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________________ २३२ -प्राकृत-व्याकरण डेतहे त्रलः॥ १३ ॥ अपभ्रंशमें सर्वादि (शब्दों)के आगे सप्तमीके अर्थमें (कहे हुए) त्रिल् प्रत्ययको डित् एत्तहे ऐसा आदेश होता है। उदा.-जत्तहे । तेत्तहे ॥ १३॥ जेत्तहे तेत्तहे वारि धरि लच्छि विसंठुल धाइ । पिअपब्भट्ट व गोरडी णिच्चल कहिँ वि ण ठाइ ॥१९॥ (-हे. ४३६.१) (पत्र तत्र द्वारे गृहे लक्ष्मीर्विसंष्ठुला धावति ।। प्रियप्रभ्रष्टेव गौरी निश्चला कुत्रापि न तिष्ठति ।) यहाँ, वहाँ, दरवाजेपर, घरमें (इस प्रकार) चंचल लक्ष्मी दौडती है। प्रियकरसे वियुक्त सुंदरीके समान वह निश्चल रूपसे कहीं नहीं ठहरती ॥ यत्वदोत्तु ।। १४ ॥ (इस सूत्रमें ३.३.१३ से) त्रल् पदकी अनुवृत्ति है। यत् और तत् इनके बागे होनेवाले बल् प्रत्ययको हित् एत्तु ऐसा यह आदेश होता है । उदा.-जेत्तु ठिदो, यत्र स्थितः । तेत्तु ठिदो, तत्र स्थितः ॥ १४ ॥ कुत्रात्रे च उत्थु ॥ १५ ॥ अपभ्रंशमें कुत्र और तत्र इनमें रहनेवाला (बल), और (सूत्रमेंसे) चकारके कारण यद् और तद् इनके आगे आनेवाला बल् प्रत्यय, उस बल् प्रत्ययको डित् एत्थु ऐसा आदेश होता है । उदा.-केत्थु । एत्थु । जेत्थु । तेत्थु जइ सो घडिदि प्रयावदी केत्थु वि लेप्पिणु सिक्खु ।। जेत्थु वि तेत्थु वि एत्थु जगि भण तो तहि सरिक्खु ।।२०। (हे.४० ४.१) (यदि स घटयति प्रजापतिः कुत्रापि लात्वा शिक्षाम् । यत्रापि तत्राप्यत्र जगति भण तर्हि तस्याः सदृक्षः ॥) यदि वह प्रजापति कहींसे शिक्षा लेकर (प्रजा) निर्माण करता है, तो इस जगत्में जहाँ-तहाँ उस (सुंदरी)के समान कौन है, बताओ। त्वतलौ प्पणम् ॥ १६ ॥ अपभ्रंशमें भाव अर्थमें जो त्व और तल् प्रत्यय कहे गये हैं,उनको प्पण ऐसा आदेश प्राप्त होता है । उदा.-पडुप्पणं, पटुत्वं पटुता वा। सुक्कप्पणं, अकृत्वं शुक्लता वा ॥ १६ ॥ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001735
Book TitlePrakritshabdanushasanam
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTrivikram
PublisherJain Sanskruti Samrakshak Sangh Solapur
Publication Year1973
Total Pages360
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari & Grammar
File Size19 MB
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