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________________ हिन्दी अनुवाद-अ. ३, पा. ३ २२९ हे श्रीआनंद, (सुंदरीके) बिंबाधरपर छोटासा दंतव्रण कैसा स्थित है ! मानो प्रियकरने उत्कृष्ट रस पीकर अवशिष्टपर मुद्रा दे दी है। केम समप्पउ दुठु दिणु किध रअणी छुडु होइ । णवबहुदंसणलालसउ वहइ मणोरह सो इ॥ १०॥ (=हे. ४० १.१) (कथं समाप्यतां दुष्टं दिनं कथं रजनी क्षिप्रं भवति । नववधूदर्शनलालसो वहति मनोरथान् सोऽपि ॥) दुष्ट दिवस कैसे समाप्त हो ! रात कैसे शीघ्र आए ! (अपनी) नव वधूको देखनकी इच्छा रखनेवाला वह भी ऐसे मनोरथ करता है। ओ गोरीमुहणिज्जिअउ वद्दलि लुक्कु मिअंकु। अन्नु वि जो परिहविअतणु सो किम भमइ निसंकु ॥११॥ (=हे.४० १.२) (अहो गौरीमुखनिर्जितो मेघेषु निलीनो मृगाङ्कः। अन्योऽपि यः परिभूततनुः स कथं भ्रमति निःशंकम् ।।) अहो, सुंदरीके मुखसे पराजित हुआ चंद्र बादोंमें छिप गया है। जिसका शरीर पराभूत हुआ है ऐसा दूसरा कोईभी निःशंकभावसे कैसे घूम सकता है ? भण सहि निहुअउँ तेम मइँ जइ पिउ दिठ्ठ सदोसु । जेम ण जाणइ मज्झु मणु पक्खावडिअ तासु ॥ १२ ॥ (-हे. ४०१,४) (भण सखि निभृतं तथा मां यदि प्रियो दृष्टः सदोषः। यथा न जानाति मम मनः पक्षपाति तस्य ।) हे सखी, मेरा प्रियकर यदि (मुझसे) सदोष होगा तो तू वह बात छिपकर (चुराकर) इस प्रकार मुझे बता कि जिससे, उसमें पक्षपाती रहनेवाला मेरा मन न जाने। जिम जिम बंकिम लोअणहं णिरु सावलि सिक्खेइ। तिम तिम वम्महु णिअअ सर खरपत्थरि तिक्खेइ ॥१३॥ (=हे. ३४४.१) (यथा यथा वक्रिमाणं लोचनयोनितरां श्यामला शिक्षते । तथा तथा मन्मथो निजान शरान् खरप्रस्तरे तीक्ष्णयति॥) जैसे जैसे साँवरी नयनोंके बाँकापन सीखती है, तैसे तैसे मदन कठिन पत्थरपर अपने बाणोंको तीक्ष्ण करता है। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001735
Book TitlePrakritshabdanushasanam
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTrivikram
PublisherJain Sanskruti Samrakshak Sangh Solapur
Publication Year1973
Total Pages360
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari & Grammar
File Size19 MB
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