________________
त्रिविक्रम प्राकृत व्याकरण
(ये मम दत्ता दिवसा दयितेन प्रवसता। तान् गणयन्त्या अगुल्यो जर्जरिता नखेन ॥)
प्रवासपर निकलते समय प्रियकरने जो दिन (मुझे अवधिरूपमें) दिए (=कहे) थे, उन्हें गिनते हुए मेरी अंगुलियाँ नखोंसे जर्जरित हो
हिनेच्च ॥६॥
अपभ्रंशमें (शब्दोंके अन्त्य) अकारके डि (प्रत्यय)के साथ इकार और एकार होते हैं। उदा.-रामि रामे। घडि घडे ।। ६ ।। साअरु उप्परि तणु धरइ तलि घल्लइ रयणाई। सामि सुभिच्चु वि परिहरइ संमाणेइ खलाई ।।१०४॥ (=हे.३३४.१)
(सागर उपरि तृणं धरति तले क्षिपति रत्नानि । स्वामी सुभृत्यमपि परिहरति संमानयति खलान् ।।)
सागर तृणको ऊपर धारण करता है और रत्नोंको तलमें ढकेलता है। (उसीप्रकार) स्वामी अच्छे सेवकको छोड देता है और खलोंका सम्मान करता है।
उसे हु॥७॥
(अब अत् शब्दका) अतः ऐसा पंचम्यन्त परिणाम हो जाता है। अपभ्रंशमें (शब्दोंके अन्त्य) अकारके आगे अ नेवाले ङसिको हे और हु ऐसे आदेश होते हैं ।।७।। बच्छह गिण्हइ फलइँ जणु कडु पल्लव वज्जेइ । नो वि महदुमु सुअणु जिम ते उच्छांग करेइ ।।१०५॥ हे ३३६.१)
(वृक्षाद् गृह्णाति फलानि जनः कटून् पल्लवान् वर्जयति । तथापि महाद्रुमः सुजनो यथा तानुत्सङ्गे करोति ॥)
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org