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________________ हिन्दी अनुवाद-अ १, पा. १ एडः ॥२१॥ (इस सूत्रमें १.१.२० से) न शब्दकी अनुवत्ति है। एङ् यानी ए (एत्) और ओ (ओत् ) ये स्वर । ए और ओ इनकी संस्कृतमें कही हुई संधि प्राकृतमें नहीं होती। उदा.-देवीए आसणं। पंचालादो आगओ। देवो अहिणदणो। अहो अच्छरिआ, इत्यादि (उदाहरण) संस्कृत जैसे हैं ।। २१ ।। शेषेऽच्यचः ॥ २२ ॥ (स्वरसे) संयुक्त रहनेवाले व्यंजनके लोप होनेपर जो स्वर शेष रहता है, उसको शेष कहा है। यह शेष स्वर आगे रहे तो उससे अन्य (पिछले या अगले) स्वरकी संधि नहीं होती। उदा.-गगन एव गन्धकुटी कुर्वन्ति, गअणे च्चिअगंधउडिं कुणन्ति । फणामणिप्रदीपाः, फणामणिप्पईवा । ज्योत्स्नापूरितकोशः, जोण्हाऊरिअकोसो। बहुलका अधिकार होनेसे, कचित् विकल्पसे संधि होती है। उदा.-कुम्भकारः कुम्भआरो कुम्भारो। सुपुरुषः सुररिसो सूरिसो। कचित् संधिही होती है। उदा.-शातवाहनः सालाहणो। चक्रवाकः चक्काओ। प्रायोग्रहण होनेसे, (इन शब्दोमें) व का लोप न हुआ तो, सालवाहणो और चक्कवाओ, ऐसे रूप होते हैं; किंतु व का लोप होनेपर, संधि होती ही है ॥ २२ ॥ तिङः ॥२३॥ (इस सूत्रमें १.१.२२ से) अचः और अचि इन पदोंकी अनुवृत्ति है। तिङ यानी धातुको लगनेवाले तिप, इत्यादि प्रत्यय । तिड्से संबंध रखनेवाले स्वर की, आगे स्वर रहे तो, संधि नहीं होती। उदा.-भवतीह होइ इह । पिबतूदकं पिबउ उदरं ।। २३ ।। लोपः ॥२४॥ स्वर के आगे स्वर रहे तो बहुलत्वसे लोप होता है। उदा.त्रिदशेशः तिअसीमो । निश्वासोच्छ्वासौ णीसासूसासा ।। २४ ।। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001735
Book TitlePrakritshabdanushasanam
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTrivikram
PublisherJain Sanskruti Samrakshak Sangh Solapur
Publication Year1973
Total Pages360
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari & Grammar
File Size19 MB
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