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________________ हिन्दी अनुवाद - अ. ३, पा. ३ साहु विलोउ तडफडइ वड्डप्पणहीँ तणेण । वडप्पणु परि पाविइ हत्थि मोक्कलडेण ॥ २१ ॥ (= हे.३६६.१) ( सर्वोsपि लोकः उत्ताम्यति बृहत्त्वस्यार्थे । बृहत्त्वं परं प्राप्यते हस्तेन मुक्तेन ॥ ) बनके लिए सभी लोग तडफडते हैं । • ( दान देनेपर) मिलता है । पर बडप्पन मुक्त हाथसे (यहाँ) तडफडइ यह देशी धातु औत्सुक्य-बोधक शब्दानुकरणी है । तव्यस्य एव्वइएव्वउएव्वाः ॥ १७ ॥ अपभ्रंशमें तथ्य प्रत्ययको एव्वइ, एव्वर, एव्व तेसे तीन आदेश होते है | उदा. - जेव्बइ जेवर जेव्व, जेतव्यः ॥ १७ ॥ २३३ एवं गृहेष्पिणु ध्रुं मई जई प्रिउ उव्वारि । महु करिएव्वउँ कि पि न वि मरिएव्बउँ पर देज्जइ ॥ २२ ॥ ( = हे. ४३८. १) ( एतद् गृहीत्वा यन्मया यदि प्रिय उद्वार्यते । मम कर्तव्यं किमपि नापि मर्तव्य परं दीयते ॥ ) यह लेकर यदि मैं प्रियकरको छोड देती हूँ तो मुझे मरनाही कर्तव्य रहता है, दूसरा कुछ भी नहीं | देसुच्चाणु सिहिकढणु घणकुट्टणु जं लोइ । मंजिट्ठऍ अइरत्तिए सव्व सहेव्वउँ होइ || २३ || ( हे. ४३८.२) (देशोच्चाटनं शिखिकथनं धनकुट्टने यलोके । मञ्जिष्टयातिरक्त या सर्वे सोढव्यं भवति ॥ ) जगत् में अतिरक्त मंजिष्ठा (वनस्पति) को (अपने) देशसे (जमीनसे) उच्चाटन (उखाडा जाना), अभिमें औंटा जाना, और घनसे कूटा जाना, यह सहन करना पडता है । Jain Education International सोएब्वा पर वारिआ पुप्फवईहिँ समाणु । जग्गेवा पुणु को धरइ जइ सो वेउ पमाणु ॥ २४ ॥ ( हे. ४३८.३) ( स्वपितव्यं परं वारितव्यं पुष्पवतीभिः समम् । जागर्तव्यं पुनः को धरति यदि स वेदः प्रमाणम् ॥) For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001735
Book TitlePrakritshabdanushasanam
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTrivikram
PublisherJain Sanskruti Samrakshak Sangh Solapur
Publication Year1973
Total Pages360
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari & Grammar
File Size19 MB
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