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________________ ૨૮ त्रिविक्रम-प्राकृत-व्याकरण हे सखी, यदि शत्रुओंका पराभव हुआ होगा तो मेरे प्रियसे; यदि हमारे पक्षवालोंका पराभव हुआ होगा, तो उसके (मेरे प्रिय करके) मारे जानेपर ॥ कचिदभूतोऽपि ॥ ६॥ अपशमें क्वचित् (जहाँ मूल शब्दमें) रेफ नहीं है (वहाँभी) रेफ आता है। उदा.-वासु व्यासः ॥ ६ ॥ वासु महारिसि एउँ भणइ जइ सुइसत्थु पमाणु । मायहँ चलण नवंताहं दिवे दिवें गंगाण्हाणु ॥ ८ ॥ (=हे, ६९९.१) (व्यासो महर्षिरेतद् भणति यदि श्रुतिशास्त्रं प्रमाणम् । मातृणां चरणौ नमतां दिवा दिवा गंगास्नानम् ॥) व्यास महर्षि ऐसा कहते हैं- यदि वेद और शास्त्र प्रमाण हो, तो माताओंके चरणोंको नमन करनेवालोंको प्रतिदिन गंगास्नान होता है। ___ (सूत्रमें) काचित् , ऐसा क्यों कहा है ? (कारण कभी ऐसा रेफ नहीं आता)। उदा.-वासेण वि भारहरदभि बद्भु, व्यासेनापि भारतस्तम्भे बद्धम् (-हे. ३९९)। ____ व्यासनेभी भारतस्तंभमें कहा है । विपदापत्संपदि द इ॥ ७ ॥ अपभ्रंशमें विपद्, आपद् और संपद् शब्दोंमें दकारका इकार होता है। उदा.-विवइ । आवइ । संपइ । प्रायःका अधिकार होनेसे, (कभी ऐसा वर्णान्तर नहीं होता)। उदा.-गुणहिँ न संपय कित्ति पर [४५] ॥ ७ ॥ कथं यथा तथा डिहडिधडिमडेमास्थादेः ॥ ८ ।।। ... अपभ्रंशमें कथं, यथा, तथा इन शब्दों में थादि-अवयवको इह, इध,इम, एम ऐसे ये चार डित् आदेश होते हैं। उदा.-किह किध किम केम, कथम् । जिह जिध जिम जेम, यथा । तिह तिघ तिम तेम, तथा ॥ ८॥ बिबाहरि तणु रअणवणु किह ठिउ सिरिआणंद । निरुवमरसु पिएं पिअवि जणु सेसहा दिण्णी मुद्द ।।९॥ (=हे. ४०१.३) (बिम्बाधरे तनू रदनवणः कथं स्थितः श्रियानन्द । निरुपमरसं प्रियेण पीत्वेव शेषस्य दत्ता मुद्रा ॥) Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001735
Book TitlePrakritshabdanushasanam
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTrivikram
PublisherJain Sanskruti Samrakshak Sangh Solapur
Publication Year1973
Total Pages360
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari & Grammar
File Size19 MB
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