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________________ हिन्दी अनुवाद-अ. ३, पा. ४ २८ अइतुंगत्तणु जं थणहं सो छेयउ न हु लाहु सहि जइ केवइ तुडिवसण अहरि पहुच्चइ नाहु ॥१५३ ॥ (=हे.३९०.१) (अतितुंगत्वं यत् स्तनयोः स च्छेदो न खलु लाभः । सखि यदि कथमपि त्रुटिवशेनाधरे प्रभवति नाथः ।) स्तनोंकी जो अत्यंत ऊंचाई है वह लाभ नहीं है,हानिही है । (क्योंकि) हे सखी, (मेरा) प्रियकर बहुत कष्टसे और देरसे अधरतक पहुँच सकता है। बजेर्वञः।। ६०॥ ___ अपभ्रंशमें ब्रज (जि) धातुको वञ ऐसा आदेश होता है। उदा.चञइ । वपि । व प्पिणु ॥ ६ ॥ बेजो बुवः ॥ ६१ ॥ अपभ्रंशमें ब्रू (ब्रून् )धातुको बुव ऐसा आदेश विकल्पसे होता है। उदा.. न सुहासिउ किं पि बुवइ, न सुभाषितं किमपि ब्रवीति ।। ६१ ॥ विकल्पपक्षमएत्तउ बोप्पिणु सउणि ठिउ पुणु दूसासणु बोपि । सो हउँ जाणउँ एहाँ हरि जइ महु अगइ बोप्पि ॥१९४॥ (-हे.३९१.१) (एतावदुक्त्वा शकुनिः स्थितः पुनर्दुःशासन उक्त्वा । ततोऽहं जानामि एष हरिर्यदि ममागे उक्तवान् ।) (दुर्योधन कहता है)-इतना कहकर शकुनि चुप रहा। (उतनाहीचोलकर दुःशासन (चुप रहा)। तब मैं समझा कि (जो बोलना था वह) बोल. कर यह हरि (श्रीकृष्ण) मेरे सामने (खडा है)। क्रियेः कीसु ॥ २ ॥ क्रिये ऐसे क्रियापदक। अपभ्रंशमें कीम ऐसा आदेश होता है ॥ ६२ ॥ उदा. सन्ता भोग जु परिहरइ तसु कंतहाँ बलि की। तसु दइवेण जि मुण्डियउँ जसु खल्लिडउँ सीसु ॥१५॥ (-हे.३८९:१) (सतो भोगान् यः परिहरति तस्य कान्तस्य बलिं क्रिये (करोमि)। तस्य दैवेनैव मुण्डितं यस्य खल्वाटं शीर्षम् ।) Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001735
Book TitlePrakritshabdanushasanam
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTrivikram
PublisherJain Sanskruti Samrakshak Sangh Solapur
Publication Year1973
Total Pages360
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari & Grammar
File Size19 MB
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