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टिप्पणियाँ
१.४.३१ संदष्टोष्ट्रे तु ठत्वापवादः-टः (१.४.१४ ) सूत्रानुसार संदष्ट और उष्ट्र शब्दोंमे ष्ट का ठ हो जाता, किंतु उस नियमका अपवाद प्रस्तुत (१.४.३१ ) 'नियम है।
१.४.४९ मकाराक्रान्तो बकार:-मकारसे आक्रान्त बकार यानी म्ब ।
१.४..७ ( सूत्रमेंसे ) डेर्-डित् एर । जिसमें ड् इत् होता है वह डित् । .'डित् प्रत्यय आगे होनेपर भके टिका लोप हो जाता है (डिति परे भस्य टेर्लोपः । पा. २.४.८५ ऊपर सि. को. ) । भ यानी प्रत्ययोंके पूर्व होनेवाला शब्दका अंग। टि यानी शब्दमें अन्त्य स्वरके साथ अगले सर्व वर्ण । शब्दोंके अंगको डित् प्रत्यय लगते समय अंगमेंसे अन्त्य स्वरके साथ अगले सर्व वर्गों का लोप हो जाता है। डिवात् टिलोपःडित् ( प्रत्यय ) होनेसे ( भके ) टिका लोप होता है।
१.४.६६ लकाराकान्तो हकारः-लकारसे आक्रान्त हकार यानी ल्ह ।
१.१.७७ जिह्वामूलीयोपध्मानीययोः - ४ क और ४ ख इनमें क और ख के पहले जो अर्ध विसर्गके समान उच्चारित किया जाता है वह जिह्वामूलीय भौर ४ प तथा फ इनमें और फ के पहले जो अर्ध विसर्गके समान उच्चारित किया माता है वह उपध्मानीय । ये दोनों - चिन्हसे सूचित होते हैं।
१.४.७९ सर्वत्र लवरामचन्द्रे (हेम. ८.२.७९)-सूत्रका अर्थ इसप्रकारचंद्र शब्द छोडकर इतरत्र संयोग, प्रथम अथवा अनंतर रहनेवाले ल, व्, र वर्णोंका सर्वत्र लोप होता है। ( डॉ. वैद्य संपादित हेमचंद्रप्राकृतव्याकरणमें ' . वन्द्रे' पाठभेद स्वीकृत किया गया है, और • बन्द्रे तथा • चन्द्रे पाठभेद फूटनोट्समें दिये गए हैं )।
१.४.८५ रेफानुबंधस्य-जिसमें रेफ यानी र अनुबंध ( इत् ) होता है उसका।
१.४.८७ अलाक्षणिक-लाक्षणिक न होनेवाला। लाक्षणिकके लिए १.४.२० ऊपरकी टिप्पणी देखिए ।
१.४.९१ आकृतिगणत्वात्-आकृतिगणमें होनेसे । गणपाठमें एकाध गणमें आनेवाले सर्व शब्द कहे जाते हैं । आकृतिमणमें कुछ शब्द दिये जाते हैं, और वैसीही प्रक्रिया होनेवाले शब्द उसमें अंतर्भूत करनेके लिए अवकाश रखा जाता है (प्रयोगदर्शनेन आकृतिग्राह्यो गणः आकृतिगणः)।
१.४.१२१ निर्वचनगोचर-स्पष्टीकरणकी कक्षामें आनेवाला ।
२.१.१ मतुष्प्रत्यय-मतुप् (मतु) एक तद्धित प्रत्यय है। स्वामित्व दिखानेके लिए वह शब्दोंको लगाया जाता है ( तदस्यास्त्यस्मिान्निति मतुप् । पा. ५.२. ९४)। उदा. - गो गोमत् ।
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