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________________ त्रिविक्रम - प्राकृत व्याकरण युष्मदीयः । (मूल) अर्थमें होनेपर, ऐसा क्यों कहा है ! (कारण ऐसा नहीं हो तो यहाँका वर्णान्तर नहीं होता ।) उदा.- जुम्हदम्हप्पअरणं, युष्मदस्मत्प्रकरणम् ॥ ७३ ॥ ५. आदेर्जः ॥ ७४ ॥ I पदमें आद्य य का ज होता है । उदा - यशः जसो । यमः जमो । युवति: जुवई । याति जाइ । (पदमें) आद्य य का, ऐसा क्यों कहा है ? ( कारण य आद्य न होनेपर ज नहीं होता ।) उदा. - अवअवो । विणओ 1 बहुलका अधिकार होनेसे, पीछे ( पूर्व ) उपसर्ग रहनेसे अनादि होनेवाले यकाभी ज होता है । उदा. - संजोओ संयोगः । संजमो संयमः । अपजसो अपयशः । (पीछे उपसर्गके होते हुए भी, अनादि य का ज ) कचित् नहीं होता । उदा.- प्रयोगः पओओ ।। ७४ ॥ भयौ बृहस्पतौ तु बहोः ।। ७५ ।। बृहस्पति शब्द में बकार और हकार इनके अनुक्रमसे भकार और यकार विकल्पसे होते हैं । उदा. - भयप्पई बहप्पई ॥ ७५ ॥ रोडा पर्या ।। ७६ ।। पर्याण शब्द में रेफका डा ऐसा आदेश होता है । उदा. -पडाआणं. पहाणं ॥ ७६ ॥ लो जठरवठरनिष्ठुरे || ७७ ॥ (इस सूत्र में १.३.७६ से) र: पद (अध्याहृत ) है । जठर, इत्यादि शब्दों में र काल विकल्पसे होता है । उदा - जठरम् जढलं जढरं । वठर::. वढलो वढरः । निष्ठुरः णिठुलो निठुरो । भ्रमरका पर्याय भसल शब्द संस्कृत जैसेही है || ७७ ॥ हरिद्रादौ ।। ७८ ॥ हरिद्रा, इत्यादि शब्दों में र का ल होता है। यह नियम (१.३.७७ से) पृथक् कहा जानेसे, (यह ल ) नित्य होता है | उदा. - हल्दी हरिद्रा ! Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001735
Book TitlePrakritshabdanushasanam
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTrivikram
PublisherJain Sanskruti Samrakshak Sangh Solapur
Publication Year1973
Total Pages360
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari & Grammar
File Size19 MB
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