________________
चतुर्थः पादः दिही सुपि ॥ १ ॥
(इस सूत्रमें) अपभ्रंशे पदकी अनुवृत्ति है। अपभ्रंशमें, सुप् (=विभक्तिप्रत्यय) आगे रहनेपर, संज्ञाके अन्त्य स्वरके दिही यानी दीर्घ और हस्व प्रायः होते हैं। उदा.. रामु रामू, रामः ।। १॥
सु (प्रत्यय आगे होनेपर)ढोल्ला सावला धण चंपअवण्णी । णाइ सुवण्णरेह कसबद्दइ दिण्णी ॥९७॥ ( हेम. ३३०.१) (विटः श्यामलो धन्या चम्पकवर्णा । इव सुवर्णरेखा कषपट्टे दत्ता।)
प्रियकर श्यामलवर्ण है (और) प्रिया चंपकवर्णकी है। (वह ऐसे लगती है कि) मानो कसौटीपर सुवर्णकी रेखा खिंची हो।
संबोधन (प्रत्यय आगे होनेपर)ढोल्ला मई तुहुँ वारिआ मा कर दीहा माणु । निद्दऍ गमिही रत्तडी दडवड होइ विहाणु ॥९८।।(=हे.३३०.२) (विट मया त्वं वारितो मा कुरु दीर्घ मानम् । निद्रया गमिष्यति रात्रिः शीघ्रं भवति प्रभातम् ।।)
हे प्रियकर, मैंने तुझे बरजा कि दीर्ध (काल) मान मत कर । कारण) नींद में रात बीत जायेगी और झटपट प्रभात हो जायेगा।
स्त्रीलिंगमेंबिटिए मइँ भणिय तुहुँ मा करु वंकी दिट्ठी। पुत्ति सकण्णी मल्लि जिम मारइ हिअइ बइहि ।।९९।। (=हे.३३०.३)
पुत्रि मया भणिता त्वं मा कुरु वक्रां दृष्टिम् । पुत्रि सकणी भल्लियथा मारयति हृदये प्रविष्टा ।।)
२६१
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org