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त्रिविक्रम-प्राकृत व्याकरण पिएण [७]। महु होतउ आगदो, मत् भवन्नागतः । मज होतओ आगदो, मद् भवनागतः ।। ४७ ॥ अम्हई अम्हे जश्शसोः ।। ४८ ॥
अपभ्रंशमें अस्मद्को, जम् और शस् आगे होनेपर, प्रत्येकको अम्हई, अम्हे ऐसे आदेश होते हैं ॥४८॥ अंबणु लाइवि जे गया पहिअ पराआ के वि।। भवस न सुअहिँ सुहच्छिअइ जिम अम्हई तिम ते वि ।।१४२॥ हे. ३७६.२)
(अम्लत्वं लगयित्वा ये गताः पथिकाः परकीयाः केऽपि । अवश्यं न स्वपन्ति सुखासिकायां यथा वयं तथा तेऽपि ॥)
स्नेह (अम्लत्व) लगाकर जो कोई परकीय पथिक (प्रवासपर) चले गए हैं वे अवश्यही हमारे समान सुखसे नहीं सोते हैं। अम्हे थोवा रिउ बहुअ कायर एम भणन्ति । मुद्धि निहालहि गअणअलु कइ जण जोण्ह करन्ति ॥१४३॥(=हे. ३७६.१)
(वयं स्तोका रिपवो बहवः कातरा एवं भणन्ति । मुग्धे निभालय गगनतलं कति जना ज्योत्स्ना कुर्वन्ति ।)
हम थोडे हैं, शत्रु बहुत हैं, ऐसा कायर (लोग) कहते हैं । हे सुंदर, गगनतलको देख । (वहाँ) कितने लोग ज्योत्स्ना देते हैं ?
अम्हे देक्खहुं, अम्हइं देवखहुँ, वयं पश्यामः । भिसाम्हेहिं ।। ४९॥
अस्मद्को भिस् के साथ अम्हेहिं ऐसा आदेश होता है। उदा.-तुम्हेंहिँ. अम्हेंहिँ जं किअउँ [१३६] ॥ ४९ ॥ सुपाम्हासु ॥५०॥
अपभ्रंशमें अस्मद्को सुप के साथ अम्हासु ऐसा आदेश होता है। अम्हासु ठिअं, अस्मासु स्थितम् ॥१०॥
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