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त्रिविक्रम- प्राकृत व्याकरण
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मुट्ठी । तीर्थम् तित्थं । हस्ती इत्थी । हस्तः हत्थो । आश्लिष्टः आलिद्धो । गुल्फम् गुप्कं । पुष्पम् पुष्कं । विभ्रमः विभो । पिप्पलः पिष्फलो । प्रमुक्त, इत्यादि शब्दों में (१.४. ९१) द्वित्व होनेपर, मलयसिहरक्खंडो ( इत्यादि रूप होते हैं) । दैव, इत्यादि शब्दों में (१.४.९२) (द्वित्व होनेपर ), णक्खो (इत्यादि रूप हो जाते हैं) । तैल, इत्यादि शब्दों में (१.४.९३ ) ( द्वित्व होनेपर ), ओक्खलं ( इत्यादि रूप होते हैं) । समास में (१.४.९०) (द्वित्व होनेपर ), कइद्धओ कपिध्वजः (इत्यादि रूप होते हैं) । द्वित्व होनेपरही (इस सूत्रका नियम लागू होता है । द्वित्व न होनेपर नहीं) । उदा.- ख्यात: खाओ
॥ ९४ ॥
प्राक् श्लाघाप्लक्षशार्गे इलोत् ॥ ९५ ॥
श्लाघा, इत्यादि शब्दों में डूलः यानी डकार और लकार इनके पूर्व अत् (= अकार) आता है । उदा - श्लाघा सलाहा । लक्षः पलक्खो । शार्ङ्गम् सारंगं ।। ९५ ।। क्ष्मारत्नेऽन्त्यहलः ॥ ९६ ॥
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(इस सूत्र में १.४.९५ से) प्राक् और अत् पर्दोकी अनुवृत्ति है । क्ष्मा शब्द में और रत्न शब्दमें, संयुक्त व्यंजन मेंसे अन्त्य व्यंजनके पूर्व अ आता है | उदा. - क्ष्मा छमा खमा । रत्नम् रअणं ।। ९६ ।।
निर्धन: मिद्धणो निर्भर: णिब्भरो ।
स्नेहाग्न्योर्वा ।। ९७ ॥
(इस सूत्र में १.४.९६ से) अन्त्यहल: पदकी अनुवृत्ति है । स्नेह और अग्नि शब्दों में, संयुक्त व्यंजनमें से अन्त्य व्यंजनके पूर्व अ विकल्पसे आता है | उदा. -सणेहो हो । अगणी अग्गी ॥ ९७ ॥
शेर्षतप्तवजेष्वित् ॥ ९८ ॥
र्श और र्ष इन (संयुक्त व्यंजनों) में, तथा तप्त और वज्र शब्दों में, संयुक्त व्यंजन में से अन्त्य व्यंजनके पूर्व इ विकल्पसे आता है ।
उदा. -र्श. आदर्श:
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