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त्रिविक्रम-प्राकृत-व्याकरण
हुँ भ्यसः ॥ १४ ॥
(शब्दोंके अन्त्यइ) और उ इनके आगे (आनेवाले) भ्यस् को हुँ ऐसा आदेश हो है॥ १४ ॥ तरुहुँ वि वक्कलु फलु मुगि वि परिहणु असणु लहन्ति । -सामि हुँ एत्तिउँ अग्गलउँ आअरु भिन्च गृहन्ति ॥११३।। =हे.३४१.२)
(तरुभ्योऽपि वल्कलं फलं मुनयोऽपि परिधानमशनं लभन्ते। स्वामिभ्य एतावद धिक आदरं भृत्या गृह्णन्ति ।।)
मुनिभी तरुओंसेभी वल्कल और फल इनको परिधान और भोजन इनके रूपसे प्राप्त कर लेते हैं। (परंतु वस्त्र और भोजनके साथ साथ) आदरको सेवक स्वामियोंसे अधिक (जादा) प्राप्त कर लेते हैं। आमो हं च ।। १५ ।।
अपभ्रंशमें (शब्दोंके अन्त्य) इ और उ इनके आगे (आनेवाले) आम् को हं, और (सूत्रमेंसे) चकारके कारण हुं, ऐसे आदेश हो जाते हैं ॥ १५ ॥ दइवु घडावइ वणि तरुहुँ सउणिहँ पक्कफलाई। सो बरि सुक्खु पइट्ठ णवि कण्णहिँ खलबअणाई ॥१४॥ (=हे.३४०.१)
(दैवं घटयति वने तरूणां शकुनीनां पक्कफलानि । तद्वरं सुखं प्रविष्टानि नापि कर्णयोः खलवचनानि ॥)
पक्षियोंके लिए वनमें वृक्षोंके फलोंको दैव निर्माण करता है। (उनके उपभोगका) वह सुख अच्छा है; पर कानोमें खलोंके वचन प्रविष्टा होना (अच्छा) नहीं।
प्रायोग्रहणसे कचित् सुप को (भी) हुं ऐसा आदेश हो जाता है। उदा.)
धवलु विसूरइ सामिअाँ गरुआ भरु पिक्खेवि । हउँ कि न जुत्तउ दुहुँ दिसिहँ खडइँ दोणि करेवि ॥११५॥
(=हे.३४०.२)
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