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________________ २४० २४० त्रिविक्रम प्राकृत व्याकरण (स्मयते तद्वल्लभं यद्विस्मरति मनाक् । यस्य पुनः स्मरणं जातं गतं तस्य स्नेहस्य किं नाम ॥) जो थोडा भूलनेपरही स्मरण किया जाता है वह प्रिय है । पर जिसका स्मरण होता है और नाश होता है, उस प्रेमका नाम क्या। चंचलु जीविउँ धवु मरणु पिअ रूसिज्जइ काई। होसहि दिअहा रूसणा दिवइँ वरिससमाई ॥४३॥ (=हे. ४१८.३) (चञ्चलं जीवितं ध्रुवं मरणं प्रिय रुष्यते कथम् । भविष्यन्ति दिवसा रूषणा दिव्यानि वर्षशतानि ॥) जीवित चंचल है, मरण निश्चित है। हे प्रियकर, क्यों रूठा जाय। जिन दिन रूटना है वे दिन सौ दिव्य वर्षोंके समान होंगे। डेंडाववश्यमः ।। २७ ॥ (इस सूत्रमें २.३.२६ से) स्वार्थे पदकी अनुवृत्ति है। अपभ्रंशमें अवश्यम् (शब्द)के आगे एं और अ ऐसे ये डित् प्रत्यय आते हैं। उदा.-अवमें अवस, अवश्यम् ॥ २७ ॥ जिभिदिउ नायउँ वसि करहुँ जसु अधिन्नइँ अन्न. । मूलि विणहइ तुंबिणिह भवसे सुक्क हँ ?ण्णइं ॥४४॥ (=हे. ४२७.१) (जिह्वन्द्रियं नायकं वशे कुरुत यस्य अधीनान्यन्यानि । मूले विनष्टे तुम्बिन्या अवश्यं शुष्यन्ति पर्णानि ।) जिसके अधीनमें अन्य इंद्रिय हैं उस प्रधान जिव्हेंद्रियको वशमें करो। मूलके नष्ट होनेपर तुंबिनीके पत्ते अवश्य सूख जाते हैं। अवस न सु सुहच्छिअइ [१४०] । परमेकशसोर्डडि ॥ २८ ॥ अपशमें परम् और एकशस् इनके आगे स्वार्थे अ और इ ऐसे ये डित (प्रत्यय) यथाक्रम आते हैं। उदा.-पर परम् । एक्कसि एकशः ॥ २८॥ गुणाह न संपइ कित्ति पर फल लिहिआ भुंजंति । केसरि लहइ न बोड्डिअ वि गय लक्खहि घेप्पन्ति ॥४५॥ (=हे.३३५.१) (गुणैन उम्पत् कीर्तिः परं फलानि लिखितानि भुञ्जन्ति । केसरी न लभते कपर्दिकामपि गजा लगृह्यन्ते ।।) Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001735
Book TitlePrakritshabdanushasanam
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTrivikram
PublisherJain Sanskruti Samrakshak Sangh Solapur
Publication Year1973
Total Pages360
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari & Grammar
File Size19 MB
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