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त्रिविक्रम-पाहत-व्याकरण
पायो मुनीनामपि भ्रान्तिः ते मणीन् गणयन्ति । अक्षये निरामये परमपदे अद्यापि पदं न लभन्ते ।।)
प्रायः मुनियोंकोभी भ्रांति है। वे (केवल) मणि गिनते हैं। (पर) बवमी, अक्षर, निरामय, परमपदमें वे स्थान नहीं प्राप्त करते। बन्ने ते दीहर लोअण अन्नु तं भुअजुअलु । बनु सु घणथणहारु अन्नु जि मुहकालु । बन्नुसु केसकलाउ अन्नु जि प्राउ विहि । बेण णिबिणि घडिअ स गुणलाअण्णणिहि ।।६३।। (=हे. ४१४.१)
(अन्ये ते दी लोचने अन्यत्तद् भुजयुगलम् । अन्यः स घनस्तनभारः अन्यदेव मुखकमलम् | अन्यः स केशकलापः अन्य एव प्रायो विधिः । येन नितम्बिनी घटिता सा गुणलावण्यनिधिः ।।)
वे दीर्घ लोचन दूसरेही हैं। वे दोनों भुजाएँ कुछ औरही हैं। वह घन स्तनोंका भार निरालाही है। वह मुखकमलभी निराला है। केशकलापभी निराला है। और गुण तथा लावण्य इनका निधि ऐसी उस सुंदरी (नितम्बिनी)को निर्माण करनेवाला वह विधि (ब्रह्मदेव) भी निराला है।
अंसुजलें प्राइव गोरिअह सहि उव्वत्ता नअणसर । जे संमुह संपेसिआ देंति तिरिच्छी घत्त पर ।।६४॥ (=हे.४१४.३)
(अश्रुजलेन प्रायो गौर्याः सखि उद्वान्ते नयनसरसी। ते संमुख संप्रेषिते ददतस्तिर्यग् घातं परम् ॥)
हे सखी, (मुझे भाता है कि) सुंदरीके नयनरूपी सरोवर अश्रुजलसे प्रायः लबालब भरे हुए हैं। परंतु वे नयन जब (किसीके) सामने (देखनेके लिए) मुडते हैं तब वे तिरछी चोट करते हैं।
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