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________________ हिन्दी अनुवाद- -अ १, पा. ३ नीयम् विम्हअणिज्जं विम्हअणीअं । यापनीयम् जावणिज्जं जावणीअं । (उत्तरीय शब्द में ) - उत्तरीयम् उत्तरिज्जं उत्तरीअं । कृत् प्रत्यय-पेया पेज्जा पेआ । मेयम् मेज्जं मेअं ॥ ६८ ॥ इन्मयटि ।। ६९ ।। (इस सूत्रमें १.३.६८ से) यः पदकी अनुवृत्ति है । मयट् प्रत्यय में य का इकार विकल्प से होता है | उदा. - विषमय ः विसमइओ विसमओ ॥ ६९ ।। छायायां होsकान्तौ ॥ ७० ॥ जब कान्ति यह अर्थ नहीं होता, तब छाया शब्द में य का ह विकल्पसे होता है | उदा.- वच्छस्स छाहा वच्छस्स छाआ । पुद्गलका पर्याय 1 सच्छाहं सच्छाअं । जब कान्ति यह अर्थ नहीं होता, ऐसा क्यों कहा है ? ( कारण कान्ति अर्थ होनेपर, यहाँका वर्णविकार नहीं होता ।) उदा.-मुहच्छाआ (यानी ) मुहकी कान्ति ऐसा अर्थ ॥ ७० ॥ यष्ट्रयां लहू ।। ७१ ॥ यष्टि शब्दमें य का ल होता है । (सूत्रके लल् में) व् इत् होनेसे यहाँ विकल्प नहीं होता । उदा. - लट्ठी यष्टिः । वेलुलट्ठी वेणुयष्टिः । चूअलट्ठी चूतयष्टि: । महुलट्ठी मधुयष्टिः ॥ ७१ ॥ कतिपये वहशौ ॥ ७२ ॥ कतिपय शब्द में य के व और ह होते हैं। (सूत्रके हश् में) शू इत् होनेसे, ह होते समय पूर्व स्वर दीर्घ होता है । उदा. - कइअवं कइवाह ।। ७२ ।। अर्थपरे तु युष्मदि ॥ ७३ ॥ युष्मत् शब्द जब (मूल यानी तु, तुम इस अर्थ में (अर्थपरे) होता तब य का तकार होता है । उदा.- तुम्ह च्चि यैौष्माकम् । तुम्हकेरो Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001735
Book TitlePrakritshabdanushasanam
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTrivikram
PublisherJain Sanskruti Samrakshak Sangh Solapur
Publication Year1973
Total Pages360
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari & Grammar
File Size19 MB
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