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________________ हिन्दी अनुवाद-अ.३, पा.४ ९९६ हेट्ठियसूरनिवारणाय छत्तं अहो इव वहन्ती। जअइ ससेसा वराहसासदूरुक्खया पुहवी ।। (= हे. ४४८.१) ( अधःस्थितसूर्यनिवारणाय छत्रमध इव वहन्ती। जयति सशेषा वराहश्वासदूरोत्क्षिप्ता पृथिवी ।।) नीचे स्थित सूर्य से निवारण करनेके लिए मानो नीचे छत्र धारण करनेवाली और वराहके श्वाससे दूर फेंकी गयी, ऐसी शेषके साथ होनेवाली पृथ्वी विजयी है। यहाँ (इस ग्रंथमें ) चतुर्थी ( विभक्ति) का आदेश नहीं कहा गया है; वह संस्कृत के समानही होता है । उरसि, सरसि, सिरसि, इत्यादि रूप (उन संस्कृत शब्दोंके ) सिद्ध अवस्थासे (प्राप्त) होते हैं ।। ७१ ॥ झाडगास्तु देश्याः सिद्धाः ।। ७२ ॥ ___ झाड, इत्यादि शब्द देश्य अर्थात् देशविशेषके व्यबहारसे उपलब्ध होनेवाले सिद्ध यानी निष्पन्न या प्रसिद्ध हैं, ऐसा जाना जाय । उदा.(१) झाडं लतादिगहनम् । (२) गोप्पी। (३) सप्पत्तिआ (यानी) बाला । (४) गोंडी (५) गांडी (६) गोंजी (यानी) मञ्जरी। (७) एक्कंग (८) ओहंसं (९) भद्दसिरी (यानी) चन्दनम् । (१०) आडोरो (११) मोरत्तओ (१२) मोरो (१३) पाणाअओ (यानी) श्वपचः । (१४) डुल्लर भूषा कपर्दानाम् अर्थात् कपोंसे किया हुआ आभरण ऐसा अर्थ । (१५) सोमालं (१६) सोल्लं (यानी) मांसम् । (१७) छट्टो मर्म । (१८) भोहणो मृतकः। (१९) गोड्डं, स्तनयोः उपरि रचितः वासोग्रन्थिः । (२०) भावई गृहिणी (२१) दुक्खित्तो कम्पः। (२२) परिहालो जलनिर्गमः । (२३) पडं ग्रामसीमास्थानम् । (२४) गोजा कलशी । (२५) पडिल्लिलो विहितपूजः । (२६) गन्धपिसाओ गान्धिकः । (२७) ओहिअं अधोमुखम् । (२८) असारा कदली । (२९) करइल्लो शुष्कमहीजः । (३०) अपमयो भारः । (३१) दुप्परिअल्लं अशक्यम् । (३२) वेडूणी (३३) Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001735
Book TitlePrakritshabdanushasanam
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTrivikram
PublisherJain Sanskruti Samrakshak Sangh Solapur
Publication Year1973
Total Pages360
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari & Grammar
File Size19 MB
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