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हिन्दी अनुवाद- अ. १, पा. ४ ष्टः ॥ १४ ॥
(इस पत्रमें १.४.१३ से) ठः पदकी अनुवृत्ति है । ष्ट का ठ होता है। यह नियम (१.४.१३ से) पृथक् कहा जानेसे, (यह ठ) नित्य होता है। उदा.. दृष्टिः दिट्ठी । मुष्टिः मुट्ठी । षष्टिः लट्ठी । सौराष्ट्रम् सोरटुं ॥ १४ ॥ विसंस्थुलास्थ्यधनार्थे ।। १५ ।।
विसंस्थुल और अस्थि शब्दोंमें, तथा धन अर्थ न होनेवाले अर्थ शब्दमें, संयुक्त व्यंजनका ठ होता है। उदा.-विसंठुलं विसंस्थुलम् । अट्ठी अस्थि । अट्ठो अर्थः (यानी) प्रयोजन | धन अर्थ न होनेवाला अर्थ शब्द, ऐसा क्यों कहा है ? (कारण धनवाचक अर्थ शब्दमें ठ नहीं होता।) उदा.-अत्थो॥ १५॥
चः कृत्तिचत्वरे ॥ १६ ॥
कृत्ति और चत्वर शब्दोंमें संयुक्त व्यंजनका च होता है । उदा.--किच्ची कृत्तिः। चच्चरं चत्वरम् ॥ १६ ॥ त्योऽचैत्ये ॥ १७ ॥
चैत्य शब्दको छोडकर, (अन्य शब्दोंमें) त्य का च होता है। उदा.सत्यम् सच्च । प्रत्ययः पच्चओ। अमात्यः अमच्चो। चैत्य शब्दको छोडकर, ऐसा क्यों कहा है? (कारण चैत्य शब्दमें त्य का च नहीं होता।) उदा.चइत्तं ॥ १७ ॥ श्चश्चिके ञ्चुर्वा ।। १८ ॥
वृश्चिक शब्दमें श्चि को ञ्चु ऐसा आदेश हो जाता है। उदा.-विञ्चुओ विच्छुओ ॥ १८ ॥ उत्सवऋक्षोत्सुकसामर्थ्य छो वा॥ १९ ॥
(उत्सव, ऋक्ष, उत्सुक, सामर्थ्य) इन शब्दोंमें स्तु का यानी संयुक्त व्यंजनका छ विकल्पसे होता है। (इस सूत्रमें) पुनः 'वा' ऐसा कहा जानेसे, अगले सूत्रोंमें विकल्प नहीं होता। उदा.-उच्छओ ऊसओ। रिच्छो रिक्खो । उच्छुओ ऊसुओ । सामच्छं सामत्थं ॥ १९ ॥
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