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त्रिविक्रम-प्राकृत व्याकरण
आया है । (१००) उरओ। (१०१) अज्जमो ऋजु पा सरल । यहाँ ज का र, ऋकार और उकार इनका म हुए और स्वार्थ म आपा है। (१०२) साइआ सारिआ शारिका । यहाँ रि का लोप हुआ और अन्त्य आ का इआ हो गया है। (१०३) अरणी सरणि यानी पद्धति । यहाँ स का लोप हुआ है। (१०४) वणेसी तृणराशि । यहाँ पूर्व स्वरके साथ राकारका ए हो गया है। (१०५) दुग्गं दुःख । यहाँ संयुक्त व्यंजनका ग हुआ। (१०६) चउक्कं चतुष्पध । यहाँ पथ का क हो गया । (१०७) कलेरं कराल यानी जटिल। यहाँ र और ल इनका (स्थान-) व्यत्यय हुआ और आ का ए हो गया । और (१०८) कक्कालं कंकाल यानी हड्डियोंका जाल । इत्यादि ॥ १०५॥
- प्रथम अध्याय तृतीय पाद समाप्त -
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