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त्रिविक्रम-प्राकृत-व्याकरण
अपना धन देना दुष्कर है । तप करना (किसीको) नहीं भाता | योही सुख भोगनेका मन है, पर भोगना नहीं होता।
जेपि चएबिणु सअल धर लेविण तउ पालेवि । विणु संतें तित्थेसरेण को सक्कइ भुवणे वि ।।३१।। (-हे. ४४१.२) [जेतुं त्यक्तुं सकलां धरां लातुं तपः पालयितुम् । विना शान्तिना तीर्थेश्वरेण कः शक्नोति भुवनेऽपि ।)
संपूर्ण पृथ्वीको जीतना, (जीतकर उसका) त्याग करना, व्रत (तप) लेना और (लेकर उसका) पालन करना, यह [सब शांति तीर्थेश्वरके बिना जगमें और कौन कर सकता है? गमेस्त्वेप्येपिण्योरेलुक् ।। २ ।।
अपभ्रंशमें गम् (गमि) धातुके आगे एप्पि और एप्पिणु इन आदेशोंके एकारका लोप विकल्पसे होता है। उदा.-गपि गंपिणु गमेन्धि गमेपिणु, गत्वा
गंपिणु वाणारसिहि नर अह उज्जेणिहि गपि । मुअ पप्पुवन्ति परम पउ दिन्वंतर म जंपि ॥ ३२॥ (=हे.४४२.१) (गत्वा वाराणस्यां नरा अथ उज्जयिन्यां गत्वा । मृताः प्राप्नुवन्ति परमं पदं दिव्यान्तराणि मा जल्प ।।)
वाराणसीमें जाकर (पश्चात् ) उज्जयिनोमें जाकर जो लोग मरते हैं, वे परम पद प्राप्त कर लेते हैं । अन्य तीर्थों का नाम भी मत लो।
विकल्पपक्ष मेंगंग गमेप्पिणु जो मरइ जो सिवतित्थु गमे प्प । कीडदि तिदसावासगउ सअलउ लोउ जएप्पि ॥३३॥ (=हे. ४४२.२) (गंगां गत्वा यो म्रियते यः शिवतीर्थ गत्वा । क्रोडति त्रिदशावासगतः सकलं लोकं जिवा ॥)
जो गंगा या काशी (शिवतो) जाकर मर जाता है, वह सब लोक जीतकर, देवलोकमें जाकर क्रीडा करता है । तृनो णअल् ॥ २२॥
___ अपभ्रंशमें तृन् प्रत्ययको लित् (=नित्य) णअ ऐसा आदेश होता है । उदा.-होणउ भविता । सुण श्रोता ।। २२ ।।
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