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________________ ९३ हिन्दी अनुवाद-अ. १, पा. ४ पदादि होकर उसका ह नहीं होगा; इसलिए घ का ह होनेपर (ऐसा कहा है) ।। ११८॥ रलोहरिताले ॥ ११९ ।। हरिताल शब्दमें र और ल इनका व्यत्यय होता है। उदा.-हरिआलो हलिआरो ।। ११९ ॥ दर्वीकरनिवहौ दव्वीरयणिहवौ ।। १२० ॥ (दर्वीकर और निवह) इनके यथाक्रम दव्वीरअ और णिहब ऐसा व्यत्यय करके आये हुए रूप निपातके रूपमें आते हैं। उदा.-दव्वीरओ (यानी) सर्प। विकल्पपक्षमें-दब्बीअरो। णिहवो ॥ १२० ।। गहिआद्याः ॥ १२१ ।। जिनका स्पष्टीकरण दिया जा सकता है ऐसे गहिआ, इत्यादि शब्द निपातके रूपमें आते हैं। उदा.-(१) गहिआ (यानी) काम्यमान।। (उसकी) इच्छा की जानेके कारण लेनेके लिए योग्य (ग्राह्या)। यहाँ (पहले) हस्व, और (यह शब्द) चौर्यसम (देखिए १.४.१००) होनेसे, (संयुक्त व्यंजनमेंसे अन्त्य व्यंजनके पूर्व) इ आता है। (२) किमिधरवसणं कौशेय अर्थमें । कृमिगृहवसनम् ; कृमीसे किये हुए आवरणसे उसके तन्तु निर्माण होते हैं, इसलिए । (३) णन्दिणी (यानी) धेनु। नंदिनी के समान, नंदिनी । (४) पडिसाओ (यानी) घर्घर कण्ठ । प्रतिशब्दसे युक्त होनेसे या ध्वनिका प्रतिपादन होनेसे । (५) वइरोडो (यानी) जार । पति रोटयति वञ्चयति इति (पतिरोटः)। यहाँ प का व और ट का ड हुआ है। (६) अविणअवई अविनयपति । (७) अणडो अनृत यानी असत्य । प्रत्यादि-पाठमें होनेसे (१.३.३३), त का ड हुआ। (८) अजडो अजड, शीघ्रकारित्व होनेसे। (९) छिण्णो छिन्न, मदनके बाणोंसे छेदन होनेसे । (१०) छिण्णालो यानी व्यभिचारी। सदाचारच्छिन्ना लाति आदत्ते इति Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001735
Book TitlePrakritshabdanushasanam
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTrivikram
PublisherJain Sanskruti Samrakshak Sangh Solapur
Publication Year1973
Total Pages360
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari & Grammar
File Size19 MB
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