अन्त्यादिदेति मोणः'[३.२.७] सूत्रानुसारजुत्तं णिम। शलिशं णिमं । 'यों य्यः' [३.२.८] सूत्रानुसार अय्य एशे खु कुमाले मलअकेदू । 'पूर्वस्य पुरवः' [३.२.९] सूत्रानुसार-एशे अपुलवे । 'इअदूणौ क्त्वः' [३.२.१०] सूत्रानुसार-किं खु शोहणे बम्हणे त्ति कलिअ लज्जा पदिग्गहे दिण्णे। 'कृगमोर्डदुः' [३.२.११] सूत्रानुसार-व दुअ । गदुअ। 'इदानीमो ल्दाणि' [३.२.१२] सूत्रानुसार-शुणध दाणिं। हगे शक्कावदालतित्थवाशी धीवले। 'तस्मात्ता' [३.२.१३] सूत्रानुसार-ता जाव उवविशामि। ‘ण नन्वर्थे' [३.२.१४] सूत्रानुसार-णं अवशलोवशप्पणीआ लाआणो शुणीअन्ते। 'अम्महे हर्षे' [३.२.१५] सूत्रानुसारअम्महे एदाए उम्मिलाए शुपलिघडिदे भवं । 'हीही वैदूषके' [३.२.१६] सत्रानुसार-हीही कोशम्बाणअरी एशा। 'हीमाणहे निवदविस्मये' [३.२.१७ सूत्रानुसार, निर्वेदके लिए उदाहरण, विक्रान्तभीम (नाटक)में
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राक्षस कहता है - हीमाणहे पलिश्शन्ता हगे एदेण णिअविहिणो दुव्विल - शिदेण | विस्मय के लिए उदाहरण, उदात्तराघव (नाटक) में राक्षस कहता है- हीमाणहे जीवन्तच्छा मे जणणी 'एवायें एव' [३.२.१८] सूत्रानुसार-मए एव्त्र । 'हजे चेटयाह्वाने' [३.२.१९] सूत्रानुसार-हजे चदुलिए । 'अतो उसे र्दुदोश' [३.२.२०] सूत्रानुसार अहं पि भागुलाअणादो मुहं पात्रेमि । 'आत्सावामन्त्र्य इनो नः ' [३.२.२१] सूत्रानुसार हे कञ्चुइआ । ‘म:' [३.२.२२] सूत्रानुसार हे लाअं । 'भवताम्' [३.२.२३] सूत्रानुसारएदु भवं शमणे भअवं महावीले । 'भविष्यति स्सि ः ' [३.२.२४] सूत्रानुसार कहिं णु एदे लुहिल पिए भविश्शिदि । 'इचे चोर्दट्' [३.२.२५] सूत्रानुसार अमच्चल कशे पेक्खिदुं इदो एव्त्र आअच्छदि । अले किं एशे महन्दे कलकले शुणी अदि । 'शेषं प्राकृतवत्' [३.२.२६] सूत्रानुसार, मागधी, 'दिहौ मिथः से' [१.१.१८] इस सूत्र से 'दस्तस्य शौरसेन्यामखावचोऽस्तो:' [३.२.१] सूत्रतक जो सूत्र (और) उनमें जो उदाहरण होते हैं, उनमें थे (अमुक) उसी अवस्था में ( मागधीमें आते हैं), ऐसा विभाग स्वयं करके देखें ॥। २७ ॥
त्रिविक्रम प्राकृत व्याकरण
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त्वाड्डाहो ङसः ॥ २८ ॥
(इस सूत्र ३.२.२७ से) मागध्याम् पदकी अनुवृत्ति है । मागधीमें आत् यानी अ-वर्णके आगे उस को डित् आह ऐसा आदेश विकल्प से होता है | उदा. - हगे न एलिशाह कम्माह काली, अहं न ईदृशस्य कर्मणः कारी | भअदत्तशोणिदाह कुम्भे, भगदत्तशोणितस्य कुम्भः । विकल्पपक्ष मेंभीमशेणश्श पश्चादो आहिण्डीअदि । हिडिम्बार घटुक्क अशोए ण उवशमदि ॥ २८ ॥
आमो डाहद || २९ ॥
मागधीमें अवर्णके आगे आम् को डाह ऐसा ङित् आदेश विकल्पसे होता है । (सूत्रमें से डाहङमें) ङ् इत् होनेसे, (ह का) उच्चार सानुनासिक
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हिन्दी अनुवाद-अ.३, पा. २
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होता है। उदा.-शअणाहँ मुह, स्वजनानां मुखम् । विकल्पपक्षमें-गलिन्दाणं। शअणाणं । व्यत्ययके कारण (देखिए ३.४.७०), प्राकृतमेंभी डाह (आदेश दिखाई देता है)। उदा.-तुम्हाहं । अम्हाहं । सरिसाहं । कम्माहं ॥ २९॥ सौ पुंस्येलतः ।। ३०॥
मागधीमें पुल्लिंगमें (होनेवाले शब्दोंका अन्त्य) अकारका, सु (प्रत्यय) आगे होनेपर, एकार होता है। (सूत्रमेंसे एलू में) ल् इत् होनेसे, यहाँ विकल्प नहीं होता। उदा.-एषः मेषः, एशे मेशे । एषः पुरुषः, एशे पुलिशे। (शब्दोंके अन्त्य) अकारका, ऐसा क्यों कहा है ? (कारण अन्यथा ऐसा वर्णान्तर नहीं होता।) उदा.-निधिः णिही। पुलिंगमें, ऐसा क्यों कहा है ? (कारण अन्य लिंगोंमें ऐसा नहीं होता)। उदा.-जं। जलं ।। ३० ॥ हगेऽहंवयमोः ।। ३१ ॥
मागधीमें अहं और वयं इनके स्थानपर हगे ऐसा आदेश होता है। उदा.-हगे शक्कावआलतित्थवाशी धीवले । हगे शंपत्ता, वयं संप्राप्ताः॥३१॥ छोऽनादौ श्वः ।। ३२ ॥
मागधीमें अनादि होनेवाले छकारका शकारसे आक्रान्त चकार (=श्च) होता है। उदा.-गच्छ गच्छ, गश्च गश्च । उच्छलति उश्चदि । पिच्छिलः पिश्चिले। व्याकरणके नियमानुसार आनेवाले अनादि छकाभी श्च होता है। उदा.-आपनवत्सलः आवण्णवच्छलो आवष्णवचले। तिर्यक् प्रेक्षते तिरिच्छि पेच्छइ तिलिश्चि पेश्चदि। अनादि (होनेवाला), ऐसा क्यों कहा है ! (कारण अनादि न होनेपर, ऐसा वर्णान्तर नहीं होता)। उदा.-छाले ।। ३२॥ क्षः कः ॥ ३३॥ __मागधीमें अनादि होनेवाले क्षकारका जिव्हामूलीयसे आक्रान्त ककार (क) होता है। उदा.-यक्षः य के। राक्षसः ल कशे। (क्ष) अनादि होनेपरही (ऐसा होता है, अन्यथा नहीं)। उदा.-खए ॥ ३३ ॥
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२१८
-प्राकृत-व्याकरण
स्कः प्रेक्षाचक्षेः ॥ ३४ ॥
मागधीमें प्रेक्ष और आचक्ष धातुओंमेंसे क्ष का सकारसे आक्रान्त ककार (=स्क) होता है। 'क्षः कः'(३.२.३३) इस नियमका यह नियम अपवाद है। उदा.-पेस्कदि । आअस्कदि ।। ३४ ॥ सः सपोः संयोगेऽग्रीष्मे ॥ ३५ ॥
मागधीमें संयोगमें होनेवाले सकार और षकार इनका सकार होता है; किन्तु अग्रीष्मे यानी ग्रीष्म शब्दमें नहीं होता। (श्, ष, स ये)प्रथम स्थानपर (ऊर्ध) होनेपर, उनका लोप होता है [देखिए- १.४ ७७), इत्यादि नियमोंका प्रस्तुत नियम अपवाद है। उदा.-स-पस्खल दि । हस्ती। बहस्पदी । मस्कली। विस्मये। ष-शुकदारु शुस्कदालु । वष्टं करत शष्पकवलः शस्पकवले । धनुष्काण्डं धणुस्कण्डं । अग्रीष्मे (ग्रीष्म शब्दको छोडकर), ऐसा क्यों कहा है ? (कारण ग्रीष्ममें ष का स नहीं होता)। उदा.-गिम्हवाशले ॥ ३५॥ स्रोः श्लौ ।। ३६ ॥
मागधीमें स्रोः यानी सकार और रेफ इनके यथाक्रम शकार और लकार होते हैं। उदा.-स-समः शमे। हंसः हंशे । श्रुतिः शुदी। शोभनम् (सोहणं) शोहणं । र-नरः नले। कर: कले। दोनों (स और र)-सारसः शालशे। पुरुषः पुलिशे ॥ ३६॥ न्यण्यज्ञञ्जां अर् ॥ ३७॥
___ मागधीमें न्य, ण्य, ज्ञ और ज इनका व यानी प्रकार होता है। (सूत्र मेंसे भर में) र् इत् होनेसे, (न का) द्वित्व होता है। उदा.-न्यअभिमन्युकुमारः अहिमञ्जुकुमाले। कन्यका कक्षाआ। सामान्यं शामउने। ण्य-पुण्यवान् पुअवन्ते । अब्रह्मण्यम् अब्बम्हनं । ज्ञ-प्रज्ञा पञआ। अअञ्जलिः अमली। धनञ्जयः धणञ्जए। पातञ्जलः पाअमले ॥ ३७॥
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हिन्दी अनुवाद- .अ. ३, पा. २
जो व्रजेः || ३८ ॥
मागधी में व्रजति धातुमेंसे जकारका बर् होता है । (जकारका) या होता है (देखिए ३.२.३९), इस नियमका प्रस्तुत नियम अपवाद है । उदा. - वञ्ञदि । वञ्ञदे ॥ ३८ ॥
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जयद्यां यः ॥ ३९ ॥
मागधीमें जकार, यकार और चकार इनका यकार होता है । उदा.ज-जानाति याणादि । जनपदः यणवए । दुर्जनः दुय्यणे । गर्जति गय्यदि य-यानपात्रम् याणवत्तं । द्य मद्यं मय्यं । अद्य किल विद्याधरः आगतः, अय्य. किल विय्याहले आअदे । (यहाँ ) यका य होता है, यह कहनेका कारण 'आदेर्ज : ' (१.३.७४) सूत्रमेंसे नियमका बाध हो ।। ३९ ।।
ठट्टौ स्टम् ।। ४० ।।
मागधीमें षकारसे आक्रान्त ऐसा जो ठकार (= ४) और द्विरुक्त टकार [=T), इनका सकारसे आक्रान्त टकार [=स्ट] होता है | उदा.ठ-सुष्ठु कृतम्, शुस्टु कदं । कोष्ठागारम् कोस्टागालं । दृ- पट्टम् भट्टारिका भस्टालिआ । भट्टः भस्टे । भट्टिनी भस्टिणी ॥ ४० ॥
परटं ।
स्थर्थौ स्तम् ।। ४१ ॥
मागधीमें स्थ और थे इनका सकारसे आक्रान्त तकार (=स्त ) होता है | उदा. स्थ उपस्थितः उवस्तिदे | सुस्थितः शुस्तिदे । र्थ अर्थपतिः अस्तवदी । सार्थवाहः शस्तवाहे ॥ ४१ ॥
-
चिष्ठस्तिष्ठस्य ।। ४२ ।।
मागधीमें, स्था धातुका जो तिष्ठ ऐसा आदेश है, उसको चिष्ट ऐसा आदेश होता है । उदा. चिष्ठदि । चिष्टदे ॥ ४२ ॥
नो नणोः पैशाच्याम् ॥ ४३ ॥
पैशाची भाषा में नकार और णकार इनका नकार होता है । उदा.पनमत पनयष्पकुवितं, प्रणमत प्रणयप्रकुपितम् । गुनगनजुत्तो, गुणगणयुक्तः
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त्रिविक्रम - प्राकृत-व्याकरण
गुनेन गुणेन । नकारका नकार होता है, यह उस नकारकाण न हो इसलिए कहा है ॥ ४३ ॥
न्यण्यज्ञां जर् ॥
४४ ॥
पैशाची में न्य, ण्य और ज्ञ इनका अकार होता है । (सूत्रमेंसे नर् में) र् इत् होनेसे, (ञका) द्वित्व होता है । उदा. न्य-कन्यका कज्लुका । अभिनन्युः अभिमञ्च | ण्य पुण्यकर्मा पुज्ञकम्मो | पुण्याहम् पुज्ञाहं । ज्ञप्रज्ञा पञ्जा | सर्वज्ञः सव्वजो । विज्ञः विज्ञ्ज । संज्ञानम् सञ्ञाणं ॥ ४४ ॥
I
राज्ञो ज्ञो वा चिञ् ॥ ४५ ॥
पैशाचीमें राजन् शब्द से संबंधित होनेवाले ज्ञकारको चिन ऐसा आदेश विकल्प से होता है । उदा. -राचिना लपितं । रञ्ञा लपितं । राचिलो धनं । रज्ञो धनं । ज्ञकारको, ऐसा क्यों कहा है ? ( कारण ज्ञ न हो, तो ऐसा वर्णान्तर नहीं होता) | उदा. -राजा ॥ ४५ ॥
I
तल्तदोः ॥ ४६ ॥
पैशाची में तकार और दकार इनका तकार होता है । (सूत्रमेंसे तल्में) ल् इत् होनेसे, यहाँ विकल्प नहीं होता । - उदा. -त-भगवती भवती । सततम् सततं । द-मतनपरवसो । तामोतरो । वतनकं । मालातो । मालातु । सिरीतो सिरीतु । तरीतो तरीतुं । तरुतो तरूतु । वधूतो वधूतु । होतु । रमतु । तकारका तकार होता है ऐसा विधान करनेका कारण (तकारको होनेवाले ) अन्य आदेशोंका बाध हो। इसी कारण पताका, वेतिसो, इत्यादि (रूप) सिद्ध होते हैं ॥ ४६ ॥
शषोः
ः सः ॥ ४७ ॥
'न
पैशाचीमें शकार और षकार इनका स होता है । उदा.- .-श-सोभनं । ससी | संखो | संका । सक्को । ष-विसमो । किसनो कृष्णः । विसेसो । 1 I प्रायो कादिच्छषट्म्यन्त सूत्रोक्तम्' (३.२.६३ ) इस बाधक सूत्रका बाघ हो, इसलिए प्रस्तुत नियम (योग) कहा है ॥ ४७ ॥
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लो ळः ।। ४८ ।।
हिन्दी अनुवाद - अ. ३, पा. २
पैशाची में लकारका ळकार होता है । उदा.- सीळं । कुळं । जळा
૨૨:
फळं । कमळं ॥ ४८ ॥
दुस्र्यािगे ।। ४९ ॥
पैशाची में यादृश, इत्यादि शब्दों मेंसे दृ के स्थानपर ति ऐसा आदेश होता है | उदा. - यादृशः यातिसो | भवादृशः भवातिसो । तादृशः तातिसो । अस्मादृशः अम्हा तिसो । अन्यादृशः अञ्ञातिसो । ईदृश: ईतिसो । कीदृशः 1 केतिसो | एतादृशः एतातिसो । इत्यादि ।। ४९ ।।
नष्टां रिअसिनसिटाः क्वचित् ॥ ५० ॥
पैशाची में र्य, स्न और ष्ट इनको यथाक्रम रिअ, सिन और सिट ऐसे आदेश कचित् होते हैं । उदा-भायी भारिआ । स्नानम् सिनानं । कष्टम् कसिटं । कचित्, ऐसा क्यों कहा है ? ( कारण सर्वत्र ऐसा वर्णान्तर नहीं होता) | उदा. अय्यो । सुसा । भट्ठो ।। ५० ।।
टोस्तु तु ।। ५१ ।।
पैशाचीमें टु इसका तु ऐसा विकल्पसे होता है । उदा.- कुटुम्बकम् कुतुम्बकं ।। ५१ ।।
यः पो हृदये ॥ ५२ ॥
पैशाचीमें हृदय शब्द में य का प होता है । उदा-हितपकं । किं पि हितपके अत्थं चिन्तयमानी ।। ५२ ।
टा नेन तदिदमोः ॥ ५३ ॥
पैशाची में, टा-वचन के साथ तद् और इदम् इनके स्थानपर नेन ऐसा आदेश होता है । उदा. - नेन, तेन अनेन वा ॥ ५३ ॥
नाए स्त्रियाम् ॥ ५४ ॥
पैशाची में, तद् और इदम् इनको टा-वचनके साथ नाए ऐसा आदेश स्त्रीलिंगमें होता है | उदा. - पूचितो चनाए पातव कुसुमपतानेन । नाए,
तया अनया वा ॥। ५४ ।।
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૨૨૨
प-प्राकृन-व्याकरण
ङसेस्तोतुशतः ॥ ५५ ॥
पैशाचीमें (शब्दोंके अन्त्य) अकारके आगे ङसिको तो और तु ऐसे (आदेश) होते हैं। (सूत्रमेंसे तोतुश् में) श् इत् होनेसे, पिछला स्वर दीर्ध होता है । उदा.-ताव तीए तूरातो एब तिट्ठो। तुवातो तुवातु । ममातो ममातु ॥ ५५ ॥ तडिजेचः ॥ ५६ ॥
पैशाचीमें, वर्तमानकालमें से प्रथमपुरुष एकवचनके इच् और एचू इनमें, तकारका टित् आगम होता है। (सूत्रमेसे तट में) टकार कहा है, कारण वह प्रथम हो इसलिए । उदा.-रमति रमते । हसति हसते। गच्छति गच्छते। होति। नेति ॥ ५६ ॥ एय्य एव भविष्यति ।। ५७॥
पैशाचीमें इच और एच् इनके स्थानपर भविष्यकालमें एय्य ऐसा (आदेश) होता है, किन्तु स्सि ऐसा (आदेश) नहीं होता। उदा.-तं तठून चिन्तितं रक्षा का एसा हुवेय्य, तां दृष्ट्वा चिन्तितं राज्ञा कैषा भविष्यति ।। ५७ ॥ इय्यो यकः ॥ ५८॥
पैशाचीमें यक् प्रत्ययको इय्य ऐसा आदेश होता है। उदा.-निय्यते। गिय्यते। रमिय्यते । पठिय्यते ॥ ५८ ।। कृमो डीरः ॥ ५९॥
पैशाचीमें कृ (कृञ् ) के आगे यक् प्रत्ययको डित् ईर ऐसा आदेश होता है। उदा.-पुथुमतंसने सबस्स य्येव संमानं कीरते, प्रथमदर्शने सर्वस्यैव समानः क्रियते ॥ ५९॥ क्त्वा तूनं ।। ६० ॥
पैशाचीमें क्त्वा प्रत्ययको तूनं ऐसा आदेश प्राप्त होता है। उदा.गन्तूनं । रन्तूनं । मन्तून । मसितूनं । पठितूनं । कथितूंन ।। ६० ।।
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हिन्दी अनुवाद-अ. ३, पा.२
२२३ ट्वः ठूनत्थूनौ ॥ ६१ ॥
पैशाचीमें, ष करनेपर ष्टा इसप्रकार सिद्ध होनेवाले क्त्वा प्रत्ययके स्थानपर ठून और स्थून ऐसे आदेश प्राप्त होते हैं । उदा.-तठून तत्थून। नठून नत्थून ।। ६१ ॥ शेषं शौरसेनीवत् ।। ६२ ।।
पैशाचीमें जो (होता है ऐसा) कहा है, उसके अतिरिक्त अन्य, शौरसेनीकी तरह (पैशाचीमें) होता है। उदा.-अथ ससरीरो भगवं मकरद्धजो एत्थ परिभमन्तो हुवेय्य । एवंविधाए भगवतीए कथं तापसवेसगहनं कत । ईतिसं अतिहपुरवं महाधनं तळून भअवं अक्किम वरं अच्छसे राअस्स । चंदावलोकातो रचनीए तगतो एव्व तिट्ठो सो आगच्छमानो राजा ॥ ६२ ।। न पायो लुक्कादिच्छल्षट्शम्यन्तसूत्रोक्तम् ॥ ६३ ।।
पैशाचीमें, 'प्रायो लुक्कगचजतदपयवाम्' (१.३.८) इस सूत्रसे 'छलषट्छमीसुधाशावसप्तपणे'(१.३.९०) सूत्रतक जो सूत्र और उनमें कहा हुआ जो कार्य, वह (पैशाचीमें) नहीं होता। उदा.-मकरकेत् । मगधपुत्तवचनं । विजयसेनेन लपित। मतं । पापं । आयुधं । देवरो। इसीप्रकार अन्य सूत्रोंके बारेमें उदाहरण देखें ।। ६३ ।। रो लस्तु चूलिकापैशाच्याम् ॥ ६४ ॥
चलिकापैशाची भाषामें रेफका लकार विकल्पसे होता है। उदा.पनमत पनयप्पकुपितकालीचलनक्कलक्कपतिपंप । तससु नखतप्पनेसु एकातसतनुथल लुत्तं ।। नलो नरो। सलो सरो॥ ६४ ।। गजडबघझढधमां कचटतपखछठथफाल् ।। ६५ ।।
चलिकापैशाचिकमें ग, ज, ड, द, ब, घ, झ, ढ, ध, भ इनके यथाक्रम क, च, ट, त, प, ख, छ, ठ, थ, फ ऐसे लित् (=नित्य) (वर्ण विकार) होते हैं। उदा.-नगरम् नकलं । मार्गणः मक्कनो । मेघः मेखो । घनः खनो।
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२२४
त्रिविक्रम-प्राकृत-व्याकरण
व्याघ्रः वक्खो। राजा राचा। जीमूतः चीमतो। जर्जरं चञ्चलं। निझरः निच्छलो। झईरः उच्छलो । तडागम् तटाकं । डमरुकः टमलुको। मण्डलम् मण्टलं | गाढम् कादं । ढक्का ठक्का । षण्डः सण्टो । मदनः मतनो । दामोदरः तामोतलो। मन्दरः मन्तलो। मधुरम् मथुलं । धारा थाला । बान्धवः पन्थयो। बालकः पालको। रभसः रफसो। रम्भा लम्फा। भगवती फकवती। नियोजितम् नियोचितं । कचित् व्याकरणके नियमानुसार आनेवाले वों मेंभी ऐसा वर्णान्तर होता है। उदा.-प्रतिमा पडिमा पटिमा। दंष्ट्रा दाढा ताठा ।। ६५ ॥ अन्येषामादियुजि न ।। ६६ ।।
अन्य आचार्योंके मतानुसार, ग, ज, ड, द, ब, घ, झ, ढ, ध, भ ये वर्ण आदि होनेपर, और युज् (युजि) धातुमें, क, च, ट, त, प, ख, छ, ठ, थ, फ नहीं होते। उदा.-गती। घम्मो । जनो। झल्लरी। डमरुको। ढका। दानं। धळी । बालो। फालं। युज-नियोजितं । अन्य आचार्यों के मतानुसार, ऐसा क्यों कहा है ? (कारण उनके कथित वर्णान्तरसे भिन्न वर्णान्तर दिखाई देता है)। उदा.-कती। नियोचितं ॥ ६६ ॥ शेषं प्राग्वत् ।। ६७ ॥
चूलिकापैशाचिकमें 'रो लस्तु' (३.२.६४) इत्यादि सूत्रोंमें जो कहा गया है, उसके अतिरिक्त अन्य (कार्य), प्राग्वत् यानी पहले कहे हुए पैशाचिक (भाषा) की तरह होता है। उदा.-'नो णनो' (३.२.४३) सूत्रानुसार-नयनं । फनी। इसीप्रकार अन्य (वर्णान्तर) भी ।। ६७ ।।
- तृतीय अध्याय द्वितीय पाद समाप्त -
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तृतीयः पादः प्रायोऽपभ्रंशेऽचोऽच ॥१॥
___ अपरंशमें अच् के अर्थात् स्वरके स्थानमें प्रायः दूसरा अच् अर्थात् स्वर आता है। उदा.-कउ काउ। वेणा वेणी । बाह बाहा, बाहुः । पढे पुढे, पृष्ठम् । तणु तिणु तुणं, तृणम् । सुकिदु सुकृदु सिकिउ, सुकृतम् । लिह लिहा लेह, लेखा। गउरं गोरं । (सूत्रमें) प्रायः ऐसा कहा जानेसे, अपभ्रंशमें जो विशेष (ऐसे) कहे जायेंगे, उनके बारेमेंभी प्राकृतवत् और शौरसेनीवत् कार्य होता है ॥ १ ॥ अचोऽस्तवा खो कखतथपफा गघदधबभान् ॥ २ ॥
(इस सूत्रमें ३.३.१ से) अपभ्रंशे पद की अनुवृत्ति है । अपभ्रंशमें स्वरके आगे रहनेवाले, अस्तु यानी असंयुक्त, अखु यानी अनादि होनेवाले, जो क,ख, त, थ, प, फ वर्ण (होंगे), उनको प्रायः यथाक्रम ग, घ, द, ध, ब, भ ऐसे ये (वर्णविकार) प्राप्त होते हैं। ॥ २॥ उदा.-क का ग
जं दिट्ठउँ सोमग्गहा असइहिं हसिउँ णिसंकु । पियमाणुसविच्छोहगरु गिलि गिलि राहु मियंकु ॥१॥ (-हे.३९६.१) (यद् दृष्टं सोमग्रहणमसतीभिर्हसितं निःशङ्कस् । प्रियमनुष्यविक्षोभकर गिल गिल राहो मृगाङ्कम् ॥)
असतियों (कुलटाओं)ने जो चंद्रग्रहण देखा तो निःशंक भावसे हँसा (और कहा)-प्रिय जनको विक्षुब्ध करनेवाले चंद्रको, हे राहु, निगलो रे निगलो।
ख का घअम्मिएँ सत्थावत्थेहिं सुधिं चिंतिज्जइ माणु । पिएँ दिढे हल्लोहलेण को चेअइ अप्पाणु ॥ २॥ (=हे. ३९६.२) (अम्ब स्वस्थावस्थैः सुखेन चिन्त्यते मानः। प्रिये दृष्टे सुखपारवश्येन कश्चेतयत्यात्मानम् ॥)
हे माँ, आराममें रहनेवालेसे सुखसे मानका विचार किया जाता है। (किंतु) जब प्रियकर दृष्टिगोचर होता है तब सुखपरवशतासे कौन अपना विचार करता है? त्रि.वि-...१५
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त्रिविक्रम - प्राकृत - व्याकरण
त, थ, प, और फ के द, ध, ब और भ
सबधु करेपिणु कधिदु मइँ तसु पर सभलउँ जम्मु ।
जासु नचाउन चारभडी न य पम्हट्टउ धम्मु ॥ ३ ॥ (=हे. ३९६-३ )
( शपथं कृत्वा कथितं मया तस्य परं सफलं जन्म ।
यस्य न त्यागो न चारभटी न च प्रमुष्टो धर्मः || )
शपथ करके मैंने कहा- जिसका त्याग ( दानशूरता ), पराक्रम (आरभटी) और धर्म नष्ट नहीं हुए हैं, उसका जन्म संपूर्णतः सफल हुआ है ।
स्वरके आगे, ऐसा क्यों कहा है ? ( कारण स्वरके आगे न हो, तो यह वर्णान्तर नहीं होता) | उदा. - गिलि गिलि राहु मियंकु [१] | असंयुक्त, ऐसा क्यों कहा है ? (कारण वे वर्ण असंयुक्त नहीं होते, तो ऐसा वर्णान्तर नहीं होता ।) उदा.- एक्कहिं अक्खिहिं सावणु (हे. ३५७.२ ) । अनादि होनेवाले, ऐसा क्यों कहा है ? ( कारण अनादि न होनेपर, ऐसा वर्णान्तर नहीं होता) । उदा. - सबधु करेदिणु [३] । प्रायःका अधिकार होनेसे, क्वचित् (ऐसा वर्णान्दर) नहीं होता । उदा.
-
जब के वइ पावीसु पिउ अकिआ कोड करीसुँ ।
पाणिउ नवइ सरावि जिवँ सव्वंगे पइसी ॥ ४ ॥ ( = हे. ३९६.४) (यदि कथंचित् प्राप्स्यामि प्रियमकृतानि कौतुकानि करिष्यामि । पानीयं नवे शरावे यथा सर्वांगे प्रवेक्ष्यामि ॥1)
यदि कथंचित् प्रियकरको प्राप्त कर लूँ, तो पहले कभीभी न किया हुआ कौतुक मैं कर लूँ । नये कसोरेमें जैसे पानी सर्वत्र प्रवेश करता है, वैसे मैं सर्वांग से ( प्रियकर में ) प्रवेश करूँगी ।
उअ कणिरु पफुल्लिअर कंचणकंतिपयासु । गोरीवयणविणिज्जिअउ णं सेवइ वणवासु ॥ ५ ॥ ( =हे. ३९६.५)
(पश्य कर्णिकारः प्रफुल्लितः काञ्चनकान्तिप्रकाशः । गौरीवदनविनिर्जितो ननु सेवते वनवासम् ॥)
देख, कांचनकी तरह कांतिसे चमकनेवाला कर्णिकार प्रफुल्लित हुआ है । सुंदरीके मुख से पराजित होकर मानो वनवास सेवन करता है ।
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तु
हिन्दी अनुवाद - अ. ३, पा. ३
मो वम् || ३ ||
अपभ्रंशमें स्वरके आगे, असंयुक्त, अनादि होनेवाले मकार को वस्व विकससे प्राप्त होता है । (सूत्रमेंसे नमू में ) ङ् इत् होनेसे, (यह वकार) सानुनासिक (=) होता है । उदा. कवल कमलु । भवरु भ्रमरु । व्याकरणके नियमानुसार आनेवाले मकारकाभी (सानुनानिक वकार होता है) । उदा.— जिव | | | स्वरके आगे (मकार होनेपरही वकार होता है, अन्यथा नहीं) | उदा. - संनाणेइ लोउ । (मकार) असंयुक्त ( होनेपरही वकार होता है, अन्यथा नहीं)। उदा.-तसु पर सभलउँ जम्मु [३] । ( मकार ) अनादि होने परही (वकार होता है, अन्यथा नहीं) | उदा. - मअणु ॥ ३ ॥
ह्मो म्हम् ॥ ४ ॥
अपभ्रंश में ह्म ऐसा यह (संयुक्ताक्षर ) मकारसे आक्रान्त हकारको (म्ह) विकल्प से प्राप्त करता है । 'मनमह्मामस्मरश्मौ म्हः' (१.४.६७) सूत्रानुसार प्राकृत के लक्षण में कहा गया म्ह यहाँ लिया जाता है, कारण संस्कृत में उसका असंभव है | उदा.- गिम्हो गिझो । बम्हणों बह्मणो ॥ ४ ॥
बम्ह तें विरला केविनर जे सव्वंगछइल |
जे वंका ते बंचयर जे उज्जुअ तें बइल || ६ || (= हे. ४१२.१) (ब्रह्मस्ते विरलाः केऽपि नरा ये सर्वागच्छेकाः ।
२२७
ये वास्ते वचतरा ये ऋजुकास्ते बलीवर्दीः ॥1)
हे ब्राह्मण, जो सर्वोगतः निपुण हैं वे विरल हैं; जो बाँके हैं वे अधिक वंचक हैं; जो सीधे हैं वे बैल हैं ॥
रो लुकमधः ॥ ५ ॥
अपभ्रंशमें संयोगमें अनंतर रहनेवाले रेफका लुक् यानी लोप विकल्पसे होता है | उदा. -पिउ प्रिउ प्रियः । जइ केइ पावीसु पिउ [४] ॥ ५ ॥ विकल्पपक्ष में
जइ भग्गा पारक्कडा तो सहि मज्झु प्रिएण ।
अह भग्गा अम्हहंतणा तो तें मारिअडेण ॥ ७ ।। (=हे. ३७९.२)
( यदि भग्नाः परकीयास्ततः सखि मम प्रियेण ।
अथ भग्ना अस्मदीयास्ततस्तेन मारितेन ॥ )
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૨૮
त्रिविक्रम-प्राकृत-व्याकरण
हे सखी, यदि शत्रुओंका पराभव हुआ होगा तो मेरे प्रियसे; यदि हमारे पक्षवालोंका पराभव हुआ होगा, तो उसके (मेरे प्रिय करके) मारे जानेपर ॥ कचिदभूतोऽपि ॥ ६॥
अपशमें क्वचित् (जहाँ मूल शब्दमें) रेफ नहीं है (वहाँभी) रेफ आता है। उदा.-वासु व्यासः ॥ ६ ॥
वासु महारिसि एउँ भणइ जइ सुइसत्थु पमाणु । मायहँ चलण नवंताहं दिवे दिवें गंगाण्हाणु ॥ ८ ॥ (=हे, ६९९.१) (व्यासो महर्षिरेतद् भणति यदि श्रुतिशास्त्रं प्रमाणम् । मातृणां चरणौ नमतां दिवा दिवा गंगास्नानम् ॥)
व्यास महर्षि ऐसा कहते हैं- यदि वेद और शास्त्र प्रमाण हो, तो माताओंके चरणोंको नमन करनेवालोंको प्रतिदिन गंगास्नान होता है।
___ (सूत्रमें) काचित् , ऐसा क्यों कहा है ? (कारण कभी ऐसा रेफ नहीं आता)। उदा.-वासेण वि भारहरदभि बद्भु, व्यासेनापि भारतस्तम्भे बद्धम् (-हे. ३९९)।
____ व्यासनेभी भारतस्तंभमें कहा है । विपदापत्संपदि द इ॥ ७ ॥
अपभ्रंशमें विपद्, आपद् और संपद् शब्दोंमें दकारका इकार होता है। उदा.-विवइ । आवइ । संपइ । प्रायःका अधिकार होनेसे, (कभी ऐसा वर्णान्तर नहीं होता)। उदा.-गुणहिँ न संपय कित्ति पर [४५] ॥ ७ ॥ कथं यथा तथा डिहडिधडिमडेमास्थादेः ॥ ८ ।।।
... अपभ्रंशमें कथं, यथा, तथा इन शब्दों में थादि-अवयवको इह, इध,इम, एम ऐसे ये चार डित् आदेश होते हैं। उदा.-किह किध किम केम, कथम् । जिह जिध जिम जेम, यथा । तिह तिघ तिम तेम, तथा ॥ ८॥
बिबाहरि तणु रअणवणु किह ठिउ सिरिआणंद । निरुवमरसु पिएं पिअवि जणु सेसहा दिण्णी मुद्द ।।९॥ (=हे. ४०१.३) (बिम्बाधरे तनू रदनवणः कथं स्थितः श्रियानन्द । निरुपमरसं प्रियेण पीत्वेव शेषस्य दत्ता मुद्रा ॥)
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हिन्दी अनुवाद-अ. ३, पा. ३
२२९
हे श्रीआनंद, (सुंदरीके) बिंबाधरपर छोटासा दंतव्रण कैसा स्थित है ! मानो प्रियकरने उत्कृष्ट रस पीकर अवशिष्टपर मुद्रा दे दी है।
केम समप्पउ दुठु दिणु किध रअणी छुडु होइ । णवबहुदंसणलालसउ वहइ मणोरह सो इ॥ १०॥ (=हे. ४० १.१) (कथं समाप्यतां दुष्टं दिनं कथं रजनी क्षिप्रं भवति । नववधूदर्शनलालसो वहति मनोरथान् सोऽपि ॥)
दुष्ट दिवस कैसे समाप्त हो ! रात कैसे शीघ्र आए ! (अपनी) नव वधूको देखनकी इच्छा रखनेवाला वह भी ऐसे मनोरथ करता है।
ओ गोरीमुहणिज्जिअउ वद्दलि लुक्कु मिअंकु। अन्नु वि जो परिहविअतणु सो किम भमइ निसंकु ॥११॥ (=हे.४० १.२) (अहो गौरीमुखनिर्जितो मेघेषु निलीनो मृगाङ्कः। अन्योऽपि यः परिभूततनुः स कथं भ्रमति निःशंकम् ।।)
अहो, सुंदरीके मुखसे पराजित हुआ चंद्र बादोंमें छिप गया है। जिसका शरीर पराभूत हुआ है ऐसा दूसरा कोईभी निःशंकभावसे कैसे घूम सकता है ?
भण सहि निहुअउँ तेम मइँ जइ पिउ दिठ्ठ सदोसु । जेम ण जाणइ मज्झु मणु पक्खावडिअ तासु ॥ १२ ॥ (-हे. ४०१,४) (भण सखि निभृतं तथा मां यदि प्रियो दृष्टः सदोषः। यथा न जानाति मम मनः पक्षपाति तस्य ।)
हे सखी, मेरा प्रियकर यदि (मुझसे) सदोष होगा तो तू वह बात छिपकर (चुराकर) इस प्रकार मुझे बता कि जिससे, उसमें पक्षपाती रहनेवाला मेरा मन न जाने।
जिम जिम बंकिम लोअणहं णिरु सावलि सिक्खेइ। तिम तिम वम्महु णिअअ सर खरपत्थरि तिक्खेइ ॥१३॥ (=हे. ३४४.१)
(यथा यथा वक्रिमाणं लोचनयोनितरां श्यामला शिक्षते । तथा तथा मन्मथो निजान शरान् खरप्रस्तरे तीक्ष्णयति॥)
जैसे जैसे साँवरी नयनोंके बाँकापन सीखती है, तैसे तैसे मदन कठिन पत्थरपर अपने बाणोंको तीक्ष्ण करता है।
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त्रिविक्रम-प्राकृत-व्याकरण
मई जाणिउँ पिअविरहिअहं क वि घर होइ विआलि । णवर मिअंकु वि तिह तवइ जिह दिणयह खयगालि ||१४॥ (=हे. ३७७.१)
(मया ज्ञातं प्रियविरहितानां कापि धरा भवति विकाले । केवलं मृगाङ्कोऽपि तथा तपति यथा दिनकरः क्षयकाले ॥)
मैं समझ रही थी कि प्रियसे विरही जनोंको संध्यासमयमें कुछ आधार (धरा-अवलंबन, दुःखनिवृत्ति) मिलता है। पर प्रलयकालमें जितना सूर्य उतना (इस समय) चंद्रभी ताप देता है।
इसीप्रकार जिव और तिध इनके उदाहरण जाने । दादेहो यादृक्तादृक्कीदृगीदृशाम् ॥ ९ ।। ____ अपभ्रंशमें यादृक्, इत्यादि शब्दोंके द-आदि अवयवको डित् एह ऐसा आदेश होता है। ड् इत् होनेसे, सर्वत्र टि का लोप होता है ।। ९ ॥ उदा.
मई भणिअउ बलिराउ तुहुँ केहउ मग्गणु एहु। जेहु तेहु नवि होइ वढ सइँ नारायणु एहु ॥ १५ ॥ (हे. ४०२.१) (मया भणितो बलिराज त्वं कीदृक् मार्गण ईदृक् । यादृक् तादृक् न भवति मूढ स्वयं नारायण एषः॥)
(शुक्राचार्य कहते हैं।-हे बलिराज, किस प्रकारका यह याचक है, वह मैंने तुझसे कहा था। रे मुर्ख, यह जैसा-तैसा कोई नहीं है, (केवल) स्वयं नारायण है। डइसोऽनाम् ।। १० ।।
अपभ्रंशमें यादृश, इत्यादि अकारान्त अर्थात् य दृश, तादृश, कीदृश ईदृश ऐसे रूपोंके द-आदि-अवयवको डित् अइस ऐसा आदेश होता है। उदा.जइसु । तइसु । कइसु । अइसु ॥ १०॥ यावत्तावत्युमहिमा वादेः ।। ११ ।।
___ अपभ्रशमें यावत् और तावत् इन अव्ययोंके वकारादि अवयवको उं, महिं, म ऐसे तीन आदेश होते हैं ॥ ११ ॥ उदा.. तिलहँ तिलत्तणु ताउँ पर जाउँ न नेह गलंति । नेहि पणटुइ ते ज्जि तिल तिल फिट्टवि खल होति ॥१६॥ (=हे. ४०६.२)
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हिन्दी अनुवाद-अ. ३, पा. ३
२३१ (तिलानां तिलत्वं तावत्परं पावन्न स्नेहा गलन्ति । स्नेहे प्रनष्टे त एव तिलास्तिला भ्रष्ट्वा खला भवन्ति ॥)
जबतक तैल निकाला नहीं है तबतक तिलोंका तिलत्व है। तैलके निकल जानेपर वे तिल, तिल न रहकर खल (खली, दुष्ट) हो जाते हैं।
जामविसमी कज्जगइ जीवहँ मज्झे एइ। तामह अच्छउ इयरु जणु सुयणु वि अंतरु देइ ॥१७॥ (-हे.४०६.३) (यावद् विषमा कार्यगतिर्जीवानां मध्ये एति । तावदास्तामितरो जनः सुजनोऽप्यन्तरं ददाति ॥)
जब जीवोंपर विषम कार्यगति आती है, तब इतर जनकी बातही छोडो (किंतु) सज्जनभी अंतर देता है।
जाम न निवडइ कुंभअडि सीहचवेडचडक । ताम समत्तहँ मयगलहँ पइ पइ वजइ ढक्क ॥ १८ ॥ (=हे. ४.६.१) (यावन्न निपतति कुम्भतटे सिंहचपेटादृढाघातः। तावत्समस्तानां मदकलानां पदे पदे वाद्यते ढक्का ॥)
जबतक सिंहके चपेटेका दृढ प्रहार गंडस्थलपर नहीं पडा, तबतक सभी (मदोन्मत्त) गजोंका ढोल पगपगपर बजता है। डेत्तुलडेवडावियत्कियति च व्यादेवतुपः ॥ १२ ॥
इयत् और कियत् इनके, तथा (सूत्रमेंसे) चकारके कारण थावत् और तावत् इनके बारेमें परिमाण अर्थमें जो क्तुप प्रत्यय कहा है, उनके व्यादिको अर्थात् ककारादि और यकारादि अवयवको एत्तुल, एवड ऐसे डित् आदेश होते हैं। उदा.-एत्तुलो। केत्तुलो । एवडो । केवडो ॥ १२ ॥
जेवडु अंतरु पट्टणगामहं तेवडु अंतर रावणरामहं ॥१९॥ (=हे. ४०७.१). (यावदन्तरं पत्तनग्रामयोः तावदन्तरं रावणरामयोः ।) .
जितना अंतर नगर और गाँव इनमें है, उतनाही अंतर राम और रावण इनमें है।
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२३२
-प्राकृत-व्याकरण
डेतहे त्रलः॥ १३ ॥
अपभ्रंशमें सर्वादि (शब्दों)के आगे सप्तमीके अर्थमें (कहे हुए) त्रिल् प्रत्ययको डित् एत्तहे ऐसा आदेश होता है। उदा.-जत्तहे । तेत्तहे ॥ १३॥
जेत्तहे तेत्तहे वारि धरि लच्छि विसंठुल धाइ । पिअपब्भट्ट व गोरडी णिच्चल कहिँ वि ण ठाइ ॥१९॥ (-हे. ४३६.१)
(पत्र तत्र द्वारे गृहे लक्ष्मीर्विसंष्ठुला धावति ।। प्रियप्रभ्रष्टेव गौरी निश्चला कुत्रापि न तिष्ठति ।)
यहाँ, वहाँ, दरवाजेपर, घरमें (इस प्रकार) चंचल लक्ष्मी दौडती है। प्रियकरसे वियुक्त सुंदरीके समान वह निश्चल रूपसे कहीं नहीं ठहरती ॥ यत्वदोत्तु ।। १४ ॥
(इस सूत्रमें ३.३.१३ से) त्रल् पदकी अनुवृत्ति है। यत् और तत् इनके बागे होनेवाले बल् प्रत्ययको हित् एत्तु ऐसा यह आदेश होता है । उदा.-जेत्तु ठिदो, यत्र स्थितः । तेत्तु ठिदो, तत्र स्थितः ॥ १४ ॥ कुत्रात्रे च उत्थु ॥ १५ ॥
अपभ्रंशमें कुत्र और तत्र इनमें रहनेवाला (बल), और (सूत्रमेंसे) चकारके कारण यद् और तद् इनके आगे आनेवाला बल् प्रत्यय, उस बल् प्रत्ययको डित् एत्थु ऐसा आदेश होता है । उदा.-केत्थु । एत्थु । जेत्थु । तेत्थु
जइ सो घडिदि प्रयावदी केत्थु वि लेप्पिणु सिक्खु ।। जेत्थु वि तेत्थु वि एत्थु जगि भण तो तहि सरिक्खु ।।२०। (हे.४० ४.१) (यदि स घटयति प्रजापतिः कुत्रापि लात्वा शिक्षाम् । यत्रापि तत्राप्यत्र जगति भण तर्हि तस्याः सदृक्षः ॥)
यदि वह प्रजापति कहींसे शिक्षा लेकर (प्रजा) निर्माण करता है, तो इस जगत्में जहाँ-तहाँ उस (सुंदरी)के समान कौन है, बताओ। त्वतलौ प्पणम् ॥ १६ ॥
अपभ्रंशमें भाव अर्थमें जो त्व और तल् प्रत्यय कहे गये हैं,उनको प्पण ऐसा आदेश प्राप्त होता है । उदा.-पडुप्पणं, पटुत्वं पटुता वा। सुक्कप्पणं, अकृत्वं शुक्लता वा ॥ १६ ॥
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हिन्दी अनुवाद - अ. ३, पा. ३
साहु विलोउ तडफडइ वड्डप्पणहीँ तणेण ।
वडप्पणु परि पाविइ हत्थि मोक्कलडेण ॥ २१ ॥ (= हे.३६६.१) ( सर्वोsपि लोकः उत्ताम्यति बृहत्त्वस्यार्थे । बृहत्त्वं परं प्राप्यते हस्तेन मुक्तेन ॥ )
बनके लिए सभी लोग तडफडते हैं । • ( दान देनेपर) मिलता है ।
पर बडप्पन मुक्त हाथसे
(यहाँ) तडफडइ यह देशी धातु औत्सुक्य-बोधक शब्दानुकरणी है ।
तव्यस्य एव्वइएव्वउएव्वाः ॥ १७ ॥
अपभ्रंशमें तथ्य प्रत्ययको एव्वइ, एव्वर, एव्व तेसे तीन आदेश होते है | उदा. - जेव्बइ जेवर जेव्व, जेतव्यः ॥ १७ ॥
२३३
एवं गृहेष्पिणु ध्रुं मई जई प्रिउ उव्वारि
।
महु करिएव्वउँ कि पि न वि मरिएव्बउँ पर देज्जइ ॥ २२ ॥ ( = हे. ४३८. १)
( एतद् गृहीत्वा यन्मया यदि प्रिय उद्वार्यते ।
मम कर्तव्यं किमपि नापि मर्तव्य परं दीयते ॥ )
यह लेकर यदि मैं प्रियकरको छोड देती हूँ तो मुझे मरनाही कर्तव्य रहता है, दूसरा कुछ भी नहीं |
देसुच्चाणु सिहिकढणु घणकुट्टणु जं लोइ ।
मंजिट्ठऍ अइरत्तिए सव्व सहेव्वउँ होइ || २३ || ( हे. ४३८.२) (देशोच्चाटनं शिखिकथनं धनकुट्टने यलोके ।
मञ्जिष्टयातिरक्त या सर्वे सोढव्यं भवति ॥ )
जगत् में अतिरक्त मंजिष्ठा (वनस्पति) को (अपने) देशसे (जमीनसे) उच्चाटन (उखाडा जाना), अभिमें औंटा जाना, और घनसे कूटा जाना, यह सहन करना पडता है ।
सोएब्वा पर वारिआ पुप्फवईहिँ समाणु ।
जग्गेवा पुणु को धरइ जइ सो वेउ पमाणु ॥ २४ ॥ ( हे. ४३८.३)
( स्वपितव्यं परं वारितव्यं पुष्पवतीभिः समम् । जागर्तव्यं पुनः को धरति यदि स वेदः प्रमाणम् ॥)
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त्रिविक्रम - प्राकृत-व्याकरण
यद्यपि वह वेद प्रमाण है, तथापि रजस्वला स्त्रीके साथ सोनेकी मनाही है, पर जागे रहने को किसने मना किया है ?
क्त्व इ इ इवि अवि ।। १८ ।।
२३४
अपभ्रंशमें क्त्वा प्रत्ययको इ, इउ, इवि, अवि ऐसे चार आदेश होते हैं । उदा. - करइ करिउ करिवि करवि, कृत्वा ॥ १८ !!
इ (आदेशका उदाहरण ) -
हिअडा जइ वेरिअ घणा तो किं अब्भि चडाहुं ।
अम्हहं बे हत्था जइ पुणु मारि मराहं ॥ २५ ॥ ( = हे. ४३९.१) (हृदय यदि वैरिणो घनास्तत्किमभ्रे आरोहामः ।
अस्माकं द्वौ हस्तौ यदि पुनर्मारयित्वा म्रियामहे | | )
हे हृदय, यद्यपि मेघ (अपने) वैरी हैं तो हम आकाशपर चढ़ेंगे क्या ? हमारे दो हाथ हैं; (यदि मरना ही है तो उन्हें) मारकरही मरेंगे ।
इ (आदेशका उदाहरण ) -
अम्मि ओहर वज्जमा निच्चु ज संमुह ठन्ति ।
महु थक्कहा समरंगाणि गयघड भंजिउ जन्ति ।। २६ ।। (हे. ३९५.५) (मातः पयोधरी वज्रमयो नित्यं यौ संमुखं तिष्टतः । मम स्थितस्य समराङ्गणे गजघटा भक्त्वा यान्ति ।।) हे माँ, (ये) मेरे स्तन वज्रमय हैं, (कारण) वे नित्य मेरे (प्रियकर के ) सामने होते हैं, (और) समरांगण में गजसमूह भग्न करनेके लिए जाते हैं ।
इवि (आदेशका उदाहरण ) -
रक्खइ सा विसहारिणी बे कर चुंबिवि जीउ ।
पडिबिंबिभमुंजालु जलु जेहिँ अडो हिउँ पीउँ । २७।। (हे. ४३९.२)
( रक्षति सा विषहारिणी द्वौ करौ चुम्बित्वा जीवम् ।
प्रतिबिम्बितमुञ्जालं जलं याभ्यामनवगाह्य पीतम् ॥ )
जिसमें मुंजका प्रतिबिंब पडा है ऐसा पानी, पानीमें प्रवेश न करते हुए, जिन हाथोंसे पिया गया है उन हाथोंका चुंबन लेकर, वह जलवाहक बाला जीवकी रक्षा करती है
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हिन्दी अनुवाद-अ. ३, पा. ३
२३५
अवि (आदेशका उदाहरण)बाह विछोडवि जाहि तुहुँ हउँ तेवइ को दोसु। . हिअअट्ठिउ जइ नीसरहि जाणउँ मुंज सरोसु ॥२८॥ (=हे. ४३९.३) (बाहू विच्छोड्य यासि त्वं भवतु तथा को दोषः। हृदयस्थितो यदि निःसरसि जानामि मुञ्ज सरोषः ॥)
हायोंको छोडकर तू जा। ऐसा होने दो | उसमें क्या दोष है ? (किंतु) यदि तू मेरे हृदयसे निकल जाएगा तो समझूगी कि मुज गेषयुक्त है । एप्प्येप्पिण्वेव्येविणु ॥ १९॥
अपभ्रंशमें क्त्वा प्रत्ययको एप्पि, एप्पिणु, एत्रि, एविणु ऐसे चार आदेश होते हैं। उदा.-करेप्पि, करेपिणु, करेवि करेविणु, कृत्वा ॥ १९॥
जेप्पि असेसु कसाअबलु देप्पिणु अभउँ जअस्सु । लेवि महवअ सिवु लहहिं झाएविण तत्तस्सु ॥२९॥ (-हे. ४४०.१), (जित्वाशेष कषायबलं दत्वाभयं जगतः । । लात्वा महाव्रतानि शिवं लभन्ते ध्यात्वा तत्त्वम् ॥)
कषायरूप संपूर्ण सेनाको जीतकर, जगत्को अभय देकर, महाव्रत लेकर, तत्त्वका ध्यान करके (ऋषि, मुनि) आनंद (शिव) प्राप्त करते हैं।
(इस सत्रका ३.३.१८ से) पृथक् कहना अगले सूत्रको लिए है । तुम एवमणाणहमणहिं च ।। २० ।।
अपरेशमें तुमुन् प्रत्ययको एवं, अण, अणहं, अणहिं ऐसे ये चार, और (सूत्रमेंसे) चकारके कारण एप्पि, एप्पणु, एवि, एविणु ऐसे ये चार, एवं (कुल) आठ आदेश (प्राप्त) होते हैं । उदा. करवं करण करणहं करणहिं करेप्पि करेप्पिणु करेवि करेविणु, कर्तुम् ॥ २० ॥
देवं दुक्करु निअअधणु करण न तउ पडिहाइ । एमइ सुहुँ भुंजणहँ मणु पर भुंजणहिँ न जाइ ॥३०॥ (हे. ४४१.१) (दातुं दुष्करं निजकपनं कर्तुं न तपः प्रतिभाति । एवमेव सुखं भोक्तुं मनः परं भोक्तुं न याति |1) .
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त्रिविक्रम-प्राकृत-व्याकरण
अपना धन देना दुष्कर है । तप करना (किसीको) नहीं भाता | योही सुख भोगनेका मन है, पर भोगना नहीं होता।
जेपि चएबिणु सअल धर लेविण तउ पालेवि । विणु संतें तित्थेसरेण को सक्कइ भुवणे वि ।।३१।। (-हे. ४४१.२) [जेतुं त्यक्तुं सकलां धरां लातुं तपः पालयितुम् । विना शान्तिना तीर्थेश्वरेण कः शक्नोति भुवनेऽपि ।)
संपूर्ण पृथ्वीको जीतना, (जीतकर उसका) त्याग करना, व्रत (तप) लेना और (लेकर उसका) पालन करना, यह [सब शांति तीर्थेश्वरके बिना जगमें और कौन कर सकता है? गमेस्त्वेप्येपिण्योरेलुक् ।। २ ।।
अपभ्रंशमें गम् (गमि) धातुके आगे एप्पि और एप्पिणु इन आदेशोंके एकारका लोप विकल्पसे होता है। उदा.-गपि गंपिणु गमेन्धि गमेपिणु, गत्वा
गंपिणु वाणारसिहि नर अह उज्जेणिहि गपि । मुअ पप्पुवन्ति परम पउ दिन्वंतर म जंपि ॥ ३२॥ (=हे.४४२.१) (गत्वा वाराणस्यां नरा अथ उज्जयिन्यां गत्वा । मृताः प्राप्नुवन्ति परमं पदं दिव्यान्तराणि मा जल्प ।।)
वाराणसीमें जाकर (पश्चात् ) उज्जयिनोमें जाकर जो लोग मरते हैं, वे परम पद प्राप्त कर लेते हैं । अन्य तीर्थों का नाम भी मत लो।
विकल्पपक्ष मेंगंग गमेप्पिणु जो मरइ जो सिवतित्थु गमे प्प । कीडदि तिदसावासगउ सअलउ लोउ जएप्पि ॥३३॥ (=हे. ४४२.२) (गंगां गत्वा यो म्रियते यः शिवतीर्थ गत्वा । क्रोडति त्रिदशावासगतः सकलं लोकं जिवा ॥)
जो गंगा या काशी (शिवतो) जाकर मर जाता है, वह सब लोक जीतकर, देवलोकमें जाकर क्रीडा करता है । तृनो णअल् ॥ २२॥
___ अपभ्रंशमें तृन् प्रत्ययको लित् (=नित्य) णअ ऐसा आदेश होता है । उदा.-होणउ भविता । सुण श्रोता ।। २२ ।।
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हिन्दी अनुवाद - अ. ३, पा. ३
हत्थि मारणउ लोउ बोल्लुणउ ।
पडह वज्जण सुणउ भसणउ ॥ ३४ ॥ ( = हे. ४४३.१) [हस्ती मारयिता लोकः कथयिता ।
पटहो वादयिता शुनको भषिता ॥]
मारनेवाला हाथी, कहनेवाला मनुष्य, बजने वाला पटह, भूँकनेवाला कुत्ता ॥
छस्य युष्मदादेर्डारः ॥ २३ ॥
अपभ्रंशमें युष्मद्, इत्यादिके आगे आनेवाले छ को डित् आर ऐसा आदेश होता है । उदा. - तुम्हारु युष्मदीयः । अम्हारु अस्मदीयः ॥ संदेसे काइँ तुम्हारेण जं संगहा न मिलिज्जइ ।
२३ ॥
सुविनंतर पिएँ पाणिऍण पिअ पिवास के छिज्जइ ॥ २५ ॥ ( = हे. ४३४. १) (संदेशेन किं त्वदीयेन यत्संगस्य न मिल्यते ।
स्वान्तरे पोतेन पानीयेन प्रिय पिपासा किं छियते ॥ )
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(तुम्हारा ) संग नहीं मिलता, (फिर) तुम्हारे संदेशका क्या उपयोग ? हे प्रिय, सपने में पिये जलसे क्या प्यास मिटती है ?
दिक्खि अम्हारा कंतु । बहिणि अम्हारा कंतु (११९) ।
जणि जणु नं नइ नाइ नाइ इवार्थे ॥ २४ ॥
अपभ्रंशमें इत्रके अर्थमें जणि, जणु, नं, नइ, नावइ, नाइ ऐसे छः आदेश होते हैं | उदा.- चंदु जणि, चंदु जणू, चंदु नं, चंदु नइ, चंदु नावइ, चंदु नाइ, चन्द्र इव ॥ २४ ॥
जणि (आदेशका उदाहरण ) -
चंप अकुंपल मज्झि सहि भसलु पइट्ठउ ।
सोहइ इंदनील जाण कणइ उविट्ठउ || ३६ ।। ( = हे. ४४४.४) (चम्पककुड्मलमध्ये सखि भ्रमरः प्रविष्टः ।
शोभते इन्द्रनील इव कनके उपविष्टः || )
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हे सखी, चंपक कुसुमके मध्य में भ्रमर प्रविष्ट है । मानो कनकमें जडे दिये गये इंद्रनील मणि जैसा वह शोभता है ।
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२२८
त्रिविक्रम-प्राकृत-ध्याकरण
जणु (आदेशका उदाहरण)निरुतमरसु पिएं पिअवि जणु [९] । यह पीछेही कहा गया है। नं (आदेशका उदाहरण)
मुहकबरिबंध तह सोह धरहिं नं मल्लजुज्झु ससिराहु कर हैं। तहे सोहहिँ कुरल भमरउलतुलिअ नं तिमिरडिंभ खेल्लंति मिलिअ ॥ ३७ ॥ (-हे. ३८२.१) (मुखकबरीबन्धौ तस्याः शोभा धरतः इव मल्लयुद्धं शशिराहू कुरुतः । तस्याः शोभन्ते कुरला भ्रमरकुलतुलिता
इव तिमिरडिम्भाः क्रीडन्ति मिलित्वा ।।) उस (सुंदरी)के मुँह और केशबंध (ऐसी) शोभा धारण करते हैं मानो चंद्र और राहु मल्लयुद्ध करते हैं । भ्रमरसमुदायके समान उसके धुंघराले बाल ऐसे शोभते हैं मानो अंधकारके बच्चे मिलकर खेल रहे हैं।
नइ (आदेशका उदाहरण)रविअस्थमणसमाउलेण कंठट्ठिअउ ण छिण्णु । चक्कें खडु मुणालिअहि नइ जीवग्गल दिन्नु ॥ ३८॥ (-हे. ४४४.१) (रव्यस्तमनसमाकुलेन कण्ठस्थितो न च्छिन्नः। चक्रेण खण्डो मृणालिकाया इव जीवार्गलो दत्तः ।)
सूर्यास्तके समय व्याकुल चक्रवाक (पंछी)ने मृणालिका (कमलके देठ)का टकडा कंठमें डाला पर उसे नहीं तोडा (खाया)। मानो जीवको बाहर न निकल देनेके लिए अर्गला दे दी।
नावइ (आदेशका उदाहरण)पेक्षेविणु मुहुँ जिणवाह दीहरणअणसलोणु । नावइ गरुमच्छरभरिउँ जलणि पवेसइ लोणु ॥३९।। (=हे. ४४४.३) (दृष्ट्वा मुखं जिनवराणां दीर्घनयनसलावण्यम् । इव गुरुमत्सरभरितं ज्वलने प्रविशति लवणम् ॥)
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हिन्दी अनुवाद-अ. ३, पा. ३
२३९ जिनवरोंके दीर्घ नयन और लादण्य इनसे युक्त मुँह देखकर, अतिमत्सरसे भरा हुआ लवण मानो अग्निमें प्रवेश करता है।
नाइ (आदेशका उदाहरण)वलआवलिनिवडणभऍण धण उद्धब्भुअ जाइ । वल्लभविरहम्हादहहु गाह गवेसइ नाइ ।।४०॥ (=हे. ४४४.२) (वलयावलीनिपतनभयेन धन्या ऊभुजा याति ।। वल्लभविरहमहाहृदस्य गाधत्वमन्विष्यतीव ।।)
कंकणसमूह गिरनेके डरसे, सुंदरी (धन्या) हाथ ऊपर करके जाती है मानो वल्लभके विरहरूपी महासरोवरका थाह ढूंढती है ।
तणेण रेसिं रेसि तेहि केहिं तादर्थे ।। २५ ॥
अपभ्रंशमें तादर्थ्य (उसके लिए, यह अर्थ) दिखानेके समयपर तणेण, रेसिं. रोसि,तेहिं, केहि ऐसे पाँच निपात प्रयुक्त करें। उदा.-रामतणेण रामरोस रामरोस रामतेहिं रामके हँ णमोकारो, रामार्थ नमस्कारः ॥ २५ ॥ ढोल्ला ऍह परिहासडी अइ भण कवणइ देसि ।। हउँ झिज्जउँ तउकेहि पिअ तुहुँ पुणु अन्नहिरेसि ॥४१॥ (-हेम.४२५.१)
(विट एष परिहासः अयि भण कस्मिन् देशे ।
अहं क्षीये तवाथै प्रिय त्वं पुनरन्यस्या अर्थे ।) ___ अरे प्रिय, किस देशमें यह परिहास (किया जाता है, बताओ। हे प्रियकर, मैं तेरे लिए क्षीण होती हूँ, (पर) तू दूसरी के लिए (क्षीण होता है)।
वड्डप्पणहो तणेण [२१|इसीप्रकार तेहि और रोंसे के उदाहरण लेने हैं। स्वार्थे डुः पुनर्विनाध्रुवमः ॥ २६ ॥
अपभ्रंशमें पुनः, विना, ध्रुवम इनके आगे स्वार्थे डित् उ ऐसा प्रत्यय होता है। उदा.-पुणु होइ, पुनर्भवति । पावु विणु, पापं विना । धुवु जग्मु, रुवं जन्म ॥२६॥ सुमरिज्जइ तं वल्लहउँ जं वीसरइ मणाउँ । जहँ पुणु सुमरणु जाउँ गउँ तहा हहों किं णाउँ ॥ ४२॥ (=हे. ४२६.१)
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२४०
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त्रिविक्रम प्राकृत व्याकरण
(स्मयते तद्वल्लभं यद्विस्मरति मनाक् । यस्य पुनः स्मरणं जातं गतं तस्य स्नेहस्य किं नाम ॥)
जो थोडा भूलनेपरही स्मरण किया जाता है वह प्रिय है । पर जिसका स्मरण होता है और नाश होता है, उस प्रेमका नाम क्या।
चंचलु जीविउँ धवु मरणु पिअ रूसिज्जइ काई। होसहि दिअहा रूसणा दिवइँ वरिससमाई ॥४३॥ (=हे. ४१८.३) (चञ्चलं जीवितं ध्रुवं मरणं प्रिय रुष्यते कथम् । भविष्यन्ति दिवसा रूषणा दिव्यानि वर्षशतानि ॥)
जीवित चंचल है, मरण निश्चित है। हे प्रियकर, क्यों रूठा जाय। जिन दिन रूटना है वे दिन सौ दिव्य वर्षोंके समान होंगे। डेंडाववश्यमः ।। २७ ॥
(इस सूत्रमें २.३.२६ से) स्वार्थे पदकी अनुवृत्ति है। अपभ्रंशमें अवश्यम् (शब्द)के आगे एं और अ ऐसे ये डित् प्रत्यय आते हैं। उदा.-अवमें अवस, अवश्यम् ॥ २७ ॥
जिभिदिउ नायउँ वसि करहुँ जसु अधिन्नइँ अन्न. । मूलि विणहइ तुंबिणिह भवसे सुक्क हँ ?ण्णइं ॥४४॥ (=हे. ४२७.१) (जिह्वन्द्रियं नायकं वशे कुरुत यस्य अधीनान्यन्यानि । मूले विनष्टे तुम्बिन्या अवश्यं शुष्यन्ति पर्णानि ।)
जिसके अधीनमें अन्य इंद्रिय हैं उस प्रधान जिव्हेंद्रियको वशमें करो। मूलके नष्ट होनेपर तुंबिनीके पत्ते अवश्य सूख जाते हैं।
अवस न सु सुहच्छिअइ [१४०] । परमेकशसोर्डडि ॥ २८ ॥
अपशमें परम् और एकशस् इनके आगे स्वार्थे अ और इ ऐसे ये डित (प्रत्यय) यथाक्रम आते हैं। उदा.-पर परम् । एक्कसि एकशः ॥ २८॥
गुणाह न संपइ कित्ति पर फल लिहिआ भुंजंति । केसरि लहइ न बोड्डिअ वि गय लक्खहि घेप्पन्ति ॥४५॥ (=हे.३३५.१)
(गुणैन उम्पत् कीर्तिः परं फलानि लिखितानि भुञ्जन्ति । केसरी न लभते कपर्दिकामपि गजा लगृह्यन्ते ।।)
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हिन्दी अनुवाद-अ. ३, पा. ३
गुणोंसे संपत्ति नहीं मिलती, कीर्ति मिलती है। नसीबसे (ललाटपर) लिखे हुए फल (लोग) भोगते हैं। सिंह एक कौडीभी नहीं प्राप्त करता, पर हाथी लाखों (रुपयों) से खरीदे जाते हैं। एकसि सीलकलंकिअहं देज्जहिँ पच्छित्ताई। जो पुणु खंडइ अणुदिअहु त पच्छित्ते काई ॥४६।। (=हे. ४२८.१
(एकश: शीलकलंकितानां दीयन्ते प्रायश्चित्तानि । यः पुनः खण्डयत्यनुदिवसं तस्य प्रायश्चित्तेन किम् ॥)
एकबार शील कलंकित होनेवालोंको प्रायश्चित्त दिये जाते हैं। पर जो प्रतिदिन (शील) खंडित करता है उसे प्रायश्चित (देने)का क्य उपयोग ? अडडडुल्लाः स्वार्थिककलुक् च ॥ २९॥
अपभ्रंशमें संज्ञाके आगे अ ऐसा, तथा अड और उल्ल ऐसे ये डिद प्रत्यय होते हैं, और उनके सानिध्यसे स्वार्थिक क-प्रत्ययका लोप होता है। उदा.-बलउ बलडु बलल्लु, बलम् ॥ २९॥
विरहाणलजालकरालिअउ पहिउ पंथि जं दिवउ । तं मेल्लवि सवहिँ पंथिअहिँ सो जि किअउ अग्गिट्ठउ ।।४७॥
(=हे. ४२९.१) (विरहानलज्वालाकरालितः पथिकः पथि यदा दृष्टः । तदा मिलित्वा सर्वैः पथिकैः स एव कृतोऽग्निष्ठः ।।)
जब विरहाग्निकी ज्वालासे जलाभुना हुआ पथिक मार्गपर दिखाई पडा, तब सब पथिकोंने मिलकर उसको अग्निपर रख दिया (कारण वह मर गया था)।
महु कतहु बे दोसडा हेल्लि म जंपहि आलु । देंतहाँ हउँ पर उव्वरिअ जुझंतहा करवाल ।।४८।। (=हे. ३७९.१) त्रि.प्रा,व्या....१६
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त्रिविक्रम-प्राकृत-व्याकरण (मम कान्तस्य द्वौ दोषौ हे सखि मा जल्प मिथ्या । ददतोऽहं परमुर्वरिता युध्यमानस्य करवालः ॥)
हे सखी, मेरे प्रियकरके दो दोष हैं। झूठ मत बोल। जब वह दान देता है तो (केवल) मैं अवशिष्ट रहती हूँ, और जब वह युद्ध करता है तब केवल तरवार (अवशिष्ट रहती है)।
एक्क कुडुल्ली पंचहिँ रुद्धी [७६] ।। तद्योगजाथ ।।३०॥
अपभ्रंशमें अ, अड और उल्ल इनके परस्परसंयोगसे जो अड, डुल्छा डुल्लड, इत्यादि बनते हैं, वे भी प्रायः स्वार्थे (प्रत्यय) होते हैं ॥३०॥
उदा.-अड (प्रत्ययका उदाहरण)फोडेंति जे हिअडउँ अप्पणउँ ताहँ पराई कवण घिण। रक्खेजहों तरुणहो अप्पणा बालहें जाया विसम थण ॥ १९॥
(=हे. ३५०.२) (पाटयतो यौ हृदयकमात्मनः तयोः परकीया का घणा। रक्ष्यन्तां तरुणा आत्मा बालाया जातौ विषमा स्तना ।।)
जो अपनाही हृदय फोडते हैं (ऐसे स्तनोंको) दूसरेके बारेमें क्या दया (होगी)? हे तरुण लोगो, उस बालासे अपनी रक्षा करो। (उसके) स्तन (अभी) संपूण (विषम, हृदय फोडनेवाले) हो गए हैं।
डुल्लअ (प्रत्ययका उदाहरण)चडुल्लउ चुण्णीहोइसइ [१५५] । डुल्लड (प्रत्ययका उदाहरण)सामिपसाअ सलज्जु पिउ सीमासंधिहि वासु । देक्खिअ बाहुबलुल्लडउ धण मुंचइ नीसासु ।।५०॥=हे.४३०.१) (स्वामिप्रसादं सलज्जं प्रियं सीमासन्धौ वासम् । प्रेक्ष्य बाहुबलं धन्या मुञ्चति निःश्वासम् ।।)
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हिन्दी अनुवाद-अ. ३, पा. ३
૨૪૨
(अपने प्रियकरके ऊपर) स्वामिका प्रसाद, सलज्ज प्रियकर, सीमासंधिपर वास और (प्रियकरका) बाहुबल देखकर (सुखी) सुंदरी निश्वास छोडती है।
इसी प्रकार बाहुबलुल्ल, इत्यादि । डीतः स्त्रियाम् ॥ ३१ ॥
अपभ्रंशमें स्त्रीलिंगमें रहनेवाली संज्ञाके आगे, इससे पूर्व दो सूत्रों में (३.३.२९-३०) कहे गए प्रत्ययोंके आगे डी प्रत्यय होता है ॥ ३१ ॥
उदा.पहिआ दिट्ठी गोरडी दिट्ठी मग्गु निअंत । अंसूसासें कंचुअंतिंतुवाण करंत ॥ ५१॥ (=हे. ४३१.१) (पथिक दृष्टा गौरी दृष्टा मार्ग पश्यन्ती। अश्रच्छ्वासैः कञ्चुकं तिमितोद्वातं कुर्वती।।)
(एक पथिक दूसरे पथिकसे अपनी प्रियाके बारेमें पूछता है)-'हे पथिक, (मेरी) प्रिया (तुमसे) देखी गई ?' (दूसरा उत्तर करता है)'(तेरा) रास्ता देखनेवाली तथा ऑसू और उच्छ्वास इनसे कंचुकको गीला करती और सुखाती हुई देखी गई। अदन्ताड्डा ।। ३२ ॥
अपभ्रंशमें अ, डड, डुल्ल इनमेंसे जो अकारान्त प्रत्यय हैं, उनसे अन्त पानेवाली, स्त्रीलिंगमें रहनेवाली, संज्ञाको डा प्रत्यय लगता है। डी (प्रत्यय लगता है इस) नियमका (३.३.३१) प्रस्तुत नियम अपवाद है ॥३२॥ पिउ आगअउ पत्तहों झुणि कण्णडइ पइट्ठ। तहा विरहहाँ नासंतहा धूलडिआ वि न दिट्ठ ॥५२॥ (=हे. ४३२.१)
(प्रियः आगतः प्राप्तस्य ध्वनिः कर्णे प्रविष्टः । तस्य विरहस्य नश्यतः धूलिरपि न दृष्टा ।)
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त्रिविक्रम - प्राकृत-व्याकरण
प्रियकर आया; आये हुए उसकी ध्वनि कर्णमें प्रविष्ट हो गयी । नष्ट होनेवाले उस विरहकी धूलभी न देखी गई ।।
२४४
इदतोऽति ।। ३३ ।।
उसका अत्
उदा. - धूल डिआ
अपभ्रंशमें स्त्रीलिंगमें रहनेवाली संज्ञाका जो अकार, अर्थात् अकार प्रत्यय आगे होनेपर, इकार होता है । विन दिट्ठ [ ५२ ] | स्त्रीलिंग में ( रहनेवाली संज्ञाके बारेमेही ऐसा होता है, अन्यथा नहीं | उदा.-) झुणि कण्णड पट्ट [ ५२ ] ॥ ३३ ॥
इदानीमेव्वहि || ३४ ॥
अपभ्रंशमें इदानीम् के स्थानपर एव्वहि ऐसा होता है । उदा. एव्वहि होइ, इदानीं भवति ॥ ३४ ॥
हरि नचाविउ पंगणइ विम्हइ पाडिउ लोउ ।
एवहि राहपओहरहँ जं भावइ तं होउ || ५३ | | ( = हे. ४२०.२) (हरिर्नर्तित: प्राङ्गणे विस्मये पातितो लोकः ।
इदानीं राधापयोधरयोर्यद् भवति तद् भवतु || )
हरिको आँगन में नचाया गया; लोगोंको आश्चर्यमें डाला गया । अभी राधाके स्तनोंका जो होता है वह होने दो ।
एव जि ।। ३५ ।।
अपभ्रंश में एव शब्द के स्थानपर जि ऐसा होता है जि, राम एव ॥ ३५ ॥
जाउ म जंतउ पल्लवह देक्खउँ कइ पय देइ |
हिअइ तिरिच्छी हउँ जि पर पिउ डंबरहूँ करेइ || ५४ || ( = हे. ४२०.१)
( यातु मायान्तं पल्लव पश्यामि कति पदानि ददाति ।
हृदये तिरश्वीना अहमेव परं प्रियो डम्बराणि करोति ॥ )
उदा. -रामु
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हिन्दी अनुवाद-अ. ३, पा. ३
૨૪ક जाने दो (उसे); उस जानेवालेको (पीछे) मत बुलाओ। देखती हूँ (वह) कितने पैर (आगे) डालता है। उसके हृदयमें मैं टेढी होकर (गडी) हूँ। परंतु (मेरा) प्रियकर (जानेका केवल) आडंबर करता है।
एवमेम ॥ ३६॥
एवं ऐसा अव्यय एम ऐसा होता है। उदा.-एम रामु कुणइ, एवं रामः करोति ॥ ३६॥ पियसंगमि कउ निद्दडी पियहाँ परोक्खहाँ केम। मह बिण्णि वि विण्णासिअ निद न एम न तेम ॥५५।। (हे. ४१८.१)
(प्रियसंगमे कुतो निद्रा प्रियस्य परोक्षस्य कथम् । मम द्वे अपि विनाशिते निद्रा न एवं न तथा ।)
प्रियसंगमके समय निद्रा कहाँसे (आयेगी)? प्रियतम संनिध न होनेपर कैसी निद्रा ? दोनों (प्रकारकी निद्राएँ) मेरे (बारेमें) नष्ट हुई हैं। मुझे नींद न यों आती है और न त्यों आती है।
नहि नाहि ।। ३७ ।।
नहि ऐसा अव्यय नाहि ऐसा होता है। उदा. नाहि धम्मु, न हि धर्मः ।। ३७ ।।
एत्तहें मेह पिअन्ति जलु एत्तहँ वडवाणलु आवइ । पेक्खु गहीरिम साअरहों एक वि कणिअ नाहि ओहदृइ ।। ५६ ।।
(हे. ४१९.४) (इतो मेघाः पिबन्ति जलं इतो वडवानल आवर्तते। पश्य गभीरत्वं सागरस्य एकापि कणिका नहि अपहीयते ।।)
इधर मेघ पानी पीते हैं, इधर (उधर) वडवानल क्षुब्ध हुआ है। सामरके मांभीर्य देखो, (जलका) एक कणभी कम नहीं हुआ है।
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1-प्राकृत-व्याकरण
२४६ प्रत्युत पच्चलिउ ॥ ३८॥
प्रत्युत ऐसा अव्यय पच्चलिउ ऐसा होता है। उदा.-पच्चलिउ सुघु, प्रत्युत सुग्वम् ।। ३८ ॥ .
सावसलोणी गोरडी नवखी क वि विमगंठि। भडु पच्चलि उ सो माइ जासु न लग्गइ कंठि ।।५७॥ (=हे.४२०.३)
(सर्वसलावण्या गौरी नवीना कापि विषग्रन्थिः । भटः प्रत्युत स म्रियते यस्य न लगति कण्ठे ।।)
साङ्गसंदर गौरी नये विषकी गाँठ (के समान) है। परंतु जिसके कंठमें वह नहीं लगती वह वीर मर जाता है।
ग्रन्थिः इस शब्दमें, 'लिङ्गमतन्त्रम् ' (३.४.६७) सूत्रानुसार स्त्रीलिंगा (हो गया है)। एवमेव एमइ ।। ३९ ॥
एवमेव ऐसा अव्यय एमइ ऐसा हो जाता है। उदा.-एमइ लोगु, एवमेव लोकः ॥ ३९॥ अंगहिँ अंगु न मिलिउँ हलि अहरें अहरु न पत्तु । पिअ जोअन्तिहें मुहकवलु एमइ सुर उ समत्तु ।। ५८ ॥ ( हे. ३३२.२)
(अङ्गैरङ्ग न मिलितं सखि अधरेण अधरो न प्राप्तः। प्रियस्य पश्यन्त्या मुखकमलं एवमेव सुरतं समाप्तम् ।।)
हे सखी, (प्रियकरके) अंगोंसे (मेरा) अंग न मिला, अधरसे अधर नहीं चिपटा । प्रियकरके मुखकमल देखते देखतेहो (हमारी) सुरतक्रीडा समाप्त हो गई। समं समाणु ॥ ४० ॥
समं ऐसा अव्यय समाणु ऐसा हो जाता है। उदा.-रामेण समाणु, रामेण समम् ।। ४०॥ कंतु जं सीहहाँ उवमिअइ तं महु खडिउ माणु। सीहु अरक्खअ गअ हणइ पिउ पयरक्खसमाणु ॥५९।। (हे. ४१८.२)
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हिन्दी अनुवाद-अ. ३, पा. ३ (कान्तो यत् सिंहस्योपमीयते तन्मम खण्डितो मानः । सिंहोऽरक्षकान् गजान् हन्ति प्रियः पदक्षैः समम् ।।)
(मेरे) प्रियकरकी तुलना जो सिंहसे की जाती है उससे मेरा मान खंडित हो जाता है। (क्योंकि) सिंह बिना रक्षकके हाथियोंको मारता है, (पर मेरा) प्रियकर रक्षकोंके साथ (उनको) मारता है । किल किर ।। ४१ ॥
अपभ्रंशमें किल ऐसा अव्यय किर ऐसा हो जाता है ।। ४१ ॥ उदा.-न किर खाइ न पिअइ न विद्दवइ धम्मि न वेच्चइ रूअडउ । इह किवण न जाणइ जह जमहा खणण पहुच्चइ दूअडउ ।। ६०॥
(=हे. ४१९.१) (न किल खादति न पिबति न विद्रवति धर्मे न व्ययति रूपकम् । इह कृपणो न जानाति यथा यमस्य क्षणेन प्रभवति दूतः।।)
सचमुच कृपण न खाता है, न पीता है, (मनमें) नहीं पिघलता, और धर्मके लिए एक रुपयाभी नहीं खर्च करता। (पर) कृपण यह तो नहीं जानताही है कि यमका दूत एक क्षण में प्रभावी होगा। पग्गिम प्राइम पाउ प्राइव प्रायसः ।। ४२ ॥
प्रायस् ऐसा अव्यय अपभ्रंशमें पग्गिम, प्राइम, प्राउ, प्राइव ऐसे चार प्रकारसे प्रयुक्त करें। उदा.-पग्गिम चवलु, प्रायश्चपलः । इत्यादि ।। ४२ ।।
एसी पिउ रूसेसु हउँ रुट्ठी मइँ अणुणेइ । पग्गिम एइँ मणोरहइँ दुक्कर दइवु करे ॥६॥ (=हे. ४१४.४) (एष्यति प्रियः रुष्याम्यहं रुष्टां मामनुनयति । प्राय एतान् मनोरथान् दुष्करं दैवं कारयति ।।)
प्रियकर आएगा। मैं रूठ जाऊँगी। रूठी हुई मुझे वह मनाएगा (मेरा अनुनय करेगा)। दुष्ट (दुष्कर) दैव प्रायः ऐसे मनोरथ कराता है। प्राइम माणहें वि भंतडी ते मणिअडा गणन्ति । अखद निरामइ परमपइ अन्ज वि पउ न लहन्ति ॥६२॥ =. ४१४.२)
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त्रिविक्रम-पाहत-व्याकरण
पायो मुनीनामपि भ्रान्तिः ते मणीन् गणयन्ति । अक्षये निरामये परमपदे अद्यापि पदं न लभन्ते ।।)
प्रायः मुनियोंकोभी भ्रांति है। वे (केवल) मणि गिनते हैं। (पर) बवमी, अक्षर, निरामय, परमपदमें वे स्थान नहीं प्राप्त करते। बन्ने ते दीहर लोअण अन्नु तं भुअजुअलु । बनु सु घणथणहारु अन्नु जि मुहकालु । बन्नुसु केसकलाउ अन्नु जि प्राउ विहि । बेण णिबिणि घडिअ स गुणलाअण्णणिहि ।।६३।। (=हे. ४१४.१)
(अन्ये ते दी लोचने अन्यत्तद् भुजयुगलम् । अन्यः स घनस्तनभारः अन्यदेव मुखकमलम् | अन्यः स केशकलापः अन्य एव प्रायो विधिः । येन नितम्बिनी घटिता सा गुणलावण्यनिधिः ।।)
वे दीर्घ लोचन दूसरेही हैं। वे दोनों भुजाएँ कुछ औरही हैं। वह घन स्तनोंका भार निरालाही है। वह मुखकमलभी निराला है। केशकलापभी निराला है। और गुण तथा लावण्य इनका निधि ऐसी उस सुंदरी (नितम्बिनी)को निर्माण करनेवाला वह विधि (ब्रह्मदेव) भी निराला है।
अंसुजलें प्राइव गोरिअह सहि उव्वत्ता नअणसर । जे संमुह संपेसिआ देंति तिरिच्छी घत्त पर ।।६४॥ (=हे.४१४.३)
(अश्रुजलेन प्रायो गौर्याः सखि उद्वान्ते नयनसरसी। ते संमुख संप्रेषिते ददतस्तिर्यग् घातं परम् ॥)
हे सखी, (मुझे भाता है कि) सुंदरीके नयनरूपी सरोवर अश्रुजलसे प्रायः लबालब भरे हुए हैं। परंतु वे नयन जब (किसीके) सामने (देखनेके लिए) मुडते हैं तब वे तिरछी चोट करते हैं।
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हिन्दी अनुवाद-अ. ३, पा. ३
२० दिवा दिवे ॥४३॥
दिवा ऐसा अव्यय दिवे ऐसा हो जाता है । उदा.-दिव दिवे गंगण्हाणु [८] ।। ४३॥ सह सहूं ॥४४॥
सह ऐसा अव्यय सहुं ऐसा हो जाता है ।। ४४ ।। जइ पवसते स न गय न मुअ विओएं तस्सु । लज्जिज्जइ संदेसडा देंती सुहअजणस्सु ।।६५।। (=हे. ४१९.३) (यदि प्रवसता सह न गता न मृता वियोगेन तस्य । लज्जते संदेशान् ददती सुभगजनस्य ।।)
चकि प्रवासको जाते हुए प्रियकरके साथ (मैं) न गई और न उसके वियोगसे मरी। (इसलिए उस) प्रियकरको (सुभगजन) संदेश देती हुई मैं शरमाती हूँ। मा मं ॥ ४५ ॥
मा ऐसा अव्यय में ऐसा हो जाता है। उदा.मं धणि करहि विसाउ (=हे. ३८५.१)।
(मा धन्ये कुरु विषादम्)। हे सुंदरी विषाद मत कर ॥४५।। प्रायोग्रहण होनेसे, (मा ऐसा भी रूप प्रयोगमें पाया जाता है)। उदा.माणि पणट्ठइ जइ ण तणु तो देसडा चइज्ज । मा दुज्जणकरपल्लयहिँ दंसिज्जन्तु झमेज्ज ।।१६।। (=हे. ४१८.४)
(माने प्रनष्टे यदि न तनुं ततो देशं त्यजेत् । म' दुर्जनकरपल्लवैर्दश्यमानो भ्रमेत् ।।)
मान नष्ट होनेपर यदि शरीर नहीं तो देशको छोड दे। दुर्जनोंके करपल्लवोंसे दिखाये जाते न घुमे। कुतः कउ कहंतिहु ।। ४६ ।।
अपभ्रंशमें कुतः ऐसा अव्यय कउ और कहं तिहु ऐसा हो जाता है। उदा.-कउ गदु कह तिहु गदु, कुतो गतः।। ४६।।
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२५०
त्रिविक्रम-प्राकृत-व्याकरण
महु कंतहाँ गुट्ठडिअों कउ झुपडा वलन्ति । अह रिउरुहिरें उल्लवइ अह अप्पणे न भंति ।।६७।। (हे.४१६.१) (मम कान्तस्य गोष्ठस्थितस्य कुतः कुटीरकानि ज्वल न्ति । अथ रिपुरुधिरेणाईयति अथात्मीयेन न भ्रान्तिः ।।)
मेरा प्रियकर घरमें स्थित होनेपर, झोपडे कहाँसे (कैसे) जल रहे हैं (जलेंगे)? शत्रुके या अपने रक्तसे (वह) ठंडा करेगा, इसमें शक नहीं है।
धूप कहंतिहु उढिअउ [७०] । अथवा मनागहवइ मणाउं ।। ४७ ।।
____ अथवा और मनाक ये (अव्यय) अहवइ (और) मणाउं ऐसे हो जाते हैं। उदा--अहवइ ण सुहं ताहु, अथवा न सुखं तस्य। किंपि मणाउं महु पिअहाँ [६९], किमपि मनाङ् मम प्रियस्य ।। ४७ ।। जाइज्जइ तहिं देसडइ लभइ पिअहाँ पमाणु । जइ आवइ तो आणिअइ अहवइ तं जि निवाणु ।। ६८।। (=हे. ४१९.२)
(गम्यते तत्र देशे लभ्यते प्रियस्य प्रमाणम् । यद्यागच्छति तदानीयते अथवा तदेव निर्वाणम् ।।)
उस देशमें चला जाय जहाँ प्रियकरका पत्ता (प्रयाण) मिले । यदि वह आता है तो लाया जाय। (अन्यथा वहींपर) मरा जाय । विहवि पणट्ठइ वंकडउ रिद्धिऍ जणसामण्णु । किपि मणाउं महु पिअहाँ ससि अणुहरइ न अण्णु ॥६९।।(-हे.४१८.६)
(विभवे प्रनष्टे वक्रः ऋद्धौ जनसामान्यः । किमपि मनाङ् मम प्रियस्य शशी अनुहरति नान्यः।।)
वैभव नष्ट होनेपर बॉका, वैभवमें जनसामान्य (हमेशाकी तरह) होनेवाला चंद्रही, और न दूसरा कोई, मेरे प्रियकरका कुछ अनुकरण करता है। इतसेत्तहे ।। ४८॥
. इतस् ऐसा अव्यय एत्तहे ऐसा हो जाता है। उदा.-एत्तहे मेह पिअन्ति जलु [५६] ॥ १८ ॥
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हिन्दी अनुवाद-अ. ३, पा. ३
२५१
पश्चात्पच्छइ ॥ ४९ ।।
___ अपभ्रंशमें पश्चात् ऐसा अव्यय पच्छइ ऐसा हो जाता है। उदा.पच्छइ होइ विहाण [१२८ ॥ ४९॥ ततस्तदा तो॥ ५० ॥
ततस् (और) तदा ये (अव्यय) तो ऐसे हो जाते हैं। उदा.-तो गदु, ततो गतः तदा गतः वा। जइ भग्गा पारक्कडा तो सहि मण्झु पिएण [७] ॥ ५० ॥ त्वनुसाहावन्यथासौं ॥ ५१ ।।
अन्यथा (और) सर्व ये (शब्द) यथाक्रम अनु (और) साह ऐसे विकल्पसे हो जाते हैं। उदा.-अनु कदु, अन्यथा कृतम् ।। ५१ ।। विरहाणलजालकरालिअउ पहिउ कोवि बुड्डि वि ठिअउ। अनु सिसिरकालि सीअल लहु धूमु कहं तिहु उट्टिअउ।।७०॥(=हे.४१५.१)
(विरहानलज्वालाकरालितः पथिकः कोऽपि निमज्य स्थितः । अन्यथा शिशिरकाले शीतलजलाध्दमः कुत उत्थितः ।।)
विरहाग्निकी ज्वालासे प्रदीप्त कोई पथिक (जलमें) डूबकर स्थित है। अन्यथा शिशिरकालमें शीतल जलसे धूम कहाँसे उठा? विकल्पपक्षमें—अन्नहा। साहु वि लोउ तडप्फडइ [२१] । किं काइंकवणौ ।। ५२ ॥
__ अपभ्रंशमें किम् शब्दको काई और कवण ऐसे आदेश प्राप्त होते. हैं ॥ ५२ ॥ जह सु न आवइ दूइ घर काइँ अहो मुहु तुज्झु । वअणु जु खंडइ तउ सहिए सो पिउ होइ न मज्झु ।।७१।।(=हे.३६७.१)
(यदि स नायाति दूति गृहं किमधो मुखं तव। .. वचनं यः खण्डयति तव सखि स प्रियो न भवति मम 11)
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त्रिविक्रम-प्राकृत-व्याकरण
हे दूती, यदि वह (प्रियकर) घर नहीं आता तो तुम्हारा मुख क्यों नीचे झुका है ! हे सखी, जो तुम्हारा वचन तोडता है वह मुझे प्रिय नहीं है।
कॉइँ न दूरे पेक्खइ। (-हे. ३४९.१) (किं न दूरे पश्यति ।) क्यों न दूरतक देखती?
ताह पराई कवण घिण [४८] ।। उन्नविच्चवुत्ता विषण्णवोक्ताः ।। ५३ ।।
विषण्ण, वर्त्म (और) उक्त ये (शब्द) यथाक्रम, उन्न, विच्च तथा वुत्त ऐसे हो जाते हैं ।। ५३ ।। मई वुत्तउँ तुहुँ धुरु धरहि कसुरेसि विमुक्कइ । पइँ विणु धवल न चडइ भरु एमइ उन्नउ काई ॥७२।। (=हे.४२१.१)
(मया उक्तं त्वं धुरंधर कस्य कृते विमुच्यते। त्वया विना धवल न आरोहति भरः एवमेव विषण्णः किम् ।।)
मैंने कहा-हे धबल (बैल), तू धुराको धारण कर । (वह) किसलिए (तुमसे) छोडी जाती है ? तेरे बिना बोझ नही चलेगा, (पर) अभी तू विषण्ण क्यों है ?
जं मणु विच्चि न माइ [११८] ॥ अत्खुः परस्परस्य ।। ५४ ।।
अपभ्रंशमें परस्पर शब्दको खु यानी आदि अ हो जाता है (अर्थात् परस्पर शब्दके पूर्व अ आता है)॥ ५४॥ ते मुग्गडा हराविआ जे परिविट्ठा ताहं । अवरोप्परु जोताह सामि गंजिउ जाहं ।।७३।। (हे. ४०९.१)
(ते मुद्दा हारिता ये परिविष्टास्तेषाम् | परस्परं पश्यतां स्वामी परिभूतो येषाम् ।।)
परस्परको देखनेवाले जिन (सेवकों का स्वामी परिभूत हो गया उनके बारे में जों मैंग (अन्न) परोसे गए थे वे नष्ट हो गए।
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हिन्दी अनुवाद-अ. ३, पा. ३
२५३
अन्यादृशस्याण्णाइसावराइसौ ॥ ५५ ॥
अपभ्रंशमें अन्यादृशको अण्णाइस, अवराइस ऐसे आदेश हो जाते हैं। उदा.-अण्णाइसु । अवराइसु ।। ५५ ॥ वहिल्लगाः शीघ्रादीनाम् ।। ५५ ।।
अपभ्रंशमें शीघ्र, इत्यादि (छन्दों)को वहिल्ल, इत्यादि आदेश प्रायः हो जाते हैं ।। ५६ ॥ शीघ्रको वहिल्ल (आदेश)
एक्कु कइह. वि न आवहि अन्नु वहिल्लउ जाहि । म. मित्तडा प्रमाणिअउँ पइँ जेहउ खलु नाहि ।।७४॥ ( हे.४२२.१).
(एक कदाचिदपि नायासि अन्यत् शीघ्रं यासि । मया मित्र प्रमाणितं त्वं यथा खलो नहि ।।)
एक तू कभीभी नहीं आता, दूसरे (आया तोभी) शीघ्रही जाता है। हे मित्र, मैंने जाना है कि तेरे जैसा दुष्ट (अन्य कोई भी) नहीं है ।
इस गणमें (स्वार्थे) क (प्रत्यय) का किं होता है। उदा.झकटकको घग्घल (आदेश)जिम सुउरिस तिम घग्घलइँ जिम नइ तिम वलणाई । जिम डोंगर तिम कोहरइँ हिआ विसूरहि काई ।।७५।। (=हे.४२२.२).
(यत्र सुपुरुषास्तत्र झकटकाः यत्र नदी तत्र वरनानि । यत्र पर्वतास्तत्र कोटराणि हृदय खिद्यसे किम् ॥)
जहाँ सत्पुरुष हैं वहाँ झगडालूभी हैं। जहाँ नदी वहाँ (नदीका) घुमाव है। जहाँ पर्वत वहाँ कंदरारंभी हैं। (तो फिर हे हृदय, तुम क्यों खेद करते हो? रम्य को रवण्ण (आदेश)सरिहिं न सरेहिँ सरवरहिँ नवि उजाणवणेहिं । देस रवण्णा होंति वढ निवसंतेहिँ सुअणेहिं ॥७६।। (=हे.४२२.१०)
(सरिद्भिर्न सरोभिन सरोवरैः नापि उद्यानवनैः । देशा रम्या भवन्ति मूढ निवसद्रिः सज्जनैः ।)
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त्रिविक्रम-प्राकृत-व्याकरण
रे मर्ख, न सरिताओंसे, न सरोंसे, न सरोवरोंसे, न उद्यानोंसे और न बनोंसे देश रमणीय होते हैं, (किन्तु) सुजनोंके निवाससे (देश रम्य होते हैं)। यचद् दृष्टं तत्तद् इसको जाइ डिआ (आदेश)-~ अह रच्चसि जाइटिअऍ हिअडा मुद्धसहाव । लोहें फुट्टणएण जिम घणा सहेसहि ताव ||७७।। (हे.४२२.१७)
(अथ रज्यसे यद्यद् दृष्टं तत्र हृदय मुग्धस्वभाव । लोहेन स्फुटता यथा धना सहिष्यसे तावत् ।।)
हे पगले हृदय, जिसे जिसे देखते हो उस उसपर अनुरक्त हो जाते तो फूटनेवाले लोहेको जैसे घनके प्रहार वैसा ताप तुम्हें सहन करना पडेगा। पृथक् पृथक् इसको जुअंजुअ (आदेश)एक कुडुल्ली पंचहि रुद्धी तहँ पंचहँ वि जुअंजुअ बुद्धी । वहिणिए तं घरु कह किव नंदउ जेत्थु कुटुंबउँ अप्पणछंदउ ।।७८||
(हे.४२२.१२) (एका कुटी पञ्चभी रुद्धा तेषां पञ्चानामपि पृथक् पृथक् बुद्धिः । भगिनि तद् गृहं कथय कथं नन्दतां यत्र कुटुम्बकं आत्मच्छन्दकम् ।।) __एक (शरीररूपी) कुटी (झोपडा) है। उसपर पाँचोंका अधिकार है (रुद्ध)। पांचोंकी बुद्धि पृथक् पृथक् है। हे बहिन, बता कैसे वह घर -सानंद रहेगा जहाँ कुटुंब अपनी इच्छासे चलता है। भय को द्रवक्क (आदेश)दिवहिँ विढत्तउँ खाहि वढ संचि म एक्कु वि द्रम्मु । को वि द्रवक्कउ सो पडइ जेण समप्पइ जम्मु ॥७९॥ ( हेम. ४२२.४) (दिवसैरार्जितं खाद मढ संचिनु मा एकमपि द्रम्मम् । किमपि भयं तत्पतति येन समाप्यते जन्म ।।).
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हिन्दी अनुवाद-अ. ३, पा. ३
२५५
अरे मूर्ख, दिनोंमें जो प्राप्त किया है उसे खा। एक दाम (द्रम्म, पैसा) भी मत संचित कर। कारण कोई भय ऐसा आता है कि जिससे जीवनकाही अन्त होता है।
मा भैषीः इसका स्त्रीलिंगमें (प्रयुक्त) मब्भीसडी (आदेश)सत्थावत्यहँ आलवणु साहु वि लोउ करेइ । आदनहं मब्भीसडी जो सज्जणु सो देइ ॥८०॥ (=हे.४२२.१६) (स्वस्थावस्थानामालपनं सर्वोऽपि लोकः करोति । आर्तानां मा भैषीरिति यः सज्जनः स ददाति ।)
स्वस्थ अवस्थामें रहनेवालोंसे वार्तालाप (आलपन) सभी (लोग) करते हैं। (पर) पीडित लोगोंसे 'डरो मत' ऐसा केवल जो सज्जन है वहीं कहता है। अवस्कन्दको दडवड (आदेश)चलेंहि चलंतहिँ लोअहिँ जे त दिट्ठा बालि। तहिँ मअरद्धअदडवडउ पडइ अपूरइ कालि ॥८१।। (=हे.४२२.१४)
(चलैश्चञ्चलैलोचनैयें त्वया दृष्टा बाले। तेषु मकरध्वजावस्कन्दः पतत्यपूर्ण काले ॥)
हे बाले, तेरे घूमनेवाले चंचल कटाक्षोंसे जो देखे गए हैं उनपर असमयही मदनका हमला हो जाता है। आत्मीयको अपण (आदेश)
फोडेंति जे हिअडउँ अप्पणउँ [४९] । गाढको निच्चट्ट (आदेश)विहवे कस्सु थिरत्तणउँ जोव्वणि कस्सु मरटु । सो लेखडउ पठाविअउ जो लग्गइ निच्चटु ।। ८२ ॥ (=हे. ४२२.६)
(विभवे कस्य स्थिरत्वं यौवने कस्य गर्वः । स लेखः प्रस्थाप्यतां यो लगति गाढम् ।।)
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त्रिविक्रम-प्राकृत-च्याकरण वैभवमें स्थिरता किसकी? यौवनमें गर्व किसका ? (तो) वह लेख भेजा जा रहा है जो गाढरूपसे लगे। क्रीडाको खेड्ड (आदेश)
खेड्डयं कयमम्हेहिं निच्छयं किं पयंपह । अणुरत्ताउ भत्ताउ अम्हे मा चय सामिअ ।। ८३ ॥ (=हे. ४२२.९) (क्रीडा कृतास्माभिर्निश्चयं किं प्रजल्पत । अनुरक्तान् भक्तानस्मान् मा त्यज स्वामिन् ।)
हे स्वामिन् , हमने क्रीडा की। आप ऐसा क्यों बोलते हैं ? अनुरक्त ऐसे हम भक्तोंको मत छोडिए । असाधारणको असड्ढल (आदेश)कहिँ ससहरु कहिँ मअरहरु कहिँ बरिहिणु कहिँ मेहु । दूरठिआहँ वि सज्जणहं होइ असड्ढल नेहु ।। ८४ ।। (=हे. ४२२.७)
(कुत्र शशधरः कुत्र मकरगृहं कुत्र बर्हिणः कुत्र मेघः । दूर स्थितानामपि सज्जनानां भवत्यसाधारणः स्नेहः ।।)।
कहाँ चंद्र कहाँ सागर। कहाँ मयूर कहाँ मेह। यद्यपि सज्जन दूर रहनेवाले हों तोभी उनका स्नेह असाधारण होता है।
नवको नवख (आदेश)___ नवखी क वि विसगंठि ५७] ।
मढको नालिअ और वढ (आदेश)जो पुणु मणि जि खसिफसिहूअउ चिंतइ देइ न द्रम्मु न रूअउ । रइवसभमिरु करग्गुल्ला लिउ घरहि जि कोंतु गुणइ सो नालिउ ॥ ८५ ।।
(=हे. ४२२.१३) (यः पुनर्मनस्येव व्याकलीभूतश्चिन्तयति ददाति न द्रम्मं न रूपकम् । रतिवशभ्रमणशीलः कराम्रोल्लालितं गृहेष्वेव कुन्तं गुणयति स मूढः ।।)
. जो मनमेंही व्याकुल होकर चिंता करता है पर एकभी दाम या रुपया नहीं देता (वह एक मूर्ख)। रतिवश होकर घूमनेवाला और घरमेंही अंगुलियोंसे भालेको नचानेवाला वह (एक) मूर्ख |
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हिन्दी अनुवाद-अ. ३, पा. ३ देवहिं विढत्तउँ खाहि वढ [७७] |
अस्पृश्यसंसर्गको विद्याल (आदेश)जे छड्डे विणु रअणनिहि अप्पउँ तडि घल्लन्ति । तह संखहँ विद्यालु पर फुक्किज्जत भमन्ति ।। ८६ ।। (हे.४२२.३) (ये त्यक्त्वा रत्न निधिमात्मानं तटे क्षिपन्ति । तेषां शंखानामस्पृश्यसंसर्गः परं फूक्रियमाणा भ्रमन्ति ।।)
जो सागरको छोडकर अपनेको तटपर फेंक देते हैं, उन शंखोंका अस्पृश्यसंसर्ग है। (वे) केवल (दूसरोंसे) फूंके जाते हुए घूमते हैं।
अद्भुतस्य ढक्करि (आदेश)हिअडा पर बहु बोल्लिअउँ महु अग्गइ सयवार । फुबिसु पिऍ पवसंति हउँ भंडय ढक्करिसार ।। ८७।। (हे. ४२२.११)
(हृदय त्वया बहु उक्तं ममाग्रे शतवारम् । स्फुटिष्यामि प्रिये प्रवसति अहं भण्डक अद्भुतसार ॥)
हे अद्भुतशक्तियुक्त शठ हृदय, तूने मेरे आगे सैंकडों बार बहुल कहा था कि प्रियकर यदि प्रवासपर जायेगा तो मैं झट जाऊँगा।
कौतुकको कोड (आदेश)कुंजरु अन्नहँ तरुवरहं कोण घल्लइ हत्थु । मणु पुणु एक्कहिँ सल्लइहिं जइ पुच्छह परमत्थु ।। ८८ ॥ (=हे.४२२.८)
(कुञ्जरोऽन्येषु तरुवरेषु कौतुकेन क्षिपति हस्तम् । मनः पुनरेकस्यां शल्लक्यां यदि पृच्छत परमार्थम् ॥)
अन्य अच्छे तरुपर हाथी अपनी सूंढ कौतुकसे (खेलके लिए) रगडता है। पर सच पूछो तो उसका मन केवल सल्लकी (वृक्ष) में (लगा रहता) है।
हे सखि इसको हेल्लि (मादेश)
हेल्लि म जंपहि आलु [४८] । त्रि.वि....१७
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२५८
त्रिविक्रम-प्राकृत-व्याकरण
यदि को छुडु (आदेश)विहि विणडउ पीडन्तु गह मं धणि कर हि विसाउ। संपइ कडढउँ वेस जिम छुडु अग्घइ ववसाउ ।। ८९।। (हे.३८५.१)
(विधिविनटतु पीडयन्तु ग्रहाः मा धन्ये कुरु विषादम् ।
संपदं कर्षामि वेश्येव यदि अर्घति व्यवसायम् ||) देव विमुख होने दो। ग्रह पीडा दें। हे सुंदरी, विषाद मत कर । यदि व्यवसाय मिलेगा तो पत्तिको वेश्याके समान खींच लाऊँगा।
संबंधिन् को केर और तण (आदेश)गअउ सु केसरि पिअहु जलु निञ्चितइ हरिणाई। असु केरएँ हुंकारडएं मुहहु पडन्ति तिणाई ।। ९० ॥ (हे. ४२२.१५)
(गतः स केसरी पिबत जलं निश्चिन्ता हरिणाः।। यस्य संबंधिना हुंकारेण मुखात् पतन्ति तृणानि ॥)
हे हरिणो, वह सिंह चला गया जिसकी हुंकारसे मुखोंसे तृण गिर पडते हैं। (अब) निश्चितरूपसे जल पिओ। __ जइ भग्गा अम्हहं तणा [७] ॥
दृष्टिको देहि (आदेश)एक्कमेक्कउँ जइ वि पेक्खइ हरि सुठ्ठ सव्वायण । तो वि देहि जहिँ कहिँ वि राही। को सक्कइ संवरेवि दड्ढनअणा नेहें पलुट्टा ॥ ९१ ॥ (=हे. ४२२.५)
(एकमेकं यद्यपि प्रेक्षते हरिः सुष्ठु सर्वादरेण । तथापि दृष्टिर्यत्र कुत्रापि राधा। कः शक्नोति संवरीतुं दग्धनयने स्नेहेन पर्यस्ते ॥)
यद्यपि अच्छी तरहसे सर्वादरपूर्वक हरि एकेक (गोपी) को देखता है, तथापि उसकी दृष्टि वहाँ है जहाँ कहाँ राधा है। स्नेहसे भरे हुए नयनोंको रोकनेके लिए कौन समर्थ है ?
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२५१
हिन्दी अनुवाद-अ. ३, पा. ३ हुहुरुधिग्घिगाः शब्दचेष्टानुकृत्योः ।। ५७ ।।
अपभ्रंशमें हुहुरु, इत्यादि शब्द शब्दानुकरण में, और घिग्घिग, इत्यादि शब्द चेष्टानुकर में यथाक्रम प्रयुक्त करें ।। ५७ ।। मइँ जाणिउँ बुड्डीसँ हउँ पेम्पद्र हि हुहरु त्ति । 'णवरि अचिंतिअ संपडिअ विप्पिअनाव इत्ति । ८२ ॥ (= हे. ४२३.१)
(मया ज्ञातं मंश्यामि अहं प्रेमहदे हुहरुत्ति।
केवलमचिन्तिता संपतिता विप्रिय नौई टिति ।) मैंने समझा कि हहुरु शब्द करके मैं प्रेमरूपी सरोवर में डूब जाउँगी। पर बिना सोचेही (अकस्मात् ) वियोगरूपी नौका (मुझे) मिल गई।
आदि शब्दके ग्रहणसे (ऐसेही अन्य शब्दानुकारी शब्द जानें । उदा..) खज्जइ न कसरहिं पिज्जइ नउ छुटेहिं । 'एमइ होइ सुहछडी पिएं दिट्टे नअणे. हिं ।। ९३ ॥ (=हे. ४२३.२)
(खाद्यते न कसर स्कैः पीयते न हण्टैः । एकमेव भवति सुखासिका प्रिये दृष्टे नयनाभ्याम् ।।)
आँखोंसे प्रियकर देखे जानेपर, (वह) कसर कसर करके नहीं खाया जाता है, न छूटोंसे पिया जाता है, तत्र वि सुरु स्थिति रहती है।
इत्यादि शब्दानुकरण (के उदाहरण)। अज्जु वि नाहु महु ज्जि घरि सिद्धत्था वंटेइ । ताउँ जि विरहु गवखेहि मक्कडघि ग्घिउ देइ ।।९।। (=हे. ४२३.३)
(अद्यापि नाथो ममैव गृहे सिद्धार्थान् बन्द ते । तावदेव विरहो गवाक्षेप्यो मर्यटविभीषिका ददाति ॥)
मेरा नाथ जिन प्रतिमाओंको वंदन करता अभी घरमेंही है, (प्रवासपर नहीं गया है), तबतकही विरह झरोखेसे मर्कट-विभीषिका दे रहा है।
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२६०
त्रिविक्रम-प्राकृत-व्याकरण
-आदि शब्दके ग्रहणसे (ऐसे अन्य चेष्टानुकारी शब्द जानें । उदा.-) सिरि जर खंडी लोअडी गलि मणिअडा न वीस । तो वि गोट्ठडा कराविआ मुद्धऍ उट्ठबईस ।। ९५॥ (=हे. ४२३.४)
(शिरसि जरा खण्डिता लोमपुटी गले मणयो न विंशतिः । तथापि गोष्ठस्थाः कारिता मुग्धया उत्तिष्ठोपविश ॥)
(यद्यपि) सिरपर फटी पुरानी कमलीकी टुकडी और गलेमें बीस मनियाँ भी नहीं थीं, तथापि सुंदरीने सभागृहके सभासदोंको उठकबैटक करा दिया।
ऐसे चेष्टानुकरण (के उदाहरण)। अनर्थका घइमादयः ॥ ५८॥
____ अपभ्रंशमें घई, इत्यादि निपात निरर्थक (विशेष अर्थ अभिप्रेत नः होनेपरभी) प्रयुक्त किए जाते हैं ॥ ५८ ।।
पेम्मडि पच्छायावडा पिउ कल हि अउ विआलि। घई विवरीरी बुद्धडी होइ विणासह) कालि ।।९६॥ (=हे. ४२४.१) (प्रेम्णि पश्चात्तापः प्रियः कलहायितः विकाले । खलु विपरीता बुद्धिर्भवति विनाशस्य काले )
प्रेममें पश्चात्ताप (और) सायंकालमें प्रियकरसे झगडा (हुआ)। सचमुच विनाशकालमें बुद्धि विपरीत होती है।
(सूत्रमें) आदि शब्दके ग्रहणसे, खाई, इत्यादि (निपात निरर्थक. प्रयुक्त किए जाते हैं)।
- तृतीय अध्याय तृतीय पाद समाप्त -
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चतुर्थः पादः दिही सुपि ॥ १ ॥
(इस सूत्रमें) अपभ्रंशे पदकी अनुवृत्ति है। अपभ्रंशमें, सुप् (=विभक्तिप्रत्यय) आगे रहनेपर, संज्ञाके अन्त्य स्वरके दिही यानी दीर्घ और हस्व प्रायः होते हैं। उदा.. रामु रामू, रामः ।। १॥
सु (प्रत्यय आगे होनेपर)ढोल्ला सावला धण चंपअवण्णी । णाइ सुवण्णरेह कसबद्दइ दिण्णी ॥९७॥ ( हेम. ३३०.१) (विटः श्यामलो धन्या चम्पकवर्णा । इव सुवर्णरेखा कषपट्टे दत्ता।)
प्रियकर श्यामलवर्ण है (और) प्रिया चंपकवर्णकी है। (वह ऐसे लगती है कि) मानो कसौटीपर सुवर्णकी रेखा खिंची हो।
संबोधन (प्रत्यय आगे होनेपर)ढोल्ला मई तुहुँ वारिआ मा कर दीहा माणु । निद्दऍ गमिही रत्तडी दडवड होइ विहाणु ॥९८।।(=हे.३३०.२) (विट मया त्वं वारितो मा कुरु दीर्घ मानम् । निद्रया गमिष्यति रात्रिः शीघ्रं भवति प्रभातम् ।।)
हे प्रियकर, मैंने तुझे बरजा कि दीर्ध (काल) मान मत कर । कारण) नींद में रात बीत जायेगी और झटपट प्रभात हो जायेगा।
स्त्रीलिंगमेंबिटिए मइँ भणिय तुहुँ मा करु वंकी दिट्ठी। पुत्ति सकण्णी मल्लि जिम मारइ हिअइ बइहि ।।९९।। (=हे.३३०.३)
पुत्रि मया भणिता त्वं मा कुरु वक्रां दृष्टिम् । पुत्रि सकणी भल्लियथा मारयति हृदये प्रविष्टा ।।)
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ર૬ર
त्रिविक्रम-प्राकृत-व्याकरण हे बिटिया, मैंने तुझसे कहा था कि बाँकी दृष्टि मत कर । (कारण) हे बिटिया, (यह बाँकी दृष्टि) नोकदार भालेके समान (दूसरोंके) हृदयमें बैठकर (पैठकर) मारती है।
जस् (प्रत्यय आगे रहनेपर)एई ति घोडा एह थलि एइ ति निसिआ ख् ग्ग । एत्थु मुणीसिम जाणिअइ जे णवि वालइ बग्ग ॥१००॥ (=हे.३३०.४)
(एते ते घोटका एषा स्थली एते ते निशिताः खड्गाः । अत्र मनुष्यत्वं ज्ञायते ये नापि वलयन्ति वल्गाः ।)
ये वे घोडे। यह (वह युद्ध-) भूमि । ये वे तीक्ष्ण खड्ग । यहींपर उनके पौरुषकी परीक्षा होती है जो घोडेकी बाग पीछे नहीं खींचता।
इसीप्रकार अन्य विभक्तियोंमें उदाहरण लेने हैं। स्वम्यत उत् ।। २॥
अपभ्रंशमें सु और अम प्रत्यय आगे होनेपर, (शब्दोंके अन्त्य) अ का उकार होता है। उदा.-र'मु ! घडु । पडु ॥ २॥
दहमुहु भुवणभअंकरु तोसिअसंकरु णिग्गउ रहवरि चडिअउ । चउमुहु छम्मुहु झाइ वि एकहिँ लाइवि णावइ दइवें घडिअउ ।।१०१॥ (=हे. ३३१.१) (दशमुखो भुवनभयंकर स्तोषितशंकरो निर्गतो रथोपरि आरूढः । चतुर्मुखं षण्मुग्वं ध्यात्वा एकत्र लगित्वा इव दैवेन घटितः ।।)
भुवनभयंकर रावण शंकरको संतुष्ट करके रथपर आरूढ होकर निकला। मानो देवोंने ब्रह्मदेव और कार्तिकेय इनका ध्यान करके तथा उन (दोनों)को एकत्र करके उसे (रावणको) बनाया था।
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हिन्दी अनुवाद - अ. ३, पा. ४
ओत्सौ पुंसि तु ॥ ३ ॥
अपभ्रंश में पुल्लिंग में होनेवाली संज्ञाके (अन्य ) अकारका, सु (प्रत्यय) आगे रहनेपर, ओ विकल्प से होता है । उदा - रामो | घडो । पडो ॥ ३ ॥ अगलिअनेह निवट्टाई जोअणलक्खु वि जाउ |
T
वरिससरण | जो मिलइ सहि सो सोक्खहँ ठाउ ॥१०२॥ (हे. ३३२.१)
( अगलित स्नेह निर्वृतानां योजनलक्षमपि यातु |
वर्षशतेनापि यो मिति सखि स सौख्यानां स्थानम् । । )
T
जिनका स्नेह नष्ट नहीं हुआ है ऐसे स्नेह से पूर्ण व्यक्तियों के बीच लाख योजनों का अंतर होने दो। हे सखी, स्नेह नष्ट न होनेपर) सैंकडों परभी जो मिलता है वह सौख्योंका स्थान है
1
पुंसि (पुल्लिंग में रहनेवाले), ऐसा क्यों कहा है ? ( कारण पुल्लिंगमें न होनेपर यहाँ कहा हुआ ओ नहीं होता) | उदा. - अंगहिँ अंगु न मिलिउँ हलि [ ५८ ] ।।
ए भिसि ।। ४ ।।
अपभ्रंश भिस् प्रत्यय आगे होनेपर, (शब्दों के अन्त्य) अकारका ए विकल्पसे होता है । उदा. रामेहिं । घडेहिं । (विकल्पपक्षमें ) - गुणहिँ व संपइ कित्ति पर [ ४५ ] ।। ४ ।।
टि ।। ५ ।।
अपभ्रंशमें टा-वचन आगे होनेपर, (शब्दों के अन्त्य) अ का ए होता है । (यह सूत्र ३.४.४ से) पृथक् कहा जानेसे, यहाँ विकल्प नहीं होता उदा. - रामेण । घडेण ॥ ५ ॥
जे
दिण्णा दिअहडा दइऍ पवसंतेण ।
ताण गणन्तिऍ अंगुलिउ जज्जरिआउ नहेण ॥ १०३ ॥ ( =हे. ३३३.१)
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त्रिविक्रम प्राकृत व्याकरण
(ये मम दत्ता दिवसा दयितेन प्रवसता। तान् गणयन्त्या अगुल्यो जर्जरिता नखेन ॥)
प्रवासपर निकलते समय प्रियकरने जो दिन (मुझे अवधिरूपमें) दिए (=कहे) थे, उन्हें गिनते हुए मेरी अंगुलियाँ नखोंसे जर्जरित हो
हिनेच्च ॥६॥
अपभ्रंशमें (शब्दोंके अन्त्य) अकारके डि (प्रत्यय)के साथ इकार और एकार होते हैं। उदा.-रामि रामे। घडि घडे ।। ६ ।। साअरु उप्परि तणु धरइ तलि घल्लइ रयणाई। सामि सुभिच्चु वि परिहरइ संमाणेइ खलाई ।।१०४॥ (=हे.३३४.१)
(सागर उपरि तृणं धरति तले क्षिपति रत्नानि । स्वामी सुभृत्यमपि परिहरति संमानयति खलान् ।।)
सागर तृणको ऊपर धारण करता है और रत्नोंको तलमें ढकेलता है। (उसीप्रकार) स्वामी अच्छे सेवकको छोड देता है और खलोंका सम्मान करता है।
उसे हु॥७॥
(अब अत् शब्दका) अतः ऐसा पंचम्यन्त परिणाम हो जाता है। अपभ्रंशमें (शब्दोंके अन्त्य) अकारके आगे अ नेवाले ङसिको हे और हु ऐसे आदेश होते हैं ।।७।। बच्छह गिण्हइ फलइँ जणु कडु पल्लव वज्जेइ । नो वि महदुमु सुअणु जिम ते उच्छांग करेइ ।।१०५॥ हे ३३६.१)
(वृक्षाद् गृह्णाति फलानि जनः कटून् पल्लवान् वर्जयति । तथापि महाद्रुमः सुजनो यथा तानुत्सङ्गे करोति ॥)
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हिन्दी अनुवाद - अ. ३, पा. ४
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लोग वृक्षसे फल लेते हैं और कटु पल्लवोंको छोडते हैं तथापि सुजनके समान महान् वृक्ष उन्हें अपने उत्संगपर (धारण ) करता है । वच्छ गेण्es, वृक्षाद् गृह्णाति ॥
यसो हुं ॥ ८ ॥
अपभ्रंशमें (शब्दों के अन्त्य) अकार के आगे आनेवाले भ्यस् को यानी पंचमी बहुवचन - प्रत्ययको हुं ऐसा आदेश होता है ॥ ८ ॥
रुड्डाणें पडिउ खलु अप्पणु जणु मारेइ ।
जिह गिरिसिंगहुँ पडिअ सिल अन्नु वि चूरुकरेइ ।। १०६ ।। (हे. १३७.१ ) (दूरोड्डाणेन पतितः खलः आत्मानं जनं (च) मारयति ।
यथा गिरिशृङ्गभ्यः पतिता शिला अन्यदपि चूर्णं करोति ।। )
ऊँचा उड्डाण करके (बाद में नीचे) गिरा हुआ खल मनुष्य अपनेको (और) औरों को भी मारता है । जैसे, गिरिशिखरोंसे गिरी हुई शिला (अपने साथसाथ) अन्यकोभी चूर चूर कर देती है ।
सुस्सुहो ङसः ।। ९ ।।
अपभ्रंशमें (शब्दों के अन्त्य) अ के आगे आनेवाले ङस् को सु, रसु और हो ऐसे तीन आदेश होते हैं | उदा. -रामसु । रामरसु | रामहो || ९ || जो गुणु गोवइ अध्पणा पअडा करइ परस्सु ।
तसु
हउँ कलिजुग दुल्लहहों बलि किज्जउ सुअणस्सु ॥ १०७॥ (= हे. ३३८.१)
( यो गुणानू गोपायत्यात्मनः प्रकटान् करोति परस्य । तस्याहं कलियुगे दुर्लभस्य बलिं करोमि सुजनस्य || )
जो अपने गुणोंको छिपाता है और दूसरोंके गुणोंको प्रकट करता है, ऐसे कलियुग में दुर्लभ सज्जनोंकी मैं पूजा करता हूँ ।
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हिन्दी अनुवाद-अ.३, पा. ४. आमो हं ।। १०॥ ... अपभ्रंशमें (शब्दों के अन्त्य) अकारके आगे आनेवाले आम् को है ऐसा आदेश होता है ।॥ १० ॥ तणहँ तइज्जी भंगि नवि तें अवडय डि वसन्ति । अह जणु लग्गिवि उत्तरइ अह सह सइँ मनन्ति ।।१०८।।(हे.३३९.१)
(तृणानां तृतीया भगिर्नापि तेनावटतटे वसन्ति ।
अथ जनो लागचा उत्तरति अथ मह स्वयं मजन्ति 11) तृणोंको तीसरी भंगा (दशा, मार्ग) नहीं होती। वे अवटके (आडके) तटपर उगते हैं। उसे पकडकर लोग (आडके पार) उतर जाते हैं या उसके साथ स्वयंही डूब जाते हैं। टो णानुस्वारौ ॥ ११ ॥
अपभ्रंशमें (शब्दों के अन्त्य) अकारके आगे आनेवाले टा-वचनके णः और अनुस्वार होते हैं। उदा.-दइए पवसन्तेण [१०३] ॥ ११ ॥ एं चेदुनः ।। १२ ।।
अपभ्रंश (शब्दों के अन्त्य) इकार और उकार इनके आगे आनेवाले. टा-वचनको एं ऐसा, और (सूत्रमेंसे) चकारके कारण ण और अनुस्वार
हो जाते हैं ।। १२ ।।
एं (का उदाहरण)अग्गिएं उपहउँ होइ जगु वाएं सीअलु ते । जो पुणु अग्गिए सीअला तसु उण्हत्तणु केव॑ ।।१०९।। (=हे.३ ४३.१)
(अग्निना उष्ण भवति जगत् वातेन शीतलं तथा। यः पुनरग्निना शीतलस्तस्य उष्णत्वं क्थम् ॥) .
अग्निसे जगत् उष्ण होता है। वायुसे शीतल होता है। परंतु जो अग्निसेभी शीतल होता है उसे उष्णत्व कैसे ?
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हिन्दी अनुवाद-अ. ३, पा. ४
२६० ण और अनुस्वार (के उदाहरण)विपिअआरउ जइ वि पिउ तों वि तं आणहि अज्जु । अग्गिण दड्ढा जइ वि घरु तो तें अग्गि कज्जु ।। ११०।। (=हे.३४३.२.)
(विप्रियकारको यद्यपि प्रियः तथापि तं आनयाद्य । अग्निना दग्धं यद्यपि गृहं तथापि तेनाग्निना कार्यम् ।।)
यद्यपि प्रियकर अप्रिय करनेवाला है तथापि उसे आज ले आ। अग्निसे यद्यपि गृह जल जाता है तथापि इससे (अपना) काम पता ही है।
इसीप्रकार उकार के आगे 01 और नुवार ६६वे उदाहरण हैं।
हि हे ङिङस्योः ॥ १३ ॥
___ अपभ्रंशमें (शब्दोंके अन्य) इ और उ के आगे (आनेवाले) डि. और ङसि इनको हि और हे ऐसे आदेश क्रम से होते हैं ॥ १३ ।।
डिको हि (आदेश)अह विरलपहाउ जि कलिहि धम्मु ॥१११॥ (=हे.३४१.३) (अय विरलप्रभाव एवं कलौ धर्मः।) अब कलियुगमें धर्म कप प्रभावी है।
ङसिको हे (आदेश)गिरिह सिलायलु तरुहें फल धेप्पइ नीसावन्नु । घरु मेल्लेषिणु माणुसहं तो वि न रुच्चइ रन्नु ॥११२॥ (-हे.३४१.१)
(गिरेः शिलातलं तरोः फलं गृह्यते निःसामान्यम् । गृहं मुक्त्वा मनुष्याणां तथापि न रोचतेऽरण्यम् ।।)
किसी भेदभावके बिना (अरण्यमें) पर्वतसे शिला और वृक्षसे फल ग्रहण किए जाते हैं। तथापि घरको छोडकर अरण्य(-वास) मनुष्योंको अछा नहीं लगता।
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त्रिविक्रम-प्राकृत-व्याकरण
हुँ भ्यसः ॥ १४ ॥
(शब्दोंके अन्त्यइ) और उ इनके आगे (आनेवाले) भ्यस् को हुँ ऐसा आदेश हो है॥ १४ ॥ तरुहुँ वि वक्कलु फलु मुगि वि परिहणु असणु लहन्ति । -सामि हुँ एत्तिउँ अग्गलउँ आअरु भिन्च गृहन्ति ॥११३।। =हे.३४१.२)
(तरुभ्योऽपि वल्कलं फलं मुनयोऽपि परिधानमशनं लभन्ते। स्वामिभ्य एतावद धिक आदरं भृत्या गृह्णन्ति ।।)
मुनिभी तरुओंसेभी वल्कल और फल इनको परिधान और भोजन इनके रूपसे प्राप्त कर लेते हैं। (परंतु वस्त्र और भोजनके साथ साथ) आदरको सेवक स्वामियोंसे अधिक (जादा) प्राप्त कर लेते हैं। आमो हं च ।। १५ ।।
अपभ्रंशमें (शब्दोंके अन्त्य) इ और उ इनके आगे (आनेवाले) आम् को हं, और (सूत्रमेंसे) चकारके कारण हुं, ऐसे आदेश हो जाते हैं ॥ १५ ॥ दइवु घडावइ वणि तरुहुँ सउणिहँ पक्कफलाई। सो बरि सुक्खु पइट्ठ णवि कण्णहिँ खलबअणाई ॥१४॥ (=हे.३४०.१)
(दैवं घटयति वने तरूणां शकुनीनां पक्कफलानि । तद्वरं सुखं प्रविष्टानि नापि कर्णयोः खलवचनानि ॥)
पक्षियोंके लिए वनमें वृक्षोंके फलोंको दैव निर्माण करता है। (उनके उपभोगका) वह सुख अच्छा है; पर कानोमें खलोंके वचन प्रविष्टा होना (अच्छा) नहीं।
प्रायोग्रहणसे कचित् सुप को (भी) हुं ऐसा आदेश हो जाता है। उदा.)
धवलु विसूरइ सामिअाँ गरुआ भरु पिक्खेवि । हउँ कि न जुत्तउ दुहुँ दिसिहँ खडइँ दोणि करेवि ॥११५॥
(=हे.३४०.२)
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हिन्दी अनुवाद-अ. ३, पा. ४
२६९.
कंत।
(धवलो विषीदति स्वामिनो गुरुं भारं प्रेक्ष्य । अहं किं न युक्तो द्वयोर्दिशोः खण्डे द्वे कृत्वा ।।)
स्वामीका बडा (गुरु) भार देखकर धवल (बैल) खेद करता है (और अपनेसे कहता है-) मेरे दो खंड करके क्यों न मुझे जुएँके दोनों ओर जोत दिया गया ? उसो लुक् ।। १६ ॥
अपभ्रंशमें ङस् का यानी षष्ठी विभक्तिका प्रायः लोप होता है। उदा.-राम, रामा, रामस्य रामाणां वा ॥ १६ ॥
संगरसहि वि जो वण्णिअइ देक्खु अम्हारा कंतु। अइमत्तहं चत्तंकुसहं गअ कुंभइँ दारन्तु ।।११६॥ हे.३४५.१) (संगरशतेष्वपि यो वर्ण्यते पश्यास्माकं कान्तम् । अतिमत्तानां त्यक्ताकुशानां गजानां कुम्भान् दारयन्तम् ।।)
सैंकडों युद्धोंमें, अत्यंत मत्त तथा अंकुशकी भी परवाह न करनेवाले गजोंके कुंभस्थलोंका विदारण करनेवाला ऐसा जिसका वर्णन किया जाता है उस मेरे प्रियकरको देख। सुससोः ॥ १७ ॥
__सुस् यानी प्रथमा (विभक्ति), अस् (यानी) द्वितीया (विभक्ति), इनका अपभ्रशमें नित्य लोप होता है। उदा. राम रामा, रामः रामाः, राम रामान् इति वा । एइ ति घोडा [१००], यहाँ, सु, अम् और जस् इनका लोप हुआ है। जिम 'जम बंकिम लोअणहं [१३], यहाँ सु, अम् और शस्. इनका लोप हुआ है ॥ १७ ॥ हो जसामन्त्र्ये ॥ १८ ॥
___ अपभ्रंशमें आमंत्रण (संबोधन)के अर्थमें रहनेवाली संज्ञाके भागे (आनेवाला) जस् (प्रत्यय) हो ऐसा हो जाता है। (सुस् का) लोप होता है
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त्रिविक्रम-प्राकृत-व्याकरण इस नियमका (देखिए ३.४.१७) प्रस्तुत नियम अपवाद है। उदा.हे रामहो, हे रामाहो, हे रामाः ॥ १८ ॥ तरुणहो तरुणिहो मुणिउँ म कर हु न अप्पहाँ घाउ ॥११७ ॥
(=हे. ३४६.१) (हे तरुणा: हे तरुण्यः ज्ञातं मया मा कुरुतात्मनो घातम ।) - ह तरुणो और हे तरुणियो, मैंने जाना, अपना घात मत करो। हिं भिस्सुपोः ।। ९ ।। - अपभ्रंशमें भिस् और सुषु इन (प्रत्ययों)को हिं ऐसा आदेश होता है। उदा.-(भिस् को हिं आदेश)-गुणहि न संपइ [४५] इत्यादि।।१९।।
सुप् (को हिं आदेश)-- भाईरह जिम भारइ मग तिहिँ वि पअदृइ ।।११८।। (हे.३४७.१) (भागीरथी यथा भारते मार्गेषु त्रिष्वपि प्रवर्तते।) . जिस प्रकार गंगा भारतमें तीन मार्गोंसे जाती है। . स्त्रियां डेहि ॥२०॥ ___ अपभ्रशमें स्त्रीलिंगमें रहनेवाली संज्ञाके आगे (आनेवाले) ङि-वचनका हि होता है ॥ २० ॥ वायसु उड्डावंतिअऍ पिउ दिट्ठउ सहस त्ति । अद्धा वलया महि हि गअ अद्धा फुट तडत्ति ।। ११९ ।। (=हे. ३५२.१)
(वायसमुडापयन्त्याः प्रियो दृष्टः सहसेति। अर्धानि वलयानि मह्यां गतानि अर्धानि स्फुटितानि तडिति ॥)
कौएको उडाती हुई (विरहिणी) स्त्रीने सहसा (अचानक' प्रियकरको देखा। (उसकी) आधी चूड़ियाँ जमीनपर गिर गई और (अवशिष्ट) आधी (चूडियाँ) तडतड करके टूट गई ।
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हिन्दी अनुवाद - अ. ३, पा. ४
ङसङस्योर्हे ॥ २१ ॥
(इस सूत्र में ३.४.२० से ) स्त्रियाम् पदकी अनुवृत्ति है। अपभ्रंश में स्त्रीलिंग में रहनेवाली संज्ञाके आगे आनेवाले डस और ङसि यानी षष्टी एकवचन और पंचमी एकवचन इनको हे ऐसा आदेश प्राप्त होता है ॥२१॥ ङस् (को हे आदेश )
तुच्छमज्झ तुच्छरोमावलिहें तुच्छराय तुच्छ रहा सह । पिअत्रयणु अलहन्ति तुच्छकाय वम्महनिवास है । अन्जु तुच्छउँ त घण तं अक्खणह न जाइ ।
करिथतरुमुद्धहें जं मणु विचित्र न माइ || १२० || ( = हे. ३५०. १) (तुच्छमध्यायाः तुच्छर' मावल्यास्तुच्छ रागायास्तुच्छतरहासायाः । प्रियवचनमलभमानायास्तुच्छ कायायास्तु च्छमन्मथ निवासायाः । अन्यद्यत्तुच्छं तस्या धन्यायास्तदाख्यातुं न याति । कूटं स्तनान्तरं मुग्धाया यन्मनो वर्त्मनि न माति || )
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(सुंदरीका) मध्यभाग कटिभाग तुम्छ' है, रोमावली सुंदर है, प्रेम तुच्छ है, हास्य तुच्छ है । प्रियकर की कोइ वार्ता न पानेसे उसका शरीर तुच्छ हुआ है | वह ( मानो ) मदनका निवास है । उस सुंदरीका अन्यभी जो कुछ तुच्छ है वह कहा नहीं जा सकता । आश्चर्य (गूढ ) हैं कि उस -मुग्धा के स्तनोंके बीच का भाग इतना तुच्छ हैं कि उस मार्गपर मनभी नहीं समाता ।
ङनि (को हे आदेश ) ---
ICT जाया विसम ण [ ४८] ||
२०१
A
१ पतला, नाजुक, सूक्ष्म, कृश, इत्यादि अर्थों में यहाँ तुच्छ शब्दका प्रयोग किया गया है ।
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२०२
त्रिविक्रम-प्राकृत-व्याकरण
हुमाम्भ्यसोः ।। २२॥
__अपभ्रंशमें स्त्रीलिंगमें रहनेवाली संज्ञाके आगे आनेवाले आम् और भ्यस् इनको हुं ऐसा आदेश होता है। उदा.-वअंसाहुं जइ भटु, वयस्यानां यदि भर्ता, वयस्याभ्यः वा ।। २२ ।। भल्ला हुआ जु मारिआ बहिणि महारा कंतु । लज्जित वअंसिअहुँ जइ भग्गा घरु एन्तु ।। १२१ ।। =हे.३५१.१)
(सम्यग्भूतं यन्मारितो भगिनि मदीयः कान्तः ।
अलज्जिष्यं वयस्याम्यो यदि भग्नो गृहमैष्यत् ॥) हे बहिन, भला हुआ जो मेरा प्रियकर (युद्धमें) मारा गया। (कारण) यदि पराभूत होकर वह घर वापस आता तो (मेरे) वयस्याओंसे मैं लजाई जाती (अथवा-सखियोंके बीच वह शरमा जाता)। उदोतो जश्शसः ।। २३ ।।
अपभ्रंशमें स्त्रीलिंगमें रहनेवाली संज्ञाके आगे आनेवाले जस् और शस् इनको प्रत्येकको उत् और ओत् ऐसे विकार होते हैं। (जस् और शस् का) लोप होता है (देखिए ३.४.१७) इस नियमका प्रस्तुत नियम अपवाद है ॥ २३ ॥
जस (के बारेमें)अंगुलिउ जजरिआओं नहेण [१०१] ॥
शस् (के बारेमें)-- सुंदरसबंगाउ विलासिणीऔं पेच्छन्ताण ।। १२२ ॥ (=हे. ३४८.१)
(सुन्दरसाङ्गयो विलासिनी: प्रेक्षमाणानाम् ।) सर्वांगसुंदर विलासिनियोंको देखनेवालोंका।
उदोतो ऐसा द्विवचन और जश्शसः ऐसा षष्ठी एकवचन ऐसा वचनभेद होने के कारण (यहाँके विकार) क्रमशः नहीं होते (किंतु जस् और शस् इन दोनों में होते हैं।
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हिन्दी अनुवाद-अ. ३, पा. ४
२७३
इं नपि ।। २४ ॥
(इस सूत्रमें ३.४.२३ से) जश्शसः पद (अध्याहृत) है। अपभ्रंशमें नपि यानी नपुंसकलिंगमें रहनेवाली संज्ञाके आगे आनेवाले जस् और शस् इनको इं ऐसा आदेश होता है ॥ २४ ॥
कमलई मेल्लवि अलिउलई करिगंडाइँ महन्ति । असुलहमेच्छण जाहँ भलि ते णवि दूर गणन्ति ॥ १२३॥ =हे.३५३.१) (कमलानि मुक्त्वा अलिकुलानि करिगण्डानि कांक्षन्ति । असुलभं वाञ्छितुं येषां अभ्यासः ते नापि दूरं गणयन्ति ।)
कमलोंको छोडकर भ्रमरसमूह हाथियोंके गंडस्थलकी इच्छा करते हैं। दुर्लभ (वस्तु) प्राप्त करनेका जिसका निबंध-अभ्यास है, वे दूरीका विचार नहीं करते।
कान्तस्यात उं स्वमोः ॥ २५ ॥
(इस सूत्रमें ३.४.२४ से) नपि पद (अध्याहृत) है । अपर्मशमें नपुंस. कलिंगमें रहनेवाली संज्ञाके आगे जो ककार, उसके अन्त्य अकारके आगे सु
और जस् होनेपर, उसको उं ऐसा आदेश होता है। उदा. अन्नु जु तुच्छउँ तहें [१२०] || २५ ।।
भग्गउं देविखवि निअय बलु बलु पसरिअउँ परस्सु। उम्मिलइ ससिरेह जिम करि करवालु पिअस्सु ॥ १२४ ।।
(=हे. ३५४.१) (भग्नं दृष्ट्वा निजं बलं बलं प्रसृतं परस्य । उन्मीलति शशिरेखा यथा करे करवाल: प्रियस्य ।।)
अपनी सेनाको पराभूत हुई और शत्रुकी सेनाको फैलती हुई देखकर प्रियकरके हाथमें तरवार चंद्ररेखा की तरह चमचमाने लगती है ।
त्रि.वि....१८
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त्रिविक्रम-प्राकृत-ध्याकरण
सर्वगात् डि हिं॥ २६॥
अपभ्रंशमें सर्वग यानी सर्व, इत्यादि अकारान्त (शब्दों)के भागे डिभवन हिं ऐसा हो जाता है ॥ २६ ॥ ना खंडिज्जइ सरिण सरू विज्झइ खग्गिण खरगु । बहिँ तहविहि भडघडनिवहि कंतु पयासइ मग्गु ॥ १२५ ॥ (-हे. ३५७.१)
(यस्मिन् खण्ज्यते शरेण शरो विध्यते खड्गेन खड्गः। तस्मिंस्तथाविधे भटपटानिवहे कान्तः प्रकाशयति मार्गम् ॥)
जहाँ बाणसे बाण काटा जाता है, जहाँ खड्गसे खड्गका वेष किया जाता है, वहाँ उसप्रकारके भटोंके समुदायमें (मेरा) प्रियकर (योडोंके लिए)
ओको प्रकाशित करता है । बसिह ॥ २७॥
अकारान्त सर्व, इत्यादिके आगे उसि यानी पंचमी एकवचन हं ऐसा . हो जाता है । उदा.-जहं होतउ भागओ, तहं होतउ आगओ, यस्माद् मवानामतः, तस्माद् भवानागतः ॥ २७ ॥ तु किमो डिह ॥२८॥
अपभ्रंशमें अकारान्त किम् शब्दके आगे ङसि- (पंचमी एक-) वचन डित् इह ऐसा विकल्पसे हो जाता है। उदा. किह भागओ। विकल्पपक्षमें-कहं बागओ, कस्मादागतः ॥२८॥
जइ तुह तुट्टउ नेहडा मइँ सहुँ नवि तिलतार । तं किह हिँ लोअहिँ जोइजउँ समवार ॥१२६॥ (=हे. ३५६.१) (यदि तव त्रुटितः स्नेहो मया सह नापि तिलमात्रः। तत्कस्माद् वक्राभ्यां लोचनाम्यां विलोक्ये शतवारम् ।।)
यदि तेरा मेरे साथ स्नेह टूट गया हो, तिलमात्रभी नहीं है, तो सैंकडों बार वक्र दृष्टिद्वारा में क्यों देखी । देखा जाता | जाती हूँ।
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हिन्दी अनुवाद-अ. ३, पा. ४
२७५
डमः सुश् यत्तत्किभ्यः ।। २९ ।।
अपभ्रंश में अकारान्त यत् , तत् , किम् इनके आगे ङस् के स्थान पर सुश् ऐसा आदेश विकल्पसे हो । है । (सुशमें) श् इत् होनेसे पूर्व (पिछला) स्वर दीर्व होना है ॥ २९ ॥
कतु महारउ हलि सहिए निच्छइँ रू सइ जासु । अस्थिहिँ सस्थिहिँ वि ठाउ वि फेडइ तासु ॥१२७॥ (-हे.३५८.१) (कान्तोऽस्माक हे सखि निश्चयेन रुष्यति यस्य । अस्त्रैः शस्त्रैर्हस्तैरपि स्थान मपि स्कोटयति तस्य |)
हे सखी, (मेरा) प्रियकर जिसस निश्चयरूपमें रुष्ट हो जाता है, उसका स्थान वह अस्त्र, शस्त्र (या) हाथोंके द्वारा फोडता है । जीविउँ कासु न वल्लहउँ धणु पुणु कासु न इट्छ । दो पण वि अवसरनिवडई तिणसम गणइ विसिठ्ठ ।।१२८॥ (=हे.३५८.२)
(जीवितं कस्य न वल्लभं धनं पुनः कस्य नेष्टम् । द्वे अप्यवसरनिपतिते तृणसमे गणयति विशिष्टः ॥)
जीवित किसे प्रिय नहीं है ? और धनकी इच्छा किसे नहीं है ? तथापि (विशिष्ट) समय आनेपर विशिष्ट (श्रेष्ठ) व्यक्ति (इन) दोनोको तृणके समान समझता है।
विकरूपपक्षमें-तसु हउँ कलिजुगि [१०७] । इत्यादि । खियां डहे ।। ३०॥
_अपभ्रंशमें स्त्रीलिंगमें रहनेवाले यद्, तद, किम् के आगे डस् को डित् अहे ऐसा आदेश विकल्पसे होता है । उदा. ज हे केरउ,यस्याः संबंधि ॥३०॥ यत्तद 5@ म्वमोः ॥ ३१ ॥
अपभ्रंशमें, सु और अम् (प्रत्यय) आगे होनेपर, यद् और तद् इन (दनों) को एथाक्रम धुं और जे एसे आदेश पर होते हैं ।। ३१ ।।
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त्रिविक्रम-प्राकृत व्याकरण
प्रंगणि चिट्ठदि नाहु धुं त्रु रणि करदि न मंति ॥१२९॥=हे.३६०.१) (प्रांगणे तिष्ठति नाथो यत्तद् रणे करोति न भान्तिः ।)
क्योंकि (मेरा) नाथ आँगनमें खडा है, अतः वह रणक्षेत्रपर भ्रमण नहीं करता है।
विकल्पपक्षमें-तं बोल्लिअइ जु निःबहइ । (हे. ३६०) . (तत् जल्प्यते यन्निवहति ।).
वही कह जाता है जो निभता है । इदम इमु नपुंसके ॥ ३२॥
अपभ्रंशमें नपुंसकलिंगमें रहनेवाले इदम् शब्दको, सु और अम् (प्रत्यय) थागे होनेपर, इमु ऐसा आदेश होता है । इमु कुलु तुह तणउं । इमु कुल देवख । इदं कुलं तव संबंधि । इदं कुलं पश्य ॥ ३२ ॥ एतदेहएहोएहु स्त्रीनृनपि ॥ ३३ ॥
___ अपभ्रंश में स्त्रीनृनपि यानी स्त्रीलिंग, पुल्लिंग और नपुंसकलिंग, इनमें रहनेवाला एतद् शब्द, सु और अम् (प्रत्यय) आगे होनेपर, यथाक्रम एह, एहो, एहु ऐसा हो जाता है ॥ ३३ ॥
एह कुमारी एहो वरु एहु मणोरे हठाणु। इअ वढहं चिंतताहं पच्छइ होइ विहाणु ॥ १३० ॥ (व्हे. ३६२.१) (एषा कुमारी एष वरः एतन्मनोरथस्थानम्। इति मूढानां चिन्तयतां पश्चाद् भवति विभातम् ॥)
यह कुमारी, यह (मैं) वर (पुरुष), यह मनोरथोंका स्थान; यही सोचते सोचते मूखोंके (बारेमें) सबेरा हो जाता है । जश्शसोरेइ ॥ ३४ ॥
____ अपभ्रंशमें एतद् के आगे जस् और शस् होनेपर, उसका एइ ऐसा हो जाता है। उदा.-एइ ति घोडा [...] । एइ पेच्छ, एतान पश्य ॥३४॥
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२७७
हिन्दी अनुवाद-अ. ३, पा. ४ ओइ अदसः ॥ ३५॥
अपमंशमें अदस् शब्दको, जम् और शस् आगे रहनेपर, ओइ ऐसा आदेश होता है। उदा. ओइ, अमी अमून् वा ॥ ३५ ॥
जइ पुच्छह घर वड्डाहं तो वड्डा घर ओइ ।। विहलिअजणअब्भुद्धरणु कंतु कुडीरइ जोइ ।। १३१ ॥ (=हे.३६४.१) (यदि पृच्छत गृहान् बृहतां तद् बृहन्तो गृहा अमी। विह्नलितजनाभ्युद्धरणं कान्तं कुटीरके पश्य ।)
पदि तुम बडोंके घरके बारे में पूच्छते हो तो बड़े घर वे हैं। (परंतु) दुःखित लोगोंका उद्धार करनेवाला (मेरा) प्रियकर कुटीमें (है उसे) देख।
इदम आअः ॥ ३६॥
___ अपभशमें इदम् को, विभक्ति प्रत्यय आगे होनेपर, आअ ऐसा आदेश होता है। उदा.-आउ पुरिसु, अयं पुरुषः ॥ ३६ ॥ आअ. लोअहाँ लोअणइँ जाई सरइँ न भंति । अप्पिएँ दिइ मउलिअहिँ पिएँ दिट्ठइ विअसन्ति ॥ १३२ ॥ (=हे. ३६५.१)
(इमानि लोकस्य लोचनानि जाति स्मरन्ति न भ्रान्तिः।
अप्रिये दृष्टे मुकुल यन्ति प्रिये दृष्टे विकसन्ति ।) ___ लोगोंकी इन आँखोंको (पूर्व) जनमका स्मरण होता है, (इसमें) शक. नहीं। (क्योंकि) अप्रिय (वस्तु) को देखकर वे संकुचित होती हैं और प्रिय (वस्तु) को देखकर वे विकसित होती हैं। सोसउ म सोसउ च्चिअ उअही वडवाणलस्स किं तेण । जं जलइ जले जलणो आएण वि किं न पज्जत्तं ॥१३३॥ (-हे. ३६५.२)
(शुष्यतु मा शुष्यतु एव उदधिर्वडवानलस्य किं तेन । यज्ज्वलति जले ज्वलन अनेनापि किं न पर्याप्तम् ॥)
सागर सखे या न सूखे, इससे वडवानलको क्या? अमे जलम जलती रहती है यही (उसका पराक्रम दिखाने के लिए) पर्याप्त नहा क्या ?
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त्रिविक्रम-प्राकृत-व्याकरण
आअहाँ दड्ढकलेवरहाँ जं वाहिउ त सारु । जइ उट्ठभइ तो कुहइ अह डज्झइ तो छारु ॥१३४॥(=हे. ३६५.३) (अस्य दग्धकलेवरस्य यद् वाहितं तत् सारम् । यद्युत्तभ्यते तत्कुथति अथ दह्यते तत्क्षारः॥)
इस तुच्छ (दग्ध) शरीरसे जो मिल जाय ही अच्छा है। यदि इसे ढका जाय तो दुर्गंध आने लगे। यदि जटाय जाय तो राख हो जाय।
सौ युष्मदस्तुहुं ॥ ३७॥ . अपभ्रंशमें युष्मद् को तु (प्रत्यय) आगे होनेपर तुहु ऐ आदेश होता है। उदा.-तुटुं त्वम् ॥ ३७ ॥
भमर म रुणझुणि रडइ सा दिसि जोइ म रोइ । सा मालइ देसंतरिअ जसु तुहुँ मरहि विओइ ॥१३५॥(=हे. ३६८.१) (भ्रमर मा रुवीहि अरण्ये तां दिशं पश्य मा संदीः । सा मालती देशान्तरिता यस्यास्त्वं नियसे वियोगे ॥)
हे भ्रर, अरण्यमें रुनझन वन मत कर । रस दिशाको देख, मत रो। वह मालती दूसरे देशमें है जिसके वियोगसे तू मर रहा है। तुम्हे तुम्हइं जशसोः ॥३८॥
अपभ्रंशमें युष्मद्को , जस और शस् आगे रहनेपर, तुम्हे, तुम्हइं ऐसे आदेश होते हैं । वचन की भिन्नता होनेसे, (ये आदेश) यथाक्रम नहीं होते । उदा. तुम्हे तुम्हई जाणह, यूयं युष्मान् ज नीथ। तुहि तुम्हई पेच्छह, यूर्य युष्मान् पश्यत ॥ ३८ ॥ भिसा तुम्हेहिं ।। ३९ ॥
अपभ्रंशमें युष्मद्को भिस् के साथ तुम्हेहिं ऐसा आदेश हो जाता है ॥ ३९ ॥ उदा.
तुम्हेहिँ अम्हीह जं किउँ दिट्ठउँ बहुअजणेण । तं तेवड्ढ उ समरभरु णिज्जिउ एकखणेण । १३६॥ (=हे. ३७१.१)
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हिन्दी अनुवाद-अ. ३, पा.४
(युष्माभिरस्माभिर्यत्कृतं दृष्टं तद् बहुजनेन । तत्तावान् समरभरो निर्जित एकक्षणेन ।)
तुमने हमने जो किया उसे बहुत लोगोंने देखा | उस समय उतना बडा समर (हमसे) एक क्षणमें जीता गया। क्यम्टा पई तई॥ ४० ॥ ____ अपभ्रंशमें डि, अम् और टा इनके साथ युष्मदुको पई, तई ऐसे आदेश हो जाते हैं। उदा.-पई तई, त्वां त्वया त्वयि वा ।। ४.॥
डिप्रत्ययके साथमई पर बेहि वि रणगयहिं को जयसिरि तकेइ । केसहिँ लेप्पिणु जमघारिणि भण सुहुँ को थकेइ ॥१३७॥ (-हे.३७०.३) (मयि त्वपि द्वयोरपि रणगतयोः को जयश्रियं तर्कयति । केशेषु लात्वा यमगृहिणी भण सुख कस्तिष्ठति ।।)
तू और मैं दोनोंके रणक्षेत्रमें चले जानेपर (दूसरा) कौन विजयश्रीकी इच्छा करेगा ? यमकी पत्नीके केश पकडनेपर कौन सुखसे रहता है, बता ।
अम् प्रत्ययके साथपइँ मेल्लन्ति, महु मरणु मई मेल्लन्तहों तुज्छु । सारस जसु जो वेग्गला सो वि किदन्तहाँ सज्झु ॥१३८॥(=हे. ३७०.४) .
(वां मुश्चन्त्या मम मरणं मां मुश्चतस्तव । सारस यस्य यो दरं सोऽपि कृतान्तस्य साध्यः ॥
(सारस पक्षीकी तरह) यदि मने तुझे छोडा तो मैं मर जाऊँगी । त् मुझे छोडेगा तो तू मर जायेगा। (क्योंकि सारस पक्षीके बारेमें) जो सारस जिससे दूर रहेगा वह कृतान्तका भक्ष्य हो जाता है ।
इसी प्रकार तई।
टा-प्रत्ययके साथपइँ मुक्काहं वि वरतरु फिट्टइ पत्तत्तणं न पत्ताणं। तुह पुणु छाया जइ होज्ज कहवि तो तेहि पत्तेहिं ॥१३९॥ (-हे. ३७०.१)
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२.
त्रिविक्रम-प्राकृत-व्याकरण
(स्वया मुक्तानामपि वरतरो भ्रश्यति पत्रत्वं न पत्राणाम् । तव पुनश्छाया यदि भवेत् कथमपि तत्तैः पत्रैः ।।)
हे सुंदर तरु, तुझसे छुटकर भी पत्तोंका पत्तापन (पत्रत्व) नष्ट नहीं होता । किंतु तेरी किसी प्रकारकीमो छाया जो होती है वह उन्हीं पत्तोंसेही (होती है)।
महु हिअउँ तई ताए तुह स वि अन्ने विन डिज्जइ । पिअ का करउँ हउँ काई तुहुँ मच्छे मच्छु गिलिज्जइ ।१४।।
(=हे. ३७०.२) (मम हृदयं त्वया तया तव साप्यन्येन विनाट्यते । प्रिय किं करोम्यहं किं त्वं मत्स्येन मत्स्यो गिल्यते ।।
मेरा हृदय तूने (जीता है), उसने तेरा (हृदय जीता है)। वह (स्त्री) भी दूसरे (पुरुष) के द्वारा पीडित होती है । हे प्रियकर, मैं क्या करूँ ? तू क्या करेगा ? मछलीसे मछली निगली जाती है।
तुज्झ तुध्र तउ ङसिङसा ॥ ४१ ।।
अपभ्रंशमें युष्मद्को सि और ङस् इनके साथ तुज्झ, तुध्र, तउ ऐसे तीन आदेश होते हैं ॥ ४१ ।। उदा. तुज्झ होतउ आगदो। तुभ्र होतउ आअदो । तउ होतओ आगदो । उस्के साथ
तउ गुणसंपइ तुज्झ मदि तुध्र अणुत्तर खंति । जइ उप्पत्तिं अन्न जण महिमंडलि सिक्खन्ति ॥: ४१।। (=हे.३७२-१) (तव गुणसंपदं तव मति तवानुत्तर शान्तिम् ।। यापेत्यान्ये जना महीमण्डले शिक्षन्ते ।।)
महीमंडलपर पास आकर दूसरे लोग तेरी गुणसंपत्ति, तेरी बुद्धि, तेरी सर्वोत्तम क्षमा सीख लेते हैं।
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हिन्दी अनुवाद-अ. ३, पा.४
सुपा तुम्हासु ॥ ४२ ॥
युष्मद्को सुप् (पत्यय) के साथ तुम्हासु ऐसा आदेश होता है। उदा.तुम्हासु ठि, युष्मासु स्थितम् ।। ४२ ॥ तुम्हहमाम्भ्यस्भ्याम् ॥ ४३ ॥
___ युष्मद्को आम् और भ्यस् के साथ तुम्हह ऐसा आदेश होता है । उदा. तुम्हहं केरउ धणु, युष्माकं संबंधि धनम् । तुम्हहं होतउ आगदो, युष्मभ्यं भवन्नागतः ॥ ४३ ॥ अस्मदोऽम्हहं ॥४४॥
____ अपभ्रंशमें अस्मद् को आम और भ्यस् के माथ अम्हहं ऐसा आदेश होता है । उदा. अह भग्गा अम्हहं तणा [७]। अम्हहं होतउ आगदो, अस्मद् भवनागतः ।। ४४ ॥ सौ हउं ॥४५॥
(इस सूत्रमें ३,४.४४ से) अस्मदः पदकी अनुवृत्ति है। अपभ्रंशमें अस्मद् को सु आगे होनेपर हउं ऐसा आदेश हो जाता है। उदा.-तसु हउँ कलिजुगि दुल्लहहाँ [१०७] ॥ ४५ ।। मई ङ्यम्टा ॥४६॥ - अस्मद्को ङि, अम् और टा इन (प्रत्ययों)के साथ मई ऐसा आदेश होता है। उदा.-मई, मयि मां मया वा डिके साथ-मई पई बेहिं वि रणगयहिं [१३७]। अम् के साथ-मई मेल्लन्तहाँ तु झु [१३८] । टाके साथ-मइँ जाणिवे पिअविरहिअहं [१४] || ४६ ॥
कुस्ङसिना महु मज्झु ।। ४७।।
अपभ्रंशमें अस्मद्को उम् और ङसि इन (प्रत्ययों)के साथ महु, मछ ऐसे आदेश हो जाते हैं । वचनकी भिन्नता होनेसे, (ये आदेश) यथाक्रम नहीं होते। उदा.-महु कंतहाँ बे दोसडा [४८] | जइ भग्गां पारकहा तो सहि मा
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२८२
त्रिविक्रम-प्राकृत व्याकरण पिएण [७]। महु होतउ आगदो, मत् भवन्नागतः । मज होतओ आगदो, मद् भवनागतः ।। ४७ ॥ अम्हई अम्हे जश्शसोः ।। ४८ ॥
अपभ्रंशमें अस्मद्को, जम् और शस् आगे होनेपर, प्रत्येकको अम्हई, अम्हे ऐसे आदेश होते हैं ॥४८॥ अंबणु लाइवि जे गया पहिअ पराआ के वि।। भवस न सुअहिँ सुहच्छिअइ जिम अम्हई तिम ते वि ।।१४२॥ हे. ३७६.२)
(अम्लत्वं लगयित्वा ये गताः पथिकाः परकीयाः केऽपि । अवश्यं न स्वपन्ति सुखासिकायां यथा वयं तथा तेऽपि ॥)
स्नेह (अम्लत्व) लगाकर जो कोई परकीय पथिक (प्रवासपर) चले गए हैं वे अवश्यही हमारे समान सुखसे नहीं सोते हैं। अम्हे थोवा रिउ बहुअ कायर एम भणन्ति । मुद्धि निहालहि गअणअलु कइ जण जोण्ह करन्ति ॥१४३॥(=हे. ३७६.१)
(वयं स्तोका रिपवो बहवः कातरा एवं भणन्ति । मुग्धे निभालय गगनतलं कति जना ज्योत्स्ना कुर्वन्ति ।)
हम थोडे हैं, शत्रु बहुत हैं, ऐसा कायर (लोग) कहते हैं । हे सुंदर, गगनतलको देख । (वहाँ) कितने लोग ज्योत्स्ना देते हैं ?
अम्हे देक्खहुं, अम्हइं देवखहुँ, वयं पश्यामः । भिसाम्हेहिं ।। ४९॥
अस्मद्को भिस् के साथ अम्हेहिं ऐसा आदेश होता है। उदा.-तुम्हेंहिँ. अम्हेंहिँ जं किअउँ [१३६] ॥ ४९ ॥ सुपाम्हासु ॥५०॥
अपभ्रंशमें अस्मद्को सुप के साथ अम्हासु ऐसा आदेश होता है। अम्हासु ठिअं, अस्मासु स्थितम् ॥१०॥
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हिन्दी अनुवाद-अ.३, पा. ४
२८३
लटो हि वा झझ्योः ॥ ५१ ।।
लट् के यानी वर्तमानकालके परस्मैपद और आत्मनेपद इनके प्रथमः पुरुष बहुवचनोंके स्थानपर अपभंशमें हिं ऐसा आदेश विकल्पसे होता है । उदा. होहिं हुवहिं हवहिं, भवन्ति । विकल्पपक्षमें न्ति, न्ते और इरे (प्रत्यय, होते हैं)। उदा. मुहक बरिबंध तहे सोह धरहिँ [३७] ॥ ११ ॥ हि थास्सिपोः ॥ १२ ॥
लट् (वर्तमानकाल) के मध्यमपुरुष एकवचनके थास् और सिप (प्रत्ययों)को अपभंशमें हि ऐसा आदेश विकल्पसे होता है । उदा. होहि हवहि हुवहि, भवसि । विकल्पपक्षभे-से और सि (प्रत्यय होते हैं) ॥ ५२ ॥
बप्पीहा पिउपिउ करवि केत्तिउँ अहि हआस । तुह जळि महु पुणु वल्लहइ बिहुँ वि न पूरिअ आस ।। १४४ ॥
(=हे. ३८३.१) (चातक 'पिउ पिउ' कृत्वा कियद् रोदिषि हताश । तव जले मम पुनर्बलभे द्वयोरपि न पूरिता आशा ॥)
हे चातक, पीऊँगा पीऊँगा (और प्रिय प्रिय) (पिउ पिउ) ऐसा कहते हे हताश, कितना रोओगे ? (हमें ) दोनोंकी-जल के बारे में तुम्हारी और प्रियकरके बारेमें मेरी-आशा पूरी नहीं होती है । (यहाँ) पिउ पिउ ये रूप पिबाम, शब्दसे अथवा प्रियप्रिय शब्दसे अपशमें सिद्ध होते हैं ।
- आत्मनेपदमेंबप्पीहा काइँ बोल्लिएण निग्विण वार इ वार । साभरि भरिअइ विमलजाल लहाह न एक वि धार ॥१४५॥ (=हे. ३८३.२),
___ (चातक किमुक्तेन निघृण वारंवारम् । .. सागरे भृते विमलजलेन लभसे नैकामपि धाराम् ॥)
हे निघृण चातक, बारबार (तुझे) कहनेसे क्या उपयोग । विमल जलसे सागरके भरे रहनेपरभी, एक भी बूंद (धाग) उसमेंसे तुझे नहीं मिलती।
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त्रिविक्रम-प्राकृत-ध्याकरण सप्तम्याश्च ॥५३॥
___ अपरंशमें सप्तमीके यानी लिङ् (विध्यर्थ)के मध्यमपुरुष एकवचनों में थास् और सिप को हि ऐसा आदेश होता है ॥ ५३॥ आअहिं जम्माहिं अन्ना, वि गोरि सु दिज्जहि कंतु।। गअ मत्तहँ चत्तंकुसहं जो अभिडइ हसंतु ।।१४६॥ (=हे. ३८३.३)
(अस्मिन् जन्मनि अन्यस्मिन्नपि गौरि तं दद्याः कान्तम् । गजानां मत्तानां त्यक्ताङ्कुशाना यः संमुख गच्छति हसन् ॥)
हे गौरी, इस जन्ममें तथा दूसरे जन्ममें (मुझे) वही प्रियकर देना जो हँसते हँसते मत्त और अंकुशकी परवाह न करनेवाले गजोंके आगे आकर भिडता है । विकलपक्षमें-हससि, इत्यादि ।। ५३ ॥ हु थध्वमोः ।। ५४॥ _लट्के यानी वर्तमानकालके मध्यम पुरुषके बहुत्वमें रहनेवाले परस्मैपद और आत्मनेपद इनके थ और ध्वम् (प्रत्ययों) को हु ऐसा आदेश होता है। उदा.-होहु हवहु हुवहु, भवथ ॥ ५४ ॥
बलि अब्भत्थणि महुमहणु लहुईहूआ सोइ । .. जइ इच्छह बड्डुत्तणउँ देहु म मग्गहु कोइ ।। १४७॥ (=हे. ३८४.१) (बल्यम्पर्थने मधुमथनो लघुकीभूतः सोऽपि । यदीच्छथ बृहत्वं दत्थ मा याचध्वं कमपि ।।)
बलिस याचना करते समय वह विष्णु (मधुमथन) भी छोटा हो गया। (इसलिए) यदि महत्ता चाहते हो तो (दान) दो किसीसे (कुछ भी) मत माँगों। विकल्पपक्षमें-इच्छह, इत्यादि ।।
उ मिबिटोः ॥ ५५ ॥
___ लद्के यानी वर्तमानकालके उत्तम पुरुषके एकवचनमें रहनेवाले परस्मैपद और आत्मनेपद इनके मिप् और इट् (प्रत्ययों)को उँ ऐसा आदेश "विकलासे होता है । उदा.-संपइ कड्ढउँ वेस जिम [८७] । बलि किज्जउँ सुअणस्सु [१०७] । विकल्पपक्षमें-कड्ढमि, इत्यादि ॥ १५ ॥
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हिन्दी अनुवाद - अ. ३, पा. ४
हुं मस्महिङोः ॥ ५६ ॥
लट् (वर्तमानकाल) के उत्तमपुरुषके बहुवचन में रहनेवाले मस और महिङ (प्रत्ययों) को हुं ऐसा आदेश विकल्पसे होता है । उदा. होहुं हवहुँ हबहुँ,,
भवामः ॥ ५६ ॥
२८५०
खग्गविसाहिउँ जहिँ लहहुँ पिअ तहिँ देसहिँ जाहुं ।
रणदुभिक्खें भग्गाई विणु जुज्झें न वलाहुं ॥ १४८|| (= ३.३८६.१). (खड्गविसाधित यस्मिन् लभामहे प्रिय तस्मिन् देशे यामः । रणदुर्भिक्षण भग्ना विना युद्धेन न वलामहे ||)
हे प्रियकर, जहाँ खड्गका व्यवसाय प्राप्त करे उस देशमें चले जाएंगे। रणरूपी दुर्भिक्षके कारण हम पीडित हैं । युद्धके बिना हम ( सुखी नहीं रहेंगे। विकल्पपक्ष में - लहिमु, इत्यादि ॥
इदेत्स्वहेः || ५७ ॥
पंचमी ( आज्ञार्थ) के मध्यमपुरुष एकवचन के जो स्व और हि ऐसे आदेश - है, उनको अपभ्रंशमें इ, उ और ए ऐसे ये तीन आदेश विकल्पसे होते हैं । उदा. - होइ होठ होए, भव । इत्यादि ॥ ५७ ॥
इ (आदेशका उदाहरण) -
कुंजर सुमरि म सल्लउ सरला सास मं मे ल्ल |
कवल जें पाव विहित्रसिण ते चरि माणु म मेल्लि ॥ १४९ ॥ ( = हे.३८७.१) (कुंजर स्मर मा सल्लकी: सरलान् श्वासान् मा मुश्च ।
कवला ये प्राप्ता विधिवशेन तांश्वर मानं मा मुख ।)
हे गज, सल्लकी - वृक्षोंका स्मरण मत कर, दीर्घ साँस मत छोड । देववात् जो प्राप्त हुए हैं उसी कवलोंको खाओ; (अपना) मान मत छोड । उ ( आदेश का उदाहरण ) -
भमरा एत्थु विलिंडर कवि दिपहडा विलम्बु |
घणपत्तलु छायाबहुल फुल्लइ जाम कलम्बु || १५० ।। (= ६. ३८७.२)
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२८६
त्रिविक्रम-प्राकृत-व्याकरण (भ्रमर अत्रापि निम्ने कानपि दिवसान् विलम्बस्व । घनपत्रवान् छायावहल: फुल्लति यावत् कदम्बः ॥)
हे भ्रमर, यहाँ नींमपर कुछ दिन व्यतीत कर जबतक घने पत्तोंवाला और छायायुक्त कदंब (वृक्ष) नहीं फूलता।
ए (आदेशका उदाहरण)प्रिय एवं करें सेल्लु कर छड्डहि तुहु करवाल । जं कावालिय बप्पुडा लेहिँ अभग्गु कवालु ॥१५१।। (हे. ३८७.३) (प्रिय इदानी कुरु कुन्तं करे मुञ्च त्वं करवालम् । यत् कापालिका वराका लान्त्यमग्नं कपालम् ॥)
हे प्रियकर, अब हाथमें भाला रख, तू तलवार छोड दे, जिससे बेचार कापालिक न टूटा हुआ कपाल (भीखके लिए) प्राप्त करेंगे ।
_ विकल्पपक्षमें-सुमरहि, इत्यादि । स्यस्य सो लुटि ॥ ५८ ॥
लृट्में यानी भविष्यकालमें जो स्यप् कहा है उसको स ऐसा (आदेश) होता है । उदा.-होसइ भविष्यति ॥ ५८॥ दिअहा जति झडप्पडहिं पडहिँ मणोरह पच्छि । जं अच्छइ तं माणिअइ होसइ करतु म अच्छि ॥१५२॥ (हे.३८८.१)
(दिवसा यान्ति झटिति पतन्ति मनोरथाः पश्चात् । यदस्ति तन्मान्यते भविष्यति (इति) कुर्वन् मास्स्व ।।)
दिन झटपट जा रहे हैं । मनोरथ पीछे रह जाते हैं। (इसलिए) जो (कुछ) है उसीका स्वीकार करे । होगा ऐसा कहते हुए न (स्वस्थ) ठहरो)।
विकल्परक्षर्मे-होहिइ। पर्याप्तौ भुवः पहुच्चः ।। ५९ ॥
अपभ्रंशमें पर्याप्ति अर्थमें होनेवाले भू धातुको पहुच्च ऐसा आदेश होता
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हिन्दी अनुवाद-अ. ३, पा. ४
२८
अइतुंगत्तणु जं थणहं सो छेयउ न हु लाहु सहि जइ केवइ तुडिवसण अहरि पहुच्चइ नाहु ॥१५३ ॥ (=हे.३९०.१)
(अतितुंगत्वं यत् स्तनयोः स च्छेदो न खलु लाभः । सखि यदि कथमपि त्रुटिवशेनाधरे प्रभवति नाथः ।)
स्तनोंकी जो अत्यंत ऊंचाई है वह लाभ नहीं है,हानिही है । (क्योंकि) हे सखी, (मेरा) प्रियकर बहुत कष्टसे और देरसे अधरतक पहुँच सकता है। बजेर्वञः।। ६०॥
___ अपभ्रंशमें ब्रज (जि) धातुको वञ ऐसा आदेश होता है। उदा.चञइ । वपि । व प्पिणु ॥ ६ ॥ बेजो बुवः ॥ ६१ ॥
अपभ्रंशमें ब्रू (ब्रून् )धातुको बुव ऐसा आदेश विकल्पसे होता है। उदा.. न सुहासिउ किं पि बुवइ, न सुभाषितं किमपि ब्रवीति ।। ६१ ॥
विकल्पपक्षमएत्तउ बोप्पिणु सउणि ठिउ पुणु दूसासणु बोपि । सो हउँ जाणउँ एहाँ हरि जइ महु अगइ बोप्पि ॥१९४॥ (-हे.३९१.१)
(एतावदुक्त्वा शकुनिः स्थितः पुनर्दुःशासन उक्त्वा । ततोऽहं जानामि एष हरिर्यदि ममागे उक्तवान् ।)
(दुर्योधन कहता है)-इतना कहकर शकुनि चुप रहा। (उतनाहीचोलकर दुःशासन (चुप रहा)। तब मैं समझा कि (जो बोलना था वह) बोल. कर यह हरि (श्रीकृष्ण) मेरे सामने (खडा है)। क्रियेः कीसु ॥ २ ॥ क्रिये ऐसे क्रियापदक। अपभ्रंशमें कीम ऐसा आदेश होता है ॥ ६२ ॥ उदा.
सन्ता भोग जु परिहरइ तसु कंतहाँ बलि की। तसु दइवेण जि मुण्डियउँ जसु खल्लिडउँ सीसु ॥१५॥ (-हे.३८९:१)
(सतो भोगान् यः परिहरति तस्य कान्तस्य बलिं क्रिये (करोमि)। तस्य दैवेनैव मुण्डितं यस्य खल्वाटं शीर्षम् ।)
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૮૮
त्रिविक्रम-प्राकृत-व्याकरण विद्यमान भोगोंको त्याग जो करता है उस प्रियकरकी मैं पूजा करती हूँ। जो खल्वाट (गंजा) है उसका तो दैवनेही मुंडन कर दिया है ।
विकल्पपक्षमें-बलि किजइ सुअणस्सु [१०५] ।
( यहाँ) साध्यमान अवस्थामें (होनेवाले ) क्रिये ऐसे संस्कृत शब्दसेही यह प्रयोग है। पस्सगण्ही दृशिग्रहोः ।। ६३॥
___अपभ्रंशमें दृश् ( दृशि ) और ग्रह इन धातुओंको पस्स और गण्ह ऐसे आदेश यथाक्रम होते हैं। उदा.- पस्सदि, पश्यति । पढ गण्हेप्पिणु व्रतु, पठ गृहीत्वा व्रतम् ॥ ६३ ।। तक्षाद्याश्छोल्लादीन् ।। ६४ ॥ .
अपभ्रंशमें तक्ष् ( तक्षि ), इत्यादि धातुओंको छोल्ल, इत्यादि आदेश प्राप्त होते हैं ।। ६४ ॥ उदा.
जिम जिम तिक्खा लेवि कर जइ ससि छोल्लिजन्तु । . तो जइ गोरिह मुहकमलि सरिसिम का वि लहन्तु ।। १५६ ।।
(= हे. ३९५. १) ( यथा तथा तीक्ष्णान् लात्वा करान् यदि शशी अतक्षिष्यत । ततो जगति गौर्या मुखकमलेन सदृशतां कामप्यलप्स्यत॥)
किसी भी प्रकारसे यदि तीक्ष्ण किरणोंको ले (निकाल) कर चंद्र को छीला जाता तब इस जगतमें गौरीके मुखकमलसे कुछ सादृश्य उसको मिल जाता ।
(सूत्र में) आदिशब्द का ग्रहण होनेसे, देशी (भाषा) में जो क्रियावाचक शब्द उपलब्ध होते हैं वे उदाहरणके रूपमें लिए जाय । उदा.
चडुल्ल उ चुण्णीहोइसइ मुद्धि कवोलि निहित्तउ । सासाणलजालझलक्किअउ बाहसलिलसंसित्तउ ।। १५७ ।।
(= हे. ३९५.२)
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हिन्दी अनुवाद म. ३, पा.
( चूडकर्णीभविष्यति मुग्धे कपोले निहितः । वासानज्वालादग्धो बाण्यसलिलसंसिक्तः ॥ ) हे सुंदरी, कपोलपर रखा, श्वासरूपी अग्निके ज्वालासे तप्त, अश्रुजलसे भीगा कंगन (स्त्रयंही) चूर चूर हो जाता है ।
हिअर खुडुक्कर गोरडी गयणि घुडुक्कर मे ।
वासारत्तपवासु अहं विसमा संकडु एहु ।। १५८ ।। (हे. ३९५.४ ) ( हृदये खुट् शब्दं करोति गौरी गगने घडघडायते मेघः । वर्षात्रिप्रवासिनां विषमं संकटमेतत् ॥ )
पुतें जाएं कणु गुणु अवगुणु कवणु मुरण ।
जा बप्पीकी मुंहडी चंपिज्जइ अवरेण ।। १५९ ॥
२४९
हृदयमें सुंदरी खुट् शब्द करती है; गगन में बादल घडघड (शब्द) करते हैं । वर्षाकी रात में प्रवासियों के लिए यह बडा संकट है । अम्मि पओहर वज्जमा [२६] ।
और
( पुत्रेण जातेन को गुणोऽवगुणः को मृतेन । यत् पैतृक भूमिराक्रम्यतेऽपरेण ॥ )
यदि बापकी भूमि (संपत्ति) दूसरेके द्वारा चाप ( अपहृत कर) डी जाय तो पुत्र होनेसे क्या लाभ ? और उसके मरनेसे क्या हानि ? तं तेतिउँ जल सायर हों सो तेवडु वित्थारु |
तिसरेँ निवारणु पलु वि न वि पर घुटुअइ असारु ॥ १६० ॥
( = हे. ३९५.३ )
( = हे. ३९५.७ )
( तत् तावज्जलं सागरस्य स तावान् विस्तारः । तृषाया' निवारणं पलमपि मैव परं शब्दायतेऽसारः ॥ ) सागरका वह उतना पानी और वह उतना विस्तार । पर तृषाका थोडा भी निवारण नहीं होता । वह व्यर्थ धू धू करता है ।
क्रि.वि... २९
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होः स्तोरुच्चारलायवम् ।। ६५ ॥
संयुक्त होनेवाले होः यानी हकार और रेफ इनका अपभ्रंशमें प्रायः लघु उच्चार होता है। उदा-बहिणि अम्हारा कंतु (११९)। सिरु ल्हसिउं खंधस्सु (१६२)। जइ सो घडिदि प्रयावदी (२०)। अनु जि प्राउं ( ६३ )। चंचल जीविदु ध्रुवु मरणु ( ४३ ) ।। ६५ ।। बिन्दोरन्ते ॥ ६६॥
अपभ्रंशमें पदके अन्तमें रहनेवाले बिंदु ( अनुस्वार ) का उच्चार प्रायः लघु होता है। उदा.-अन्नु जु तुच्छउँ तहें धणहें ( १२०)। बलि किजउँ सुअणस्सु (१०७ ) । दइवु घडावइ वणि तरुहुँ (११४)। तरु वि वक्कल (११३) । खग्गविसाहिउँ जहि लहहुँ (१४८)।तणहं तइज्जी भंगि न वि (१०८)।। ६६ ।। हलस्थैङः ॥ ६७ ॥
अपभ्रंशमें व्यंजनोंमें स्थित ( व्यंजनोंसे संयुक्त) ऐसे एन् का यानी ए और ओ इनका उच्चार प्रायः लघु होता है। उदा.-सुधैं चिंतिज्जइ माणु [२] । तसु हउँ कलिजुगि दुल्लहहाँ [ १०५ ] ।। ६७ ॥ लिगमतन्त्रम् ॥ ६८॥
__ अपभ्रंशमें ( शब्दोंका) लिंग अनिश्चित, प्रायः व्यभिचारी (अर्थात् स्त्रीलिंगका पुलिंग होना, पुलिंगका बीलिंग होना, इ.) होता है। उदा.-गयकुम्भ दारन्तु [११६ । यहाँ पुलिंगका नपुंसकलिंग] (हो गया है)।। ६८ ।। ( अधिक उदाहरण )
अब्भा लग्गा डुंगरिहिँ पहिउ रडन्तउ जाइ । - जो एहो गिरिगिलणमणु सो किं धणहें घणाइ ।। १६१॥
( अभ्राणि लनानि पर्वतेषु पथिको रुदन याति । य एष गिरिगिलनमनाः स किं धन्याया घृणायते).
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हिन्दी अनुवाद-म., पा.. बादल पर्वतोंसे लगे हैं। पथिक रोता हुआ जाता है। जो यह पर्वतको निगलनेवाला है वह क्या सुंदरी ( के प्राण ) पर दया करेगा ?
यहाँ अब्भामें नपुंसकलिंगका पुल्लिंग ( हो गया है)। पाइ विलग्गी अंबडी तिरु ल्ह सिउं खंधस्सु । तो वि कडारइ हत्थडउ बलि किज्जउँ कंतस्सु ॥ १६२ ।।
(= हे. ४४५.२) ( पादे विलग्नमन्त्रं शिरः स्रस्तं स्कन्धात् । तथापि कटारे हस्तः बलिं करोमि कान्तस्य ॥)
पैरपर अंतडी लगी है। शिर कंधेसे स्रस्त हुआ है। फिरभी ( जिस का ) हाथ ( अद्यापि अपने ) कटारीपर है ( ऐसे ) कांतकी मैं पूजा करती हूँ। यहाँ अंबडीमें नपुंसकलिंगका स्त्रीलिंग (हो गया है)।
सिरि चडिआ खंति फलइ पुणु डालइँ मोडंति । तो वि महदुम सउणाहँ अवराहिउ न करन्ति ॥ १६३ ॥
(= हे. ४४५.३ ) ( शिरसि आरूढा खादन्ति फलानि पुनः शाखा भञ्जन्ति । तथापि महाद्रुमाः शकुनीनामपराधितां न कुर्वन्ति ।।)
पंछी शिरपर चढकर फल खाते हैं और शाखाओंकोभी तोडते हैं। तथापि महावृक्ष उनका ( कुछभी ) अपराध नहीं गिनते । यहाँ डालई में स्त्रीलिंगका नपुंसकलिंग ( हो गया है )। सौरसेनीवत् ।। ६९॥
अपभ्रंशमें प्रायः शौरसेनीके समान कार्य होता है ॥६९।। उदा.सीसि हरु खणु विणिम्मविद् खणु काठ पालंबु किदु रदिर। विहिदु खणु मुंडनालिअ जं पणऍण तं नमहु कुसुमदामकोदंड कामहों ।। १६५ ।। (= हे. ४४६.१)
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त्रिविक्रम-प्राकृत-व्याकरण
( शीर्षे शेखरः क्षणं विनिर्मापितः क्षणं कण्ठे प्रालम्बः कृतो रत्या । विहितं क्षणं मुण्डमालिका यत्प्रणयेन तन्नमत कुसुमदामकोदण्डं कामस्य ।।)
जिसको रतिने क्षणभर शिरपर शेखर बना दिया, क्षणभर कंटमें लटकनेका हार बना दिया, क्षणभर ( अपने ) गले में लगा दिया, उसस कामके पुष्पधनुष्यको प्रणाम करो। तब्यत्ययश्च ।। ७० ।।
[ सूत्रमेंसे ] तद् शब्द प्राकृत ( भाषाओं ) का द्योतक है। और उनका-प्राकृत, इत्यादि भाषाओंके लक्षणोंका--व्यत्यय (उलटापल्टी) प्रायः होता है। (उदा.-) जैसे मागधीमें तिष्ठ को चिष्ठ (आदेश होता है) ऐसा जो कहा है वैसे प्राकृत, पैशाची, शौरसेनी इनमेंभी होता है। उदा. चिष्ठदि । अपभ्रंशमें रेफका जो अधोलोप विकल्पसे कहा है, वह मागधीमेंभी होता है। उदा.-शद माणुशमंशभालके कुंभशहश्रवशाह शंचिदे, शतमानुषमांसभारकं कुंभसहस्रं वसायाः संचितम् । इत्यादि दूसरे ( उदाहरण ) देखे जायँ। केवल भाषालक्षणों काही नहीं अपितु धातुओंको लगनेवाले प्रत्ययोंके आदेशोंकामी व्यत्यय होता है। जो प्रत्यय वर्तमानकालके ( ऐसे ) प्रसिद्ध हैं वे भूतकालमेंभी होते हैं। उदा.-अह पेच्छइ रहुतणओ, अथ प्रेक्षांचके रघुतनयः । ( अनंतर रघुतनयने देखा ) । आभासइ रयणीअरे, आबभाषे रजनीचगन् । (राक्षसोंको बोला)। भूतकालमें प्रसिद्ध ( ऐसे ) प्रत्यय पर्तमानकालमेंभी होते हैं। उदा.-सोहीअ एस चण्डो, शणोत्येष चण्डः ॥ ७० ॥ शेषं संस्कृतवत् ।। ७१ ।।
शेष अर्थात् इन द्वादश पादोंमें जो प्राकृत, इत्यादि भाषाओंका लक्षण निबद्ध है उससे अन्य ( सब कुछ ) संस्कृतके समान होता है। उदा.-रामाअ पोप्फाणि, रामाय पुष्पाणि |
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हिन्दी अनुवाद-अ.३, पा.४ ९९६ हेट्ठियसूरनिवारणाय छत्तं अहो इव वहन्ती। जअइ ससेसा वराहसासदूरुक्खया पुहवी ।। (= हे. ४४८.१) ( अधःस्थितसूर्यनिवारणाय छत्रमध इव वहन्ती। जयति सशेषा वराहश्वासदूरोत्क्षिप्ता पृथिवी ।।)
नीचे स्थित सूर्य से निवारण करनेके लिए मानो नीचे छत्र धारण करनेवाली और वराहके श्वाससे दूर फेंकी गयी, ऐसी शेषके साथ होनेवाली पृथ्वी विजयी है।
यहाँ (इस ग्रंथमें ) चतुर्थी ( विभक्ति) का आदेश नहीं कहा गया है; वह संस्कृत के समानही होता है । उरसि, सरसि, सिरसि, इत्यादि रूप (उन संस्कृत शब्दोंके ) सिद्ध अवस्थासे (प्राप्त) होते हैं ।। ७१ ॥ झाडगास्तु देश्याः सिद्धाः ।। ७२ ॥
___ झाड, इत्यादि शब्द देश्य अर्थात् देशविशेषके व्यबहारसे उपलब्ध होनेवाले सिद्ध यानी निष्पन्न या प्रसिद्ध हैं, ऐसा जाना जाय । उदा.(१) झाडं लतादिगहनम् । (२) गोप्पी। (३) सप्पत्तिआ (यानी) बाला । (४) गोंडी (५) गांडी (६) गोंजी (यानी) मञ्जरी। (७) एक्कंग (८) ओहंसं (९) भद्दसिरी (यानी) चन्दनम् । (१०) आडोरो (११) मोरत्तओ (१२) मोरो (१३) पाणाअओ (यानी) श्वपचः । (१४) डुल्लर भूषा कपर्दानाम् अर्थात् कपोंसे किया हुआ आभरण ऐसा अर्थ । (१५) सोमालं (१६) सोल्लं (यानी) मांसम् । (१७) छट्टो मर्म । (१८) भोहणो मृतकः। (१९) गोड्डं, स्तनयोः उपरि रचितः वासोग्रन्थिः । (२०) भावई गृहिणी (२१) दुक्खित्तो कम्पः। (२२) परिहालो जलनिर्गमः । (२३) पडं ग्रामसीमास्थानम् । (२४) गोजा कलशी । (२५) पडिल्लिलो विहितपूजः । (२६) गन्धपिसाओ गान्धिकः । (२७) ओहिअं अधोमुखम् । (२८) असारा कदली । (२९) करइल्लो शुष्कमहीजः । (३०) अपमयो भारः । (३१) दुप्परिअल्लं अशक्यम् । (३२) वेडूणी (३३)
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निक्किम-मकत-मातरम... पिच्छल्लं (३४) विद्णा (३५) सारोवहि (३६) सिणी (३७) वेलूरक (३८) मंतक्खरं (यानी), लज्जा । (३९) कोण्णारं म्लानम् । (४०) खन्दजी स्थूलेन्धनवह्निः । (-१) ऊसाअत्तो, खेदेन शिथिलः । (४२) उत्ताणफलं एरण्डः । (४३) चदुरूढो (४४) हालो (यानी) शातवाहनः । (४५) पउलिअं, शूलपोतं मांसम् । (४६) माडा समकालम् । (४७). खडरिअं कलुषम् । (८) बहुराणो असिधारा । (४९) बव्वाडो, दक्षिणो हस्तः । (५०) खब्बणो दक्षः । (५१) खड्डे (५२) वेडो (५३) बोडरे (यानी) श्मश्रु । (५४) उइत्तणं निवसनम् । (५५) सअराई झटिति । (५६) खल्लिरी (५७) खल्लिरिआ (यान!) संकेतः । (५८) रद्धी (५९) बड्डअं (यानी) प्रधानम् । (६०) गअणरई मेघः । (६१) तिगच्छी (६२) तिंगा (यानी) पुष्परजः । (६३) तंडं शिरोहीनम् । (६४) पादुग्गो सभ्यः । (६५) तिविडी सूची । (६६) पत्तलं तीक्ष्णम् । (६७) कूर भक्तम् । (६८) गोडं (६९) चिकिललं (७०) कच्ठरं (७१) महिंडं (७२), बहलं (७३) रेणं (७४) पणओ (७५) डंडरिआ (७६) डंडा (७७) दोहणी (पानी) पङ्कः अर्थात् कर्दम ऐसा अर्थ । (७८) छिविओ (७९) छोहो (८०) पग्गेज्झो (८१) विम्झडो (यानी) चयः अर्थात् समूह ऐसा अर्थ । (८२) निअत्थं, परिहितं वस्त्रम् । (८३) निड्डरिआ, भाद्रपद सितदशम्या कश्चित उत्सबविशेषः । (८४) खोड्डी (८५) तालफली (यानी) दासी। (८६) छिच्छिणरमणं (८७) ओलुक्की (८८) हद्धिणं (यानी) चक्षुःस्थगनक्रीडा । (८९) पुंसुलं विसंवादः । (९०) अवअण्डं उलूखलम् । (९१) सराहओ (९२) किक्किडी (यानी) सर्पः। (९३) सइलंतं (९४) सइदिहूँ (यानी) मनोरथेनैव संघटना। (९५) ओसा (९६) ओग्गियो (९७) सिण्हा (यानी) नीहारः । (९८) णिसणं परिधानम् । (९९) झुत्ति स्रोतः । (१००) सिट्टा (१०१) सिहडो, सप्तनासिकानादः । (१०२) वणेच्छणं (१०३) णिवठणं (यानी) अक्तारणम् । (१०४) अल्लओ
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कृतपरिचा। (१०५): अडी (१०६) सडा (यानी) प्रलम्बा: केशाः । (१०७) घग्रन्थणं खेदः। (१०८) चंदवडाआ अर्धप्रावृतदेहा। (१०९) तलप्फलं शालिः। (११०) तरिडी, अनुष्णो वायुः। (१११) वेप्पो (११२) संपुओ (यानी · पिशाचाक्रान्तः । (११३) कीला (११४) कुकुला (११५) अद्धघरणी (११६) बहुधारिणी (यानी) नववधूः । (११७) की (११८) वई (११९) वेला (यानी) मर्यादा । (१२०) णिग्यो कौशलोपेतः । (१२१) वज्जा (१२२) पजा (यानी) अधिकारः । (१२३) झंडो (१२४) झल्लरी (यानी) गुल्मः । (१२५) मुकुंडी (१२६) मुचमुंडो (यानी) जूटः । (१२७) णिक्कसरिओ गल्तिसारः। (१२८) झंटिलिआ चंक्रमणम् (१२९) संखोडी व्यतिकरः। (१३०) सिलिंपो (१३१) चिलो (१३२) चुल्लो (१३३) चेडो (१३४) लिंको (१३५) डहरो (यानी) बालः। (१३६) हणं दूरम् । (१३७) विड्डिरिआ (१३८) तुंगी (यानी) रात्रिः । (१३९) कुहिणं कूर्परम् । (१४०) विआलो (१४१) वेलू (१४२) दट्ठहणो (९४३) लम्मिक्को (१४४) कमलो (१४५) कुविलो (१४६) णिरिक्को (१४७) ओच्छल्लो (१४८) कुसुमालो (यानी) दस्युः अर्थात् चोर ऐसा अर्थ। (१४९) अहेल्लो ईश्वरः । (१५०) धणी पर्याप्तिः गुप्तिः वा। (१५१) कंकअसुकओ अल्पसुकृतलभ्यः । (१५२) पझामुरो प्रवयाः अर्थात् वृद्ध ऐसा अर्थ। (१५३) पुंडरिका उत्कलिका। (१५४) हत्थं शीघ्रम् । (१५५) पिडिल्लिको क्रूरः । (१५६) संचुल्लो पिशुनः। (१५७) जोवणजोअं (१५८) जोव्वणिरं (१५९) जोवणणी (यानी) जरा । (१६०) पडिणिअंसणं, निशि प्रावरणम् । (१६१) पडिवेसो विक्षेपः। (१६२) पडिक्किआ प्रतिकृतिः। (१६३) पडुजइणी तरुणी। (१६४) कुणिआ (१६५) कुच्छिगी (१६६) कंडदिणारो ( यानी) वृतिविवरम् । (१६७) देवरिभ, पुतजन्मान झम् अर्थात्, पुत्रोत्सवमें बजाया जानेवाला तूर्य ऐसा बर्य (454) अकालमा दिक (१६९ मेक्वं: पार्थक्षेत्रामः।
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त्रिविक्रम प्राकृत-व्याकरण (१७०) पाहिआवडा ललना । (१७१) पीडाई, चौर्यण वधूः अर्थात छिपकर (चुराकर) स्वीकृत पत्नी ऐसा अर्थ । (१७२) ओरल्ली. गभीरदीर्घरवः । (१७३) पोअग्गो निर्भयः । (१७४) उक्कही (१७५) लच्छिा (१७६) डोक्को (यानी) कूपतुला अर्थात् जलाशयसे पानी ऊपर खींचनेका यंत्र। (१७७) काजी (१७८) काणड्डी (१७९) बक्करो (यानी) परिहासः । (१८०) खोडो धार्मिकः । (१८१) उच्छलओ (१८२) पउड (१८३) मेठिअं (१८४) उप्पई (१८५) थेट्ठो (यानी) गृहम् । (१८६) उलुहंतो (१८७) डंको (१८८) वसतुंडो (१८९) बुक्कणो (यानी) काकः। (१९०) मामा (१९१) मामी (यानी) मातुलभार्या । (१९२) चंचुप्परं मिथ्या । (१९३) चुक्को मुष्टिः। (१९४) पुल्ली (१९५) अल्ली (१९६) चित्तओ (यानी) ब्याघ्रः । (१९७) चडाणा (१९८) लुग्छी (यानी) कुन्तलाः। (१९९) गणसमो, रतो गोष्ठ्याम् । (२००) तित्ती सारः । (२०१) डाली शाखा । (२०२) ठाणो अहंकारः (२०३) णामुक्कसि कार्यम् । (२०४) पेआलं (२०५) पिंजलं (यानी) प्रमाणम् । (२०६) गहणी (२०७) गहेरो (२०८) मुहुलो (यानी) बन्दी। (२०९) लाइल्लो बलीवर्दः । (२१०) मुंकुर डो (२११) मुंगुरुडो (२१२) घुग्घुरुडो (यानी) राशिः । (२१३) आवसणं (२१४) आअलणं (यानी) रतिगृहम् । (२१५) उवसट्टो सारथिः। (२१६) उवसेरो रथाईः । (२१७) उणिआ कृसरा । (२१८) अवरिज्ज (२१९) अहोरणं (यानी) उत्तरीयम् । (२२०) अविरिक्कं (२२१) अजणिक्कं (२२२) दोडि (२२३) दोवेलि (यानी) सायंभोजनम् । (२२४) अहरिप्पो, कथावन्धः । (१२५) पिंडरवो, तैलादीनां विक्रेता वणिक् । (२२६) सुदृम्मणिमा रूपवती। (२२७) उम्मल्ला तृष्णा । (२२८) वेंड सुरापिष्टम् । (२२९) चडिआसो आटोपः। (२३०) माला ज्योत्स्ना। (२३१) दरंदरो उल्लासः । (२३२) उज्वलं कौशलम् । (२३३) ओसाओ पीडा अर्थात् प्रहारसे उत्पन्न पीडा ऐसा अर्थ । (२३४) णिच्छहो (२३५) जिग्धोरो
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हिन्दी अनुवाद-अ. ३, पा.४ । यानी) निर्दयः । (२३६) आरंतिओ मालाकारः। (२३७) लासअविम्हओ (२३८) सिण्ठो (२३९) आलत्थओ (यानी) केकी। (२४०) उड्डो कूपादिखनकः । (२४१) ऊसारो गतः। (२४२) उवलंडंतो चूडा. वलयम् । (२४३) हिल्ला सिकताः । (२४४) हिक्का (२४५) उपक्किा (यानी) रजकी। (२४६) हिंडोली, रक्षणयंत्रं केदारस्य । (२४७) आळसो (२४८) अलिणो (यानी) वृश्चिकः । (२४९) आरिल्लो बन्धः । (२५०) जमणं बालशिखा । (२५१) मरहो गर्वः। (२५२) किलिणी (२५३) कुहणी (२५४) साही (२५५) पाणट्ठी (२५६) पत्तण्णी (यानी) प्रतोली अर्थात् रथ्या ऐसा अर्थ । (२५७) मलओ गिर्येकदेशः (२५८) उग्गालो (२५९) छिंछोली (यानी) तनुस्रोतः अर्थात् अत्यंत थोडे पानीका स्रोत ऐसा अर्थ । (२६०) कडं (२६१) पडोहरं (यानी) पश्चिमाङ्गणम् । (२६२) सरिवओ (२६३) सरेवाओ (यानी) हंसः। (२६४) कुदृमिओ महिषः । (२६५) पहणी संमुखागतिनिरोधः। (२६६) केआ केली। (२६७) तित्ती (२६८) कीलं (यानी) स्तोकम् । (२६९) उक्कासारो भीरुः । (२७०) भाउलं, आषाढे कात्यायन्या उत्सविशेषः । (२७१) भग्गल अप्रियम् । (२७२) कोथुअवत्थं (२७३) कोसलो (२७४) कणआ (पानी) नीवी। (२७५) छिइंडहिल्लो (२७६) आअं (यानी) दधि । (२७७) हड्डवं कलहः । (२७८) छवडो चर्म । (२७९) कहोडो तरुणः । (२८०) फेणवडो वरुणः । (२८१) उअअहारी दोहनकारी। (२८२) खगो छाया। (२८३) जोइओ व्याधः । (२८४) कोलंबं पिठरम् । (२८५) वेखासो (२८६) खासओ (यानी) विरूपः । (२८७) सरली (२८८) अरलं (यानी) चीरी। (२८९) संगा (२९०) संडी (यानी) चल्का अर्थात् प्रग्रह ऐसा अर्थ। (२९१) कराइणी (२२२) णिउत्तउ (यानी) शाल्मलि ऐसा अर्थ । (२९३) मोडी भगिनी। (२९४) कुंतो शुकः । (२९५) णिडो (२९६) विच्छुओ (पानी) पिशाचः । (२९७) कउहं नित्यम् । (२९८) पसंडी कनकम् । (२९९) अलमंजुलो (३००)
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(३१) बहुरा (३९८० विहिणी ६ वाईबी,
त्रिविक्रम:माकाकरण चंचुमालिओ (३०१) मड्डो (यानी) अलसः । (३.०२) सिअणधे (३०३) कडसी (यानी) पितृवनम् अर्थात् श्मशान ऐसा अर्थ । (३०४) अवडओ (३०५) अडो (यानी) आरामः । (३०६) वाटुंबी, भूषा अश्वस्य । (३०७) भल्लुकी (३०८) खिरिणी (३०९) मुरुंडी (३१०) भसआ (३११) बहुरा (३१२) सअली (यानी) क्रोष्ट्री। (३१३) जाई (३१४) मभक्खरं (३१५) मई (३१६) सबिसं (३१७) पच्चुच्छाहणं (यानी) मदिरा अर्थात् सुरा ऐसा अर्थ। (३१८) पडिच्छरो (३१९) सच्छिओ (यानी) सदृशः। (३२०) तारत्तरो म्हूर्तः । (३२१) पडड्डाली (३२२) डेडुरी (यानी) क्रीडा । (३२) पंडारो गोपः। (३२४) पेंडलो रसः । (३२५) पसवडकं अबलोकः । (३२६) बोल्लो (३२७) हल्बोलो रोलो (३२९) वअलो (३३०) मलह लो (३३१) म.लं (यानी) कल कलः । (हलबोल शब्द) देवादि-पाटमें होनेके कारण, द्वित्व होनेपर (३३५) हल्लबोलो। (३३३) एक्कधरिलो देवरः । (३३४) ओसिक्खओ गतिविघातः । (३३५) खंडीधाग अन्युष्णोदकधारा । (३३६) पडंसुगा (३३७) पत्थरं (३३८) वलिअं (३३९) विहलो यानी ज्या अर्थात् मौर्वी (धनुष्यकी डोरी) ऐसा अर्थ। (३४०) पाणाओ पाणिद्वयाघातः (३४.१) णिहसो वल्मीकम् । (३४२) पडल्लो अधनः । (३४३) वल विओ (३४४ ) वडलसरो (यानी) जपवान् । (३४५) पिंजुरुओ मेरुण्डः । ( ३४६) मिहलं कूलम् । (३४७) अलिअल्लिका कस्तूरी । (३४८) अणरामअं अरतिः। (३४९) छिविअं. (३५० ) अंगुलिजं (यानी) इक्षुशकलम् । (३५१ ) अण्णोलो दिनमुखम् । (३५२) अवअणिओ अन्यः। ( ३५३ ) सढअं ( ३५४ ) गद्दहो (३५५) संघ (यानी) कुभुदम् | (३५६) गमरे (३५७) छुप्पलों (यानी) शेखर कम् | (३५८) पिहुणं पुच्छम् । (३५९) अंजणिआ (३६०) अंजणइसिआ (यानी) तापिच्छम् । (३६१) करवं अवशुष्कम् । (३६२) डंडसिओ प्रामतरुः। (३६३), पचंचलक्को
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अशक्तः । (३६४) उच्चतो. गाढः ।। (३६५) गोरप्पडिआ (३६६); रभाडा (३६७) ब-हाणी (यानी गे घाल (३६८). छाहो गगनम (३६९) अणत्तं निर्माल्यम् । (३७०) पत्थणं (३.७१) करअडी (यानी) स्थूलवस्त्रम् । (३७२) अडझिअं बिपरीतरहम् । (३७३) झरं बिमलम् । (३७१) अलिसारं (३७५) विउलं (यानी). क्षीरम् । (३७६), चुचुलिभं (३७७) चुंचुलिआरो (यानी) चकम् । (३७८) मोरई (३७९) मोरअं (३८०) अबंगो (यानी) अपामार्गः । (३८१) पाहुरी अपमृत्यः । (३८२) काकिसोरो गर्दभः । (३८३) छाइल्लो (३८४) जुण्णो (यानी) वैदग्ध्यवान । (३८५) छेओ,. ऐसी शब्द मात्र विदग्ध अर्थमें होनेवाले छेक शब्द से होगा। (३८६) सुलोसो कौसुग्भनिवसनम् । (३८७) अहिरिओ विच्छायः । (३८८) फलसं कार्पासः । (३८९) चुल्ल डओ. ज्येष्ठः । (३९०) थोओ (३९१) सुज्झुओ (यानी) रजकः । (३९२) आअरं (३९३) कडतं (३९४). अवहडं (यानी) मुसलम् । (३९५) णिहुणं व्यापारः। (३९६) भित्तं (३९७) भित्तरं (यानी) गृहद्वारम् ।। (३९८) चक्कग्गहो मकरः। (३९९) भंहलओ (४००) जंभलो (४०१) परिअडी (यानी) मूर्खः । (४०२) अक्को दूतः । (४०३) कल्लो हीः । (४०४) कण्णाराम अवतंसः । (४०५) सरिवाओ आसारः । (४०६). मादलिआ (४०७) सुविजा (यानी) माता। (४०८) सोअं स्वापः । (४०९) सोआलो, उपयाचितकं अभीष्टसिद्धये दत्तम् अर्थात्:- मेरा यह मनोरथकी वस्तु (अर्थ, पूरी होनेपर, यह पूजादि करूंगा / करूंगी ऐसा कहकर उद्दिष्ट पदार्थ प्राप्त होनेतक जो कुछ द्रत्य, इत्यादि दृसरोके हाथमें दिया जाता है वह', ऐसा अर्थ । (४१०) अड्डिम्मं अतिरिक्तम् । (४११) वउवलओ, विषरहितः भुजगः। (४१२) सिंहलओ, यंत्रं वस्त्रादेधूपस्य । (४१३) सोअणो मल्लः । (४१४) सिंदूरिआ राज्यम् । (४१५) सोवणं अन्तःपुरम् । . (४ १६) असंगअं प्रावरणम् ।. (४१७) बचं, शौर्येण क्रियते यच्चरितम् । (४१८) दंडवणं आज्यम् । ६४.१९)
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त्रिविक्रम-ग्राऊत-व्याकरण
उधिगरिआ हस्तोत्क्षेपः। (४२०) भंगोठणं व्रणितम् । (४२१) उप्पा, मण्यादेः मार्जनम् । (४२२) उप्पुलपोलिअं, त्वरा कौतुकेन । (४२३) अहिहरअं देवगृहम् । (४२४) संविड्डाणा आभिजात्यम् । (४२५) अगिला (४२६) हेला (४२७) उव्वत्तालं (यानी) अविच्छिन्नस्वररोदनम् । •(४२८) अवसरिओ विरहः । (४२९) उप्पालओ रणरणकम् । (४३०) माला डाकिनी। (४३१) विडप्पो राहुः। (४३२) अब्भपिसाओ (४३३) गहकल्लोलो ऐसे ये (दो शब्द) अभ्रपिशाच और ग्रहकल्लोल (इन शब्दों) से होते हैं। (४३४) उत्तिरिविडिअं उपर्युपरिस्थानम् । (४२५) सण्गि (४३६) विरगिण (यानी) आर्द्रम् । (४३७) वणपक्कसावओ शरभः। (४३८) विच्छेओ विलासः । (४३९) उस्ता गावः। (४४०) लसुअं तैलम्। (४४१) वाउत्तो विटः। (४४२) उप्पिणिरं शून्यम् । (४४३) दुब्भो (४४४) दमदंडो (यानी) भ्रमरः । (४४५) मुहिअं, यत् मृषा क्रियते । (४४६) आमेलो (४४७) आअल्लो (४४८)आलोल (यानी) केशबन्धनम् । (४४९)वालप्पं पुन्छम् । (४५०) कइलबइल्लो स्वेच्छोत्थायी बलीवर्दः । (४५१) डंडरं ईर्ष्याकलहः । (४५२) कोच्चप्पं अलीकहितकरणम् । (४५३) पेटं (४५४) मज्झिमगंडं (यानी) उदरम् । (४५५) झंरको तृणमनुष्यः । (४५६) खोहत्तं, आहतं पाणि-भ्यां जलम् । (४५७) अट्टलो अनपराधः । (४५८) उरणि पशुः । (१५९) -खरुमा, विषमा भूः । (४६०) खप्परो (४६१) खरडिओ (यानी) रूक्षः । (४६२) कुंभी (४६२ अ) पोलिकं (यानी) सुवर्णादिकं अन्तनिधाय बहिर्बद्धं कर्यटकखण्डम् (जाइर बांधा हुआ कपडेका टुकडा जिसके अंदर सुवर्ग, इत्यादि रखा है) ऐसा अर्थ । (४६३) गज्जणसदो -मृगनिषेवरवः । (४६४) चुप्पो मेदुरः। (४६५) उज्झं अरम्यम् । (४६) पारमरो रक्षः । (४६७) उतालो (४६८) वालिओ (४६९) णाओ (४७०) मडल्लो (२७१) वित्तई (४७२) पूणो (यानी) गर्षितः । (४७३) चुडुली उल्का । (४७४) महई पितृनन्दिरम् । (४७५) झंडली
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हिन्दी अनुवाद-अ. ३, पा. ४
(४७६) झंडली (४७७) हित्तं (४७८) मुरई (यानी) असती । (४७९) कुई (४८०) डेंडी (यानी) बलाका । (४८१) णीसारो (४८२) थलओ (यानी) मण्डपः । (४८३) पलं (४८४) मलो (४८५) णिवाओ (यानी), प्रस्वेदः । (४८६) मरो केशसंचयः । (४८७) चारवाओ ग्रीष्मवातः । (४८८) गिंडिली, ऐक्षवं दलम् । (४८९) इंदग्गिधूमं तुहिनम् । (४९०) पाडुकी (४९१) रोहिआ (यानी) व्रणिशिबिका। (४९२) रोरली कृष्णश्रावणचतुर्दशी। (४९३) भाअलो जात्यतुरगः । (४९४) वेडिओ (४९५) वहओ (यानी) मणिकारः । (४९६) रोप्पलो (४९७) पारावरो (यानी) वातायनम् । (४९८) तलपत्तं, योनिः वराङ्गम् । (४९९) छिच्छणओ असोढा । (५००) अणिभं मुखम् । (५०१) दिरिआ (५०२) जीविअमई (यानी) कामुकाकर्षिणी मृगी। (५०३) धम्मों 'धम्मकं पुरुषं दुर्गापुरो हत्वासृजो बली', दुर्गापुरसे पुरुषको नष्ट कर किया जानेवाला रक्तबलि, ऐसा अर्थ। (५०४) मुग्गुओ (५०५) मुग्गुसो (५०६) वग्गोवओ (यानी) नकुलः । (५०७) दूसलं उद्वेगः । (५०८) चप्फलं मिथ्यावचः । (५०९) उज्जोगलं भटः । (५१०) घग्घरं, जंधने वस्त्रविशेषः (घागरा) (५११)घणवाहिओ इन्द्रः । (५१२) सेआलिआ दूर्वा । (५१३) राडी (५१४) वग्घसिअं (यानी) रणम् । (५१५) मुंडी नीरंगी। (५१६) अवकुम्माणिका (५१७) धमो (यानी) विलासः । (५१८) सिंधुवणओ हताशः । (५१९) तोमरी लता। (५२०) वक्कडं (५२१) वद्दलं (यानी) मेघतिमिरम् । (५२२) हरणं (५२३) महारअणं (यानी) वस्त्रम् । (५२४) आणक्को तिर्यक् । (५२५) भंडो, सुतासुतो दौहित्रः । (५२६) णिआणिका (५२७) जिंदणिआ (यानी) कुतृणलुश्चनम् अर्थात् खेतमेंसे बुरा तृण दूर करना ऐसा अर्थ । (५२८) छेलिआ, अल्पपुष्पा स्रक् । (५२९ ) अक्कोडो ( ५३० ) बंकडो (यानी) अजः ( अर्थात् ) छागः । (५३१) कुल्हो शगालः । (५३२) सणिओ साक्षी। (५३३) पडअसाइमा (५३४) पसाइमा, (यानी) पत्रपुटी शबरमूर्धनि ।
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(( ५३५ ) अंबडो निष्ठुरः । (५३६ ) जवो (५३७) कालणो (५३८) तोलणो (यानी) पुमान् । (५३९) पलसू सेवा। (५४०) राअल्लो (५४१) रल्ला (५४२) राला (यानी) प्रियंगत्रः। (५४३) वीलणी ‘पिच्छिलम् । (५४४) खेआलु, हासो हासे सति, हँसना ऐसा अर्थ । (५४५) धारा रणमुखम् । (५४६) गेड्डा यवः । (५४७) थक्को प्रसञ्जनम् । (५४८) अइराणी (५४९) धुंधमारा (५५०) एराणी (यानी) शक्रवल्लभा अर्थात् इन्द्राणी ऐसा अर्थ । (५५१) अवआरो लोकयात्रा (५५२) गोविओ अल्पजल्पनः । (५५३) तामरो सुन्दरः। (५५४) गोत्तण्हाणे, पित्रोः जलाञ्जलिः । (५५५) खट्टिको (५५६) पोलिओ (५५७) सोरि (पानी) -सौनिकः। (५५८) पऊढं दीर्घनन्दिरम् । (५५९) सेआलो (५६०) कुंडिओ (५६१) सेट्ठी (यानी) प्रामेशः। (५६२) चिरिआ कुटी। (५६३) पुअई (५६४) पुइओ (५६५) पाणो (५६६) वाणो (यानी) चाण्डालः । (५६७) इक्कुसी नीलाब्जम् अर्थात् नील कमल ऐसा अर्थ । (५६८) थसलो (५६९) थासो (५७०) धसलं (५७१) धुरिअं (यानी) पृथु । (५७२) पञ्चहो (५७३) णेसरो (यानी) सूर्यः । (५७४) गोहो ग्राम्य जनाग्रणीः । (५७५) अंगुत्थलं अंगुलीयकम् । (५७६) अहद्धो स्नेहरहितः । (५७७) वपिवअं(५७८) पल्लवाअं(यानी) क्षेत्रम् । (५७९) अज्झोलिआ, पुनः पुनः या दुह्यते। (५८०) खुड्डू (५८१) खुडिआ (यानी) स्वल्पकं रतम् । (५८२) चिरिका, चार्मणं वारिभाण्डम् । (५८३) डोबरुओ गुरुहारिकः । (५८४) पच्चुअं दीर्घम् । (५८५) पोइमो ज्योतिरिङ्गणः । (५८६) मत्तल्ली (५८७) मिलाओ (५८८) मड्डा (५८९) 'पिणाओ (५९०) दरमत्ता (५९१) अक्कसालो (यानी) बलात्कारः। • (५९२) बलअणी वृतिः । (५९३) पाडिग्गहो (५९४) पोरवग्गो (यानी) विश्रामः । (५९५) गंदणो (५०.६) परिभओ (पानी) कर्मकृत् । (५९७) -अवझसो (५९८) दोहासल (गनी) कटिः । (५९९). पा ड.अज्झो,
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हिन्दी ष्णु
पतिगृहात् नेता पितृगृहं वधूम् । (६००) झुत्ती रजस्वला । (६०१) तग्गं सूत्रम् । (६०२) कुंडं हव्यधमः । (६०३) हुलुवि प्रसवपरा | (६०४) चिरओ कुल्या अर्थात् छोटी कृत्रिम नदी । (६०५) हे आलं अहिभोगाहस्तेन विनिवारणम् | (६०६) गहणं निर्जलस्थानम् । (६०७) चलंकी कर्कटी । (६०८) कली शात्रत्रः । (६०९) अमलो ध्वस्ततेजाः । (६१०) ववडओ द्विजः अर्थात् ब्राह्मण । (६११) रोलो दरिद्रः । (६१२) वे आलं अन्धकारः । (६१३) हरं तृणम् । ( ६१४) वल्लकं भीषणम् । (६१५) रिग्गो प्रवेश: । ( ६१६) वअलो वटः । (६१७) लल्लं स्पृहान्वितम् । (६१८) पठ्ठे अंशुकम् । (६१९) सेओ विनायकः । (६२० ) लसअं विटपिक्षीरम् । (६२१) परिहत्थो प्रतिक्रिया । (६२२) कारा रेखा । (६२३) सुई बुद्धि: । (६२४ ) काहिलो वत्सपालकः । (६२५) मणिणाअइरो वार्धिः । (६२६) पडीरो चोरसंहतिः । (६२७) पेल मार्दवम् । (६२८) इमो लोहकारः । ( ६२९) मुहत्थडी, मुखेन पतनम् | (६३०) कंठो सूकरः । (६३१) माअली मृदुः । (६३२) लिको यज्ञः । (६३३) कंठमल्लं यानपात्रम् | (६३४) सुदारुणी चण्डाली | (६३५) मरुलो भूनः । (६३६) ओसत्यो परिरम्भणम् । (६३७) पाडलं अब्जम् । (६३८) परिआली भोजनभाण्डम् । (६३९) बादओ आदर्शः । (६४०) वासुली (६४१) संफाली (यानी ) पंक्तिः । (६४२) गोचअं प्रतोदः । ( ६४३ ) कोसिओ कुविन्दः । (६४४) कंडपड तिरस्करिणी । (६४५) अवऊढं व्यलीकम् । (६४६) अंगवलिज्ज तनुचलनम् । (६४७) जेव्वं तीव्रम् । (६४८) पहम्मो देवखातम् । (६४९) कंठिओ द्वाःस्थः । (६५०) किंजुक्खो शिरीषः । : (६५१) हल्ली अपसृतिः । ( ६५२ ) हत्थरं साहाय्यम् । (६५३) गुप्पी इच्छा । (६५४ ) गजलं मैत्रेयम् । (६५५) गहरी क्षुरिका । – (६५६) संकटम् आरेदरं । (६५७) अग्निविशेष: पष्फाडो । (६५८) बलम् थोहं । (६५९) गोमयखण्डम् कउलं । (६६०) गण्ड : गंजं । (६६१) प्रकाममू
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त्रिविक्रम प्राकृत व्याकरण:
अणुअत्थं । (६६२) वामकर: पड्डो (६६३) डब्बो (६६४ ) डिवओ 1 (६६५) शशी अमअणिग्गमो । (६६६) गृध्रः सरवरो । ( ६६७) सुवर्णकार : झरओ । ( ६६८) पथिकः तिमिच्छा हो । ( ६६९ ) प्रतिहतगमनम् खवडिओ | (६७०) आज्ञा मप्पा | (६७१) निरन्तरम् तित्तिरिओ 1 (६७२) शूर्पादिजीर्णभाण्डम् कडंतरं । (६७३ ) यन्त्रवाहकः भूयो । (६७४) दर्पोद्धुरः सराहो । ( ६७५) निद्रालुः सोज्झिओ । ( ६७६) पताका हुड्डुमा । (६७७) पश्चात् मग्गो (६७८) ओरिल्लं । (६७९) यः सममुषितः एक्कसा हिल्लो । ( ६८० ) यत्र एकं पदं उत्क्षिप्य शिशुः क्रीडति, हिंबिआ । (६८१) या वध्वा उपरि परिणीयते, बहुहाडिणी । (६८२) कुमारी चुंदिणी । ( ६८३) धर्मः पिहरी । (६८४) यौवनोत्कटः अगंडिगोहो । ( ६८५) सुरतम् तत्तु डिल्लं । ( ६८६) पतद्ग्रहः णिलापा (६८७) णिल्लंको । ( ६८८) क्षेत्रजागर : छेत्तसोवणी । (६८९) वप्पओ (६९०) वप्पीहो, चातक और कुमार इन अर्थों में । (६९२) सइसिलिप्पो, युवन् और तरुण इन अर्थों में । (६९४) महालक्खो (६९५) वोद्दही (६९६) पुअंडो (६९०) पुआई, तरुण अर्थ में । ( ६९९) आमल्लअं (७००) बब्बरी, धम्मिल्लरचना अर्थमें । ( ७०१) सिंदीरं नूपुर अर्थमें । ( ७०२) उंडलं मञ्च अर्थमें । (७०३) वडुइओ (७०४) कुट्टारो, चर्मकार अर्थ में । ( ७०५) चुट्टी (७०६) वासी, शिखा अर्थ में । ( ७०७) कंपरं (७०८) कोत्यरं, विज्ञान अर्थ में | (७०९) णिक्खो, चोर और सुवर्ण इन अर्थोंमें । ( ७१०) पडिओ, बंदिन और आचार्य अर्थों में । ( ७११) कमढो, दधिवलशी और पिठर अर्थों में। ( ७१२) अत्रेडुअं, उलूखल और विसंस्थुल अर्थोंमें । (७१३) गोला, गो और नदी अर्थों में। ( ७१४) अक्खणवेलं निधुवन और प्रदोष अर्थों में । ( ७१५) णिज्जाओ, उपकार और पुष्पप्रकार अर्थोंमें । (७१६) काहल्ली, व्ययकरण और भ्राष्ट्र अर्थोंमें (७१७) करंडो, शार्दूल और वायस अर्थों में । ( ७१८) एक्कमुहो, निर्धर्म और अधन अर्थों में (७१९) तल्की, उदर और ऊर्मिमध्य अर्थों में। ( ७२०) उभआरो, प्राम
(६९१) उक्खरो ( ६९३) कहेडो (६९०) पेंडओ
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हिन्दी अनुवाद--अ. ३, पा. ४
३०५ और संघ अर्थों में । (७२१) महल्लो, मुखर, राशि और विस्तीर्ण अथोंमें । (७२२) कव्वालं, कर्मस्थान और वेश्मन् अर्थों में । (७२३) वेल्लवं, विलास
और लता अथोंमें । (७२४) आअट्टिआ, परायत्ता और नववधू अथों में । (७२५) सकप्पं, आर्द्र, अल्प, चाप, प्रचुर अोंमें । (७२६) करोडो, काक, नालिकेर और वृष अर्थोंमें । (७२७) रोहं (७२८) रोडी, इच्छा और मति अर्थों में । (७२९) कालिबअं, शरीर और अम्बुद अर्थाने । (७३०) केंज, असती रज्ज और कन्द अथोंमें । (७३१) शिआरं, रिपु, ऋजु और प्रकट अर्थो । (७३२) कुरुलो (७३३) कुरुढो, ये दोनों भी अनघ और निपुण अर्थाने। (७३४) आअं, अतिदीर्घ, विषम, मुसल और कालायस अर्थों में । (७३५) किण्हं, सित अंशुक और सूक्ष्म अर्थों में । (७३६) लाइअ, अजिरार्ध, भूषण और गृहीत अर्थों में । ( ७३७ ) कालिआ, ऋणवृद्धि, काय और अम्बुद अर्थोमें। (७३८ ) कडअल्ली, कण्ड और कर्णिका अर्थों में । ( ७३९) उद्दाणो, कुरर, सगर्व और प्रतिशब्द अथों में । (७४० ) ओलअणं, दयितीभूता और नववधू अर्थोंमें ( ७४१ ) खव्यो, वामहस्त और गर्दभ अर्थोंमें । (७४२ ) डोंगी, रथ्या और स्थासक बयों में । ( ७४३ ) चेंडा (७४४) सीहली, शिखा और नवमालिका अर्थों में । (७४५) उद्दो, ककुद् , जलपुंस और दान्तपृष्ठ अथोंमें । (७४६ ) कोट्टी, स्खलना और दोहविषमा अर्थाने । (७४७) तमणी, लता और व्यधिकरण अर्थों में । (७४८) सत्ती, बंधन, वचन, इच्छा और शिरःस्रज् अर्थों में । (७४९) उप्पिनलं, रत, काक और रजस् अोंमें । (७५० ) णड्डुलं, विनत और दुर्दिन अर्थो । (७५१) उच्चाडणं, उपवन और शीत अथोंमें । (७५२) दावो, दास और गर्दभ अोंमें । (७५३ ) बोंदी, रूप और वचन अथोंमें । (७५४) उम्मल्लो, सान्द्र और भूपति अर्थों में । (७५५) बोडो, धार्मिक और यतिन् अर्थो । (७५६) उच्च डिगो, अधिकमान और निःसीमन् अर्थाने । (७५७) इल्ली
त्रि.वि....२०
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३०६
त्रिविक्रम-प्राकृत-व्याकरण वर्षत्राण, व्याघ्र और सिंह अर्थों में । (७५८) पत्तणं, बाणफल और शरपुंख अयों ( ७५९.) अकंडतलिमो, अपरिणीत और निष्प्रेमन् अर्थो में । (७६०) दअं, उदक और शोक अर्थों में । (७६१) घोलिअं, शिलातल और हठात्कृत अर्थों में । (७६२) जवणं, हय और शशिवदन अर्थोंमें। (७६३) खंजणो, खञ्जरीट और कर्दम अर्यों में । (७६४) तलिमो, गृहोद्धभूमि, वासगृह, कुट्टिम, भ्राष्ट्र और शय्या अर्थोंमें। (७६५) झसो, गम्भीर, तटस्थ, अयशस् और दीर्घ अर्थोंमें । (७६६) वप्पो, भूतगृहीत और बलाधिक अर्थो । (७६७) वल्लरो, मरु, महिष, तरुण, क्षेत्र और अरण्य
अोंमें। (७६८) मरालो, सुंदर, अलस और मसृण अर्थों में । (७६९) मम्मक्को, गर्व और उत्कण्ठा अथोंमें। (७७०) विसिडो, विरत और विसंस्थुल अर्थो । (७७१) बलबट्टी, व्यायामसहाया और सखी अर्थो । (७७२) सुज्झसो, रजक और नापित अर्थोमें। (७७३ ) वेइड्रो, तनु, शिथिल, आविद्ध, ऊर्चीकृत और विसंस्थुल अर्थोंमें। (७७४) मलइओ, हत और तीक्ष्ण अर्थो में। (७७५) वडप्पं, लतागृह, सततपवन और हिमवर्ष अर्थोंमें । (७७६) राहो, प्रिय, शोभित, मलिन, सनाथ और विसंस्थुल अर्थोमें। (७७७) वंठो, नि:स्नेह, अकृतविवाह. और भृत्य अोंमें। (७७८) मंथर, कुटिल, बहु और कुसुम्भ अर्थों में । (७७९) लअणं, तनु और कोमल अर्थोमें । (७८०) मम्मणं, अव्यक्तवचस और रोप अर्थाने । (७८१) तुण्हिक्क, मृदु और निश्चल अर्थोंमें । (७८२) ठेणो, स्थासक, चर और चोर अयोंमें। (७८३) तुंबिल्लि, मधुपटल और उलखल अर्थो में। (७८४) पत्थरी, शयन और संहति अर्था । (७८५) णिविटुं, रत्यारभट और समुचित अर्थो में (७८६) दअरो, पिशाच और ईर्ष्या अथोंमें । (७८७) झसुरं, ताम्बूल और अर्थ अोंमें । (७८८) पिंजरो (७८९) पाडलो, हंस और वृष अथोंमें। (७९०) विनोवणअं, क्षोभ, उपधान और विकार अोंमें। (७९१) कुल्लो, असमर्थ, ग्रीवा या
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हिन्दी अनुवाद--अ. ३, पा. ४ विच्छिन्नपुच्छ अर्थों में । (७९२) चुंगुणिआ, मुष्टिद्युत, यूका और समर्थ अोंमें । (७९३) टको, ख्डग, छिन्न, जंघापात, तट और खनित्र अर्थोंमें। (७९४) कोणो, गर्षित और निर्दय अर्थो । (७९५) गेलछो, घण्ढ और पण्डित अर्थोंमें । (७९६) खुलुखी, मिथ्या और अघटमान अर्थोंमें । (७९७) अण्णओ, धूर्त, युवन और देवर अोंमें। (७९८) दुणावेढं, अशक्य और तडाग अर्थों में । (७९९) अरलो (८००) अरलाओ, चिरिका और मशक अर्थो में । (८०१) अच्छं, अत्यर्थ और शीघ्र अथोंमें । (८०२) अलिआ, पितृवसा और कनिष्ठ सगे बंधूकी वधू अोंमें। (८०३) पक्कणं, अतिशोभावत् , भग्न और श्लक्ष्ण अर्थों में । (८०४) पन्भारो, संघात और गिरिगुहा अर्थों में । (८०५) पब्वज्जो, काण्ड, नख और शिशुमृग अर्थोंमें। (८०६) पासण्णो, वेश्मद्वार और तिरश्चीन अर्थोंमें । (८०७) विप्पओ, उन्मत्त और चीरी अर्थोंमें । (८०८) कोप्परो, वर्णसंकर और जालक अर्थों में । (८०९) केड्डो, व्यापन, फेन, श्याल और दुर्बल अर्थोंमें । (८१०) ओहढें, नीवी और अवगुंठन अर्थोंमें, (८११) ओहित्थं, रभस और विषाद अोंमें। (८१२) तोलो (८१३) तड्डो, पिशाच और शलभ अर्थोंमें । (८१४) डसरी, उष्णजल और स्थाली अथोंमें । (८१५) णिउक्कणो, वायस और मूक अर्थोंमें। (८१६) पइरेक्क, एकान्त पृथक् इस अर्थमें और शून्य अर्थमें। (८१७) तुरी, उपकरण, तलिका और शून्य अर्थोंमें । (८१८) वोक्कों, अनिमित्त और तात्पर्यार्थ अर्थो में । (८१९) पसुलो, काकोल और जार अथोंमें। (८२०) किवडी, पार्श्वद्वार और पश्चिमाङ्गण अर्थो में । (८२१) छाआ भ्रमरी । (८२२) सिप्पं, तिलक, और सरके भूषण विशेष अर्थोंमें। (८२३) णलअं, वृतिविवर, कर्द मित, निमित्त और प्रयोजन अोंमें। (८२४) इच्छाउत्तो, योगिनीसुत और ईश्वर अर्थोंमें । (८२५) पेहणअं, उत्सव और भोज्य अथोंमें । (८२६) चारो, इच्छा और बंधन अथोंमें (८२७)
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त्रिविक्रम - प्राकृत-व्याकरण
મેં
जच्चंदणं, अगुरु और कुंकुम अर्थों में । (८२८) डिंखा, आतंक और त्रास अर्थों में । (८२९) दलिअं, अंगुलि, दारु और कूणिनाक्ष अथोंमें । ( ८३० ) . चिप्पंडी (८३१) विप्पत्ती, व्रत और उत्सव विशेष अर्थोमं । (८३२) उंचाडइओ हुंकृत और गर्जन अर्थों में । ( ८३३) पन्चलं, असहन और समर्थ अर्थों में। (८३४) साहुली, वस्त्र, शाखा भू, सखी, सदृश, और बाहु (८३५) लंबी, लता और स्तबक अर्थों में । ( ८३६) रंजणं, घट और कुण्ड अथोंमें। (८३७) घुड़की, मुखसंमेद और मौन अर्थों में । (८३८) छुद्धि, द्वेष्या और अस्पृश्या अर्थों में ( ८३९ ) सरी, प्रशस्ताकृति और दीर्घ अर्थों में । ( ८४० ) गोरो, ग्रीवा, अक्षि और सीता अर्थों में (८४१) भसत्तो, वहूनि और दीप्त अर्थो में । (८४२) भेली, चेंटी और आज्ञा अर्थो । (८४३) कण्णोविआ, चञ्चु और अवतंस अथोंमें । (८४४) अल्लत्थी, अंगद और जलार्द्रा अर्थों में । ( ८४५) अमारो नदीमध्यद्वीप और कमठ अर्थों में । (८४६) उफेसो, भीति और सद्भाव अर्थों में ॥ इत्यादि । अब ( १ ) आडम्बरो पटहः । ( २ ) ओन्दरो मूषिकः । (३) वामलूरो वल्मीकम् । ( ४ ) किरी वराहः ( ५ ) लहरी तरंगः प्रवाह वा । ( ६ ) तलं कासारः । ( ७ ) महाबिलं गगनम् । ( ८ ) पाढा शोभा । ( ९ ) खेडं ग्रामस्थानम् | (१०) महानडो रुद्रः । ( ११ ) पुडइणी नलिनी । ( १२ ) जयणं पाडलं कमलम् । ( १४ ) कमडो भिक्षापात्रम् । (१५) कलं कल्यम् | (१६) गंन्धुत्तमा सुरा, इत्यादि शब्द तत्सम / तद्भव होनेके कारण प्रयोग प्राप्त हो ( सकते हैं ।
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भयसंनहनम् । (१३)
३०८
( सूत्र में से ) सिद्धा: पद मंगलार्थक है ॥ ७२ ॥ तृतीय अध्याय चतुर्थ पाद समाप्त
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अक्षरानुक्रमेणं सूत्रपाठः
सूत्र क्रमाङ्क पृष्ठ सूत्र
क्रमाङ्क पृष्ठ अइ तु वैरादौ १.२.१०२ ३९ अन्त्यस्य वचिमुचिरुदिनु. अक्ष्यर्थकुलाद्या वा १.१.५१ १७
२.४.४५ १६३ अच्चुक्कयोक्की
अन्त्यस्य हनखनोः २.४.७५ १७० विज्ञापेः २.४.१११ १७७ अन्त्यहलोऽश्रदुदी १.१.२५ १० अचोऽचाम् २.४.७१ १६९ अन्यादिदेति मो णः ३.२.७ २११ अचोऽस्तवोऽखौ करवतपफा अन्याहशस्याण्णाइसाव
३.३.२ २२५ राइसौ ३.३.५५ २५३ अट्टः क्वथेः ३..६८ १९३ अन्येषामादियुजि न ३.२.६६ २२४ अडडडुल्लाः स्वार्थिक-३.३.२९ २४१ अपती घरो गृहस्य १.३.९६ ६२ अण णाई नबर्थे । २.१.६१ ११५ अपुण्णगाः क्तेन ३.१.१३२ २०४ अत एवैचू से २.४.७ १५२ अपेः पदात् अतिङि तुरः २.४.१४९ १८१ अब्भो पश्चात्ताप- २.१.४१ १११ अतो उसेदोश् ३.२.२० २१३ अमः
२.२.२ ११९ अतो डो विसर्गः २.२.१२ १२२ अमा तमे तप च २.३.२ १४२ अत्खुः परस्परस्य ३.३.५४ २५२ अम्महे हर्षे ३.२.१५ २१२ अत्सुस्सिहिस्से २.२.७८ १३८ । अम्हं मज्झं मज्झ- २.३.२५ १४६ अथवा मनागहवइ- ३.३.२७ २५० अम्हई अम्हे जश्शसोः३.४.४८ २८२ अदन्ताइडा ३.३.३२ २४३ अम्ह मम भ्यसि २.३.२४ १४६ अदेल्लुक्यात्खोरतः २.४१५ १५४ अम्ह मम मज्झ- २.३.२७ १४७ अद्रुमे कदल्याम् १.३.४३ ५२ अम्हे अम्हो अम्ह २.३.१७ १४५ अधः क्वचित् ३.२.२ २.० अम्हे अम्हो अम्हाण २.३.२६ १४६ अनर्थका घइमादयः ३.३.५८ २६० अम्हो आश्चर्ये २.१.४० १११ अनिदमेतदस्तु कियत्तदः
अयि ऐ
२.१.७४ ११७ २.२.६४ १३६ अर उः
२.४.६६ १६८ अनुक्तमन्य शब्दानुशा
अररी अरिज्जमाश्चर्ये १.४.५६ ७८ _ सनवत् १.१.२ ४ ॐरि वृषाम् । २.४.६७ १६८ अनुवजतेः पडिअग्गः३.१.४६ १९० अर्जेपिढप्पः अन्तरिच नाचि १.१.२७ १० अर्थपरे तो युष्मदि १.३.७३ : ५७ त्रि.वि....२१
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३१०
त्रिविक्रम-प्राकृत-व्याकरण
सूत्र क्रमाङ्क पृष्ठ सूत्र
क्रमाङ्क पृष्ठ अरल्लिवपणाम- २.४.९९ १७५ आमो डाह ३.२.२९ २१६ अर्हत्युच्च
१.४.१०५ ९० आमो हैं। अलाहि निवारणे २.१.६५ १९६ आमो हं च ३.४.१५ २०८ अल् दुकूले १.२.६७ ३३ आरः सुपि
२.२.४९ १३२ अल्लिअ उपसः ३.१.८६ १९६ आरभ आढप्पः २.४.८३ १७२ अवहेडमेलणिल- ३.१.४१ १८९ आरोलवमालो- ३.१.५३ १९१ भविद्युति स्त्रियामाल १.१.२९ ११ आर्गयां यः श्वश्वा- १.२.२१ २४ अव्ययम्
२.१.३१ १९० आल्लीङोल्लिः २.४.१२१ १७८ असाववखोडः ३.१.११० २०१ आश्लिष्टे लधौ १.४.७१ ८० अस्टासोर्डि २.३.३९ १४१, आसंघः संभावेः २.४.९८ १७५ अस्तोरखोरचः १.३.७ ४३ आसारे तु
१.२.२२ २४ अस्मत्सुना अम्हि- २.३.१५ १४४ आ सो वा २.२.५२ १३३ अस्मदोऽम्हहहं ३.४.४४ ६८१ आहाहिलंध- २.१.१०७ २०० अहद्वा सुना. २.२.९१ १४१ ईनपि
३.४.२४ २७३ अहेस्यासी तेनास्तेः २.१.२४ १५७ इअदूणी कत्वः ३.२.१० २१२ आकामिरोहावोत्था-६.२.२४ १९८ इआऔ ग्मी २.२.९२ १४१ आघ्राक्षिस्नामाइग्घ- ३.१.६ १८५ इकः पथो णस्य २.१.४ ९८ आचार्य चो हश्च १.२.३५ २६ इचेचोर्दट् ३.२.२५२१४ आत्सावामन्त्र्य- ३.२.२१ २१३ जेराः पादपूरणे २.१७० ११८ आदिः खुः
१.१.९ ६ इणममामा
२.२..७ १३४ आदीतः सोश्च ६.२.३३ १२७
इतसेत्तहे
३.३.४८ ६५० आदेः . १.२.२ १९
१.२.६ २०
इतो तो वाक्यादौ १.२.४५ २९ आदेञ्जः
१.३.७४ ५८ आदेस्तु . १.३.३ ५४
इत्तु सदादौ १.२.३४ २६ इदतोऽति
३.३.३३ २४४ आद्वा मृदुत्वमृदुक- १.२.७४ ३४
३.४.३६ इदम आपः
७७ आनन्तये णवरिअ २.१.४५ ११२
इदम इमः २.२.७६ १३८ आ भूतभविष्यति- २.४.४७ १६४
इदम इमु नपुंसके ३.४.३२ २७६ आम अभ्युपगमे २.१.३२ ११०
इदमेकतत्कियत्तद्ध-२.२.७३ १३८
मे आमन्त्रणे वेव्वे च २.१.५७ १.५ इदानीभेव्यहि आमां डेसिं
२.९.६५ १३६ इदानीमो रुदाणि ३.२.१२ २१२
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सूत्र तोर्दः
इदुदेत्स्वहैः
इदुन्मातुः इदेनूपुर
इन्ध इन्मयटि
इय्यो यकः इरः शीलाद्यर्थस्य
द्दल कृपगे
इहरा इतरथा चोईस्
इहेणं यमः
ई अइजी यक्
उअ पश्य
उ ओ उपेः
सूत्रपाठः
३.२.५ २११ २.२.८० १३९
२.४.९१ १७३
ईतः काश्मीरहरोत- ५.२०१० ३७
ईतः सेसार ईदुपूढे ईध
२.२.६८ १३७ १.२.६८ ३३ १.२.१०८ ४०
२.४.८१ १७१
ईर हतृजाम् ईलू खल्वाटस्त्यान- १.२०३३ २६
ईल ज्यायाम्
उद्यतां त्वमाम उहोतौ जश्शसः उद्व ओमावसुओं
क्रमाङ्क पृष्ठ सूत्र
२.२.२२ १२४ उद् वृषभे वुः
उन्नविचवृत्ता
क्रमाङ्क पृष्ठ
१.२.७८ ३५
३.३.५३ २५२
३.४५७ २८५ १.२.८२ ३६ उपरेः संव्याने लल् २.१.१९ १०१ १.२.७१ ३४ उब्भाववेल सिर- ३.१.९१ १९७ १.४.२९ ७३ उभयाधसोरवहट्ठौ १.३०९८ ६३ १.३.६९ ५७ उँ मिबिटोः
३.४.५५ २८४
उम्होरह तुय्हतुम्भ- २३.११.१४४
२९
उ युधिष्ठिरे १.२.४७ उल्लू कण्डूयहनूम - १.२.६९ ३४ उलू जीर्णे उलू ध्वय विष्वचो
१.२.५३ ३१
१.२.१६ २३
३.२.५८ २२२ २.१.२८ १०३ १.२.७५ ३४ २.१.७२ ११७
उच्चैनाचैसोर अः १.२.१०७ ४० उत्करवल्लीद्वारमात्रचः २.४.२५ २४ उत्क्षिपित्थग्धो- ३.१.८० १९५ उत्थल उच्चलेः २.४.१४१ १८९ उत्सवऋक्षोत्लुक- १.४.१९ १७१ उदो सृषि
१.२.८५ ३६
वः
उल्लसे रूसलोसुंभारोउवर्णस्यावः
१.४.११० ९१ २.१.७५ ११७ ऋतुगे २.१.६८ ११६ ऋतोऽत्
३११
३.१.१११ २०१
२.४.६४ १६७
ऊ गविस्मयसूच- २.१.५२ ११४ ऊत्ये दुर्भगसुभगे वः१.३.१८ ४६ अव भो वा ऊ स्तेने वा ऋतु ऋजुऋणऋषि
१.४.५० ७७
१.२.९९ ३९ १.२.९१ ३७ १.२.८० ३५
१.२.७३ ३४
२.२.४३ १३०
ऋदन्ताडुः
एं चेदुतः
३.४.१२ २६६
एकस्मिन् प्रथमादे- २.४.३५ १६१ एकाचि श्वः स्वे
१.४.१०८ ९१ एकाइ : सिसिआ - २.१.१५ १०० एक्कसरिअं
झटिति संप्रति २.१.७१ ११७
२.२.४८ १३१ ३.४.२३ २७२ दङः १.१.२१ ३.१.३२ १८८ एच्च क्त्वातुतव्य - २.४.१९ १५६
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त्रिविक्रम-प्राकृत-व्याकरण
सूत्र क्रमाङ्क पृष्ठ सत्र
क्रमांक पृष्ठ एहि एत्ताहे
कदर्थिते खोः १.३.४४ ५२ - इदानीमः १.३.१०३ ६३ कदले तु एतदेह एहोएहु- ३.४.३३ २७६ कमवसलिसलोट्टा:एतदो म्मावदितौ वा २.२.८७ १४० स्वपेः ३.१.८७ १९६ एत्तो पत्ताहे उसि- २.२.८५ १४० कम्पेर्विच्छोलः २.४.१०६ १७६ एत् साज्झला त्रयो- १.३.१ ४२ कम्मवमुपभुजिः ३.१.५४ १९५ एप्प्येप्पिण्वेव्येविणु ३.३.१९ २३५ कर्णिकारे णो वा १.४.८- ८६ ए भिसि
३.४.४ २६३ कर्णिकारे फोः १.३.३ ४२ एय्य एव भविष्यति ३.२.५७ २२२ काणेक्षिते णिभारः ३.१.२१ १८७ एल पीठनीडकीहश-१.२.५६ ३१ कान्तस्यात उं स्वमोः३.४.२५ २७३ एव जि
३.३.३५ २४४ कामुकयमुनाचामु- १.३.११ ४५ एवमेम ३.३.३६ २४५ काषापणे
१.४.६२ ७९ एवमेव एमइ ३.३.३९ २४६ काश्मीरे म्भः १.४.५३ ७७ एवमेवदेवकुलप्रावा-१.३.९४ ६२ कासेरवाद्वासः २.४.१५५ १८२ एवार्थे एव्व ३.२.१८ २१३ किं काईकवणी ३.३.५२ २५१ ऐच एक १.२.१०१ ३९ किं किं
२.२.८३ १३९ ओअग्गसमाणी- ३.१.७७ १९५ किंतद्भयां सर २.२.६६ १३६ ओअन्दोदालो छिदे-३.१.६६ १९३ किंयत्तदोऽस्वमामि २.२.४० १२९ ओइ भदसः ३.४.३५ २७७
किंयत्तद्भयो ङस् २.२.६७ १३६ ओली पुंसि तु. ३.४.३ २६३
किणो.प्रश्ने २.१.३७ १११ ओदाल्यां पङ्क्तौ १.२.२९ २५ किमिदमश्च डेत्तिभ-२.१.३ ९८ ओ पश्चात्तापसूचने २.१.६० ११५ किमो डीस डिणो २.२.७१ १३७ ओल स्थूणातूण- १.२.७२ ३४ किर इरहिर किलार्थे २.१.३९ १११ ओहरोसराववतरेस्तु३.१.३६ १८९ किरिवेरे डः ओहिरोग्घौ निद्रः ३.१.३१ १८८ किल किर ३.३.४१ २७७ का शक्तमुक्तदष्ट- १.४.४ ६९ कुतः कउ कहंतिहु ३.३.४६ २४९ कमटडतदप - क
कुत्रात्रे च उत्थु ३.३.१५ २३२ पशोरुपर्यद्रे १.५.७७ ८१ कूरो गौणेषदः १.३.१०२ ६३ कतिपये वहशी १.३.७२ ५७ कृष्माण्डयां ण्डश्च-१.४.६४ ७९ कथं यथा तथा डिह- ३.३.८२२८ कृगमोडेदुः ३.२.११ २१२ कधज्जरपजर- ३.१.६९ १९३ कृञः कुणः
३.१.२० १८६
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सूत्रपाठः
३१३
सूत्र क्रमाक पृष्ठ सूत्र
क्रमाङ्क पृष्ठ कृञो डीरः ३.२.५९ २२२ क्षमारत्नेऽन्त्य - १.४.९६ ८८ कृदो हं
२.४.३२ १६० वेडकगे खल् १.४.५ ६९ कृपो णिजवहः २.४.१२९ १७९ खरपड्डही क्षुभेः ३.१.८४ १९६ कृष्णे वर्णे १.४.१०४ ९० खद्यथधभाम् १.३.२० . ४६ क्लप्त इलिः १.२.९२ ३७ खस्य सर्वाङ्गात् २.१.५ ९९ केर इदमर्थे २.१.८ ९९ खादधावि लुक २.४.५८.१६६ केर् च वेः २.४.१२३ १७८ खोः कन्दुकमरकत-१.३.१५ . ४६ केवलस्य रिः १.२.८९ ३७ खोः करवीरे णः १.३.८० ५९ केवलाअसार- ३.१.४४ १९० खोऽपुष्पकुब्ज- १.३.१२ ४५ केवले जवर २.१.४६ ११२ गजडदबघझढधभा-३.२.६५ २२३ कोक्कयोक्को व्याहुः३.१.३४ १८८ गण्ठो ग्रन्थेः २.४.१४७ १८१ कौक्षेयक उत् १.२.९६ ३८ गभीरग.इत् १.२.५१ ३० क्ते
२.४.१८ १५५ गमिरणुवजावज्ज- ३.१.९७ १९८ क्व इइउइविवि ३.३.१८ २३४ गमेस्त्वेप्येपि- ३.३.२१.२३६ क्वा तृन
३.२.६० २२२ गर्जेर्बक्कः३ .१.५० १९१ क्वासुपोस्तु सुणात् १.१.४३ १४ गर्मिते
१.३.५१ ५३ क्रियः कीणः २४.१२२ १७८ गवेषेर्घत्तगमेस- ३.१.१२१ २०२ क्रियेः कीसु ३.४.६२ २८७ गव्य उदाईत १.२.९८ ३९ कीबे गुणगाः १.१.५२ १७ गहिआद्याः १.४.१२१ ९३ कीये स्वमेदमिण- २.२.८२ १३९ गाहोऽवाद्वाहः ३.१.१३० २०४ क्वचित्सुपि तदो णः२.२.७४ १३८ गुण्ठ उद्धलेः २.४.११७.१७७ क्वचिदभूतोऽपि ३.३.६ २२८ गुम्मगुम्मडौ मुहेः ३.१.१३१ २०४ क्वचिदसादेः ३.३.३८ १४९ गुललश्वाटौ ३.१.२६ १८७ क्विपः
२.४.४७ १३१ गुलुगच्छोत्थयो-२.४.१०० १७५
१.४.८ ७० गो गणपरः क्षः४कः
३.२.३३ २१७ गोणाद्याः १.३.१०५ ६४ क्षण उत्सवे १.४.२१ ७२ गौणान्त्यस्य १.२.८१ ३६ क्षमायां को १.४.२० ७२ गौरव आत् १.२.१०५ ४० क्षिपिरडुक्खपरि- ३.१.७९ १९५ ग्मो मः
१.४.४७ ७६ क्षुत ईत्
१.२.६० ३२ प्रसेर्धिसः ३.१.११३ २०१ क्षुरे कम्मः ३.१.२८ १८७ नहेर्धेप्पः २.४ ८७ १७२
.
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________________
३१४
सूत्र
प्रहेर्णिस्वारगेण्ड - २.४१५७ १८३
घञि वा घटेड:
१.२.३८ २७ ३.१.५८ १९२
घुमलविरोलौ मन्थेः ३.१.६३ १९२ घूर्ण घुम्म पहलघोलघुलाः
त्रिविक्रम प्राकृत-व्याकरण
क्रमाङ्क पृष्ठ सूत्र
घेत
ङसः सुग् यत्तङस
२.४.१४२ १८१ व्यक्त्वासु- २.४.४४ १६३
असिसटाश्व ङसिस ह ङसेः शशाशिशे
३-४-२९ २७५ ३.४.२७ २७४ २३.४० १५० २.२.१७ १२३ २.२.३४ १२८ ङसेः लुक् २-२.१५ १२२ ङसे हु ३.४.७ २६४ ङसे स्तोतुशतः ३.२.५५ २२२ ङसो लुक् ३.४.१६ २६९ ङसोऽस्त्रियां सर् २.२.१० १२१ ङङसिटां णोणो- २.२.५९ १३४ ङसङसिना महुमज्झु३.४.४७ २८१ ङङयो - ३.४.२१ २७१ ङिाभ्यां तुमए तुइ- २.३.६ १४२ ङि नेच्च डिपोऽम् ङिरि डाहेडीप्रत्यये
३.४.६ २६४ २.३.४१ १५० २.२.६९ १३७
डे
ङोमर इस्त्थस्सिम्मि ङेसो उम् ङघम्टा पर त ड्यौ कबन्धे
क्रमाङ्क पृष्ठ १.४.१६ ७१
चः कृत्तिचत्वरे चच्चारवेलवावु ३.१.८३ १९६ चण्डखण्डिते णा वा१.२.१९ २३ चतुरो जश्शस्भ्यां - २.३.२८ १४७ चतुरो वा
१.४.११६ ९२
२.२.२३ १२४ चपेटाकेसर देवर- १.२.९३ ३८ चर् नृतिमदिवजाम२.४.४९ १६४ चलयोरचलपुरे चलस्फुटे चिष्ठस्तिष्ठस्य चोः खचित पिशाचयोः सलौ
२.४.६२ १६७
३.२.४२ २१९
२.२.३८ १२९ २.२.१६ १२३ २.२.११ १२२
१.३.२२ ४७
छर् गमिष्यमासाम् २.४.५० : १६५ छल् पट्शमीसुधा- १.३.९० ६१ छस्य युष्मदादेर्डारः ३.३.२३ २३७ छस्यात्मनो णअः २.१.६ ९९ छागशृङखल किराते- १.३.१३ ४५ छादेर्नृमनुम बाल २.४.११० १७६ छायायां होऽकान्तौ १.३.७० ५७ छिदिभिदो न्दः छिप्पः स्पृशतेः छोड़नादौ श्वः जणि जणु नं नइ जनो' जाजम्मौ जयद्यां यः जर् स्विदाम् जश्श सोरेंड
२.४.५४ १६५
२.४.८८ १७३
३.२.३२ २१७ ३.३.२४ २३७ - २.४.१४० १.०
३.२.३९ २१९.
२.४.५३ १६५ ३.४.३४ २७६
२.२.६३ १३५ जश्शस्ङसिङसां- २.२.५५ १३३
२.३.३५ १४८ ३.४.४० २७९ १.३.६२ ५६
जसा भे तुम्भे तुम्हे - . २.३.३ १४२ जाग्रेर्जग्गः ३.१.१५ १.६
जाणभुणौ शः २.४.१३० १७९
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________________
सूत्रपाठः
सूत्र क्रमाङ्क पृष्ठ सूत्र
क्रमाङ्क पृष्ठ जुजजुज्जजुप्पा
टोस्तु तु
३.२.५१ २२१ २.४.१३९ १८० ठः
१३.२८ ४८ जुगुप्सतेर्दुगुच्छ- ३.१ १९७२३ ठढी स्तब्ये १.४.७२ ८० जूरः क्रुधेः ३.१.७२ १९४ डं मेश्छात्ततः २.४३१ १६० जम्भेऽवेर्जम्मा २.४.१६८ १८० ढः सादपति जा व्रजेः
३.२.३८ ५१९ डरसोऽताम् ३.३.१० २३० ज्जा जे
२.४.२१ १५६ डच्छ दृशिगम- २.४.२८ १५८ शम्नो
१.४.३७ ७५ डलफोदितविच्छर्द- १.४.६३ ७४ झो ओऽविज्ञाने १.४.८२ ८३ डको उतः
२.१.२५ १.५ शो णोऽभिज्ञादी १.२.१७ २३
डिक्को वृषे ३.१.५१ १९१ ज्योर्दनुजवधराज- १.३.९५ ६२ डिप्पणिड्डुहो- ३.१.१०१ १०९ झरझूरसुमरविम्हर- ३.१.१२ १८५
डीतः स्त्रियाम् ३.३.३१ २४३ झरपज्झरपञ्चड्डः २.४.१५४ १८२
डुण्डुल्लडुमडण्डल- ३.१.९६ १९८ झाडगास्तुदेश्याः
डुमअऽम औल भ्रवः २.१.३५ १८२ सिद्धाः ३.४.७२ २९३
डेडाववश्यमः . ३.३.२७ २४० झिझोल्ति न्ते इरे २.४.४ १५१
डेच्चओयुष्मदस्मझो जटिले १.३२३ ४७
दाऽणः २.१.१० ९९ टल त्रसरवृन्ततूबर. १.३.३७ ५१
डे तु किंशुके १.१.४६ १५ टाङि ङसाम् २.२.३५ १२.
उत्तहे त्रलः टा ने न तदिदमोः ३.२.५३ २२१
३.३.१३ २३२ २.२.४५ १३० डेत्तुलडेवडावियत्- ३.३.१२ २३१ टा भे ते दे दि- २.३.३ १४२ डेरो ब्रह्मचयेसोन्दर्य
१.४.५७ ७८ टाससि णः २.२.६९ १३९
३.४.५ २६३
डोच्छ वचिमुचि- २.४.३० १५२
१.३.३१ टोड:
४९ डो तदस्तु २.२.७२ १३७
१.३.४६ ५२
डो दीपि टो डणल २.२.१८ १९३
डोलुको तु संबुद्धः२.२.४२ १३० टोणा
२.२.२८ १२६ टोणा
१.४.४३ ७६ २.२.५४ १३३ मतमोः होणानुस्वारी ३.४११ २६६ ढंसात्थंधी विवृति- ३.१.६४ १९२ टोडिशादी लः १.३.२४ ४७ ढः कैटभशकटसटे १.३.२७ ४८ टो घात्मनो णिआ- २.२.६१ १३५ ढः क्वथिवर्धाम् २.४.५५ १६५
टापो डे
टि
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३१६
सूत्र
क्रमाङ्क पृष्ठ
दः पृथिव्यौषधनिशीथे १.३.४७ ५२ ढिराहते १.२.८७ ३७ ढोऽधर्द्धिश्रद्धाणं नन्वर्थे
इचेअ चिअच्च - २.१.३४
णपणज्जौ ज्ञः पर्दिना रुदिते वि वैपरीत्ये
२.२.४ ११९
णशामः णिजदेदावावे
२.४.११ १५३
णिब्बलो मुचेर्दुःखे ३.१.४० १८९ णिरचो बुभुक्ष्याक्षिप्योः
त्रिविक्रम - प्राकृत-व्याकरण
णिहर आक्रन्देः णिहुवः क.मेः णे च शसा
१.४.३४ ७४ ३.२.१४ २१२ ११० २.४ ८४ १७२ १.३.४९ ५३ २.१.५५ ११४
णिलुञ्छो निष्पाताच्छोटे :
३.१.२९ १८८ पिल्लूर लुरणिन्वर - ३१-६७ १९३ निवहणिरिणास- ३.२.१०२ १९९ णिव्वोलो मन्युनौष्टमालिन्ये
३.१.७८ १९५
सूत्र
क्रमाक पृष्ठ
तक्षेश्चञ्छरम्परम्फा ३.१.१२२ २०२ तडिजेचः ३.२.५६ २२२ तडेराहोडविहोडौ २.४.११८ १७७ तडुवविरलतडतड्डा- ३.१.७४ १९४ तणेण रेसिंरे सितेहिं - ३.३.२५ २३९ ततस्तदा तो ३.३.५० २५१ तदिदमेतदां सेसिं- २.२.८४ १३९ तद्योगजाश्च
३.३.३० २४२
तद्व्यत्ययश्च तन्व्याभे तल् तदोः
तव्यस्य एव्व एव्व उव्वाः
तस्मात्ता
तस्सौ सोऽक्लीबेता हो दृशः तादर्थ्यं ङेस्तु ताम्राम्रयोः तावति खोर्चा
३.१.२५ १८७ तिङः ३.१.६५ १९३ तिङात्थि २.४.१०२ १७५ तिजेरोसुक्कः २३१८ १४५ तिष्णि त्रेः
णेऽम्हे म्हाह्यम्हे - २.३.२२ १४६ णोणाङिष्विदना जः २.२.५६ १३३ णो वातिमुक्तके १.३.५० ५३ जो शसश्च २.२.२६ १२५ णो हश्च चि जिपृश्रु- २४.७२ १६९ ह ह संख्याया - २.३.३३ १४८ तं वाक्योपन्यासे
२.१.३३ ११० तक्षाद्यारछोल्लादीन् ३.४.६४ २८८ तु दो विषमे
ति त्रेः तिर्यक् पदातिशुक्ते तीर्थे हयूलू तु किमो डिह तुच्छ चच्छौ
३.४.७० २९२
१.४.१०६ ९०
३.२.४६ २२०
३.३.१७ २३३
३२.१३ २१२ २.२.८९ १४०
२.४.४६ १६४
२.३.३६ १४९
१.४.४९ ७७
३.२.३२१०
१.१.२३ ९.
२.४.१० १५३ ३.१.५२ १९१
२.३.२९ १४७
२.३.३२ १४८ १.३.१०४ ६४ १.२.५४ ३१
३.४.२८ २७४
१.३.३६ ५०
३.४.४१ २८०
तुज्झ तुभ्र तउ - तुडिस्लुक्कणिलुको ३.१.६२ १९२
१.३.६७ ५६
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________________
सूत्रपाठः
३१७
कमाङ्क पृष्ठ सूत्र
क्रमाङ्क पृष्ठ तु तुइ ङिपाङसौ २.३.८ १४३ त्रसेर्वज्जडरा ३.१.११९ २०२ तु निर्झरद्विधाकृनो-१.२.४९ ३० त्वतलौ प्पणम् ३.३.१६ २३२ तु बृहस्पती १.२.८४ ३६ त्वत्सरोरुहमनोहर- १.२.९५ ३८ तुभ तुहितो- २.३.७ १४३ स्वथ्वद्वध्वां क्वचिच्चछजझाः तुम्भोभोरहतइ- २.३.१२ १४४ तुम एवमणाण- ३.३.२० २३५ त्वदुत उपरि गुरुके १.२.५७ ३१ तुमत्तु आणतॄणाः क्त्वः
त्वनतः
२.४.७० १६८ २१.९९ ११३ त्वनुत्साहावन्यथासों तु मयूरचतुर्थ- १.३.५ ४२
३.३.५१ २५१ तु मो इवम् ३.३.३ २२७ त्वभिमन्यौ जजों १.४.२५ ७३ तु मौ
६.१.१६ १५५ स्वभिमन्यौ मः १.३.६५ ५६ तुम्हहमारभ्यरभ्याम् ३.४.४३ २८१ त्वौ
१.२.३२ २६ तुम्हाणतुब्भंतुन्माण-२३.१३ १४४ स्वस्तेम्हरहोहि २.४.८ १५३ तुम्हे तुम्हइ- ३.४.३८ २७८ त्वस्य तु डिमात्तणी २.१.१३ १०० तुलिडोल्योरोहाम- २.४.९७ १७४ स्वाहाहो ङसः ३.२.२८ २१६ तुव तुम तुह तुम २.३.९ १४३ त्वादेः सः . २.१.२७ १०२ तुवरजअडी त्वरेः २.४.१४८ १८१ स्वाद्र उदोत् १.२.२७ २५ तु वसतिभरते १.३.३९ ५१ विजाल्लिङ: २.४.३४ १६१ तु विकल्पे १.१.१३ ६ स्वेदितः
१.२.४१ २८ तु सक्खिणभवन्त- १.१.३७ १२ त्वोदवापोताः २.१.६७ ११६ तु समृद्धयादी १.२.१० २१ थध्वमित्थाहचौ २.४.५ १५२ तूरः शतृतिङि २.४.१५० १८२ थलस्पन्दे । तूर्यदशाहशौण्डीये १.४.६० ७८ थिप्पस्तृपः २.४.१३५ १८० तृनो णअल ३.३.२२ २३६ थो धः
३.२.४ २१० तैलस्यानकोलाडेल्लः २.१.१२ १०० थ्यश्चत्सप्सामनिश्चले१.४.२३ ७२ तैलादौ १.४.९३ ८७ दंशदहोः
१.३.३४ ५० तोऽचः
१.२.७ २० दग्धविदग्धवृद्धि- १.४.३५ ७५ तो ढो रश्चारब्धे तु १.४.७३ ८१ दम्भदरदर्भगर्दभ- १.३.३५ ५० वोऽन्तर्येल १.२.२३ २४ दर अर्धेऽल्पे वा २.१.३६ १११ स्योऽचैत्ये १.४.१७ ७१ दर्वीकरनिवहौ- १.४.१२० १३ अतसि च किमो ल्कः२.२.७५ १३८ दस्तस्य शौरसेन्या- ३.२.१ २१०
त्रि.वि....२२
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________________
त्रिविक्रम-प्राकृत-च्याकरण
सूत्र क्रमाङ्क पृष्ट सूत्र
क्रमाङ्क पृष्ठ दहिरहिऊलालुक्खौ ३.१.१२४ २०३ द्विवचनस्य बहुवचनम् २.४.७७ १७०
२.३.३४ १४८ दादेर्डे हो यादृक्- ३.३.९ २३० द्वे गमिगे
२.४.८० १७१ दिक् प्रावृषि १.१.३५ १२ द्वोर्द्वारे
१.४.८३ ८४ दिर्दो
१.१.६ ५ धः पृथकि तु १.३.२१ ४७ दिर्दोत्तोदु ङसौ २.२.८ १२१ धनुषि वा दि; भ्यसि २.२.१९ १२३ धवलोद्घटोद्मोग्गी २.४.९४ १७४ दिवा दिवे ३.३.४३ २४९ धातवोऽर्थान्तरेष्वपि३.१.१३३ २०८ दिही मिथः से १.१.१८ ७ धात्रीद्रे रस्तु १.४.८० ८३ दिही सुपि ३.४.१२६१ धुवो धूमः
३.१.१७ १८६ दीर्धान
१.४.८७ ८५ धू कुत्सायाम् २.१.५१ ११३ दीसल दृशेः २.४.८९ १७३ धृष्टद्युम्ने
१.४.८९ ८६ दुःखे णिव्वरः ३.१.७० १२३ धर्ये रः
१.४.५९ ७८ दुरो र क तु १.२.६२ ३२ धो दहः श्रदः २.४.१३१ १७९ दुस्तियोदृशगे ३.२.४९ २२१ ध्मो धमोदः २.४.१२५ १७८ दुहलिहवहरुहां- २.४.७६ १७० ध्यह्योझल १.४.२६ ७३ दृप्तेऽरिता १.२.८८ ३७ ध्वजे वा
१.४.२८ ७३ हशिरोअक्खणि- २.४.१५३ १८२ नः
१.३.५२ ५३ दृशदावदक्ख- २.४.११३ १७७ नत्थः
२.२.८१ १३९ दृश्यक्सक्विपि १.२.९० ३७ न प्रायो लुक्कादि- ३.२.६३ २२३ दे संमुखीकरणे २.१.५९ ११५ नमोद्विजरुदां वः २.४.४८ १६४ दैत्यादौ १.२.१०३ ४० न यण
१.१.२० ८ देवगेषु
१.४.९२ ८७ नवमालिकाबदर- १.३४ ४२ दोषिण दुवे घेणि द्वे २.३ ३० १४७ न वा तीर्थदुःख- १.४.६३ ७९ दो तो तसः २.१.१४ १०० न वाव्ययोत्खातादौ १.२.३७ २६ दोऽदोनुत्साहोत्सन्न-१.२.६१ ३२ नवैज्ञाद्वा
२.१.२० १०१ दो बेटादौ च २.३.३१ १४७ नशिरवहरावसेह-३.१.१०८ २०० दोहदप्रदीपशात- १.३.४१ ५१ नशेर्विप्पगाल- २.४.१०३ १७५ धरयां जः १.४.२४ ७३ नहि नाहि ३.३.३७ ९४५ द्वितीयः फुः १.१.११ ६ नाए स्त्रियाम् ३.२.५४ २२१ द्विनीथुप्रवासिषु १.२.४८ २९ नातः शा
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________________
सूत्रपाठः
क्रमाङ्क पृष्ठ सूत्र
क्रमाक पृष्ठ नात्पः १३.९ ४४ पक्षमणि
१.४.६८ ८० नात्स्वप्ने १.४.१०२ ९० पग्गिम प्राइम प्राउ ३.३.४२ २४७ चापिते पहः १३.५४ ५४ पञ्चदः दत्तपञ्चाशति णः नाग्नि डरम् २.२.४४ १३०
१.४.३६ ७५ नाव्यावः १.२.१०४ ४० पदृधोडल्लपिज्जाः -३.१.१६ १८६ निकषस्फटिक- १.३.१९ ४६ पडिसापरिसामो- ३.१.९२ १९७ निना लिहणिलुम- ३.१८ १८५ प मि
१.२.३१ २५ निरः पद्यतेलः ३.१७५ १९४ परमेव शमोडडि ३.३.२८ २४० निरप्पथकठाचिट्टाः २.४.१२७ १७२ परिवाडो घटेः २.४.११२ ७७ निरि वा १.१.२६ १० पर्यसः पलपल्लट्ट-२.४.१५१ १८२ निर्निम्मवनिम्माणौ
पर्यस्ते रश्च १.४.४९ ७६ २.४.१२० १७८ पर्याप्ती भुवः पहुचः ३.४.५९ २८६ निवपनोर्णिहोडो वा २.४.९३ १७४ पश्चात् पच्छइ ३.३.४९ २५१ निश्चयनिर्धारणे वले २.१.६२ ११६ पस्सगण्ही दृशिग्रहोः३.४.६३ २८८ निषण्ण उमः १.३.६ ४३ पारावते तु फोः १.२.२४ २४ निवेधेहका ३.१.७१ १९४ पिठरे हस्तु रश्च ढः१.३.२९ ४८ निष्टम्भे निठुहः ३.१.२२ १८७ पीते ले वा १.३.४५ पर निष्प्रती ओत्परी- १.२.१ १९ पुंसि सुना त्वयं- २.२.७७ १३८ निस्सनिहरनिलदा-३.१.१४ १८६ पुंसो जसो डउडओ २.२.२४ १२४ नीपापीडे मो वा १.३.५७ ५५ पुसोऽजातेमव्वा २.२.३७ १२८ नोवीस्वप्ने वा १.३.८५ ६०
पुराणो राजवच्चानः२.२.६० १३४ नृनपि ङसिङसोः २.२.२७ १२५
पुच्छः पृच्छेः २.४.१४६ १८१ नेः सदेर्मज्जः २.४.१४५ १८१
रणरुत्तं कृतरकणे- २.१.५३ ११४ नो नमोः पैशाच्याम ३.२.४३ २१९
पुन्नागभागिनी- १.३.१६ ४६ नमः न्यण्यामां अर ३.२३७ २१८ पुरग्वारखोडाहिरे. ३.१.१८६२०० न्यायज्ञां अर् ३.२.४४ १९० पूर्वदुपार वगस्य युजः। न्यसेर्णिमणुमौ २.४.१५६ १८३
१.४.९४ ८७ पअल्लो लम्बनशैथिल्ययोः
पूर्वस्य पुरवः ३.२.९ २११ ३.१.२७ १८७ पृथक्स्पष्टे णिव्वडः ३.१.२ १८४
१.९.७७ ३५ पक्वागारललाटे तु १.६.१२ २२ पृष्टऽनुत्तरपद
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३२०
त्रिविक्रम-प्राकृत-व्याकरण
सूत्र क्रमाङ्क पृष्ट सूत्र
कमाङ्क पृष्ट पोवः
१.३.५५ ५४ फोः परस्परनमस्कारे१.२.३० २५ पोरगे चाउत् १.२.१०६ ४० बडबडो विलपेः ३.१.८८ १९६ प्याद्याः . २.१.७७ ११८ बन्धो न्धः
२.४.७८ १७० प्रकाशेणुव्वः २.४.१०१ १७५ बहुलम् प्रतिगेऽप्रतीपगे १.३.३३ ४९ बही न्तु ह मो २.४.३६ १६१ प्रतीक्षेविहिरविर- ३.१.११५ २०१ बाप्पं होऽश्रणि १.४.६१ ७८ प्रत्यागमागमाभ्या- ३.१.९८ १९९ बाहिबाहिरी बहिसः प्रत्युत पच्चलिड ३.३.३८ २४६ प्रत्यूषदिवसदश- १.३.८८ ६० बिन्दुल
१.१.४० १३. प्रत्येकमः पडिएक्कं पाडिक्कं बिन्दोरन्ते ३.४.६६ २९०
२.१.६९ ११७ बिसिन्यां भः १.३.६३ ५६ प्रथमशिथिलमेथि- १.३.४८ ५२ बो मः शबरे १.३.८४ ६० प्रथमे प्योः १.२.२० २३ बो वः प्रदीपःसंधुक्काबुत्त-३.१.८५ १९६ ब्रूनो बुवः
३.४.६१ २८७ • प्रभूते वः
१.३.५९ ५५ भावमअमुसुमुर- ३.१.४९ १९० प्रभो हुप्पः ३.१.३ १८४ भन्द ग्रहणार्थे २.१.४७ ११३ प्रमुक्तगे १.४.९१ ८६ भन्दि विकल्पविषाद.२.१.४८ ११३ प्रवृत्तसंदष्टमृत्ति- १.४.३१ ७४ भवताम्
३.२.२३ २१४ प्रसुरुवेल्लव मल्लौ ३.१.१० १८५ भविष्यति रिसः ३.२.२४ २१४ प्रस्थापेः पेट्ठवपेडवी२.४.११४ १७७ भविष्यति हिरादिः २.४.२५ १५७ प्राक् श्लाघाप्लक्षशाङ्गै
भवे डिल्लोलुडौ २.१.१७ १०१
१.४.९५ ८८ भश्च विह्वले १.४.५२ ७७ प्रायोऽपभ्रंशेऽचोऽच ३.३.१ २२५ भषेवुक्कः ३.१.१०५ २०० प्रायो लिति न विकल्पः
भाराकान्ते
१.१.१४ ६ नमेनिसुडः ३.१.९० १९७ प्रायो लुक्कगचजतदपयवाम् भावकर्मणि तु- २.४.७३ १६९
१.३.८ ४३ भासेर्भिसः ३.१.११४ २०१ प्लावरोव्वाल- २.४.१०८ १७६ भिदिविदिच्छिदो- २.४.९९ १५८ फा पाटिपरिघ- १.३.५६ ५४ भियो भाविही २.४.१३६ १८० फक्कस्थक्कः २.४.१३३ १८० भिसा तुम्हेहिं ३.४.३९ २४ फस्य भही वा १.३.६० ५५ भिसा भेतुन्भेछुब्भे- २.३.१० १४३
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सूत्रपाठः
३२१
.
सूत्र क्रमाङ्क पूष्ठ सत्र
क्रमाङ्क पृष्ठ भिसाम्हहिं ३.४.४९ २८२ महमहो गन्धे ३.१.११ १८५ भिस्भ्यसाम्प्स्वीत् २.२.५८ १३४ माई मार्थे भिस्स्सु पि २.२.२१ १२४ मागध्यां शौरसेनीवत्३.२.२७ २१५ भीष्मे
१.४.४५ ७६ माणन्तौल च लङः २.४.४१ १६३ भुजिरण्णभुज- २.४.१३७ १८० मातुरा अरा २.२.५० १३२ भुवो भः ३.२.६ २११ मा मं
३.३.४५ २४९ भूतार्थस्य सी ही ही
मि मइ ममाइ २.३.२० १४५
२.४.२२ १५६ मिरायां लित् १.२.४२ २८ भ्यसो हुँ
३.४.८ २६५ मिर्मिविटी भ्यो वृहस्पती तु बहोः१.३.७५ ५८ मिपिव विव विअ २.१.३८ १११ भ्रंशेः पिडपिट्ट- ३.१.१०४ २०० मिग्राल्लिअश् २.१.२१ १०२ भ्रमजयोस्तालेण्टपरि माली मिर्मीसालमेलवौ२.४.१०९ १७६
२.४.९५ १७४ मीलेः प्रादेढे तु २.४.६१ १६७ भ्रमेराडः २.४.१३ १५४ मुकुलादों
१.२.५८ ३२ . मणे णं मि मिमं २.३.१९१४५ मुधा मोर उल्ला २.१.७३ ११७ मः
३.२.२२ २१४ मूषिकविभीतक- १.२.४३ २८ मई ङ्या
३.४.४६ २८१ मृक्षेश्चोपडः ३.१.११७ २०२ मइ मम मह मज्झ- २.३.२३ १४६ मृदनातेर्मलपरिहट्ट-२.४.१२ १८२ सलुगसंयुद्धपः २.२.३० १९६ मोचि वा १.१.३९ १३ मणे विमर्श २.१ ६३ ११६ मो मे व जसा २.३.१६ १४५ मण्डेष्टिविडिक्क- ३.१.६३ १९२ मो म मु मस्महिङ् २.४.६ १५२ मध्यमकतसेच १.२.३४ २२ मोममुविच्च २.४.१७ १५५ मध्ये चाजन्तात् २.४.४० १६२ ग्लैपिव्याऔ मनया १.४.७९ ८२ म्हा ङः
२.२.७० १३७ मनाको डच वा २.१.२३ १०२ यः पो हृदये ३.२.५२ २२१ मन्तमणवन्तमा- २.१.१ २२ यत्तत्सम्यग्विष्वक् १.१.३८ १३ मन्मथे
१.३६६ ५६ यत्तदोत्त। ३.३.१४ २३२ ममं णे मआइ २.३ २१ १४५ यत्तद् @ स्वमोः ३.४.३१ २७५ मर्चेः २.४.७४ १६९ यश्रुतिरः
१.३.१० ४४ -मलिनधृतिपूर्व- १.३.९९ ६३ यतयां लन् १.३.७१ ५७ मस्जेराउडणि उडु- ३.१.४५ १९० यापेवः २.४.११५ १७७
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त्रिविक्रम-प्राकृत-व्याकरण
सूत्र क्रमाङ्ग पृष्ठ सूत्र
क्रमाङ्क पृष्ठ यावत्तावत्यमहि- ३.३.११ २३० रो लुकमधः ३.३.५ २२७ युधबुधगृधक्रुध- २.४.५२ १६२ रोपागोवुमलुह- ३.१.४८ १९० युष्मन्तुना तुवं तुं- २.३.१ १४२ रो हश्चोत्साहे १.४.३९ ७५. यो जतीयानीयोत्त- १.३.६८ ५६ तभ्याधूर्तादौ टः १.४.३० ७३ योरे २.४.६५ १६७ थे डेल
२.२.८६ १४० रः सृजि
२.४.५९ १६६ र्यः सौकुमार्यपर्य- १.४.५५ ७८ रचेडिविड्डाव- ३.१.४३ १९० यस्तष्टां रिमसिन-३.२.५० २२१ रभिराडो रम्भडवौ ३.१८९ १९७ या व्यः ।
३.२.८ २११ रलोहरिताले १.४.११९ ९३ हर्षितप्तवज्रेष्बित् १.४.९८ ८८ रल् पापर्डी १.३.५८ ५५
२.४.३३ १६० रल सत्तत्यादौ १.३.४२ ५१ लः पलिननिम्ब- १.३.४० ५१ रस्तित्तिरी १.२.४४ २९ लक्षणे जेण तेण २.१.६६ ११६ राजपर डिक्कडक्की २.१.९ ९९ लघुके लहो १.४.११८ ९२ राजेः सरेह- ३.१.५७ १९१ लज्जेीहः ३.१.५६ १९१
२.२.५३ १३३ लटस्तिप्ताविजेच २.४.१ १५१ राशो शो वा चिञ् ३.२.४. २२० लटो हिं वा झझ्योः ३.४.५१ २८३ रात्री
१.४.८४ ८४ लइलटोश्च जारी २.४.३९ १६२ रावेलियः ३.१.७ १८५ लनोरालाने १.४.११२ ९२ रावो रञ्जयतेः २.४.९६ १७४ लरकोठे
१.३.२६ ४८ रितो द्वित्वलू १.४.८५ ८४ ललाटे डलोः १.४.११४ ९२ रिहारेग्गो प्रविशेः ३.१.९९ १९९ लल् डोऽनुडुगे १.३.३० ४८ रुध उपसमनोः २.४.७२ १७१ लवरामधश्च १.४.७८ ८२ रुधो धम्भी २.४.५१ १६५ लादक्लीवेषु १.४.१०१ ८९ रुवो रुअरुण्टौ ३.१.३३ १८८ लिगमतन्त्रम् ३.४.६८ २९० रुषगेऽत्रो दिः
२.४.१४३ १८१ रोडा पर्याणे १.३.७६ ५८ लुक क्यङोर्यस्य तु २.३.४२ १५० रो दीर्घात् २.१.२४ १०२ लुक् पादपीठपाद- १.३.९२ ६१ रोभृकुटिपुरुषयो- १.२.५९ ३२ लुगव्ययत्यदाद्या- १.२.३ १९ : रोमन्थेरोग्गाल- २.४.१०७ १७६ लुगाविलू भाव- २.४.१४ १५४ रोरा
१.१.३० ११ लुगिज्जहाज्जस्विज्जेऽतः रो लस्तु चूलिका- ३.२.६४ २२३
२.४.३८ १६१.
M
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सूत्रपाठ:
सूत्र
क्रमाङ्क पृष्ठ सूत्र
क्रमाङ्क पृष्ठ लुङ मांसादौ १.१.४४ १४ वा मधके
१.२.७० ३४ लुभेः संभावः ३.१.९३ १९७ वा रक गः लो जठर वठर- १.३.७७ ५८ वाराणसीकरेण्वां- १.४.११३ ९२ लोपः
१.१.२४ ९ वा लट्लोट्छतृषु २.४.२० १५६ लो ललाटे च १.३.८१ ५९ वालाब्बरण्य १.२.४ १९ लोळ
३.२.४८ २२१ वा सख्या मामि-२.१.५८ ११५ लो वादें १.४.५४ ७७ वा से
१.४.९० ८६ लो वा विद्युत्पत्र- २.१.२६ १०२ वाहिापो व्याहुः २.४.८६ १७२ लोहललाङ्गल- १.३.८२ ५९ विशतिषु त्या श्लोपलू१.१.४८ १६ ल्हत्तः कृत्वसुचः २.१.१६ १०० विक सेः कोआस-३.१.१२५ २०३ घचेरुश्चः
२.४.९० १७३ विकाशेःपक्खोडः२.४.११६ १७७ वश्वेहववेलव- ३.१.४७ १९० विडवमर्जिः .. ३.१.५५ १९१ वणे निश्चयानुकम्प्यविकल्प विपदापत्संपदि द इ ३.३.७ २२८
२.१.४३ ११२ विरणडी गपेः ३.१.८२ १९५ चतुपो डित्तिअ- २.१.२ ९८ विरेचेरोल्लडोल्डुप-२.४.१०५ १७६ घधाडाइच २.३.३७ १४९ विश्राणप्पा ३.१.९५ १९८ घरइत्तगास्नाद्यैः २.१.३० १०३ विसंस्थुलास्थ्यधनार्थे वर्गेऽन्त्यः
१.४.१५ ७१ वर्वतेः
२.१.११ ९९ विसट्टो दलेः ३.१.११८ २०२ घल आरोपे २.४.१०४ १७६ विसूरश्च खिदेः ३.१.७३ १९४ वलग्गचड मारुहे: ३.१.१२८ २०३ बि.मरः पम्हस- २.४.१२८ १७९ वलेर्वम्फा ३.१.१०३ १९९ विहीनहीने वा १.२.५५ ३१ वहिल्लुगाः शीघ्रादीनाम्
वीप्सार्थात्तदचि- २.२.१ ११९ । ३.३.५६ २५३ वुश्च रुक्षे वा छद्मपनमूर्ख - १.४.१०९ ९१
वृन्त इदेङ् वात्मभस्म न पः १.४.४२ ७६ वृन्दारनिवृत्तयोः १.२.७९ ३५ वा न्तन्धी मन्यु- १.४.३२ ७४ वृष्टि पृथङ्मृदङ्ग- १.२.८३ ३६ वा पर्यन्ते
१.४.५८ ७८ वेअडः खचेः ३.१.३९ १८९ वा पानीयगे १.२.५२ ३० वेङ्गुशिथिलयोः १.२.४६ २९ वा पुआय्याद्याः १.२.१०९ ४१ वेतस इति तोः १.३.३२ ४९ वा ब्भो म्हज्झो २.३.१४ १४४ वेपेराअव्वाअज्झौ ३.१.८१ १९५
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त्रिविक्रम-प्राकृत-व्याकरण
क्रमाङ्क पृष्ठ सूत्र
क्रमाङ्क पृष्ठ वेवे विषादभयवारणे२.१.५६ ११४ शेषेऽच्यचः १.१.२२ ९ वेष्टः
२.४.५६ १६६ शोः सल १.३.८७ ६० वैकादौ गः १.३.१४ ४५ शोलक्खोः स्तम्ब-१.४.७५ ८१ वैतत्तदः
२.२.१४ १२२ शोलतायवरशोर्दिः । २.८ २० वोज्जो वीजेश्च ३.१.१२० २०२ शो शु स्त्रियां तु २.२.३२ १२७ वो भस्य कैटभे १.३.६४ ५६ शौण्डगेषु १.२.९७ ३८ व्याकरणप्राकारा- १.३.९३ ६१ शौरसेनीवत् ३.४.६९ २९१ व्याप्रेराअडुः ३.१.१३ १८६ श्वस्य हरिश्चन्द्र १.४.७६ ८१ व्रजेर्वज्ञः ३.४.६० २८७ श्चेर्वृश्चिके चुर्वा १.४.१८ ७१ शकगे
२.४.६३ १६७ श्रष्णहनभणक्षणां-१.४.६९ ८० शकेतरतीरपार- ३.१.३७ १८९ निशिंशिजशसोः२.२.३१ १२७ शतृशानचोक २.४.४२ १६३ इनुगनपि सोः २.२.२९ १२६ शदेझडपक्खोडौ २.४.१४४ १८१ ममस्मझामस्मर-१.४.६७ ८० शनैसो ल्डिअं२.१.२२ १०२ शामाके मः १. .३६ २६ शय्यादी
१.२२६ २५ श्रमे वापम्फः ३.१.२३ १८७ शरत्प्रावृद १.१.५० १६
श्लाघः सलाहः २.४.१३४ १८० शरदामत्
१.१.३६ १२
श्लिमोऽवास- ३.१.१२६ २०३ शषसाः शुः १.१.७ ५
श्लुरशसोः २.२.३ ११९ शपोः सः
३.२.४७ २२०
लष्मवृहस्पतौ- १.४.४६ ७६ शसा वो च २.३.४ १४२
कस्के नाम्न शस्येत २.२.२० १२३
१.४.१४ ७१ शिति दीर्घः शि श्लुङ् नपुनरि तु १.१२८ ११
प्टवः ठूनत्थूनौ ३.२.६१ २९३ शीकरे तु भहौ १.३.१७ .६
प्ठट्टो स्टम् ३.२.४० २१९ शुल्क ङ्गः
१४३ ६९ पस्पाः फः १.४.४४ ७६ शुप्यादेरर्वाि २.४.१२ १५४ संगमोऽभिडः ३.१.१०० १९९ शू मृगाङ्कमृत्युधृष्ट- १.२.७६ ३५ संज्ञा प्रत्याहार- १.१.३ ५ शेष प्राकृतवत् ३.२.२: २१४ संज्ञायामरः २.२.५१ १३२ शेपं प्राग्वत् ३.२.६७ २२४ संतपां झलः ३.१.७६ १९४ शेष शौरसेनीवत् ३.२.६२ २२३ सदाशोऽवष्टम्भे ३.१.२४ १८७ शेषं संस्कृतवत् ३.४७१ २९२ संदिशोऽप्पाहः ३.१.११२ २०१ शेषादेशस्याहोऽ-१.४.८६ ८४ संधिस्त्वपदे १.१.१९ ८
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सूत्रपाठः
રૂપ
OM V
क्रमाङ्क पृष्ठ सूत्र
क्रमाङ्क पृष्ठ संनाम आहङः ३.१.३५ १८८ सुनैस इणमो इणं २.२.८८ १४० संभावने अइ च २.१.४४ ११२ सुपा तुम्हासु ३.४.४२ २८१ संभाषणरति- २.१.४९ ११३ सुपाम्हासु
३.४.५० २८२ संयुक्तं स्तु १.१.१२ ६ सुप्यदसोऽमुः २.२.९० १४१ संयोगे
१.२.४० २७ सुप्स्वादिरन्त्यहला १.१.४ ५ संस्कृतसंस्कारे १.१.४५ १५
सुभगमुसलयो १.२.६३ ३३ सः समासः १.१.८ ६
सुससोः सः सषोः संयोगे-३.२.३५ २१.
सुस्सुहो उस ३.४.९ २६५ स आयुरप्सरसोः १.१.३४ १२
सूक्ष्म
२.४.७० ८० सप्तपणे फोः १.२.१३ २२
सूक्ष्मेद्वोतः १.२.६६ ३३ सप्तम्याश्च
३.४.५३ २८४
सैन्धवशनैश्चरे १.२.९४ ३८ समं समाणु ३.३.४० २४६
सोः
२.२.१३ १२२ समुदो लर् २.४.५७ १६६
सोच्छ्व १.२.१०० ९ समो गलः सर्वगात् ङि हिं
सो बृहस्पतिवन- १.४.७४ ८१ ३.४.२६ २७४
२.२.९ १२१ सर्वादेर्जसोऽतो डे २.२.६२ १३५
सोल्लपउल्लौ पचेः ३.१.३८ १८९ सशाशिषि
१.१.३३ १२ दोस्तु हि
२.४.३७ १६१ सह सहुँ ३.३.४४ २४९
सौ पुस्येलतः ३.२.३० २१७ साअडाणच्छक-३.१.१०९ २००
सौ युष्मदस्तुहूं ३.४.३७२७८ साध्वसे १.४.२७ ७३ सौ हउँ
३.४.४५ २८१ सानुनासिकोच्चारं- १.१.१६ ७ स्कः प्रेशानक्षेः ३.२.३४ २१८ सारः प्रहः ३.१.९ १८५ स्कन्दतीक्ष्णशुष्के-- १.४.१० ७० साहसाहरी संवुः ३.१.३० १८८ स्तः
१.४.४० ७५ सिञ्चसिप्पी सिचेः ३.१.४२ १८९ स्तम्भे
१.४.११ ७० सिद्धिर्लोकाच्च १.१.१ ४ स्तवे थो वा १.४.३८ ७५ सिनाल्सि
२.४.९ १५३ स्तावकसास्ने १.२.१८ २३ सिप्थास्लेसि २.४.२ १५१ स्तोः सिप्पः सिचिस्निहोः२.४.८५ १७२ स्तो
१.२.६५ ३३ सिरायां वा १.३.९१ ६१ स्त्यः समः खा २.४.१२४ १७८ सुतो भ्यसः २.२.७ १२० स्त्यानचतुर्थे- १.४.१३ ७०
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३२६
त्रिविक्रम-प्राकृत-व्याकरण
क्रमाङ्क पृष्ठ सूत्र
क्रमाङ्क पृष्ठ स्त्रियां हुई ३.४.२० २७० स्वार्थे डुः पुनर्विना-३.३.२६ २३९ स्त्रियां डहे ३.४.३० २७५ स्वार्थं तु कश्च २.१.१८ १०१ स्त्रियाभिमाअलिगाः १.१.५३ १७ हः कातरककुद- १.३.३८ १५ स्त्रियामी च २.४.४३ १६३ हः सुत्ककुभि १.१.३१ ११ स्त्रीभगिनीदुहित- १.३.९७ ६२ हगेऽहंवयमोः ३.२.३१ २१७ स्थौँ स्तम् ३.२.४१ २१९ हुने चेट्याहवा२ ३..१९ २१३ स्थष्ठकुकुरी २.४.१२६ १७८ हणः शृणोते: ३.१.१८ १८६ स्थाणावहरे १.४.९ ७० हद्धि निवेंदे २.१.३५ १११ स्थले रलूतश्चौत् १.३.८३ ६० हरिद्राच्छाये २.२.३९ १२९ स्नमदामशिरो- १.१.४९ १६ हरिद्रादौ । १.३.७८ ५८ स्निग्धे त्वदितौ १.४.१०३ ९० हरे क्षेपे च २.१.५० ११३ स्नुषायां पहः फोः १.३.८९ ६१ हरे त्वी
१.२.१५ २२ स्नेहारन्योर्वा १.४.९७ ८८ हामर्ष श्रीही- १.४.९९ ८९ स्पृशिश्छिवालु- २.४.१३२ १७९ हल ई अ
२.४.२३ १५७ स्पृहोः लिह- २.४.९२ १७३ हलि उमणनाम् १.१.४१ १३ स्पृहादौ १.४.२२ ७२ हलोऽकू
२.४.६९ १६८ स्फटिके
१.३.२५ ४८ हल्स्थै ङः ३.४.६७ २९० स्मरकट्वोरीसरकारी१.३.१०० ६३ हश्च महाराष्ट्र- १.४.१११ ९१ स्यस्य सो लटि ३.४.५८ २८६ हश्चीत्कुतुहले १.२.६४ ३३ स्थाद्धपचैत्यचौर्य- १.४.१०० ८९ हसेर्गजः ३.१.१२३ १०३ स्रसेहं सडिम्भौ ३.२.११६ २०२ हस्य घोबिन्दोः १.३.८६ ६० मुख्ने रात् १.४.१०७ ९१ हस्य मध्याहने १.४.८१ ८३ स्तोः श्लो
३.२.३६ २१८ हार्या मिमोमुमे २.४.२६ १५७. स्वपि
१.२.२८ २५ हासेन स्फुटतेर्मुरः ३.१.६० १९२ स्वप्नादाविल १.२.११ २२ हि भिस्सुपोः ३.४.१९ २७० स्वभ्यत उत् ३ .४.२ २६२ हि हि हि भिसः २.२.५ १२० स्वयमोऽर्थे अप्पणा २.१.७० ११७ हितोत्तोदोदु ङसिस् २.२.६ १२० स्वरस्य बिन्द्वमि १.२.२३९ २७ हित्थहास्त्रल: १.२.७ ९९ स्वरेभ्यो वक्रादौ १.१.४२ १३ हि थास्सिपोः ३.४.५२ २८३ स्वसृगात् डाल २.२.४१ १२९ हिस्सा हित्था- २.४.२७ १५७
Page #340
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सूत्र
हि हे डिङस्योः हीमाण हे निर्वेदही ही वैदूषके
डुं पृच्छादान
भ्यसः
हुं मस्महिङोः हु के
सूत्रपाठः
क्रमाङ्क पृष्ट सूत्र
खु निश्चय विस्मय - २.१.५४
३.४.१३ २६७ ३.२.१७ २१३ ३.२.१६ २१३ २.१.४२११२ ३.४-१४ २६८ ३.४.५६ २८५ ३.१४ १८४ ११४
३.४.५४ २८४
हु थध्वमोः हुमाम्भ्यसोः हुरचिति
३.४.२२ २७२
३.१.५ ९८४
हुल्लो लक्ष्यात् स्खलेः ३-१-१२९२०३ हुहुरुधिग्धिगा:- ३.३.५७ २५९
३२७
क्रमाङ्क पृष्ठ
१.२.९ २१
३.४.१८ २६९
३.१.१ १८४
१.१.५ ५
हे दक्षिणेऽस्य हो जसामन्त्र्ये होहुवहवा भुवस्तु हो ह्रस्वः
३.३.४ २२७
हूमो म्हम् हो ह्योर्वा
१.४.११७ १२
हृदे दहयोः
१.४.११५ ९१.
२.२.४६ १३१.
ह वलीदूतः होः स्तोरुच्चार- ३.४.६५ २९० ह्लादेख अच्छल -- २.४.११९ १७८ हलो ल्हः
१.४.६६ ७९ १.४.५१
७७
हूवः
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टिप्पणियाँ
१.१ १.१.१ ऋलवर्ण-ऋवर्ण और लवर्ण । ऋवर्ण-ऋ और ऋ ये स्वर । लवर्ण-ल स्वर । ऐकार-प्राकृतमें ऐकार चलता है, ऐसा २.१.७४ से ज्ञात होता है । असंयुक्तङञकाराभ्याम्-प्राकृतमें ङ् और म् अनुनासिक स्वतंत्ररूपमें नहीं आते; परंतु स्ववर्गीय व्यंजनोंसे संयुक्त रहनेवाले और ब् प्राकृतमें चलते हैं ( देखिए १.१.४१)। द्विवचनादिना-यहाँ आदिशब्दसे चतुर्थी विभक्तिका अनेकवचन अभिप्रेत दिखाई देता है। देश्याश्च शब्दाः -देश्य अथवा देशी शब्द । हेमचंद्र देशीनाममालामें (१.३) कहता है-जे लक्खणे ण सिद्धाण पसिद्धा सक्कयाहिहाणेसु । ण य गउणलक्खणासत्तिसंभवा ते इह णिबद्धा।
१.१.२ संज्ञा-सूत्र १.१.३ देखिए । संधिप्रभृति-संधि, इत्यादि । जिनका परम निकट सांनिध्य हुआ है ऐसे वर्गों का जो संधान उसे संधि कहेत हैं। अन्यशब्दानुशासन-अन्य व्याकरण । कौमार...व्याकरणेषु-प्राचीन कालमें संस्कृत व्याकरणके अनेक संप्रदाय प्रचलित थे। उनमेंसे कौमार, जैनेन्द्र और पाणिनीय ये तीन संप्रदाय थे । कौमार व्याकरणको कातंत्र, कालाप नाम है। ऐसा कहा जाता है कि जिनने यानी जिन महावीरने इंद्रको व्याकरणका उपदेश किया, इस आख्यायिकासे जनेन्द्र नाम प्रचलित हुआ। किंतु सचमुच पूज्यपाद रचित व्याकरणका नाम जेनेन्द्र व्याकरण है। पाणिनिका व्याकरण प्रमाणभूत माना जाता है।
१.१.३ संज्ञा-प्रत्येक शास्त्रमें कुछ पारिभाषिक संज्ञाएँ होती हैं। कुछ विशिष्ट शब्द विशिष्ट अर्थमें प्रयुक्त किये जाते है, वे सब संज्ञाएँ होती हैं। उनमा उद्देश बहुत अर्थ संक्षेपमें कहना ऐसा होता है ( लघ्वर्थ हि संज्ञाकरणम् ),। कुछ संज्ञाएँ स्वतःस्पष्ट ( उदा-लोप, ह्रस्व ) होती हैं, तो कुछ भिन्न अर्थ रखनेवाली संज्ञाएँ ( उदा-गुण, वृद्धि ) होती है, तो और कुछ कृत्रिमरूपमें सिद्ध की हुई (उदा-ह, दि) संज्ञाएँ होती हैं। प्रत्याहार-प्रत्याह्रियन्ते ( संक्षिप्यन्ते ) वर्णा अस्मिन् इति । जिसमें संक्षिप्तरूपमें वर्ण कहे जाते हैं वह । उदा-अच् । स्वरः अच-अच् प्रत्याहार सब स्वर सूचित करता है। ए ओ एड्-एङ् प्रत्याहार ए और ओ स्वर बोधित करता है। ऐ औ ऐच-ऐच प्रत्याहार ऐ तथा ओ स्वर सूचित करता है। व्यञ्जनं हल्-हल् प्रत्याहार सर्व व्यंजन बोधित करता है । स्वादिःसुप्-सुप् प्रत्याहा सु, इत्यादि विभक्तिप्रत्यय सूचित करता है। त्यादिः तिङ्-तिङ् प्रत्याहार ति, इत्यादि धातुमें लगनेवाले प्रत्यय बोषित करता है।
(३२८)
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सु
जस्
टा
भ्याम् भ्याम्
षष्ठी
उस्
टिप्पणियाँ
३२९ १.१.४ सुप्सु स्वादिषु विभक्तिषु-सुप् इत्यादि विभक्तिप्रत्यय इस प्रकार होते हैंविभक्ति ए. व. द्वि. व.
ब. व. प्रथमा
औ.. द्वितीया अमू औट् .
शस् तृतीया
भ्याम्
भिम् पंचमी सि
भ्यस् आस्
आम् सप्तमी
आस्
सुम् इत्-इत्को अनुबंध ऐसाभी कहते हैं। एति ( गच्छति.) इति इत ( स्वकार्य कृया विनश्यत् इत्यर्थः )। इतका अधिक स्पष्टीकरण, १.१.१४ के नीचे देखिए टास् ङिप-ये सर्व प्रत्याहार सिद्ध किए गए है। पञ्चम्या...संदेहार्थम्-पंचमी विभक्तिके प्रत्ययोंका प्रत्याहार उस् ऐसा हो जाता; परंतु डस् षष्ठी एकवचनका प्रत्यय है उसकी भ्रान्ति न हो, इसलिए सिस् ऐसा प्रत्याहार यहाँ निर्दिष्ट किया है।
१.१.५-६ मात्रा, हस्व, दार्घ-मात्रा मानी अक्षिस्पन्दनप्रमाणः कालः । हस्व स्वरकी एक मात्रा और दीर्घ स्वर की दो मात्राएँ होती हैं ( एकमात्रो भवेद् ह्रस्वः द्विमात्रो दीर्घ उच्यते । )
१.१.९ अदिवर्णः-एकाध शब्दमेंसे वर्ण विभक्त करके क्रमसे आदि, द्वितीय, इत्यादि स्थान निश्चित किये जाते हैं। उदा-राम-र् + आ + म् + अ । इसमें र आदिवर्ण, आ द्वितीय वर्ण, इत्यादि ।
- १.१.१० गण-सदृश रूप होनेवाले शब्दोंका वर्ग बनाकर, उनमेंसे एक ( प्रधान ) शब्द प्रथम देकर, उस नामसे गण बनाया जाता है। उदा-गुणादि (गण)।
१.२.१३ विभाषा-विकल्प ( न वेति विभाषा । पा. १.१.४४..):।
.११.१४ इत् अनुबन्ध-विशिष्ट प्रयोजनके लिए शब्दके आगे अथवा पीछे जोड़े जानेवाले एक | अनेक वर्ण यानी अनुबंध । अनुबंध वौँकोही इत् . कहते हैं उदा-५ ( १.१.२८ ) में ा इत् है। लकार:-वर्णका निर्देश करते -समय उसके आगे ' कार ' जुड़ाया जाता है ( वर्णात्कारः )।
१.१.१६ सानुनासिकोच्चार अनुनासिकके साथ उच्चार । - मुँह और नासिका द्वारा उच्चारित वर्णको नुनासिक कहते हैं । ( मुखनासिकावचनोऽनुनासिकः । पा, १.१.८)। ऐसा उच्चार लेखनमें : चिन्हसे दिखाया जाता है ।
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३३०
त्रिविक्रम-प्राकृत-व्याकरण १.१.१७ अधिकार-जिस पदका / पर्दोका संबंध आगे आनेवाले अनेक सूत्रोंसे जाता है उस पदका / पदोंका निर्देश करनेवाला सूत्र आधिकारसूत्र होता है । अनुवृत्तिसे आधिकारका क्षेत्र अधिक व्यापक होता है। बहुल - इसका स्पष्टीकरण ऐसा दिया जाता है
क्वचित्प्रवृत्तिः क्वचिदप्रवृत्तिः क्वचिद् विभाषा क्वचिदन्यदेव । शिष्टप्रयोगाननु वृत्य लोके विज्ञेयमेतद् बहुलग्रहेषु ॥
१.१.१८ समास-( समसन, संक्षेप ) । अनेक पदों का अर्थकी दृष्टिसे एक पद होना यानी समास । उदा - रामका मंदिर, राममंदिर ।
- ११.१९ पद-विभक्तिप्रत्यय और धातु, लगनेवाले प्रत्ययोंसे अन्त होनेवाला शब्द ( सुप्तिङन्तं पदम् । पा. १.४.१४)।
१.१.२० अनुवर्तते-अनुवृत्ति होती है । अनुवृत्ति यानी एक / अनेक पदों की अनन्नरवति सूत्र / सूत्रोंमें होने वाली आवृत्ति । अनन्तरर्वात सूत्रोंका अर्थ करनेमें यह अनुवृत्ति आवश्यक होता है । इको यणाच- इस पाणिनिके सूत्रका अथ इसप्रकार हैसहिता होनेपर, आगे स्वर हो तो, इक् प्रत्याहार से वर्गों के स्थानपर या प्रत्याहार से वर्ण क्रनसे आते हैं । इक् प्रत्याहारमें इ - ई, उ - ऊ, ऋ - ऋ, ल वर्ग हैं। ण् प्रत्लाहारमें य् व्. र् , ल वर्ण होते हैं। यणादेशः सन्धिः -जिस संधिमें यण आदेश होता है वह । 'इको यणचि' रत्र यणादेश संधि बताता है। आदेश-शब्दमें एक / अनेक वर्गों के स्थानपर अन्य एक / अनेक वर्णोका आना । यत्व वत्व-(इवर्णका) य होना, ( उवर्णका व् होना।
.१.१.२१ एदोतो- एत् + ओत् )- यहाँ ए और ओके आगे तकार लगाया है। जिसके आगे तकार लगाया है अथवा तकारके आगे उच्चारित ऐसा जो वर्ण वह उसका उच्चार करने के लिए उतनाही समय लगनेवाले सवर्ण वर्णोका निर्देश करता है (तपास्तत्कालस्य । पा. १.१.७० )। संक्षेपमें, अत् = अ, इत् = इ, इत्यादि कहा जा सकता है।
१.१.२२ लोप-प्रसंगवशात् उच्चारमें प्राप्त हुए वर्ण, इत्यादिका श्रवण-अभाव (अदर्शन, यानी - (अदर्शनं लोपः । पा. १.१.६०; प्रसक्तस्य अदर्शन लोपसंज्ञं स्यात् )।
१.१२३ तिङ्-धातुमें लगनेवाले प्रत्ययोंका निर्देश करनेवाला तिक् प्रत्याहार है। तिबादि-तिमत्याहारमें तिप् पहला प्रत्यय है (तिप्तमझिसिपथस्थमिब्वस्मस्तातांझथासाथांध्वमिड्वहिमहिङ् । पा. ३.४.७८ में ये प्रत्यय दिये हैं)।
१.१.२५ उपसर्ग-जिन अत्र्ययों का धातुओंसे योग होता है उन्हे उपसर्ग कहते हैं। ये उपसर्ग इसप्रकार -प्रपरापसमन्ववनिरभिव्याधसुदतिनिप्रतिपर्यणयः। उप आमिति विशतिरेष सखे उपसर्गगणः कथितः कविना ।।
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टिप्पणियाँ
१-१-२९ आत्त्र—१.१.२१ ऊपरकी टिप्पणी देखिए । ईषत्स्पृष्टयश्रुति१.३.१० देखिए । विज्जुला - २०१०२६ देखिए ।
१.१.३० रेफ — वर्गको रकार कहने के बजाय रेफ ऐसा कहा जाता है ।
विभागसे
१.१.३५ योगविभागात् - - योग के योग यानी व्याकरणका नियम | परंपरासे प्राप्त हुए एक नियमके, कुछ शब्दों की रूपसिद्धिके लिए, दो नियम करके बताना यानी योगविभाग करना |
१.१.३७ निपात्यन्ते निपान के रूपमें दिये जाते हैं । निपातन - व्युत्पत्ति देनेका प्रयत्न न करके अधिकृत ग्रंथों में जैसा शब्द दिखाई देता है वैसाही देना ।
१.१.३८ अव्यय - तीन लिंग, सर्व विभक्ति और वचनोंमें जिसका रूप विकार प्राप्त न कर वैसाही रहता है वह अव्यय ।
सदृशं त्रिषु लिङ्गेषु सर्वासु च विभक्तिषु ।
वचनेषु च सर्वेषु यन्न व्यति तदव्ययम् ॥
३३१
१.१.४३ कत्वाप्रत्ययस्य क्त्वाप्रत्ययका । पूर्वकालवाचक धातुसाधित अव्यय सिद्ध करनेका क्त्वा प्रत्यय है । उदा- कृ कृत्वा । प्राकृतमें क्त्वाप्रत्ययको चार आदेश ( देखिए २.१.२९ ) होते हैं; उनमें से दोनोंमें णकार होता है । सप्— यह विभक्तिप्रत्ययोंकी संज्ञा है । यहाँपर सुप् यानी सप्तमी बहुवचनका प्रत्यय ऐसा भी कहा जा सकता है । सुकारात् णकारात् च - प्राकृत में सप्तमी अनेकवचन ( देखिए २.२.२१ ), तृतीया एकवचन ( देखिए २.२.१८ ) और षष्ठी अनेकवचन ( देखिए २.२.४ ) प्रत्ययों में सुकार और णकार आते हैं । करिअ - यह प्राकृत में क्त्वाप्रत्ययान्त रूप है ( देखिए २.१.२९ )।
१.१.४५ लुक् - लोप । (१.१.२२ ऊपर की टिप्पणी देखिए ) । १.१.४८ ( सूत्र में से ) लोपल - श् + लोप + ल् ।
१.१.५१ अञ्जल्यादिपाठ - अंजलि - आदि गण में निर्देश | अंजल्यादिगणके लिए १.१०५३ देखिए ।
१-१-९३ इमान्ताः शब्दाः - इमन् ( इमनिच् ) एक तद्धित प्रत्यय है । इस प्रत्ययसे अन्त होनेवाले शब्द यानी इमान्ताः शब्दाः । त्वादेशस्य डिमा'—भाववाचक संज्ञा सिद्ध करने का त्व प्रत्यय है । उसको प्राकृतमें डिमा (डित इमा ) आदेश होता है ( देखिए २.१.१३ ) ।
१.२
१.२.३ त्यदादित्यत्, इत्यादि सर्वनामको त्यदादि संज्ञा है । इसमें त्यद्, तद्, यद्, एतद्, इत्यादि सर्वनाम आते हैं ।
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जयाकरण
.
..
३३२ . .. त्रिविक्रम-प्राकृत-व्याकरण
१.२.८ संयोग-बीचमें स्वर न होकर जब दो अथवा आधिक व्यंजन एकत्र आते हैं तब संयोग होता है । उदा - क्य, स्फ्य, स्न्यं । संयोगमें उच्चारक्रमानुसार व्यंजनोंका पहला, दूपग, इत्यादि क्रम निश्चित होता है। १.२.८ सूत्र में य, व् , र और श, पू, म वर्गों के आगे दिये गये संयोग आभिप्रेत हैं - श्य, श्व, श्र, इश; ष्य, व, र्ष, ष, स्य, स्व, स्र, स्स।
१.२.११ वेडिसो वेतसः-वेतस शब्दमें अ क इ नित्य नहीं होता ऐसा आगे १.३.३२ के नीचे कहा है।
१.२.१६ उत्वं लित् भवति--सूत्रमेंसे उल् शब्दमें ल इत् है। जब ल् इत् होता है तब प्रायः विकल्प नहीं होता है । देखिए १.१.१४)। लित् का कार्य नित्य होता है। यहाँ उत्व नित्य होता है, ऐसा अर्थ आभप्रेत है।
१२.२१ अज्जा माता-आर्या शब्दका माता अथ होनेपर, ( ऊ होनेके बजाय ) अज्जा ऐसा वर्णान्तर होता है।
१२.२५ मात्रच प्रत्यय-मात्रच् प्रत्यम परिमाणवाचक है। उदा - प्रस्थमात्रम् । मात्रशब्द - यह मात्र शब्द सिर्फ अथवा केवल अर्थमें है ।
१.२.२६ पृथग्योगात्-१.१.३५ सूत्रकी टिप्पणीमें योगविभाग देखिए । १.. १.२.३१ मकार पर-आगे मकार हानेपर । इसका आभप्राय - पद्म शब्दमे वर्णान्तर होकर आगे मकार होनेपर ।
१.२.३३ क्तप्रत्ययान्त-कर्मणि भूतकालवाचक धातुसाधित विशेषण सिद्ध करनेका क्त प्रत्यय है । उस प्रत्ययसे अन्त होनेवाला शब्द यानी क्तप्रत्ययान्त ।
१.२.३८ घन्-धातुसे संज्ञा सिद्ध करनेका घन् ( अ ) एक कृत प्रत्यय है । उदा.-पच्-पाक । वृद्धि-अ, इ-ई, उ-ऊ, ऋ-ऋ, और ल इनका अनुक्रमसे आ, ऐ, आ, आर् और आल होना यानी वृद्धि होना।
.४० स्वरूपणैव हस्वः - 'संयोगे' ( १.२.४० ) सूत्रानुसार आगे संयोग होनपर, पिछले ए और ओ हस्व होते हैं । और वे क्वचित् इ और उ एसे लिखे जाते हैं । ( उदा-णरिन्दो, अहरुट्ठो ) । क्वचित् वे मूलतःही ह्रस्व रहते हैं और वे एक्को थोकं ऐसे लिखे जाते हैं। ( कभी कभी यह चिन्हभी लिखा नहीं जाता है)।
१.२.५० . ( सूत्रमेंसे ) लाली-ल् + आ + ल् + अ = लाल; इसका द्विवचन लाली । इसमें ल इत् है।
११.२.५७ कप्रत्यय-शब्दोंको स्वार्थे लगनेवाला क-प्रत्यय । उदा-गुरु गुरुक ।
१.२.६७ लकारो नानुवन्धः-सूत्रके अल्में ल वर्ण अनुबंध अथवा इत् नहीं है; इसलिए ल् अनुबंधका कार्य यहाँ नहीं होता। अतएव दुथूल शब्दम ऊको अल् ऐसाही आदेश होता है । उदा-दुकूलम्-दुअल्लं- दुअल्लं ।
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टिप्पणियाँ
३३३ १.२.८१ गौणपद-समासमेंसे गौणपद ।
१.२.८६ इदे -इत् + एङ् । एल् प्रत्याहार है और वह ए और ओ स्वर निर्दिष्ट करता है।
१.२.९० अक-एक प्रत्यय है । क्स-तद् , इत्यादि सर्वनाम पीछे होनेपर दृश् धातुको क्स प्रत्यय लगाया जाता है। अक्सयोः ......परिगृह्यते-(पाठभेदःसक्विनोः साहचर्यात् त्यदादीत्यादि सूत्रविहितः कन् ( पाठभेद-क्व , क्विन् ) इह परिगृह्यते।)। प्रस्तुत क्विय् आचार अर्थमें लगनेवाले क्विपसे भिन्न है यह दिखानेके लिए प्रस्तुत वाक्य है। पाणिनिके त्यदादि (त्यदादिषु दृशोऽनालोचने कञ्च । ३.२.६०) सूत्रमें क्विप् प्रत्यय विहित नहीं है।
१.२.९३ एचः संध्यक्षराणाम्-एच् प्रत्याहारमें ए, ओ, ऐ, औ स्वर आते हैं। इन स्वरोंको हेमचद्र संध्यक्षर कहता है ( एऐओऔ संध्यक्षरम् । १.१.८)। इनमेंसे प्रत्येक खर दो स्वरसे बना है; इसलिए इन्हें संयुक्त स्वरभी कहते हैं । तत्समाप्राकृतमें तत्सम ( = संस्कृतसम), तद्भव ( =संस्कृतभव) और देश्य ऐसे तीन प्रकारके शब्द होते हैं।
१.२.९५ साध्यमानसिद्धावस्थयोः शब्दोंकी साध्यमान और सिद्ध भवस्था । संस्कृत व्याकरणानुसार जब कुछ शब्द पूर्ण रूपमें होता है तब वह उसकी सिद्ध अवस्था होती है। उदा.-संधि होकर बने हुए शिरोवेदना शब्दकी अवस्था । शब्दके पूर्णरूप बननेके पूर्वकी स्थिति यानी साध्यमान अवस्था । उदा-संधि होनेके पूर्व, शिरः + वेदना, यह स्थिति ।
१.२.१०३ विश्लष-व्यंजनोंके संयोगके बीचमें अधिक स्वर डालकर संयोग नष्ट करने का एक प्रकार । इसे स्वरभक्तिभी कहते हैं। विश्लेषके लिए १.४.९५-११० देखिए।
१.३.१ साज्झला--स + अच् + हला । स्वर ( अ ) और व्यंजन (हल् ) इनके साथ ।
१.३.९ अवर्णात्-अवर्ण यानी अ और आ स्वर ।
१.३.१२ उकारेणा ... परिगृह्यते--कभी उकार अनुबंध अथवा इत् होता है। उकार अनुबंध रखनेवाले कु, चु, टु, तु तथा पु होते हैं। उकार अनुबंधसे स्ववर्गीय व्यंजनोंका स्वीकार किया जाता है। उदा-कु = कवर्गीय व्यंजन = क् ख् ग् घ् है। इसीप्रकार चु, इत्यादिके बारेमें जानना ।
१.३.२४ णिजन्त-णिच् + अन्त । धातुसे प्रेरक धातु सिद्ध करनेका णि प्रत्यय है । उस प्रत्ययसे अन्त होनेवाला यानी णिजन्त ।
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त्रिविक्रम-प्राकृत-व्याकरण
१.३.३२ अतएव ... वेदितव्यम्-स्वप्नादाविल् (१.२.११) सूत्र में स्वप्न इत्यादि शब्दोंमें आद्य अवर्णका इ नित्य होता है ऐसा कहा गया, और वहाँ वेतस शब्दभी कहा गया था । अतः वेतस शब्दमेंभी अका इ: नित्य होता हैं ऐसा निष्पन्न होता है । परंतु प्रस्तुत १.३.३२ सूत्रमें, ‘वेतसमें अ का इ होनेपर' ऐसा कहा है । इस विधानसेही ऐसा जानना है कि यद्यपि वेतस शब्द स्वप्नादिगणमें होता है तथापि उसमें अ का इ विकल्पसे होता है।
१.३.४५ स्वार्थिकलकार-स्वार्थे आनेवाला लकार यानी ल प्रत्यय । पीत शब्दके आगे ल-प्रत्यय आता है (२.१.२६ देखिए )।
१.३.६० ब्यवस्थितविभाषया-विभाषा यानी विकल्प । व्यवस्थित विभाषा यानी विकल्प कहनेवाले नियमके सभी उदाहरणोंको लागू न होनेवाला विकल्प; कुछ उदाहरणोंमें यह विकल्प आवश्यक रीतिसे लागू होता है तो अन्य उदाहरणोंमें उसका। अधिकार नहीं होता।
१.३.६८ तीये अनीये च प्रत्यये-तीय और अनीय प्रत्ययोंमें । तीयद्वि और त्रि संख्यावाचकोंको पूरणार्थमें लगनेवाला तीय प्रत्यय है। उदा - द्वितीय तृतीय । अनीय (अनीयर् ) एक कृत् प्रत्यय हैं। वह धातुमें लगाकर विध्यर्थ कर्मणि धातु.. विशेषण सिद्ध किए जाते हैं। उदा - कृ - करणीय । कृद्विहितयप्रत्यय-धातुसे अन्य शब्द सिद्ध करनेके लिए जो प्रत्यय लगायें जाते हैं उन्हें कृत् कहते हैं । कृत् प्रत्ययोंमेंसे य एक कृतः प्रत्यय है। यह प्रत्यय धातुमें लगाकर वि. क. धा वि. सिद्ध किए जाते हैं । उदा-मा मेय।।
१.३.६९ मयट् प्रत्यय-मयट् (मय ) एक तद्धित प्रत्यय है। एकाध मस्तुका आधिक्य उससे सूचित होता है । उदा - विष विषमय ।।
१.३.१०५ अनुक्त...विकारा:-प्रकृति-शब्दका मूल रूप । प्रत्ययशब्दकी प्रकृतिके प्रायः आगे आनेवाला । लोप -- १.१.२२ देखिए । आगम-मूल शब्दसे कुछभी वर्ण न निकालकर, शब्दके आगे, बीच अथवा अंतमें जब कुछ वर्ग आता है. तब उस वर्णका आगम हुआ ऐसा कहा जाता है। वर्णविकार-शब्दकी सिद्धि होते समय वर्गों में होनेवाला परिवर्तन ।
१:४.७ स्पृहादित्वात्-स्पृहादिगणमें होनेसे । वृक्ष शब्द स्पृहादिगणमें है । स्पृहादिके लिए १.४.२२ देखिए।
१.४.२०. लाक्षणिकस्यापि-व्याकरणके . नियमानुसार होनेवाले शब्द- . काभी । उदा -क्ष्मा - क्षमा-छमा ।
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टिप्पणियाँ
१.४.३१ संदष्टोष्ट्रे तु ठत्वापवादः-टः (१.४.१४ ) सूत्रानुसार संदष्ट और उष्ट्र शब्दोंमे ष्ट का ठ हो जाता, किंतु उस नियमका अपवाद प्रस्तुत (१.४.३१ ) 'नियम है।
१.४.४९ मकाराक्रान्तो बकार:-मकारसे आक्रान्त बकार यानी म्ब ।
१.४..७ ( सूत्रमेंसे ) डेर्-डित् एर । जिसमें ड् इत् होता है वह डित् । .'डित् प्रत्यय आगे होनेपर भके टिका लोप हो जाता है (डिति परे भस्य टेर्लोपः । पा. २.४.८५ ऊपर सि. को. ) । भ यानी प्रत्ययोंके पूर्व होनेवाला शब्दका अंग। टि यानी शब्दमें अन्त्य स्वरके साथ अगले सर्व वर्ण । शब्दोंके अंगको डित् प्रत्यय लगते समय अंगमेंसे अन्त्य स्वरके साथ अगले सर्व वर्गों का लोप हो जाता है। डिवात् टिलोपःडित् ( प्रत्यय ) होनेसे ( भके ) टिका लोप होता है।
१.४.६६ लकाराकान्तो हकारः-लकारसे आक्रान्त हकार यानी ल्ह ।
१.१.७७ जिह्वामूलीयोपध्मानीययोः - ४ क और ४ ख इनमें क और ख के पहले जो अर्ध विसर्गके समान उच्चारित किया जाता है वह जिह्वामूलीय भौर ४ प तथा फ इनमें और फ के पहले जो अर्ध विसर्गके समान उच्चारित किया माता है वह उपध्मानीय । ये दोनों - चिन्हसे सूचित होते हैं।
१.४.७९ सर्वत्र लवरामचन्द्रे (हेम. ८.२.७९)-सूत्रका अर्थ इसप्रकारचंद्र शब्द छोडकर इतरत्र संयोग, प्रथम अथवा अनंतर रहनेवाले ल, व्, र वर्णोंका सर्वत्र लोप होता है। ( डॉ. वैद्य संपादित हेमचंद्रप्राकृतव्याकरणमें ' . वन्द्रे' पाठभेद स्वीकृत किया गया है, और • बन्द्रे तथा • चन्द्रे पाठभेद फूटनोट्समें दिये गए हैं )।
१.४.८५ रेफानुबंधस्य-जिसमें रेफ यानी र अनुबंध ( इत् ) होता है उसका।
१.४.८७ अलाक्षणिक-लाक्षणिक न होनेवाला। लाक्षणिकके लिए १.४.२० ऊपरकी टिप्पणी देखिए ।
१.४.९१ आकृतिगणत्वात्-आकृतिगणमें होनेसे । गणपाठमें एकाध गणमें आनेवाले सर्व शब्द कहे जाते हैं । आकृतिमणमें कुछ शब्द दिये जाते हैं, और वैसीही प्रक्रिया होनेवाले शब्द उसमें अंतर्भूत करनेके लिए अवकाश रखा जाता है (प्रयोगदर्शनेन आकृतिग्राह्यो गणः आकृतिगणः)।
१.४.१२१ निर्वचनगोचर-स्पष्टीकरणकी कक्षामें आनेवाला ।
२.१.१ मतुष्प्रत्यय-मतुप् (मतु) एक तद्धित प्रत्यय है। स्वामित्व दिखानेके लिए वह शब्दोंको लगाया जाता है ( तदस्यास्त्यस्मिान्निति मतुप् । पा. ५.२. ९४)। उदा. - गो गोमत् ।
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त्रिविक्रम-प्राकृत-व्याकरण
२.१.२ परिमाणार्थस्य वतुप्पत्ययस्य-वतुप् ( वतु ) एक तद्धित प्रत्यय है । परिमाण अर्थ दिखानेके लिए वह यद्, तद् एतद्, किम् और इदम् सर्वनामोंको मोडा जाता है । उदा-यावत् , तावत्, इत्यादि ।।
२.१.३ डानुबन्धाः ( आदेशाः )- जिनमें ड् अनुबंध ( इत् ) है ( ऐसे भादेश )।
२.१.४ पथो ण नित्यम्-पाणिनिका सूत्र है पन्थो ण नित्यम् (५.१.७६) ।
२.१.५ खप्रत्ययस्य-ख एक तद्धित प्रत्यय है। लगते समय उसका ईन ऐसा रूपांतर हो जाता है।
२.१.६ प्रत्ययस्य-छ ( ईय ) एक तद्धित प्रत्यय है ।
२.१.७ त्रलप्रत्ययस्य-सप्तम्यन्त सर्वनामोंको लगनेवाला एक तद्धित प्रत्यय त्रल् है । उदा - यत्र, तत्र, इत्यादि।
२.१.८ इदमर्थे विहितस्य छप्रत्ययस्य-इदमर्थमें ( अमुकका यह ) भस्मद्, युष्मद्, इत्यादि शब्दोंको लगनेवाला छ एक तद्धित प्रत्यय है ।
२.१.१० अण् प्रत्ययस्य-इदमर्थमें ( अमुकका यह ) लगनेवाला अण् एक तद्धित प्रत्यय है।
२.१.११ उपमानार्थे विहितस्य वतिप्रत्ययस्य-उपमान, तुलना, इत्यादि दिखानेके लिए जोडा जानेवाला वति प्रत्यय (तेन तुल्यं क्रिया चेद्वतिः । पा. ५.१.११५)।
२.१.१२ भावार्थे विहितस्य स्वप्रत्ययस्य--भाव दिखानेके लिए ल ऐसा तद्धित प्रत्यय कहा गया है । उदा - अश्वत्व ।।
२.१.१४ तसिलप्रत्ययस्य--सर्वनामोंको लगनेवाला तसिल (तस्) एक तद्धित प्रत्यय है। उदा - कुतः, यतः, इत्यादि ।
२.१.१५ दाप्रत्ययस्य- सर्व, एक, इत्यादिको जोडा जानेवाला एक तदित प्रत्यय दा है । उदा - सर्वदा, इत्यादि । ।
२.१.१६ कृत्वसुचूप्रत्ययस्य--पौनःपुन्यार्थ दिखानेके लिए संख्यावाचकों को नोडा जानेवाला कृत्वसुच ( कृत्वस ) एक तद्धित प्रत्यय है । उदा - दशकृत्वः ।
२.१.१७ भवार्थे--( अमुकसे / अमुकस्थानमें ) हुआ इस अर्थमें । २.१.२७ तस्य भावस्त्वतलौ--यह पाणिनिका सूत्र ( ५.१.११९ ) है ।
२.१.२८ तृनोत्तरादिना-- ( तृना + उत्तरादिना )-कर्तृवाचक शब्द सिद्ध करनेका तृन् प्रत्यय है।
२.१.६० उतादेशेन भोकारेण-उतशब्दको ओ ( ओकार ) आदेश होता है (...६७ देखिए )।
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३३७
टिप्पणियाँ २.१.७५ ओअच्छादयः-दृश् धातुके आदेश २.४.१५३ में दिए हैं। उनमें ओअच्छ ऐसा आदेश नहीं दिया है, किंतु अवअच्छ आदेश दिया गया है; अवअच्छसे ओअच्छ रूप सहज रीतिसे सिद्ध हो जाता है ।
२.२ २.२.२ सुप्-विभक्तिप्रत्ययोंकी तांत्रिक संज्ञाओंके लिए १.१.४ ऊपरकी टिप्पणी देखिए।
२२.१५ श्लुग्वा--श् + क् + वा । श् इत् है; क् यानी लोप; वा विकल्प दिखानेके लिए है।
२.२.२९ शानुबन्धो लुक्–श अनुबंध ( इत् ) रखनेवाला लोप । शानुबंधके कार्यके लिए १.१.१५ सूत्र देखिए।
२.२.३० ङानुबन्धो लुक-ङ् अनुबंध रखनेवाला लोप । छ अनुबंध सानुनासिक उच्चार दिखाता है ( देखिए १.१.१६ )।
२.२.३४ आकारान्त स्त्रीलिंगमें होनेवाले शब्दोंके बारेमें ( उदा - माला ) शित आ प्रत्यय न लगनेसे ( देखिए २.२.३६ ), मालाआ ऐसा रूप नहीं होता।
२.२.३७ अजातिवाचिन:-अजातिवाचक शब्द, अवर्गवाचक शब्द । डीप्प्रत्यय-विशिष्ट शब्दोंसे उनका स्त्रीलिंग रूप सिद्ध करनेका डीप् (ई) प्रत्यय है ।
२२.३८ टिड्ढाणञ्-यह पाणिनिका सूत्र है। इसमें छीप् प्रत्यय विहित किया है। टाए-कुछ शब्दोंसे स्त्रीलिंग रूप सिद्ध करनेका टाप् ( आ ) प्रत्यय है।
२.२.४५ टावन्त--टाप् प्रत्ययसे अन्त होनेवाला शब्द ।
२.२.६२ सर्वादेः-सर्वादिका । सर्वादि यानी सर्वनाम ( सर्वादीनि सर्वनामानि ) । सर्वादिगणमें सर्व, अन्य, इतर, यद्, तद्, इत्यादि सर्वनाम होते हैं ।
२.२.८६ रानुबन्धे...... भवति-यह वाक्य थे डेल् (२.२.८६ ) सूत्रका स्पष्टीकरण करता है।
२.३.४२ क्यङन्त-क्य प्रत्ययसे अन्त होनेवाला शब्द । समान आचार दिखानेके लिए संज्ञाओंमें जोडा जानेवाला क्यङ् ( य) प्रत्यय है। उदा - ( काकः ) स्येनायते । क्यषन्त-क्या प्रत्ययसे अन्त होनेवाला शब्द । लोहित, इत्यादि शब्दोंको लगाकर नामधातु सिद्ध करनेका क्यः ( य ) प्रत्यय है । उदा-लोहितायात, लोहितायते ।
२.४.१ लट्-वर्तमानकाल । काल और अर्थकी संज्ञा बतानेके लिए लखे आरंभ होनेवाली दस संज्ञाएँ पाणिनिने प्रयुक्त की हैं, वे इसी प्रकार होती है
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त्रिविक्रम-प्राकृत-व्याकरण
(वर्तमानकाळ ) लोट् (आज्ञार्थ ) ( परोक्ष)
( अनद्यतन) ( ता - भविष्य ) लिङ् (विध्यर्थ ) (स्य - भविष्य ) लुङ (अद्यतन )
( वैदिक संस्कृतमें) लङ् . ( संकेतार्थ ) कोई वैयाकरण आगे दी हुई संज्ञाएँभी प्रयुक्त करते हैं-भवन्ती, वर्तमाना; अद्यतनी; शस्तनी; परोक्षा; श्वस्तनी; भविष्यन्ती; पञ्चमी; सप्तमी; क्रियातिपत्ति; आशीः । प्रथमपुरुष-व्याकरणमेंसे पुरुषवाचक संज्ञाएँ इसप्रकार होती हैं-प्रथम पुरुष (आजकी संज्ञा - तृतीय पुरुष । वह, वे ) । मध्यम पुरुष ( आजकी संज्ञा - द्वितीय पुरुष । तू , तुम । ) उत्तम पुरुष- ( आजकी संज्ञा - प्रथम पुरुष । मैं, हम )। एकत्वे वर्तमानौ एकवचनमें रहनेवाले । परस्मैपदात्मनेपदत्वेन विहितौ-परस्मैपद और आत्मनेपदमें विहित । धातुमें लगनेवाले प्रत्ययोंके दो प्रकार-परस्मैपद तथा आत्मनेपद-संस्कृतमें हैं। तिप्, तङ् - तृ. पु. एकवचनमें परस्मैपदका तिप्, और तङ् आत्मनेपदका है। हसइ ... रमए - संस्कृतमें हस् धातु परस्मैपदमें और रम् धातु आत्मनेपदमें है।
२.४.१० वर्तमानकालमें सर्व पुरुष और वचनोंमें अस् धातुको अस्थि आदेश हो जाता है।
२.४.१४ भावकर्मविहिते प्रत्यये-धातुसे कर्मणि अंग बनानेका य प्रत्यय है (धातोः यक् प्रत्ययः स्यात् भावकर्मवाचिनि सार्वधातुके परे । पा ३.१.६७ ऊपर सि. फो. )।
२.४.१९ क्त्वातुंतव्येषु -कत्वा, तुम् और तव्य प्रत्यय । पूर्वकालवाचक धातु. अव्यय सिद्ध करनेका क्त्वा प्रत्यय है। उदा-स्नात्वा । धातुसे हेत्वर्थक अव्यय सिद्ध करनेका तुम् प्रत्यय है । उदा- कर्तुम् । विध्यर्थ कर्मगि धातु. विशेषण सिद्ध करनेका तव्य प्रत्यय है । उदा - कर्तव्य । भविष्यत्कालविहित (प्रत्यय)-धातुमें भविष्यकाल सिद्ध करनेके लिए लगनेवाले प्रत्यय; उनके लिए २.४.२५-२७ देखिए ।
२.४.२० लोट-पंचमी, आज्ञार्थ । शतृप्रत्यय-वर्तमानकालवाचक कर्तरि धातु. विशेषण सिद्ध करनेका प्रत्यय ।
२४.२२ अनद्यतनादि-अद्यतन ( आजका काल ) छोडकर, बीत काल । लु ला लिट्-२.४.१ ऊपरकी टिप्पणी देखिए ।
२.४.४२ शतृशानच्ये दो कृत् प्रत्यय हैं । ये प्रत्यय धातुओंमें लगकर वर्तमान कर्तरि धातु. विशेषण सिद्ध होते हैं।
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टिप्पणियाँ
२.४.५५ कृतगुणस्य-जिसमें गुण किया है उसका । अ, इ-ई, उ-ऊ, ऋ-ऋ और ल इनका क्रमसे अ; ए, ओ, अर् तथा अल होना यानी गुण होना । वधः-वर्ध में (Vवृध् ) गुण हुआ है।
२४.७३ यक्-प्रत्यय-धातुसे कर्मणि रूप सिद्ध करनेका यक् ( य ) प्रत्यय है ।
२.४.८१. यहाँसे सूत्रों की वृत्तिमें कभी कभी अनुबंधके साथ धातु निर्दिष्ट किये गए हैं । उदा - हृञ् , इत्यादि ।
३.१.५ चिद्वर्जिते प्रत्यये-२.४.१ और ५ में कहे गए इच्, एच् और हच् ये चित प्रत्यय है; उन्हें छोडकर अन्य प्रत्यय यानी चिद्वर्जित प्रत्यय ।
३.१.७८ आचारे क्विबन्तस्य-आचार अर्थमें संज्ञासे धातु सिद्ध करनेका क्विप् प्रत्यय है; उससे अन्त होनेवाला शब्द यानी क्विबन्त ।
३.१:८८ सतपां झलः .........झङ्खइ- संतपां झङ्खः ( ३.१.७६ ) सूत्रके नीचे कहा था कि निःश्वसिति, विलपति, उपालभते धातुओंको झंख आदेश होता है । उसका उल्लेख यहाँ विलपति धातुका दूसरा आदेश बताते समय किया गया है ।
३.१.९७ हम्म गती-पाणिनिके धातुपाठमें ' द्रम्म हम्म मीम गलौ' ऐसा निर्देश है।
३. २ ३.२.२१ इनो नकारस्य-इन्नन्त शब्दोंमेंसे नकारका । उदा - कंचुकिन् शब्दमेंसे न् ।
३.२.३२ शकाराकान्तश्चकारः-शकारसे आक्रान्त चकार यानी श्च । ३२६५ चूलिकापैशाचिक-चूलिकापैशाची ।
३.३ ३.३.२ अम्मिए ... अण्णानु ॥ २ ॥ डॉ. वैद्यसंपादित हेमचंद्र प्राकृत. व्याकरणमें इस श्लोकमेंसे हल्लोहलेण शब्दकी संस्कृतछाया व्याकुलत्वेन ऐसी दी गई है।
३.३.३ लाक्षणिकस्य-व्याकरणके नियमानुसार आया हुआ, उसका । उदायथा - जिम ( ३.३.८ सूत्रानुसार )-जिव ।
३.३.८ विबाहरि ... मुद्द ॥ ९ ॥ --- डॉ. वैद्यसंपादित हेमचंद्र प्राकृत व्याकरणमें तणु शब्दकी संस्कृत छाया तन्व्याः दी गई है। जिध तिध के उदाहरणजिध तिध तोडहि कम्मु ( कुमारपालचरित ८.४९)।
३.३.१६ भावेऽर्थे विद्वितौ त्वतलप्रत्ययौ--भाव अर्थ दिखानेके लिए त्व और तल ( ता ) तद्धित प्रत्यय विहित है ( पा. ५.१.११९ )।
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त्रिविक्रम प्राकृत-व्याकरण ३.३.१७ एउँ गृण्हेप्पिणु ... ॥ २२ ॥-टीकाकारके मतानुसार कोई सिद्ध पुरुष विद्यासिद्धिके लिए धन, इत्यादि देकर नायिकाको उसके पतिसे माँगता है ; उस समयके नायिकाके शब्द इस श्लोकमें हैं ।
३.३.१८ रक्ख इ सा ... ॥ २७ ॥ इस श्लोकमें तथा अगले २८ वें श्लोकमें मुंज शब्दसे मुंज नाम होनेवाला मालवदेशका राजा अथवा चालुक्य राजाका उस नामका एक मंत्री आभप्रेत है, ऐसा कोई कहते हैं ।
३.३.१९ कसाअ (॥ २९ ॥ )-जैनधर्ममें क्रोध, मान, माया और लोभ इनको कसाअ : कषाय कहते हैं ।
३.३.२० तुमुन्प्रत्ययस्य-तुमुन्प्रत्ययका । तुमुन् यानी तुम् प्रत्ययके लिए २.४.१९ ऊपरकी टिप्पणी देखिए ।
३.३.२५ तेहिं रेसिं के उदाहरण-कहि कसु रेसिं तुहुँ अवर कम्मारंभ करेसि । कसु तेसिं परिगहु ( कुमारपालचरित ८.७०-७१)।
३. ४ ३.४.२० वायसु ... ॥ ११९ ॥ - हमारे देशमें एक धारणा ऐसी है कि घरपे बैठकर कौआ यदि काव काव करता हो तो घरमें मेहमान आयेगा। इस श्लोकमें विरहिणीका वर्णन है । वह कौवेकी आवाज सुनती है पर आता हुआ प्रियकर उसे दिखाई नहीं देता । इसलिए वह निराश होकर कौवेको हकालती थी। पर इतनेमें प्रियकर उसके दृष्टिपथमें आया । परिणाम यह हुआ - कौवेको हकालनेकी क्रियामें, विरहावस्थामें कृशताके कारण ढीली हुई उसकी आधी चूड़ियाँ जमिनपर गिर पडीं; परंतु प्रियकरको देखनेसे उसे जो आनंद प्राप्त हुआ उससे उसका शरीर-अर्थात् हाथभी-बढ गया; उस कारणसे उसकी शेष आधी चूड़ियाँ तडतड टूट गई। .
३.४.२५ ककार-अन्तमें आनेवाला यह ककार स्वार्थे क प्रत्यय है ।
३.४.२८-२९ किंशब्दादकारान्तात्, यत् ... अकारान्तेभ्यःभकारान्त यद् तद् , किम् यानी उनके ज, त और क ये अकारान्त रूप ।
३.४.५१ वर्तमानाया:-वर्तमानाका । वर्तमानाके लिए २.४.१ ऊपरकी टिप्पणी देखिए।
३.४.५२ बप्पीहा ... ॥ १४४ ॥-इस श्लोकमें पिउपिउ शब्दपर श्लेष है । ३.४.५३ सप्तमी-विध्यर्थ ।
३.४.७२ इस सूत्रके वृत्तिमें त्रिविक्रम देश्य शब्दोंकी सूची देता है। तत्समत. द्भव-संस्कृतसम और संस्कृतभव ।
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Jaina Sanskrti Sarprakşaka Samgha
Phaltana Galli, Sholapur 2 (Idia). Jīvarāja Jaina Granthamālā
General Editors : 5 Dr. A. N. Upadhye & Late Dr. H. L. JAIN 1. Tiloyapannatti of Yativșsabha (Part I. Chapters 1-4): An Ancient Prakrit Text dealing with Jaina Cosmography, Dogmatics etc. Prakrit Text authentically edited for the first time with the Various Readings, Preface & Hindi Paraphrase of Pt. BALACHANDRA, by Drs. A. N. UPADHYE & H.L. JAIN. Published by Jaina Saṁsksti. Saṁrak şaka Sangha, Sholapur (India).. Touble Crown pp. 6-38-532. Sho'apur 1943. Price Rs. 12-00. Second Edition, Sholapur 1956 . Price Rs. 16-00. . .
1. Tiloyapannatti of Yativršihha (Part II, Chapters 5-9). As above. With Introductions in English and Hindi, with an alphabetical Index of Gathās, with other Indices (of Names of works mentioned, of Geographical Term's, of Proper Names of Technical Terms, of Differences in Tradit 'on of Karaṇasītras and of Technical Terms, compared) and Tables (of Näraka-Jiva, Bhavana-vasi Deva, Kulakaras, Bhavana Irdras, Six Kulaparvatas, Seven Kșetras Twentyfour Tirthakaras; Age of the Salākapurusas, Twelve Cakravartins, Nine Nārāyanas, Nipe Pratisatrus Nine Baladevas. Eleven Rudras, Twentyeight Naksatras, Eleven Kalpãtita, Twelve Indras, Twelve Kalpas and Twenty Prarüpanås). Double Crown pp. 6-14-108-533 to 1032, Sholapur 1951. Price Rs. 16-00.
2. Yasastilaka and Indian Culture,or Səmadeva's Yaśastilaka and Aspects of Jainism and Indian Thought and Culture in the Tenth Century, by Professor K. K. HANDIQUI, Vice-Chancellor, Gauhati University, Assam, with Four Appendices, Index of Geographical Names and General Index. Published by J. S. S. Sangha, Sholapur. Double Crown pp. 8-540. Sholapur 1949. Price Rs. 16-00.
3. Pāndavapuranam of Subhacandra. A Sanskrit Text dealing with the Pandava Tale. Authentically edited with Various Readings. Hindi paraphrase, Introduction in Hindi etc.
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(vi)
by Pt. JINADAS. Published by J. S. S. Sangha, Sholapur. Double Crown pp. 4-40-8–520. Sholapur 1954. price Rs. 12-00.
4. Prakrta-śabdānuśäsanam of Trivikrama with his own commentary : Critically Edited with Various Readings, an Introduction and Seven ppendices (1. Trivikrama's Sūtras; 2. Alphabetical Index of the Sūtras; 3. Metrical Version of the Sūtrapātha; 4. Index of Apabh amsa Stanzas; 5. Index of Desya words; 6, Index of Dhåtvādeśaş, Sanskrit to Prakrit and vice versa; 7. Bharata's Verses on Prakrit by Dr, P. L. VAIDYA, Director, Mithila Institute, Darbhanga. Published by the J. S. S. Sangha, Sholapur, Demy pp. 44-178, Sholapur 1954. Price Rs. 10-00.
5. Siddhānta-särasaṁgraha of Narendrasena : A Sanskrit Text dealing with Seven Tattvas of Jainism. Authentically Edited for the first time with Various Readings and Hindi Translation by Pt. JINADAS P. PHADKULE. Publisded by the J. S. S. Sangha, Sholapur. Double Crown, pp. about 300, Sholapur 1937, Price Rs. 10400, Second Edition 1973. Price Rs. 12-00.
6, Jainism in South India and Hyderabad Epigraphs : A learned and well-documented Dissertation on the career of Jainism in the South, especially in the areas in which Kannada Tamil, and Telugu Languages are spoken, by P. B. DESAI, M. A.. Assistant Superintendent for Epigraphy, Ootacamund. Some Kannada Inscriptions from the areas of the former Hyderabad State and round about are edited here for the first time both in Roman and Devanāgari characters, along with their critical study in English and Sārànuvāda in Hindi. Equipped with a List of inscription:s edited, a General Index and a number of illustiá
ons. Published by the J. S. S. Sangha Sholapur. Sholapur 1957. Double Crown pp. 16-456. Price Rs. 16-00.
7. Jambūdivapannatti Sangraha of Padmanandi : A Prākrit Text dealing with Jaina Geography. Auchentically edited for the first time by Drs. A. N. UPADHAYE and H. L. JAINA, with the Hindi Anuvada of Pt. BALACHANDRA. The Introduction institutes
careful study of the Text and its allied works. There is an Essay in Hindi on the Mathematics of the Tiloyapannatti by Prof. LAKSHMICHAND JAIN, Jabalpur. Equipped with an Index of Gāthās, of Geographical Terms and of Technical Terms, and with
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additional Variants of Amera Ms. published by the J. S. S. Sangha, Sholapur. Double Crown pp. about 500. Sholapur 1957. Price Rs. 161
8. Bhattārakar Sampradaya : A History of the Bhattāraka Pithas especially of Western India, Gujarat, Rajasthan and Madhya Pradesh, based on Epigraphical, Literary and Traditional sources, extensively reproduced and suitably Interpreted, by Prof. V. JOHARPURKAR, M. A., Nagpur. Published by the J. S.S. Sangha Sholapur. Demy pp. 14-29-326. Sholapur 1960. Price Rs. 8-00.
9. Prahhrlädisamgraha : This is a presentation of topic-wise discussions compiled from the works of Kundakunda, the Samayasara being fully given. Edited with Introduction and Tranaslation in Hindi by Pt. KAILASHCHANDRA SHASTRI, Varanasi. Published by the J. S. S. Sangha, Sholapur. Demy pp. 10-10610-288. Sholapur 1960. price Rs. 6–00.
10. Pancavirsari of Padmanandi :(c. 1136 A.D.). This is a collection of 26 Prakaranas (24 in Sanskrit and 2 in Prākrit) small and big, dealing with various religious topics : religious, spiritual, ethical, didactic, hymnal and ritualistic. The text along with an anonymous commentary critically edited by Dr. A. N. UPADHYE and Dr. H. L. JAIN with the Hindi Anuvāda of Pt. BALACHAND SHASTRI. The edition is equipped with a detailed Introduction shedding light on the various aspects of the work and personality of the author both in English and Hindi. There are useful Indices, Printed in the N. S. Press, Bombay. Double Crown pp. 8-64-284 Sholapur 1962. price Rs. 10–00.
11. Atmanusāsäna of Gunabhadra (middle of the 9th century A. D.). This is a religio-didactic anthology in elegant Sanskrit verses composed by Gunabhadra, the pupil of Jinasena,
acher of Rästrakñta Amoghavarşa. The Text is critically edited along with the Sanskrit commentary of Prabhācandra and a new Hindi Anuvāda by Dr. A. N. UPADHYB, Dr. H. L. JAIN and Pt. BALACHANDRA SHASTRI. The edition is equipped with Introductions in English and Hindi and some useful Indices Demy pp. 8-112-260, Sholapur 1961. Second Edition 1973. Price Rs. 7-00.
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12. Gaṇitasarasamgraha of Mahaviracārya (c. 9th century A. D.): This is an important treatise in Sanskrit on early Indian mathematics, composed in an elegant style with a practical approach. Edited with Hindi Translation by Prof LC JAIN, M.SC., Jabalpur. Double Crown pp. 16+ 34 + 282 + 86, Sholapur 1963. Price Rs. 12-00.
13. Lokavibhāga of Simhastri: A Sanskrit digest of a missing ancient Prakrit text dealing with Jaina cosmography. Edited for the first time with Hindi Translation by Pt. Sholapur
BALCHANDRA SHASTRI. Double Crown pp. 8-52-256.
1962. Price Rs. 10-00.
14 Punyasrava-kathākośa of Ramacandra : It is a collection of religious stories in simple and popular Sanskrit. The text authentically ted by Dr. A. N. UPADHYE and Or. H. L. JAIN with the Hindi Anuvada of Pt BALACHANDRA SHASTRI Double Crown pp. 46-367. Sholapur 1964. Price Rs. 10-00.
15. Jainism in Rajasthan: This is a dissertation on Jainas and Jainism in Rajasthan and round about area from early times to the present day, based on epigraphical, literary and traditional sources by Dr. KAILASHCHANDRA JAIN, Ajmer, Double Crown pp. 8 +284, Sholapur 1963. Price Rs. 11-90.
16. Viśvotattza-Prakasa of Bhavasena (14th century A D): It is a treatise on Nyaya. Edited with Hindi Summary and Introduction in which is given an authentic Review of Jaina Nyaya literature by Dr. V. P. JOHARAPURKAR, Nagpur. Demy pp. 16+ 112 + 312, Sholapur 1964. Price Rs. 12-00.
17. Tirthavandana Samgraha: A Compilation and Study of Extracts from an Ancient and Medieval Works of Forty Authors about Digambara (Jain) Holy places. By Dr. V. P. JOHARAPURKAR, M.A.,Ph.D. Demy Octavo pp. 12-216, Sholapur 1965. Price Rs. 5.
18. Prama- prameya of Bhavasen: A treatise on Logical Topics: Edited Authentically for the First time with Hindi Translation, notes, by Dr, V. P. JOHARAPURKAR, M. A., Ph.D. Demy Octavo pp. 6.4-158. Sholapur, 1966 Price Rs. 5-00.
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19. Ethical Doctrines in Jainism: Exhaustive Survey of the Ethical Doctrines propounded in Jainism.: Rules and Conduct for Monks as well as for Householders. By K. C. SOGANI, M.A., Ph.D., Crown pp. 5-16-302, Sholapur 1967, Price Rs. 12-00.
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20. Jain View of Life: Synoptic Philosophy, Jaina Theory of the Soul, Karma in Jaina Philosophy. By Dr. T. G. KALGHATGI, M.A. Ph.D., Demy pp. 12-200, Sholapur 1969, Price Rs. 6-00.
21. Candraprabha-caritam of Vranandi: Along with Sanskrit Commentary Vidvān-mano-vallabha of Municandra and Pañjikā of Gunanandi. Edited by Pt AMRITLAL SHASTRI, Varanasi, Double Crown pp. 41-556, Sholapur 1271, Rs. 16-00.
Price
WORKS IN PREPARATION
Subhāṣita-sa mdoha, Dharma-parikṣā, Kathakośa of Sricandra, Dharmaratnākara, etc.
For copies write to:
Jñānārṣava,
Jaina Samskṛti Samrakshaka Sangha SANTOSH BHAVAN, Pbaltan Gally, Sholapur (C. Rly.): India
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