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त्रिविकम-प्राकृत व्याकरण
होनेपर नहीं ।) उदा.-कुलं । गंगा। चरो । जडो। तमो। दआ। परो । वरो । (ये व्यंजन) स्वर के आगे होनेपरही (ऐसा लोप होता है। इन व्यंजनोंके पूर्व स्वर न हो तो ऐसा लोप नहीं होता।) उदा.-संकरो। संगमो। कंचणं । वंचणा । धणंजओ। अंतरं । चंदणं । कंपो। संअवरो। पर समासमें वाक्यविभक्तिकी अपेक्षासे ‘पद भिन्न है', ऐसी विवक्षा होती है। इसलिए वहाँ (वाङमयमें) जैसा दिखाई देगा वैसा दोनोभी (लोप और लोपका अभाव) होते हैं । उदा.सुहकरो सुहअरो सुखकरः । आअमिओ आगमिओ आगमिकः ।जलअरो जलचरो जलचरः । सुअणो सुजणो सुजनः । बहुअरो बहुतरो बहुतरः। सुहओ सुहदो शुभदः या सुखदः । इत्यादि । बहुलका अधिकार होनेसे, कचित् आद्य (व्यंजन) का भी (लोप) होता है। उदा.-चिह्न इण्हं । स पुनः सो उणो। न पुनः ण उणो । स च सो अ। कचित् च का ज होता है। उदा.-पिशाची पिसाजी॥८॥ नात्पः ॥ ९ ॥
आत् यानी अ-वर्णके आगे, अनादि पः यानी पकारका लोप नहीं होता। उदा.-सवहो शपथः । सावो शापः। अ-वर्णके आगे, ऐसा क्यों कहा है ? (कारण अ-वर्णको छोडकर अन्य स्वरोंके आगे प होने पर, उसका लोप होता है।) उदा.-विउलो विपुलः। अनादि (पकारका), ऐसा क्यों कहा है ? (कारण ५ आदि हो तो यह वर्णान्तर नहीं होता।) उदा.-परउट्टो परपुष्टः ॥ ९ ॥ यश्रुतिरः ।। १० ।
(इस सूत्रमें १.३.९ से) आत् शब्दकी अनुवृत्ति है। 'प्रायो लुक्कगचना (१.३.८) इत्यादि सूत्रसे लोप होनेपर, जो अ-वर्ण अवशिष्ट रहता है वह, अ-वर्णके आगे होनेपर, लघु प्रयत्नस उच्चारित यकारके समान सुनाई देता है। उदा.-शकटम् सयडं । आकरः आयरो। प्रकारः पयारो। आकाशः आयासो। नगरम् णयरं । सागरः सायरो। वचनम् वयणं । आचार: आयारो। रजतम् रययं। भाजनम् भायणं । प्रजापतिः पयावई | कृतम् कयं । पातालम् पायालं । “पदम् पयं| गदा गया। नादवती णायवई। नयनम् णयणं । जाया जाया। लावण्यम् लायणं । अ-वर्ण ऐसा क्यों कहा है ? (कारण अ-वर्ण न हो तो यश्रुति नहीं होती।) उदा.-सउणो शकुनः। पउणो प्रगुणः। परं प्रचुरम् । राईव राजीवम् । रई रतिः । ऊ स्वादुः। वाऊ वायुः। कई कपिः या कविः।
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