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हिन्दी अनुवाद - अ. ३, पा. ४
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लोग वृक्षसे फल लेते हैं और कटु पल्लवोंको छोडते हैं तथापि सुजनके समान महान् वृक्ष उन्हें अपने उत्संगपर (धारण ) करता है । वच्छ गेण्es, वृक्षाद् गृह्णाति ॥
यसो हुं ॥ ८ ॥
अपभ्रंशमें (शब्दों के अन्त्य) अकार के आगे आनेवाले भ्यस् को यानी पंचमी बहुवचन - प्रत्ययको हुं ऐसा आदेश होता है ॥ ८ ॥
रुड्डाणें पडिउ खलु अप्पणु जणु मारेइ ।
जिह गिरिसिंगहुँ पडिअ सिल अन्नु वि चूरुकरेइ ।। १०६ ।। (हे. १३७.१ ) (दूरोड्डाणेन पतितः खलः आत्मानं जनं (च) मारयति ।
यथा गिरिशृङ्गभ्यः पतिता शिला अन्यदपि चूर्णं करोति ।। )
ऊँचा उड्डाण करके (बाद में नीचे) गिरा हुआ खल मनुष्य अपनेको (और) औरों को भी मारता है । जैसे, गिरिशिखरोंसे गिरी हुई शिला (अपने साथसाथ) अन्यकोभी चूर चूर कर देती है ।
सुस्सुहो ङसः ।। ९ ।।
अपभ्रंशमें (शब्दों के अन्त्य) अ के आगे आनेवाले ङस् को सु, रसु और हो ऐसे तीन आदेश होते हैं | उदा. -रामसु । रामरसु | रामहो || ९ || जो गुणु गोवइ अध्पणा पअडा करइ परस्सु ।
तसु
हउँ कलिजुग दुल्लहहों बलि किज्जउ सुअणस्सु ॥ १०७॥ (= हे. ३३८.१)
( यो गुणानू गोपायत्यात्मनः प्रकटान् करोति परस्य । तस्याहं कलियुगे दुर्लभस्य बलिं करोमि सुजनस्य || )
जो अपने गुणोंको छिपाता है और दूसरोंके गुणोंको प्रकट करता है, ऐसे कलियुग में दुर्लभ सज्जनोंकी मैं पूजा करता हूँ ।
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