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त्रिविक्रम-प्राकृत-व्याकरण
( शीर्षे शेखरः क्षणं विनिर्मापितः क्षणं कण्ठे प्रालम्बः कृतो रत्या । विहितं क्षणं मुण्डमालिका यत्प्रणयेन तन्नमत कुसुमदामकोदण्डं कामस्य ।।)
जिसको रतिने क्षणभर शिरपर शेखर बना दिया, क्षणभर कंटमें लटकनेका हार बना दिया, क्षणभर ( अपने ) गले में लगा दिया, उसस कामके पुष्पधनुष्यको प्रणाम करो। तब्यत्ययश्च ।। ७० ।।
[ सूत्रमेंसे ] तद् शब्द प्राकृत ( भाषाओं ) का द्योतक है। और उनका-प्राकृत, इत्यादि भाषाओंके लक्षणोंका--व्यत्यय (उलटापल्टी) प्रायः होता है। (उदा.-) जैसे मागधीमें तिष्ठ को चिष्ठ (आदेश होता है) ऐसा जो कहा है वैसे प्राकृत, पैशाची, शौरसेनी इनमेंभी होता है। उदा. चिष्ठदि । अपभ्रंशमें रेफका जो अधोलोप विकल्पसे कहा है, वह मागधीमेंभी होता है। उदा.-शद माणुशमंशभालके कुंभशहश्रवशाह शंचिदे, शतमानुषमांसभारकं कुंभसहस्रं वसायाः संचितम् । इत्यादि दूसरे ( उदाहरण ) देखे जायँ। केवल भाषालक्षणों काही नहीं अपितु धातुओंको लगनेवाले प्रत्ययोंके आदेशोंकामी व्यत्यय होता है। जो प्रत्यय वर्तमानकालके ( ऐसे ) प्रसिद्ध हैं वे भूतकालमेंभी होते हैं। उदा.-अह पेच्छइ रहुतणओ, अथ प्रेक्षांचके रघुतनयः । ( अनंतर रघुतनयने देखा ) । आभासइ रयणीअरे, आबभाषे रजनीचगन् । (राक्षसोंको बोला)। भूतकालमें प्रसिद्ध ( ऐसे ) प्रत्यय पर्तमानकालमेंभी होते हैं। उदा.-सोहीअ एस चण्डो, शणोत्येष चण्डः ॥ ७० ॥ शेषं संस्कृतवत् ।। ७१ ।।
शेष अर्थात् इन द्वादश पादोंमें जो प्राकृत, इत्यादि भाषाओंका लक्षण निबद्ध है उससे अन्य ( सब कुछ ) संस्कृतके समान होता है। उदा.-रामाअ पोप्फाणि, रामाय पुष्पाणि |
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