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________________ १०६ त्रिविक्रम-प्राकृत व्याकरण दौवारिकः, कटिवस्त्रम् , निर्विवरम् , विपक्षः और आशीः (आशीर्वाद)। कटि शब्दके आगे गहन, इत्यादि अर्थों में डिल्ल (डित् इल) प्रत्यय भागया। (४९) रूवसिणी रूपवती । रूप शब्दके आगे अस्ति अर्थमें स्त्रीलिंगका सिणी प्रत्यय आया । (५०) कुडुम्बिअं सुरतम् । कुटुम्ब शब्दके आगे कहे हुए अर्थमें डिक (डित् इक) प्रत्यय आया। (५१) अंतरिज्जं रशना, कटिसूत्र | अंतर शब्दके आगे कहे हुए अर्थमें डिज्ज (डित् इज्ज) प्रत्यय आगया। (५२) अवडुक्किअं (यानी) कूप, इत्यादि अवटमें पडा हुआ। अवट शब्दके आगे कहे हुए अर्थमें डुक्किअ (डित् उक्किअ) प्रत्यय आया। (५३) बुडिरो महिष । मजति धातुके 'बुड्ड' आदेशके आगे शील अर्थमें इर प्रत्यय आगया। (५४) पिपिडिअं (यानी, जो किंचित् पठित किया जाता है वह । पिडिपिडि इस अनुकरणवाचक शब्दके आगे क प्रत्यय आया, आद्य डिकारका लोप और पका द्वित्व हुए । (५५) सरिसाहुलो सदृश । सदृश शब्दके आगे स्वार्थे हुलश् प्रत्यय आगया। (हुलश् में श् इत् होनेसे, पूर्व स्वर दीर्घ हुआ)। (५६) गुमिलो मूढः ! मुह धातुका आदेश जो गुम, उसके आगे इल प्रत्यय आगया । (५७) कच्चं कार्यम् । यहाँ कृ धातुको डच्च (डित् अच्च) प्रत्यय लगा है। (५८) घडिअघडा, घडी (यानी) गोष्ठी। घटिता घटा घटना यस्याः सा (जिसकी घटना घट गई है)। (५९) कमणी निश्रेणी (यानी) सीढी । (६०) किरिकिरिआ (यानी) कर्णोपकर्णिका और कुतकम् । कर्णोपकर्ण कर्णपरंपराप्राप्त कटुजल्पनं, तस्मिन्नथे और कौतुक अर्थमें किरिकिरि इस अनुकरणवाचक शब्दके आगे का प्रत्यय आगया। (६१) अण्णइओ (यानी) सब बातोंमें तृप्त ।-अर्णव शब्दके आगे उपमान अर्थमें डिक (डित् इक) प्रत्यय आगया । (६२) साहुली शाखा । यहाँ स्वार्थे डुलि (डित् उलि) प्रत्यय आगया । (६३) जंपेक्खिरमग्गिरओ (यानी) जो देखा वह माँगनेवाला। यद् दृष्टं इस अर्थमें (आनेवाले) जपेक्खिर निपातके आगे याचनशील अर्थम क-प्रत्ययान्त मग्गिरओ शब्द आगया। (६४) गअसाउल्लो विरक्तः । गतस्वाद शब्दके आगे कहे हुए अर्थमें डुल्ल (डित् उल्ल) प्रत्यय आगया। (६५) सिहण्डहिल्लो बालः। शिखण्ड शब्दके आगे कहे हुए अर्थमें हिल्ल प्रत्यय आया है। शिरवावान् यह अर्थ । (६६) अलवलवसहो (यानी) धूर्त, दुष्ट, पृष्ठवाही बलीवर्द । अलं अत्यर्थं बलं अस्य वृषभस्य इति (इस बैलका बल अत्यर्थ है)। अनुस्वारका लोप हुआ। (६७) खुरहखुडी प्रणयकोप । क्षुरवत् Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001735
Book TitlePrakritshabdanushasanam
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTrivikram
PublisherJain Sanskruti Samrakshak Sangh Solapur
Publication Year1973
Total Pages360
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari & Grammar
File Size19 MB
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