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________________ १६६ त्रिविक्रम-प्राकृत-व्याकरण है ऐसे वृध धातुकाभी थोडा भी बदल न होते (अविशेषेण) ग्रहण होता है ॥ ५५ ॥ वेष्टेः ॥ ५६ ॥ (इस सूत्रमें २.४.५५ से) ढः पद (अध्याहृत) है। वेष्टन अर्थमें होनेवाले वेष्ट धातुमें, 'कगटड' (१.४.७७) इत्यादि सूत्रानुसार एका लोप होनेपर, (शेष) ट का ढ होता है। उदा.-वेढइ । वेढिज्जइ ॥ ५६ ॥ समुदो लर् ॥ ५७ ॥ सम् और उद् उपसगों के आगे रहनेवाले वेष्ट धातुके अन्त्य वर्णका रित् लकार होता है। (सूत्रमेंसे लर् में र् इत् होनेसे, लकारका द्वित्व होता है)। उदा-संवेल्लइ। उबेछ।। बहुलका अधिकार होनेसे, उद् (उपसर्ग) के अगले (वेष्ट धातु के अन्त्य वर्णका) विकल्पसे ढ भी होता है। उदा.-उज्वेल्लइ उव्वेढइ ॥ ५७ ॥ खादधावि लुक् ॥ ५८ ॥ खाद् और धाव् धातुओंमें अन्य वर्णका लोप होता है। उदा.खाइ खाअइ। खाओ खाइओ। धाइ ध अइ। धाओ। धाइओ। बहुलका अधिकार होनेसे, वर्तमानकाल, भविष्यकाल, विधि, इत्यादिके एकवचनमेंही (इन धातुओंके अन्त्य वर्णका लोप) होता है, इसलिए यहाँ (आगे दिये उदाहरणोंमें) नहीं होता। उदा.-खादन्ति । धावन्ति । कचित् 'धावइ पुरओ' ऐसा भी (वाड्मय में) दिखाई देता है ।। ५८ ।। रः सृजि ॥ ५९॥ सृज् धातुमें अन्त्य वर्णका र होता है। उदा.-विसरइ । ओसरइ । ओमगमि ॥ ५९॥ डः सादपति ।। ६० ।। .. सद् (सीदति) और पत् (पतति) धातुओंमें अन्त्य वर्णका ड होता है। उदा.-सडइ । पडइ ।। ६० । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001735
Book TitlePrakritshabdanushasanam
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTrivikram
PublisherJain Sanskruti Samrakshak Sangh Solapur
Publication Year1973
Total Pages360
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari & Grammar
File Size19 MB
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