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________________ हिन्दी अनुवाद - अ. ३, पा. ४ हुं मस्महिङोः ॥ ५६ ॥ लट् (वर्तमानकाल) के उत्तमपुरुषके बहुवचन में रहनेवाले मस और महिङ (प्रत्ययों) को हुं ऐसा आदेश विकल्पसे होता है । उदा. होहुं हवहुँ हबहुँ,, भवामः ॥ ५६ ॥ २८५० खग्गविसाहिउँ जहिँ लहहुँ पिअ तहिँ देसहिँ जाहुं । रणदुभिक्खें भग्गाई विणु जुज्झें न वलाहुं ॥ १४८|| (= ३.३८६.१). (खड्गविसाधित यस्मिन् लभामहे प्रिय तस्मिन् देशे यामः । रणदुर्भिक्षण भग्ना विना युद्धेन न वलामहे ||) हे प्रियकर, जहाँ खड्गका व्यवसाय प्राप्त करे उस देशमें चले जाएंगे। रणरूपी दुर्भिक्षके कारण हम पीडित हैं । युद्धके बिना हम ( सुखी नहीं रहेंगे। विकल्पपक्ष में - लहिमु, इत्यादि ॥ इदेत्स्वहेः || ५७ ॥ पंचमी ( आज्ञार्थ) के मध्यमपुरुष एकवचन के जो स्व और हि ऐसे आदेश - है, उनको अपभ्रंशमें इ, उ और ए ऐसे ये तीन आदेश विकल्पसे होते हैं । उदा. - होइ होठ होए, भव । इत्यादि ॥ ५७ ॥ इ (आदेशका उदाहरण) - कुंजर सुमरि म सल्लउ सरला सास मं मे ल्ल | कवल जें पाव विहित्रसिण ते चरि माणु म मेल्लि ॥ १४९ ॥ ( = हे.३८७.१) (कुंजर स्मर मा सल्लकी: सरलान् श्वासान् मा मुश्च । कवला ये प्राप्ता विधिवशेन तांश्वर मानं मा मुख ।) Jain Education International हे गज, सल्लकी - वृक्षोंका स्मरण मत कर, दीर्घ साँस मत छोड । देववात् जो प्राप्त हुए हैं उसी कवलोंको खाओ; (अपना) मान मत छोड । उ ( आदेश का उदाहरण ) - भमरा एत्थु विलिंडर कवि दिपहडा विलम्बु | घणपत्तलु छायाबहुल फुल्लइ जाम कलम्बु || १५० ।। (= ६. ३८७.२) For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001735
Book TitlePrakritshabdanushasanam
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTrivikram
PublisherJain Sanskruti Samrakshak Sangh Solapur
Publication Year1973
Total Pages360
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari & Grammar
File Size19 MB
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