________________
त्रिविक्रम-प्राकृत-व्याकरण
आअहाँ दड्ढकलेवरहाँ जं वाहिउ त सारु । जइ उट्ठभइ तो कुहइ अह डज्झइ तो छारु ॥१३४॥(=हे. ३६५.३) (अस्य दग्धकलेवरस्य यद् वाहितं तत् सारम् । यद्युत्तभ्यते तत्कुथति अथ दह्यते तत्क्षारः॥)
इस तुच्छ (दग्ध) शरीरसे जो मिल जाय ही अच्छा है। यदि इसे ढका जाय तो दुर्गंध आने लगे। यदि जटाय जाय तो राख हो जाय।
सौ युष्मदस्तुहुं ॥ ३७॥ . अपभ्रंशमें युष्मद् को तु (प्रत्यय) आगे होनेपर तुहु ऐ आदेश होता है। उदा.-तुटुं त्वम् ॥ ३७ ॥
भमर म रुणझुणि रडइ सा दिसि जोइ म रोइ । सा मालइ देसंतरिअ जसु तुहुँ मरहि विओइ ॥१३५॥(=हे. ३६८.१) (भ्रमर मा रुवीहि अरण्ये तां दिशं पश्य मा संदीः । सा मालती देशान्तरिता यस्यास्त्वं नियसे वियोगे ॥)
हे भ्रर, अरण्यमें रुनझन वन मत कर । रस दिशाको देख, मत रो। वह मालती दूसरे देशमें है जिसके वियोगसे तू मर रहा है। तुम्हे तुम्हइं जशसोः ॥३८॥
अपभ्रंशमें युष्मद्को , जस और शस् आगे रहनेपर, तुम्हे, तुम्हइं ऐसे आदेश होते हैं । वचन की भिन्नता होनेसे, (ये आदेश) यथाक्रम नहीं होते । उदा. तुम्हे तुम्हई जाणह, यूयं युष्मान् ज नीथ। तुहि तुम्हई पेच्छह, यूर्य युष्मान् पश्यत ॥ ३८ ॥ भिसा तुम्हेहिं ।। ३९ ॥
अपभ्रंशमें युष्मद्को भिस् के साथ तुम्हेहिं ऐसा आदेश हो जाता है ॥ ३९ ॥ उदा.
तुम्हेहिँ अम्हीह जं किउँ दिट्ठउँ बहुअजणेण । तं तेवड्ढ उ समरभरु णिज्जिउ एकखणेण । १३६॥ (=हे. ३७१.१)
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org