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हिन्दी अनुवाद-अ. ३, पा. ४
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इं नपि ।। २४ ॥
(इस सूत्रमें ३.४.२३ से) जश्शसः पद (अध्याहृत) है। अपभ्रंशमें नपि यानी नपुंसकलिंगमें रहनेवाली संज्ञाके आगे आनेवाले जस् और शस् इनको इं ऐसा आदेश होता है ॥ २४ ॥
कमलई मेल्लवि अलिउलई करिगंडाइँ महन्ति । असुलहमेच्छण जाहँ भलि ते णवि दूर गणन्ति ॥ १२३॥ =हे.३५३.१) (कमलानि मुक्त्वा अलिकुलानि करिगण्डानि कांक्षन्ति । असुलभं वाञ्छितुं येषां अभ्यासः ते नापि दूरं गणयन्ति ।)
कमलोंको छोडकर भ्रमरसमूह हाथियोंके गंडस्थलकी इच्छा करते हैं। दुर्लभ (वस्तु) प्राप्त करनेका जिसका निबंध-अभ्यास है, वे दूरीका विचार नहीं करते।
कान्तस्यात उं स्वमोः ॥ २५ ॥
(इस सूत्रमें ३.४.२४ से) नपि पद (अध्याहृत) है । अपर्मशमें नपुंस. कलिंगमें रहनेवाली संज्ञाके आगे जो ककार, उसके अन्त्य अकारके आगे सु
और जस् होनेपर, उसको उं ऐसा आदेश होता है। उदा. अन्नु जु तुच्छउँ तहें [१२०] || २५ ।।
भग्गउं देविखवि निअय बलु बलु पसरिअउँ परस्सु। उम्मिलइ ससिरेह जिम करि करवालु पिअस्सु ॥ १२४ ।।
(=हे. ३५४.१) (भग्नं दृष्ट्वा निजं बलं बलं प्रसृतं परस्य । उन्मीलति शशिरेखा यथा करे करवाल: प्रियस्य ।।)
अपनी सेनाको पराभूत हुई और शत्रुकी सेनाको फैलती हुई देखकर प्रियकरके हाथमें तरवार चंद्ररेखा की तरह चमचमाने लगती है ।
त्रि.वि....१८
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