________________
प्रथम आवृत्ति
प्रती १००० मूल्य प्रत्येक प्रति रु.48 (पोस्टेज अलाहिदा )
श्री जीवराज जैन ग्रंथमालाका परिचय सोलापूर निवासी स्व. ब्र, जीवराज गौतमचंद दोशी कई वर्षोंसे संसारसे उदासीन होकर धर्मकार्यमें अपनी वृत्ति लगा रहे थे। सन १९४० में उनकी यह प्रबल इच्छा हो उठी कि अपनी न्यायोपार्जित संपत्तिका उपयोग विशेषरूपसे धर्म और समाजके कार्य में करें। तदनुसार उन्होंने समस्त देशका परिभ्रमण कर जैन विद्वानोंसे साक्षात् और लिखित संमतियां इस बातकी संग्रह की कि कौनसे कार्यम संपत्तिका विनियोग किया जाय । स्फुट मतसंचय कर लेनेके पश्चात् सन १९४१ में ग्रीष्मकालमें ब्रम्हचारीजीने तीर्थक्षेत्र श्रीगजपंथाजी ( नासिक) के शीतल वातावरणमें विद्वानोंकी समाज एकत्र की और ऊहापोहपूर्वक निर्णयके लिये उक्त विषय प्रस्तुत किया गया । __विद्वान् संमेलनके फलस्वरूप ब्रम्हचारीजीने जैन संस्कृति तथा साहित्यके समस्त अंगोंके संरक्षण, उद्धार और प्रचारके हेतुसे 'जैन संस्कृति संरक्षक संघ' की स्थापना की। और उसके लिये रु. ३०००० के दानकी घोषणा कर दी । उनकी परिग्रहनिवृत्ति बढती गई और सन १९४४ में उन्होने लगभग दो लाख की अपनी संपूर्ण संपत्ति संघको टूस्ट रूपसे अर्पण कर दी। इसतरह आपने अपने सर्वस्वका त्याग कर दिनांक १६-१-१९५७ को अत्यन्त सावधानी
और समाधानसे समाधिमरणकी आराधना की। ___इसी संघके अंतर्गत 'जीवराज जैन ग्रंथमाला' का संचालन हो रहा है। प्रस्तुत ग्रंथ इसी ग्रंथमालाका पुष्प है।
/
प्रकाशक: लालचंद हीराचंद
अध्यक्ष जैन संस्कृति संरक्षक संघ,
सोलापूर.
मुद्रक : सौ. शैलजा बर्वे, वेद-विद्या मुद्रणालय, ४१ बुधवार पेठ,
पुणे २.
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org