SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 18
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ हिन्दी अनुवाद - अ. १, पा. १ पाणिनीय इत्यादि व्याकरणों में जैसा ( कार्य ) कहा गया है, उसी प्रकार यहाँभी है, ऐसा समझ लेना है || २ || संज्ञा प्रत्याहारमयी वा ॥ ३ ॥ प्रत्याहार जिसका स्वरूप है वा ' ऐसा कहा जानेसे, । (सूत्र में ) फिर 'प्रत्याहार' लिये है कि सामान्यतः यहाँ अर्थात् इस प्राकृत व्याकरणमें, ऐसी संज्ञा व्यवहृत की गयी है । ( सूत्रमें ) आगे कहे जानेवाले भागों से भी (संज्ञा जाननी है) शब्दका जो ग्रहण (निर्देश ) है वह यह दिखानेके या बहुधा ( भूयः ) प्रयोग ( व्यवहार ) होता है । उदा० - स्वर अच् । ए ओ एड् । ऐ औ ऐच् । व्यञ्जन हल् । स्वादि सुप् | त्यादि ति । इत्यादि ।। ३ ।। सुस्वादिरन्त्यहला ॥ ४ ॥ सुप् में यानी सु, इत्यादि विभक्तियोंमें आदि वर्ण अथवा वचन अन्त्य व्यंजनके साथ इत्-संज्ञक होता है । उदा० - सु औ जस्, सुस् । अम् औट् शस्, अस् । इसी प्रकार :- टास्, डेस्, ङसिस्, ङम्, डिप् । पंचमी ( विभक्ति ) के बारेमें, ङस् ऐसा कहनेके बदले ङसिस ऐसे कहनेका कारण षष्ठी एकवचन इससे उसकी भ्रान्ति न हो ॥ ४ ॥ हो ह्रस्वः ॥ ५ ॥ एक मात्रा होनेवाला जो वर्ण हस्व ऐसा प्रसिद्ध है उसकी ह ऐसी संज्ञा ( इस ग्रंथ में प्रयुक्त की गयी है ) ॥ ५ ॥ दिर्घः ॥ ६ ॥ दो मात्राएँ होनेवाला, दीर्घ ऐसा रूढिमें प्रचलित, जो वर्ण, उसकी दि ऐसी संज्ञा ( इस ग्रंथ में प्रयुक्त की गयी है ) ॥ ६ ॥ शषसाः शुः ॥ ७ ॥ I, I, और सू Jain Education International ये वर्ण शु-संज्ञावाले होते हैं ॥ ७ ॥ For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001735
Book TitlePrakritshabdanushasanam
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTrivikram
PublisherJain Sanskruti Samrakshak Sangh Solapur
Publication Year1973
Total Pages360
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari & Grammar
File Size19 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy