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________________ त्रिविक्रम-प्राकृत व्याकरण प्रकृतिभूत ऐसे साध्यमान और सिद्ध संस्कृतसे जो होगा वह इस प्राकृतका लक्षण, हम लक्ष्यके अनुसार (यहाँ) कहते हैं ॥ ८ ॥ निजी सूत्रोंके मार्गको अनुसरण करनेकी इच्छा रखनेवालोंको प्राकृतशब्दोंकी अर्थसहित प्राप्ति होनेके लिये तथा यथार्थ सिद्धिके लिये, त्रिविक्रमसे (यह) वृत्ति (टीका) आगमक्रमसे की जाती है ।। ९॥ तद्भव, तत्सम और देश्य (एवं त्रिविध) प्राकृतरूप देखनेवाले विद्वानाको जो आयनेके समान है, ऐसी यह त्रिविक्रमरचित वृत्ति भूतलपर विजयी है ।। १०॥ हेमचंद्रार्यतक प्राचीन वैयाकरणोंने प्राकृतरूपोंका जैसा विवरण किया है उन सबका वैसाही प्रतिबिंब यहाँ (इस ग्रंथमें ) पडा है ॥ ११॥ सिद्धिर्लोकाच ॥१॥ यहाँ प्रस्तुत ( की जानेवाली) सिद्धि प्राकृत शब्दोंके संबंध ली गई है । और वह सिद्धि लोगोंसे होती है। क्यों कि ( यस्मात् ) ऋवर्ण, लवर्ण, ऐकार, औकार, असंयुक्त ङकार तथा अकार, श् और , तथा द्विवचन, इत्यादिसे रहित, ऐसा शब्दों का उच्चार लोगोंके व्यवहारसे जाना जाता है; तथा देशी शब्दभी (लोकव्यवहारसे उपलब्ध होते हैं); इसलिये (तस्मात् ) ' लोगोंसे सिद्धि ' ऐसा जाना जाय । और ( सूत्रमेंसे) चकार (और ) के कारण, ( इस ग्रंथमें ) आगे कहे जानेवाले और अनैकान्तिक ( अनिश्चित ) लक्षणोंसे (प्राकृतशब्दविषयक सिद्धि होती है, ऐसा जानें ) ॥ १॥ अनुक्तमन्यशब्दानुशासनवत् ॥ २॥ यहाँ ( इस ग्रन्थमें ) स्वरादि संज्ञा और संधि, इत्यादि कार्यके बारेमें जो नहीं कहा गया है, वह अन्य व्याकरणोंमें बताये गए कार्यके अनुसारही ( होता है, ऐसा) मानना है। (अर्थात् ) कौमार, जैनेन्द्र, Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001735
Book TitlePrakritshabdanushasanam
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTrivikram
PublisherJain Sanskruti Samrakshak Sangh Solapur
Publication Year1973
Total Pages360
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari & Grammar
File Size19 MB
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