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________________ हिन्दी अनुवाद-अ. ३, पा. ३ (कान्तो यत् सिंहस्योपमीयते तन्मम खण्डितो मानः । सिंहोऽरक्षकान् गजान् हन्ति प्रियः पदक्षैः समम् ।।) (मेरे) प्रियकरकी तुलना जो सिंहसे की जाती है उससे मेरा मान खंडित हो जाता है। (क्योंकि) सिंह बिना रक्षकके हाथियोंको मारता है, (पर मेरा) प्रियकर रक्षकोंके साथ (उनको) मारता है । किल किर ।। ४१ ॥ अपभ्रंशमें किल ऐसा अव्यय किर ऐसा हो जाता है ।। ४१ ॥ उदा.-न किर खाइ न पिअइ न विद्दवइ धम्मि न वेच्चइ रूअडउ । इह किवण न जाणइ जह जमहा खणण पहुच्चइ दूअडउ ।। ६०॥ (=हे. ४१९.१) (न किल खादति न पिबति न विद्रवति धर्मे न व्ययति रूपकम् । इह कृपणो न जानाति यथा यमस्य क्षणेन प्रभवति दूतः।।) सचमुच कृपण न खाता है, न पीता है, (मनमें) नहीं पिघलता, और धर्मके लिए एक रुपयाभी नहीं खर्च करता। (पर) कृपण यह तो नहीं जानताही है कि यमका दूत एक क्षण में प्रभावी होगा। पग्गिम प्राइम पाउ प्राइव प्रायसः ।। ४२ ॥ प्रायस् ऐसा अव्यय अपभ्रंशमें पग्गिम, प्राइम, प्राउ, प्राइव ऐसे चार प्रकारसे प्रयुक्त करें। उदा.-पग्गिम चवलु, प्रायश्चपलः । इत्यादि ।। ४२ ।। एसी पिउ रूसेसु हउँ रुट्ठी मइँ अणुणेइ । पग्गिम एइँ मणोरहइँ दुक्कर दइवु करे ॥६॥ (=हे. ४१४.४) (एष्यति प्रियः रुष्याम्यहं रुष्टां मामनुनयति । प्राय एतान् मनोरथान् दुष्करं दैवं कारयति ।।) प्रियकर आएगा। मैं रूठ जाऊँगी। रूठी हुई मुझे वह मनाएगा (मेरा अनुनय करेगा)। दुष्ट (दुष्कर) दैव प्रायः ऐसे मनोरथ कराता है। प्राइम माणहें वि भंतडी ते मणिअडा गणन्ति । अखद निरामइ परमपइ अन्ज वि पउ न लहन्ति ॥६२॥ =. ४१४.२) Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001735
Book TitlePrakritshabdanushasanam
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTrivikram
PublisherJain Sanskruti Samrakshak Sangh Solapur
Publication Year1973
Total Pages360
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari & Grammar
File Size19 MB
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