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________________ हिन्दी अनुवाद - अ. ३, पा. ३ हत्थि मारणउ लोउ बोल्लुणउ । पडह वज्जण सुणउ भसणउ ॥ ३४ ॥ ( = हे. ४४३.१) [हस्ती मारयिता लोकः कथयिता । पटहो वादयिता शुनको भषिता ॥] मारनेवाला हाथी, कहनेवाला मनुष्य, बजने वाला पटह, भूँकनेवाला कुत्ता ॥ छस्य युष्मदादेर्डारः ॥ २३ ॥ अपभ्रंशमें युष्मद्, इत्यादिके आगे आनेवाले छ को डित् आर ऐसा आदेश होता है । उदा. - तुम्हारु युष्मदीयः । अम्हारु अस्मदीयः ॥ संदेसे काइँ तुम्हारेण जं संगहा न मिलिज्जइ । २३ ॥ सुविनंतर पिएँ पाणिऍण पिअ पिवास के छिज्जइ ॥ २५ ॥ ( = हे. ४३४. १) (संदेशेन किं त्वदीयेन यत्संगस्य न मिल्यते । स्वान्तरे पोतेन पानीयेन प्रिय पिपासा किं छियते ॥ ) २३७ (तुम्हारा ) संग नहीं मिलता, (फिर) तुम्हारे संदेशका क्या उपयोग ? हे प्रिय, सपने में पिये जलसे क्या प्यास मिटती है ? दिक्खि अम्हारा कंतु । बहिणि अम्हारा कंतु (११९) । जणि जणु नं नइ नाइ नाइ इवार्थे ॥ २४ ॥ अपभ्रंशमें इत्रके अर्थमें जणि, जणु, नं, नइ, नावइ, नाइ ऐसे छः आदेश होते हैं | उदा.- चंदु जणि, चंदु जणू, चंदु नं, चंदु नइ, चंदु नावइ, चंदु नाइ, चन्द्र इव ॥ २४ ॥ जणि (आदेशका उदाहरण ) - चंप अकुंपल मज्झि सहि भसलु पइट्ठउ । सोहइ इंदनील जाण कणइ उविट्ठउ || ३६ ।। ( = हे. ४४४.४) (चम्पककुड्मलमध्ये सखि भ्रमरः प्रविष्टः । शोभते इन्द्रनील इव कनके उपविष्टः || ) Jain Education International 1 हे सखी, चंपक कुसुमके मध्य में भ्रमर प्रविष्ट है । मानो कनकमें जडे दिये गये इंद्रनील मणि जैसा वह शोभता है । For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001735
Book TitlePrakritshabdanushasanam
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTrivikram
PublisherJain Sanskruti Samrakshak Sangh Solapur
Publication Year1973
Total Pages360
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari & Grammar
File Size19 MB
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