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________________ 1-प्राकृत-व्याकरण २४६ प्रत्युत पच्चलिउ ॥ ३८॥ प्रत्युत ऐसा अव्यय पच्चलिउ ऐसा होता है। उदा.-पच्चलिउ सुघु, प्रत्युत सुग्वम् ।। ३८ ॥ . सावसलोणी गोरडी नवखी क वि विमगंठि। भडु पच्चलि उ सो माइ जासु न लग्गइ कंठि ।।५७॥ (=हे.४२०.३) (सर्वसलावण्या गौरी नवीना कापि विषग्रन्थिः । भटः प्रत्युत स म्रियते यस्य न लगति कण्ठे ।।) साङ्गसंदर गौरी नये विषकी गाँठ (के समान) है। परंतु जिसके कंठमें वह नहीं लगती वह वीर मर जाता है। ग्रन्थिः इस शब्दमें, 'लिङ्गमतन्त्रम् ' (३.४.६७) सूत्रानुसार स्त्रीलिंगा (हो गया है)। एवमेव एमइ ।। ३९ ॥ एवमेव ऐसा अव्यय एमइ ऐसा हो जाता है। उदा.-एमइ लोगु, एवमेव लोकः ॥ ३९॥ अंगहिँ अंगु न मिलिउँ हलि अहरें अहरु न पत्तु । पिअ जोअन्तिहें मुहकवलु एमइ सुर उ समत्तु ।। ५८ ॥ ( हे. ३३२.२) (अङ्गैरङ्ग न मिलितं सखि अधरेण अधरो न प्राप्तः। प्रियस्य पश्यन्त्या मुखकमलं एवमेव सुरतं समाप्तम् ।।) हे सखी, (प्रियकरके) अंगोंसे (मेरा) अंग न मिला, अधरसे अधर नहीं चिपटा । प्रियकरके मुखकमल देखते देखतेहो (हमारी) सुरतक्रीडा समाप्त हो गई। समं समाणु ॥ ४० ॥ समं ऐसा अव्यय समाणु ऐसा हो जाता है। उदा.-रामेण समाणु, रामेण समम् ।। ४०॥ कंतु जं सीहहाँ उवमिअइ तं महु खडिउ माणु। सीहु अरक्खअ गअ हणइ पिउ पयरक्खसमाणु ॥५९।। (हे. ४१८.२) Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001735
Book TitlePrakritshabdanushasanam
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTrivikram
PublisherJain Sanskruti Samrakshak Sangh Solapur
Publication Year1973
Total Pages360
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari & Grammar
File Size19 MB
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