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________________ हिन्दी अनुवाद-अ. ३, पा. ४ २६० ण और अनुस्वार (के उदाहरण)विपिअआरउ जइ वि पिउ तों वि तं आणहि अज्जु । अग्गिण दड्ढा जइ वि घरु तो तें अग्गि कज्जु ।। ११०।। (=हे.३४३.२.) (विप्रियकारको यद्यपि प्रियः तथापि तं आनयाद्य । अग्निना दग्धं यद्यपि गृहं तथापि तेनाग्निना कार्यम् ।।) यद्यपि प्रियकर अप्रिय करनेवाला है तथापि उसे आज ले आ। अग्निसे यद्यपि गृह जल जाता है तथापि इससे (अपना) काम पता ही है। इसीप्रकार उकार के आगे 01 और नुवार ६६वे उदाहरण हैं। हि हे ङिङस्योः ॥ १३ ॥ ___ अपभ्रंशमें (शब्दोंके अन्य) इ और उ के आगे (आनेवाले) डि. और ङसि इनको हि और हे ऐसे आदेश क्रम से होते हैं ॥ १३ ।। डिको हि (आदेश)अह विरलपहाउ जि कलिहि धम्मु ॥१११॥ (=हे.३४१.३) (अय विरलप्रभाव एवं कलौ धर्मः।) अब कलियुगमें धर्म कप प्रभावी है। ङसिको हे (आदेश)गिरिह सिलायलु तरुहें फल धेप्पइ नीसावन्नु । घरु मेल्लेषिणु माणुसहं तो वि न रुच्चइ रन्नु ॥११२॥ (-हे.३४१.१) (गिरेः शिलातलं तरोः फलं गृह्यते निःसामान्यम् । गृहं मुक्त्वा मनुष्याणां तथापि न रोचतेऽरण्यम् ।।) किसी भेदभावके बिना (अरण्यमें) पर्वतसे शिला और वृक्षसे फल ग्रहण किए जाते हैं। तथापि घरको छोडकर अरण्य(-वास) मनुष्योंको अछा नहीं लगता। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001735
Book TitlePrakritshabdanushasanam
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTrivikram
PublisherJain Sanskruti Samrakshak Sangh Solapur
Publication Year1973
Total Pages360
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari & Grammar
File Size19 MB
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