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हिन्दी अनुवाद-अ.२, पा. ४ विक्रीणीतें। अकारान्त धातुको छोडकर, ऐसा क्यों कहा है ! (कारण अकारान्त धातुके आगे अक् नहीं आता)। उदा.-चिइच्छइ चिकित्सते ।। ७०॥ अचोऽचाम् ।। ७१ ॥
धातुमेंसे अच् के यानी स्वरोंके स्थानपर (अन्य) स्वर बहुलत्वसे आते हैं। उदा.-हवइ हिवइ । चिणइ चुणइ। सद्दहणं सदहाणं। धावह धुवइ । रुवइ रोबइ। कचित् (ऐसा परिवर्तन) नित्य होता है। उदा.जेइ । चेइ । देइ । लेइ । विहेइ । नासइ ।। ७१ ॥ णो हश्च चिजिपूश्रुधूस्तुहुलूभ्यः ।। ७२ ।।
चि, जि, पू, श्रु, धू, स्तु, हु और लू इन धातुओंके आगे ण ऐसा आगम होता है, और उसके सानिध्यके कारण ह का यानी दीर्घका व्हस्व होता है। उदा.-चिणइ । जिणइ । पुणइ । सुणइ। धुणइ । थुणइ । हुणइ । लुणइ। बहुलका अधिकार होनेसे, कचित् विकल्प होता है उदा.-उच्चेणइ उच्चेइ। जिणिऊण जेऊण | जिणइ जेणइ। सुणिऊण सोऊण ।। ७२ ।। भावकर्मणि तु वर्यग्लुक् च ॥ ७३ ।।
भावे और कर्मणिमें रहनेवाले चि, जि, पू, श्रु, धू, स्तु, हु और ल् धातुओंके आगे चकारका आगम विकल्प से होता है। और उसके सांनिध्यके कारण यक् प्रत्ययका लोप होता है। (सूत्रमेंसे वर में) र् इत् होनेसे, (व का) द्वित्व (=व्व) होता है। उदा.-चिब्वइ चिणिज्जइ । जिव्वइ जिणिज्जइ। पुबइ पुणिज्जइ । सुबइ सुणिज्जइ । धुम्बइ धुणिज्जइ । इसीप्रकार भविष्यकालमें चिवहिइ चिणिज्जि हिइ, इत्यादि ।। ७३ ।। मर्चेः ॥ ७४॥
(इस सूत्रमें २.४.७३ से) भावकर्मणि पदकी अनुवृत्ति है । भावकर्मणिमें चि धातुके आगे रित् म-आगम होता है, और उसके सानिध्यके
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