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४.
त्रिविक्रम-प्राकृत व्याकरण
दैत्यादौ ॥ १०३ ॥
दैत्य, इत्यादि शब्दोंमें ऐच को अइ ऐसा आदेश होता है । यह नियम (१.२.१०२ से) पृथक् कहा जानेसे, यहाँ विकल्प नहीं होता। उदा.-दइच्चो दैत्यः । दहण्णं दैन्यम् । दइवअं दैवतम् । कइअवं कैतवम् । वइअब्भो पैदर्भः । वइसाहो वैशाखः। अइसरिअं ऐश्वर्यम् । वइअणणो वैजननः। भइरवो भैरवः । वइएसो वैदेशः । वइसाणरो वैश्वानरः। वइदेहो वैदेहः । वइसालो वैशालः । सहरं स्वैरम् । चइत्तं चेत्तं । चैत्य शब्दम विश्लेष होनेपर (ऐ को अइ आदेश नहीं होता ।) उदा.-चेइअं ॥ १०३ ।। नाव्यावः ॥ १०४ ॥
नौ शब्दमें ऐच को आव ऐसा आदेश हो जाता है। उदा.- णावा ॥ १०४ ॥ गौरव आत् ॥ १०५ ॥
गौरव शब्दमें ऐच का आ हो जाता है। उदा.-गारवं ॥ १०५ ॥ पौरगे चाउत् ॥ १०६ ॥
पौर, इत्यादि शब्दोंमें, तथा (सूत्रमेंसे) चकारसे गौरव शब्दमें, ऐच् को अउ ऐसा आदेश होता है। उदा.-पउरो पौरः । सउरो सौरः। मउली मौलिः। कउरवो कौरवः । गउडो गौडः । कउलो कौलः। कउसलं कौशलम् । पउरिसं पौरुषम् । कउच्छेअअं कौक्षेयकम् । सउहं सौधम् । मउणं मौनम् । गउरवं गौरवम् ॥ १०६ ॥ उच्चैनीचसोरअः ॥ १०७ ।। ___ उच्चैः और नीचैः शब्दोंमें ऐच को अअ ऐसा आदेश होता है । उदा.उच्चअं। णीचअं। उच्च और नीच शब्दोंको क-प्रत्यय लगनेपरभी (उच्चअं और नीचअं ये रूप) यद्यपि सिद्ध होते है, तथापि उच्चैः और नीचैः शब्दोंके अन्य रूपोंकी निवृत्ति हो, इसलिए उनके बारेमें यहाँ विधान किया गया है ॥ १.७ ॥ ई धैर्ये ॥ १०८ ॥
धैर्य शब्दमें ऐच का ई होता है । उदा.-धीरं । धीरं हरइ विसाओ, धैर्य हरति विषादः ॥ १०८ ॥
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