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________________ हिन्दी अनुवाद - अ. ३, पा. ४ २६५ लोग वृक्षसे फल लेते हैं और कटु पल्लवोंको छोडते हैं तथापि सुजनके समान महान् वृक्ष उन्हें अपने उत्संगपर (धारण ) करता है । वच्छ गेण्es, वृक्षाद् गृह्णाति ॥ यसो हुं ॥ ८ ॥ अपभ्रंशमें (शब्दों के अन्त्य) अकार के आगे आनेवाले भ्यस् को यानी पंचमी बहुवचन - प्रत्ययको हुं ऐसा आदेश होता है ॥ ८ ॥ रुड्डाणें पडिउ खलु अप्पणु जणु मारेइ । जिह गिरिसिंगहुँ पडिअ सिल अन्नु वि चूरुकरेइ ।। १०६ ।। (हे. १३७.१ ) (दूरोड्डाणेन पतितः खलः आत्मानं जनं (च) मारयति । यथा गिरिशृङ्गभ्यः पतिता शिला अन्यदपि चूर्णं करोति ।। ) ऊँचा उड्डाण करके (बाद में नीचे) गिरा हुआ खल मनुष्य अपनेको (और) औरों को भी मारता है । जैसे, गिरिशिखरोंसे गिरी हुई शिला (अपने साथसाथ) अन्यकोभी चूर चूर कर देती है । सुस्सुहो ङसः ।। ९ ।। अपभ्रंशमें (शब्दों के अन्त्य) अ के आगे आनेवाले ङस् को सु, रसु और हो ऐसे तीन आदेश होते हैं | उदा. -रामसु । रामरसु | रामहो || ९ || जो गुणु गोवइ अध्पणा पअडा करइ परस्सु । तसु हउँ कलिजुग दुल्लहहों बलि किज्जउ सुअणस्सु ॥ १०७॥ (= हे. ३३८.१) ( यो गुणानू गोपायत्यात्मनः प्रकटान् करोति परस्य । तस्याहं कलियुगे दुर्लभस्य बलिं करोमि सुजनस्य || ) जो अपने गुणोंको छिपाता है और दूसरोंके गुणोंको प्रकट करता है, ऐसे कलियुग में दुर्लभ सज्जनोंकी मैं पूजा करता हूँ । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001735
Book TitlePrakritshabdanushasanam
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTrivikram
PublisherJain Sanskruti Samrakshak Sangh Solapur
Publication Year1973
Total Pages360
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari & Grammar
File Size19 MB
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