________________
त्रिविक्रम-प्राकृत-व्याकरण
हे दूती, यदि वह (प्रियकर) घर नहीं आता तो तुम्हारा मुख क्यों नीचे झुका है ! हे सखी, जो तुम्हारा वचन तोडता है वह मुझे प्रिय नहीं है।
कॉइँ न दूरे पेक्खइ। (-हे. ३४९.१) (किं न दूरे पश्यति ।) क्यों न दूरतक देखती?
ताह पराई कवण घिण [४८] ।। उन्नविच्चवुत्ता विषण्णवोक्ताः ।। ५३ ।।
विषण्ण, वर्त्म (और) उक्त ये (शब्द) यथाक्रम, उन्न, विच्च तथा वुत्त ऐसे हो जाते हैं ।। ५३ ।। मई वुत्तउँ तुहुँ धुरु धरहि कसुरेसि विमुक्कइ । पइँ विणु धवल न चडइ भरु एमइ उन्नउ काई ॥७२।। (=हे.४२१.१)
(मया उक्तं त्वं धुरंधर कस्य कृते विमुच्यते। त्वया विना धवल न आरोहति भरः एवमेव विषण्णः किम् ।।)
मैंने कहा-हे धबल (बैल), तू धुराको धारण कर । (वह) किसलिए (तुमसे) छोडी जाती है ? तेरे बिना बोझ नही चलेगा, (पर) अभी तू विषण्ण क्यों है ?
जं मणु विच्चि न माइ [११८] ॥ अत्खुः परस्परस्य ।। ५४ ।।
अपभ्रंशमें परस्पर शब्दको खु यानी आदि अ हो जाता है (अर्थात् परस्पर शब्दके पूर्व अ आता है)॥ ५४॥ ते मुग्गडा हराविआ जे परिविट्ठा ताहं । अवरोप्परु जोताह सामि गंजिउ जाहं ।।७३।। (हे. ४०९.१)
(ते मुद्दा हारिता ये परिविष्टास्तेषाम् | परस्परं पश्यतां स्वामी परिभूतो येषाम् ।।)
परस्परको देखनेवाले जिन (सेवकों का स्वामी परिभूत हो गया उनके बारे में जों मैंग (अन्न) परोसे गए थे वे नष्ट हो गए।
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org