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________________ त्रिविक्रम - प्राकृत-व्याकरण प्रियकर आया; आये हुए उसकी ध्वनि कर्णमें प्रविष्ट हो गयी । नष्ट होनेवाले उस विरहकी धूलभी न देखी गई ।। २४४ इदतोऽति ।। ३३ ।। उसका अत् उदा. - धूल डिआ अपभ्रंशमें स्त्रीलिंगमें रहनेवाली संज्ञाका जो अकार, अर्थात् अकार प्रत्यय आगे होनेपर, इकार होता है । विन दिट्ठ [ ५२ ] | स्त्रीलिंग में ( रहनेवाली संज्ञाके बारेमेही ऐसा होता है, अन्यथा नहीं | उदा.-) झुणि कण्णड पट्ट [ ५२ ] ॥ ३३ ॥ इदानीमेव्वहि || ३४ ॥ अपभ्रंशमें इदानीम् के स्थानपर एव्वहि ऐसा होता है । उदा. एव्वहि होइ, इदानीं भवति ॥ ३४ ॥ हरि नचाविउ पंगणइ विम्हइ पाडिउ लोउ । एवहि राहपओहरहँ जं भावइ तं होउ || ५३ | | ( = हे. ४२०.२) (हरिर्नर्तित: प्राङ्गणे विस्मये पातितो लोकः । इदानीं राधापयोधरयोर्यद् भवति तद् भवतु || ) हरिको आँगन में नचाया गया; लोगोंको आश्चर्यमें डाला गया । अभी राधाके स्तनोंका जो होता है वह होने दो । एव जि ।। ३५ ।। अपभ्रंश में एव शब्द के स्थानपर जि ऐसा होता है जि, राम एव ॥ ३५ ॥ जाउ म जंतउ पल्लवह देक्खउँ कइ पय देइ | हिअइ तिरिच्छी हउँ जि पर पिउ डंबरहूँ करेइ || ५४ || ( = हे. ४२०.१) ( यातु मायान्तं पल्लव पश्यामि कति पदानि ददाति । हृदये तिरश्वीना अहमेव परं प्रियो डम्बराणि करोति ॥ ) Jain Education International उदा. -रामु For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001735
Book TitlePrakritshabdanushasanam
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTrivikram
PublisherJain Sanskruti Samrakshak Sangh Solapur
Publication Year1973
Total Pages360
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari & Grammar
File Size19 MB
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