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________________ २८६ त्रिविक्रम-प्राकृत-व्याकरण (भ्रमर अत्रापि निम्ने कानपि दिवसान् विलम्बस्व । घनपत्रवान् छायावहल: फुल्लति यावत् कदम्बः ॥) हे भ्रमर, यहाँ नींमपर कुछ दिन व्यतीत कर जबतक घने पत्तोंवाला और छायायुक्त कदंब (वृक्ष) नहीं फूलता। ए (आदेशका उदाहरण)प्रिय एवं करें सेल्लु कर छड्डहि तुहु करवाल । जं कावालिय बप्पुडा लेहिँ अभग्गु कवालु ॥१५१।। (हे. ३८७.३) (प्रिय इदानी कुरु कुन्तं करे मुञ्च त्वं करवालम् । यत् कापालिका वराका लान्त्यमग्नं कपालम् ॥) हे प्रियकर, अब हाथमें भाला रख, तू तलवार छोड दे, जिससे बेचार कापालिक न टूटा हुआ कपाल (भीखके लिए) प्राप्त करेंगे । _ विकल्पपक्षमें-सुमरहि, इत्यादि । स्यस्य सो लुटि ॥ ५८ ॥ लृट्में यानी भविष्यकालमें जो स्यप् कहा है उसको स ऐसा (आदेश) होता है । उदा.-होसइ भविष्यति ॥ ५८॥ दिअहा जति झडप्पडहिं पडहिँ मणोरह पच्छि । जं अच्छइ तं माणिअइ होसइ करतु म अच्छि ॥१५२॥ (हे.३८८.१) (दिवसा यान्ति झटिति पतन्ति मनोरथाः पश्चात् । यदस्ति तन्मान्यते भविष्यति (इति) कुर्वन् मास्स्व ।।) दिन झटपट जा रहे हैं । मनोरथ पीछे रह जाते हैं। (इसलिए) जो (कुछ) है उसीका स्वीकार करे । होगा ऐसा कहते हुए न (स्वस्थ) ठहरो)। विकल्परक्षर्मे-होहिइ। पर्याप्तौ भुवः पहुच्चः ।। ५९ ॥ अपभ्रंशमें पर्याप्ति अर्थमें होनेवाले भू धातुको पहुच्च ऐसा आदेश होता Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001735
Book TitlePrakritshabdanushasanam
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTrivikram
PublisherJain Sanskruti Samrakshak Sangh Solapur
Publication Year1973
Total Pages360
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari & Grammar
File Size19 MB
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