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होः स्तोरुच्चारलायवम् ।। ६५ ॥
संयुक्त होनेवाले होः यानी हकार और रेफ इनका अपभ्रंशमें प्रायः लघु उच्चार होता है। उदा-बहिणि अम्हारा कंतु (११९)। सिरु ल्हसिउं खंधस्सु (१६२)। जइ सो घडिदि प्रयावदी (२०)। अनु जि प्राउं ( ६३ )। चंचल जीविदु ध्रुवु मरणु ( ४३ ) ।। ६५ ।। बिन्दोरन्ते ॥ ६६॥
अपभ्रंशमें पदके अन्तमें रहनेवाले बिंदु ( अनुस्वार ) का उच्चार प्रायः लघु होता है। उदा.-अन्नु जु तुच्छउँ तहें धणहें ( १२०)। बलि किजउँ सुअणस्सु (१०७ ) । दइवु घडावइ वणि तरुहुँ (११४)। तरु वि वक्कल (११३) । खग्गविसाहिउँ जहि लहहुँ (१४८)।तणहं तइज्जी भंगि न वि (१०८)।। ६६ ।। हलस्थैङः ॥ ६७ ॥
अपभ्रंशमें व्यंजनोंमें स्थित ( व्यंजनोंसे संयुक्त) ऐसे एन् का यानी ए और ओ इनका उच्चार प्रायः लघु होता है। उदा.-सुधैं चिंतिज्जइ माणु [२] । तसु हउँ कलिजुगि दुल्लहहाँ [ १०५ ] ।। ६७ ॥ लिगमतन्त्रम् ॥ ६८॥
__ अपभ्रंशमें ( शब्दोंका) लिंग अनिश्चित, प्रायः व्यभिचारी (अर्थात् स्त्रीलिंगका पुलिंग होना, पुलिंगका बीलिंग होना, इ.) होता है। उदा.-गयकुम्भ दारन्तु [११६ । यहाँ पुलिंगका नपुंसकलिंग] (हो गया है)।। ६८ ।। ( अधिक उदाहरण )
अब्भा लग्गा डुंगरिहिँ पहिउ रडन्तउ जाइ । - जो एहो गिरिगिलणमणु सो किं धणहें घणाइ ।। १६१॥
( अभ्राणि लनानि पर्वतेषु पथिको रुदन याति । य एष गिरिगिलनमनाः स किं धन्याया घृणायते).
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