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त्रिविक्रम-प्राकृत-च्याकरण वैभवमें स्थिरता किसकी? यौवनमें गर्व किसका ? (तो) वह लेख भेजा जा रहा है जो गाढरूपसे लगे। क्रीडाको खेड्ड (आदेश)
खेड्डयं कयमम्हेहिं निच्छयं किं पयंपह । अणुरत्ताउ भत्ताउ अम्हे मा चय सामिअ ।। ८३ ॥ (=हे. ४२२.९) (क्रीडा कृतास्माभिर्निश्चयं किं प्रजल्पत । अनुरक्तान् भक्तानस्मान् मा त्यज स्वामिन् ।)
हे स्वामिन् , हमने क्रीडा की। आप ऐसा क्यों बोलते हैं ? अनुरक्त ऐसे हम भक्तोंको मत छोडिए । असाधारणको असड्ढल (आदेश)कहिँ ससहरु कहिँ मअरहरु कहिँ बरिहिणु कहिँ मेहु । दूरठिआहँ वि सज्जणहं होइ असड्ढल नेहु ।। ८४ ।। (=हे. ४२२.७)
(कुत्र शशधरः कुत्र मकरगृहं कुत्र बर्हिणः कुत्र मेघः । दूर स्थितानामपि सज्जनानां भवत्यसाधारणः स्नेहः ।।)।
कहाँ चंद्र कहाँ सागर। कहाँ मयूर कहाँ मेह। यद्यपि सज्जन दूर रहनेवाले हों तोभी उनका स्नेह असाधारण होता है।
नवको नवख (आदेश)___ नवखी क वि विसगंठि ५७] ।
मढको नालिअ और वढ (आदेश)जो पुणु मणि जि खसिफसिहूअउ चिंतइ देइ न द्रम्मु न रूअउ । रइवसभमिरु करग्गुल्ला लिउ घरहि जि कोंतु गुणइ सो नालिउ ॥ ८५ ।।
(=हे. ४२२.१३) (यः पुनर्मनस्येव व्याकलीभूतश्चिन्तयति ददाति न द्रम्मं न रूपकम् । रतिवशभ्रमणशीलः कराम्रोल्लालितं गृहेष्वेव कुन्तं गुणयति स मूढः ।।)
. जो मनमेंही व्याकुल होकर चिंता करता है पर एकभी दाम या रुपया नहीं देता (वह एक मूर्ख)। रतिवश होकर घूमनेवाला और घरमेंही अंगुलियोंसे भालेको नचानेवाला वह (एक) मूर्ख |
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